Friday, June 29, 2018

सरकारी फाइलों में पेड़ों की खेती के कीर्तिमान


जुलाई 1950 में तत्कालीन केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने देश भर में वन महोत्सव मनाने की शुरुआत की थी. उस समय राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी दिल्ली में पौधे लगाये थे. राज्यों में राज्यपालों तथा मुख्यमंत्रियों ने यह शुभ कार्य करके जनता को पर्यावरण की सुरक्षा करने का संदेश दिया था. तब से पूरे देश में सरकारें जुलाई के पहले सप्ताह में वन-महोत्सव मनाती आयी हैं. इस बार 69वां वन-महोत्सव मनाया जाने वाला है.

मुंशी जी की पहल पर उस बार देश भर में कितने पौधे रोपे गये थे, इसका कोई आंकड़ा हमें नहीं मिला है. शायद वे लोग आंकड़े जुटाने में विश्वास नहीं करते थे. आजकल आंकड़े ही आनक्ड़े जुटाए जाते हैं. उदाहरणार्थ,  सन 2015 में अकेले उत्तर प्रदेश ने एक दिन में दस लाख से ज्यादा वृक्षारोपण का विश्व कीर्तिमान बनाया था. गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकॉर्ड्स के अधिकारियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ऐसा प्रमाण-पत्र सौंपा था. अन्य राज्यों ने भी कुछ न कुछ कीर्तिमान बनाये ही होंगे. आंकड़ों और कीर्तिमानों के हिसाब से पिछले 68 वर्षों में देश में पेड़ ही पेड़ होने चाहिए थे. कौन पूछे कि वे कहां गये?

इस साल की जो तैयारी है, उसे देखिए. अकेले राजधानी लखनऊ में करीब 21 लाख पौधे लगाने का सरकारी लक्ष्य रखा गया है. नौ लाख के आसपास वन विभाग और बाकी अन्य विभाग लगाएंगे. इन पौधों की संख्या तो कागजों में ठीक-ठीक दर्ज है लेकिन इतने पौधे कहां, किस जमीन पर लगेंगे, इसका हिसाब नहीं है. राज्यपाल और मुख्यमंत्री और कुछ अन्य वीवीआईपियों के लिए गड्ढे तय कर दिये होंगे जहां उनको वृक्षारोपण करना है, लेकिन बाकी पौधे लखनऊ में तारकोल की किस सड़क और कंक्रीट के किस जंगल में रोपे जाएंगे? पौधों को जड़ें फैलाने और बढ़ने के लिए जमीन और आसमान चाहिए होते हैं, यह जानकारी सरकारी विभागों को होगी ही.

पता नहीं गिनीज वर्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स वाले पौधारोपण के बाद उनके जीवित बचने और बड़े हो जाने का भी रिकॉर्ड रखते हैं या नहीं लेकिन हम सबके देखे इस देश में जो बेहिसाब बढ़े हैं, वें हैं सड़केंऔर, इमारतें है. जो लगातार कम होते गये, वे हैं मिट्टी, हरियाली, तालाब, नदियां. विकास के नाम पर पेड़ों की लगातार बलि ली जाती रही. अभी ऐन दिल्ली में रिहायसी इमारतें बनाने के लिए 16500 पेड़ काटे जाने वाले हैं. उत्तराखण्ड में प्रधानमंत्री के वादे के मुताबिक बन रही चार धाम ऑल वेदर रोडके लिए 33,000 से ज्यादा पेड़ों की बलि ली जा रही है. पर्यावरण की चिंता करने वाले विरोध कर रहे हैं मगर कौन सुनता है. सरकारें वन-महोत्सव की तैयारी में मगन हैं.

लखनऊ में हरियाली और तालाब लगभग गायब हैं. सड़कों के किनारे नीम, पीपल, इमली, पाकड़, आदि बड़े-बड़े पेड़ पिछले दशक तक भी थे. अब किसी राहगीर को इन तपती दुपहरियों में कुछ पल खड़े होने के लिए छांह नहीं मिलती. सजावटी पौधे छांह नहीं देते. तालाबों की जगह बहुमंजिली इमारतें खड़ी हैं. कुछ जगहों में घनी छाया वाले पेड़ बचे हैं लेकिन वे आम जन की पहुंच से दूर वाले वीआईपी इलाके हैं.

किसी जिज्ञासु, शोध-प्र्वृत्ति वाले पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता को सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मांगनी चाहिए कि पिछले दस वर्षों में वन महोत्सवों के विभिन्न मदों में विभागवार कितना व्यय हुआ, कितने पौधे कब और किस जमीन पर लगाये गये, उनके रख-रखाव और सिंचाई, आदि की क्या व्यवस्था थी और उनमें से वास्तव में कितने जीवित रह गये. देखें क्या-कैसा जवाब आता है.

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 30 जून, 2018)

Tuesday, June 26, 2018

एक साथ चुनाव के जटिल प्रश्न



देश में सभी चुनाव एक साथ कराने की चर्चा अक्सर छिड़ जाती है. कई कारणों से इस चर्चा को समर्थन भी मिलता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चार साल के कार्यकाल में इसे एक मुद्दे की तरह बार-बार उठाया. वे लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत करते हैं. कुछ समय पहले उनके सुझाव पर केंद्रीय विधि आयोग ने तीन पेज का एक सार-पत्र तैयार किया है. उसका उद्देश्य इस बारे में जनता, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक दलों की राय लेना है. पिछले दिनों विधि आयोग ने इस पत्र को सभी मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के विचारार्थ भेजा है. उनसे इसी 30 जून तक आयोग के साथ चर्चा करने या अपनी राय लिखित रूप में भेजने का आग्रह किया गया है.

अब जबकि लोक सभा चुनावों को एक साल से भी कम समय रह गया है, भाजपा सरकार इस मुद्दे पर कुछ तेजी दिखाती लगती है. मोटा-मोटा प्रस्ताव यह है कि जिन राज्य विधान सभाओं के चुनाव आने वाले साल-दो साल में होने हैं, उन्हें 2019 के लोक सभा चुनाव के साथ करा दिया जाए. बाकी विधान सभाओं के चुनाव 2024 के आम चुनावों के साथ हों. कुछ लोग इसे नरेंद्र मोदी की चाल के रूप में देख रहे हैं कि वे अपनी छीझती लोकप्रियता को यथाशीघ्र अगले कुछ समय के लिए भुना लेना चाहते हैं या लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में स्थानीय मुद्दों को भुला कर  लाभ उठाना चाहते हैं.

मोदी-विरोधियों की इस व्याख्या से इतर एक साथ चुनाव कराने का सुझाव नया नहीं है. 1983 में स्वयं निर्वाचन आयोग ने यह सुझाव रखा था. 1999 में केंद्रीय विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इसकी वकालत की थी. दिसम्बर 2015 में संसद की  एक स्थायी समिति ने एक साथ चुनाव कराने के वैकल्पिक और व्यावहारिक मार्ग तलाश करने की सिफारिश की थी. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले वर्ष संसद के संयुक्त सत्र में इस बारे में चर्चा की थी.

इस सुझाव के पक्ष में कुछ तर्क बड़े ठोस हैं. एक साथ चुनाव कराने से बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी, जिससे विकास कार्यों में रह-रह कर रुकावट नहीं आएगी. चुनाव आयोग, प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों से लेकर सरकारी कर्मचारियों एवं अध्यापकों तक को हर बार निर्वाचन कार्यों में व्यस्त नहीं होना पड़ेगा. चुनाव-नियमितता सुनिश्चित होगी तो सरकारें अपना ध्यान पूरी तरह विकास कार्यों की तरफ लगा सकेंगी. राजनैतिक स्थिरता रहेगी. चुनावों में खर्च कम होगा. सुशासन को बढ़ावा मिलेगा और राजनैतिक भ्रष्टाचार कम होगा, आदि.

1967 तक देश में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे. उसके बाद भारतीय राजनीति में नया दौर आया. कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती मिली, क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का उदय हुआ, मध्य जातियों और दलितों के राजनैतिक उभार से नये समीकरण बने. दल-बदल और गठबंधन की राजनीति बढ़ने से संसदीय अस्थिरता का दौर आया. कई राज्यों में हफ्ते भर से लेकर साल-छह महीने की सरकारें बनीं. बार-बार राष्ट्रपति शासन और जल्दी-जल्दी चुनावों का सिलसिला शुरू हुआ.

73वें-74वें संविधान संशोधनों  के बाद त्रिस्तरीय नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव शुरू हुए तो राज्यों में हर साल कोई न कोई चुनाव होने लगे. मतदाता सूचियां भी अलग-अलग हैं. सतारूढ़ दल से लेकर विपक्ष तक और पूरे प्रशासनिक तंत्र का ध्यान चुनावों पर रहता है. शिक्षकों का यह हाल है कि वे स्कूलों में कम, विभिन्न चुनावी कार्यों में  ज्यादा तैनात रहते हैं. इस सब ने एक साथ चुनाव कराने की चर्चा को बल ही प्रदान किया.

विधि आयोग के सार-पत्र के अनुसार 2019 के लोक सभा चुनावों के साथ कुछ विधान सभाओं के चुनाव कराने के लिए या तो उनका (मसलन, अभी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) कार्यकाल कुछ बढ़ाना होगा या कुछ (जिनका कार्यकाल 2020 या 2021 में खत्म हो रहा हो) का कार्यकाल घटाना होगा. बाकी विधान सभाओं को भी 2024 के आम चुनाव तक खींचना होगा. इसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत होगी. निर्वाचन सम्बंधी कानून बदलने होंगे. उप-चुनाव लम्बे समय तक टालने होंगे. क्या कुछ क्षेत्रों की जनता को जन-प्रतिनिधि विहीन रखना लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत नहीं होगा? क्या गारण्टी है कि एक बार साथ-साथ चुनाव करा लेने के बाद कुछ राज्यों में मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आएगी? केंद्र में भी चरण सिंह (1979) और अटल बिहारी बाजपेयी (1996) की सरकारों जैसी नौबत नहीं आएगी? कोई सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिर गई तो?

विधि आयोग का सार-पत्र कहता है कि अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के साथ सांसदों अथवा विधायकों को वैकल्पिक सरकार के लिए भी मत देना होगा ताकि सदन भंग करने की नौबत न आए. यह कितना व्यावहारिक होगा? सुझाव यह भी है कि त्रिशंकु सदन होने पर सभी दलों के निर्वाचित सदस्य मिल कर एक नेता का चुनाव करें. जो हालत हमारे राजनैतिक दलों की है, उसमें यह कैसे हो पाएगा? फिर, इसमें दल-बदल कानून आड़े आ जाएगा. तो, क्या दल-बदल कानून भी बदला या रद्द किया जाएगा? केंद्र में राष्ट्रपति शासन का विकल्प भी रखना होगा. एक साथ चुनाव से खर्चे कम हो सकते हैं लेकिन बहुत बड़ी संख्या में ईवीएम एवं वीवीपैट मशीनों  की आवश्यकता होगी. उसके लिए भी बड़ी रकम चाहिए.

ब्रिटेन ने 2011 से अपने यहां हर पांच साल बाद संसदीय चुनाव की तारीख निश्चित की है. दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन जैसे देशों में चुनाव एक साथ कराए जाते हैं किंतु ज्यादातर बड़े लोकतंत्रों में एक साथ चुनाव नहीं हो पाते. हमारे यहां राजनैतिक दलों में इस पर अलग-अलग राय हैं. कांग्रेस इसे व्यावहारिक मानती है. तृणमूल कांग्रेस ने इसे अलोकतांत्रिक कहा है तो भाकपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मानते हैं कि इसे लागू करना ही सम्भव नहीं है. माकपा ने भी व्यावहारिक दिक्कतें गिनाई हैं. अन्नाद्रमुक और असम गण परिषद समर्थन में हैं.
एक साथ चुनाव कराने से कुछ समस्याएं दूर हो सकती हैं किंतु यह देखना ज्यादा जरूरी है कि कहीं इससे हमारे संघीय लोकतांत्रिक ढांचे में कुछ मूलभूत परिवर्तन तो नहीं हो जाएंगे? इतने विशाल और विविध देश में जनता के भिन्न-भिन्न स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा तो नहीं होने लगेगी?

तमाम नकारात्मकताओं के बावजूद हमारा लोकतंत्र और संघीय स्वरूप कायम रहा है. जो बुराइयां आ गयी हैं क्या उनको दूर करने का उपाय दूसरा नहीं हो सकता? चुनाव सुधारों की बात क्यों भुला दी जा रही है? संवैधानिक संस्थाओं को और सुदृढ़ क्यों नहीं बनाया जा रहा है? राजनैतिक दल स्वयं अपने भीतर सुधार लाने की बात क्यों नहीं करते? बहुत सारी खामियां उन्हीं की पैदा की हुई हैं.

 (प्रभात खबर, 27 जून, 2018) 


Friday, June 22, 2018

नहीं, यह कुपाठ हमें नहीं पढ़ना है



दो महीने पहले विश्व हिंदू परिषद के एक मीडिया सलाहकार ने अपने ट्विटर पर बड़े गर्व से यह टिप्पणी लिखी थी कि जो ओला-टैक्सी मैंने बुक की, उसका ड्राइवर मुसलमान निकला, इसलिए मैंने बुकिंग रद्द कर दी. मैं जिहादियों को पैसा नहीं देना चाहता.

चंद रोज पहले लखनऊ की एक अच्छी पढ़ी-लिखी और सेवारत युवती ने एयरटेल कम्पनी से अपने डिश कनेक्शन की समस्या दूर करने को कहा. कम्पनी ने उन्हें संदेश भेजा कि शोएब नाम का टेक्नीशियन आपकी शिकायत देखने पहुंचेगा. उस युवती ने फौरन ट्वीट किया कि प्रिय शोएब, चूंकि तुम मुसलमान हो और मुझे मुसलमानों की कार्यशैली पसंद नहीं है, इसलिए कृपया कोई हिंदू टेक्नीशियन भेजिए.

दो दिन पहले एक पति-पत्नी को लखनऊ पासपोर्ट कार्यालय के एक कर्मचारी ने इसलिए अपमानित किया कि पत्नी हिंदू और पति मुसलमान है. उसने ऐसे विवाह पर आपत्ति जताते हुए दोनों के पासपोर्ट रोक लिए.

तीनों ही मामले सोशल साइटों और अखबारों में उछले, उनका व्यापक विरोध हुआ. पासपोर्ट बनवाने वाली महिला ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, विदेश मंत्री तक को ट्वीट किया. वरिष्ठ अधिकारियों के हस्तक्षेप से उनका पासपोर्ट जारी हो गया. मुसलमान ड्राइवर पर आपत्ति जताने वाले विहिप के मीडिया सलाहकार को सेवा प्रदाता कम्पनी ने काफी हुज्जत के बाद जवाब दिया कि हम सेवा देते समय धर्म के आधार पर फैसले नहीं करते. एयरटेल कम्पनी ने पहले उस युवती को मुसलमान की बजाय सिख टेक्नीशियन देने का और भी निंदनीय प्रस्ताव किया लेकिन चूंकि सोशल साइट पर काफी हंगामा मच चुका था, इसलिए बाद में उन्होंने अपना रुख बदलते हुए कहा कि हम अपने ग्राहकों, कर्मचारियों और सहयोगियों में धर्म के आधार पर कोई अंतर नहीं करते.

इन तीन बिल्कुल ताजा मामलों का उल्लेख करने का मंतव्य यहां यह सवाल उठाना है कि हमारे देश में यह प्रवृत्ति क्यों दिखाई देने लगी है? पिछले कुछ दशक से यह तो अक्सर सुनने-देखने में आने लगा था कि मुसलमानों को किराये का मकान ढूंढने में बहुत दिक्कत आती है. हिंदू मकान मालिक उन्हें किरायेदार नहीं रखते. यह भी अपेक्षाकृत नयी चिंताजनक प्रवृत्ति है, लेकिन यह तो सुनने में कभी नहीं आया था कि मुसलमान ड्राइवर के साथ नहीं जाएंगे या मुस्लिम कारीगर को घर में नहीं आने देंगे या हिंदू पत्नी और मुसलमान पति का पासपोर्ट बनाने में आपत्ति की जाएगी.

हमारा समाज ऐसा क्यों होने लगा? गांवों-कस्बों से लेकर शहरों तक मिश्रित आबादी शांति-सद्भाव से रहती आयी है. अपने-अपने नियम-धरम बरतते हुए सब में भाईचारा कायम रहा. एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होना तो आम है ही, खान-पान का परहेज बरतने वालों के लिए शादियों में अलग से रसोइये लगाए जाते थे, लेकिन न्योता अवश्य निभाया जाता था. यह साझा विरासत सदियों से चली आ रही है. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान इसे तोड़ने की कोशिशों और कालान्तर में बढ़ते साम्प्रदायिक तनावों के बावजूद यह साझा बना रहा. ड्राइवर और टेक्नीशियन का धर्म पूछ कर उसकी सेवा लेने से मना करना कभी नहीं सुना गया.

स्पष्ट है दिमागों में जहर कहीं से भरा जा रहा है. सदियों से चले आ रहे सामाजिक ताने-बाने को उधेड़ने की साजिश है. देश के संविधान की मूल भावना का मखौल उड़ाया जा रहा है. हमारी बहुलता को बनाये रखने की कोशिश करने वालों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. इतिहास की मनमानी व्याख्या की जा रही है. सोशल साइटों पर झूठ फैला-फैला कर विष घोला जा रहा है. तकलीफ इस बात से और बढ़ जाती है कि ऐसी निंदनीय हरकतों के समर्थक भी खूब निकल आते हैं.

यह खतरनाक सबक पढ़ाने वाले कौन हैं? उनकी और उनके इरादों की पहचान जरूरी है. इससे भी जरूरी है कि यह कुपाठ हमें नहीं पढ़ना है.

(सिटी तमाशा, 23 जूम, 2018) 

Friday, June 15, 2018

बड़े मकानों के छोटे इनसान


वरिष्ठ पत्रकार और कवि सुभाष राय को एसटीएफ के एक इंस्पेक्टर ने जिस तरह अपमानित किया और धमकाया उसके खिलाफ राजधानी के पत्रकारों-साहित्यकारों में आक्रोश स्वाभाविक था. उस इंस्पेक्टर का निलम्बन काफी नहीं है. कड़ी सजा मिलनी चाहिए. इस स्तम्भ में उस घटना का जिक्र आक्रोश से इतर उस नागर व्यवहार के लिए किया जा रहा है जो इस अशोभन एवं निंदनीय घटना के मूल में है.

सुभाष राय के पड़ोसी ने ट्रक भर मौरंग उनके घर के ऐन फाटक पर गिरवा दी. एकाधिक बार कहने के बावजूद उसे हटवाया नहीं, जबकि वे अच्छी तरह देख रहे थे कि श्री राय मौरंग के कारण अपनी कार बाहर नहीं निकाल सकते. अव्वल तो उन्हें अपने पड़ोसियों की सुविधा-असुविधा का बराबर ध्यान रखना चाहिए था. ट्रक वाले ने मौरंग गलत जगह गिरा दी थी तो यथाशीघ्र उसे हटवा कर इसअसुविधा के लिए माफी मांगनी चाहिए थी. ऐसी अपेक्षा सामान्य नागरिक व्यवहार है. उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया होगा?

एक महीना पुरानी बात है. हमारे मुहल्ले में एक डॉक्टर और उनकी बेगम ने अपने पड़ोसी के मकान के गेट के दोनों तरफ पौधा लगाने के लिए बनवाये जा रहे गमले अपनी गाड़ी चढ़ा कर ध्वस्त कर दिये. उससे पहले वे बालकनी में खड़े होकर चिल्ला रहे थे कि वह हमारी गाड़ी खड़ी करने की जगह है. उनकी बड़ी गाड़ी के लिए वहां पर्याप्त जगह है,  तो भी एक पौधा वे रात में चुपके से पहले उखड़वा चुके हैं. गमले दोबारा बनवाये गये. फिलहाल पौधे सुरक्षित हैं.

शहरों में कार खड़ी करने और ‘डॉगी’ को पॉटी कराने पर पड़ोसियों के झगड़े आम हैं. गाली-गलौज और मार-पीट के बाद अक्सर थाना-पुलिस की नौबत आती है. एक-दूसरे के गेट के सामने जाने-अनजाने कार खड़ी कर देने और हटाने को कहने पर तू-तू-मैं मैं. एक-दूसरे का सम्मान छोड़िए, सामान्य शिष्टाचार भी नहीं. कोई मकान बनवाये तो सहयोग करने वाले पड़ोसी कम, नाक-भौं सिकोड़ने और बवाल करने वाले ज्यादा हैं. रिश्तों की मानवीयता मरती जा रही है. दूसरे को छोटा समझा जाता है. मकान और कार से हैसियत नापी जाती है. अब अगल-बगल के घरों में तीज-त्योहार और विशेष अवसरों पर पकवानों की तस्तरियों का आदान प्रदान शायद ही होता हो.

गोमती नगर में रहते तीस साल हो गये. कॉलोनियों में धीरे-धीरे महंगी कारें आती गयीं. मकान बड़े और भव्य बनते गये. उनमें रहने वाले छोटे, और छोटे होते जा रहे हैं. इन छोटे लोगों की नाक बहुत बड़ी है. वह सबसे आगे रहती है और हर जगह टकराती है. घरों से बाहर निकलते लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट नहीं दिखती. पहले कौन ‘हैलो-हाय’ करे, इस चक्कर में संवादहीनता पनपती गयी. घरों की दीवारों पर लगे महंगे पेण्ट से बदगुमानी की बू आती है. इस बू पर वे इतराते हैं. सब वीआईपी हैं. पड़ोसियों को डराने-धमकाने के लिए कभी मंत्री-विधायकों के गुर्गे आ जाते हैं, कभी एसटीएफ के इंस्पेक्टर.

यह वह मध्य-वर्ग है जो सारी कायनात को ठेंगे पर रखे हुए है. वह बिना जरूरत धरती के गर्भ से खींच कर बेहिसाब पानी खर्च करता है और खुश होता है. वह खूब पेट्रोल फूंकता है, कमरे-कमरे एसी चलाता है, प्लास्टिक का ढेर कचरा उगलता है, मिट्टी से उसे घिन आती है और हरियाली से दुश्मनी मानता है. गरीबों, ग्रामीणों और भूखों से उसे नफरत है, जिन्होंने इस देश का कबाड़ा किया हुआ है. वह पूरी सृष्टि को अपने जीते-जी अकेले भोग लेना चाहता है.

दुर्भाग्य कि वही हमारी अर्थव्यव्स्था के केंद्र में है. वही ‘विकास’ का पैमाना है. सो मित्रो, कीजै कौन उपाय? 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 जून, 2018) 



Tuesday, June 12, 2018

गैर-भाजपावाद का सुर



समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का यह ताजा बयान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि उनकी पार्टी को कम सीटें दी गईं तो भी वे 2019 में भाजपा को रोकने के लिए विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे. मध्य प्रदेश में नवम्बर में होने वाले विधान सभा चुनाव में समझौते के लिए कांग्रेस नेताओं और मायावती में सहमति लगभग बन चुकी है. शरद पवार विपक्षी एकता की पहल आगे बढ़ाने के लिए राहुल गांधी से मिलने दिल्ली पहुंचे. कर्नाटक में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर जुटे विरोधी दलों के नेताओं का परस्पर सम्पर्क लगातार बना हुआ है.

मोदी और भाजपा को रोकने के लिए संयुक्त मोर्चा आवश्यक है, यह सहमति बन गयी दिखती है. और तो और, महाराष्ट्र में भाजपा की बहुत पुरानी सहयोगी शिव सेना भी विपक्षी मोर्चे के पक्ष में बयान दे रही है. यह स्पष्ट नहीं है कि यह एकता व्यवहार में कैसे उतरेगी. शरद पवार कह रहे हैं कि आज 1977 जैसी स्थिति बन गयी है, जब इंदिरा गांधी को हराने के लिए सभी विरोधी दलों ने हाथ मिला लिये थे.

विपक्षी एकता के कारण हाल में मिली चुनावी पराजयों और 2019 में संयुक्त मोर्चे की सम्भावना देखते हुए भाजपा नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि न तो विरोधी दलों के पास मोदी के मुकाबले कोई बड़ा नेता है, न ही वे ज्यादा दिन तक एक रह पाएंगे. यानी भाजपा ने  सम्भावित विपक्षी गठबंधन की अस्थिरता को रेखांकित करना शुरू कर दिया है.

1977 से आज की तुलना इसलिए नहीं की जा सकती कि तब बहुत सारे क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर ला देने वाला आपातकाल जैसा बड़ा कारक मौजूद था. विरोधी दल मोदी हटाओका चाहे जितना शोर करें, संविधान तक को निलंबित कर देने जैसी इंदिरा गांधी की निरंकुशता से आज की तुलना नहीं की जा सकती. तुलना करनी ही हो तो हमारे राजनैतिक इतिहास में 1969 तथा 1989 के सटीक उदाहरण उपलब्ध हैं, जब भिन्न कारणों से गैर-कांग्रेसवाद और राजीव हटाओका नारा लेकर विपक्ष एकजुट हुआ था. कांग्रेस की जगह ले चुकी भाजपा के खिलाफ आज गैर-भाजपावादका सुर भिनभिनाता सुनाई दे रहा है. क्या इस सुर में इतना जोर है कि कांग्रेस समेत सभी क्षेत्रीय दलों को जोड़ सके?

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों का संयुक्त मोर्चा बनने में इतने अधिक अंतर्विरोध हैं कि उसके वास्तव में बन जाने तक वह सवालों के घेरे में ही रहेगा. कुछ क्षेत्रीय दलों की कांग्रेस से अपने राज्यों में ही बड़ी लड़ाई है तो कुछ कांग्रेस से भी उतना ही परहेज करते हैं, जितना भाजपा से. कई दल अवसर आने पर भाजपा के साथ हो जाते हैं तो कभी कांग्रेस के. नेतृत्त्व को लेकर भी उनके नेताओं की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं. टकराव और बिखरने के अनेक कारण उनके परस्पर राजनैतिक हितों में निहित हैं.

अलग-अलग राज्यों में भाजपा के खिलाफ क्षेत्रीय दलों में आपसी चुनावी समझौते अपेक्षाकृत सरलता से सम्भव हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में अगला लोक सभा चुनाव मिलकर लड़ने की सहमति बन चुकी है. हाल के उपचुनावों में इस गठबंधन ने भाजपा को मात देकर अपनी ताकत दिखाई भी है. कांग्रेस इस गठबंधन का बहुत छोटा भागीदार बनना मंजूर करे या नहीं, सबसे बड़े राज्य में यह भाजपा को रोकने में कामयाब हो सकता है. बिहार में लालू की राजद, कांग्रेस और कुछ अन्य छोटे दल साथ आयेंगे. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, जैसे राज्यों में भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही है. वहां छोटे दल कांग्रेस के साथ मोर्चा बना सकते हैं. जैसे, मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बसपा में तालमेल होने के आसार हैं.
बंगाल, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, उड़ीसा जैसे कुछ राज्यों में तितरफा मोर्चे हैं? वहां भाजपा काफी कमजोर है इसलिए भाजपा-विरोधी मोर्चा बनने का औचित्य नहीं. दूसरे, वहां मजबूत क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस की जड़ें रही हैं. इसलिए क्षेत्रीय दलों की लड़ाई खुद कांग्रेस से होगी. कुल मिला कर क्षेत्रीय स्तर पर भी अखिल भारतीय भाजपा-विरोधी मोर्चे की तस्वीर साफ नहीं उभर रही .

हाल के उप-चुनाव नतीजों ने संकेत दिया है कि क्षेत्रीय स्तर पर दो विरोधी दलों के गठबंधन से भी भाजपा को खतरा है. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में भाजपा 2014 के मुकाबले इस बार नुकसान में रहेगी. यह नुकसान कितना बड़ा होगा, यह कई कारकों पर निर्भर करेगा.  विरोधी दलों को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात और कर्नाटक में भाजपा से काफी सीटें छीन सकने की उम्मीद है. बिहार का परिदृश्य इस बार बदला हुआ है. पंजाब में कांग्रेस मजबूत है. बंगाल में भाजपा की बढ़ती चुनौती के बावजूद ममता की पकड़ कायम है. केरल, आंध्र, और तेलंगाना में भाजपा को खुद ज्यादा उम्मीदें नहीं.

ऐसे आकलन के आधार पर ही विरोधी दलों को लगता है कि वे भाजपा को फिर से सत्ता में आने से रोक सकेंगे. भाजपा ने 2014 के बाद उत्तर-पूर्व में अपना अच्छा विस्तार किया है. लोक सभा चुनाव में उसे वहां फायदा होगा लेकिन वह बाकी देश में सम्भावित नुकसान की भरपाई शायद ही कर पाए. वहां सीटें ही कितनी हैं!

स्वाभाविक ही है कि भाजपा सत्ता बचाने के लिए उत्तर प्रदेश समेत बड़े राज्यों में ही आक्रामक चुनाव अभियान चलायेगी. उसकी कोशिश होगी कि विरोधी दलों के अंतर्विरोधों को हवा देकर उनकी एकता के राह में रोड़े पैदा करे. इसलिए उसने अभी से विपक्ष का नेता कौनऔर अस्थिरता के सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं.

विरोधी दलों का मोर्चा बन पाएगा या नहीं और बना तो वह भाजपा को रोक पाएगा कि नहीं, इनका उत्तर भविष्य देगा. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय राजनीति में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को समय-समय पर झटका देने की क्षमता अंतर्निहित है. जब भी विरोधी दल एक हुए, वे दीर्घजीवी भले न हुए हों, उन्होंने केंद्र में सत्तारूढ़ दल की राजनैतिक शैली या प्रवृत्तियों में आवश्यक संशोधन करने का काम किया. गैर-कांग्रेसवाद इसी का नतीजा था. अब जबकि स्थितियों ने कांग्रेस को अप्रासंगिक बना दिया है, क्या गैर-मोदीवाद या गैर-भाजपावाद की स्थितियां बन रही हैं?

कांग्रेस की कुछ अतियों ने बीच-बीच में क्षेत्रीय दलों  को उभारा और फिर भाजपा की अखिल-भारतीयता को जन्म दिया. क्या मोदी सरकार की नीतियों और कार्यशैली में क्षेत्रीय दलों के उभार और अन्तत: कांग्रेस के पुनर्जन्म के बीज छुपे हुए हैं? गैर-कांग्रेसवाद का विचार बनाने में देश को बीस वर्ष लगे थे. अगर गैर-भाजपावाद पांच वर्ष में ही कुनमुनाने लगा है तो मानना होगा कि लोकतंत्र के रूप में हम परिपक्व हुए हैं.  

(प्रभात खबर, 13 जून, 2018) 
    

    


Monday, June 11, 2018

भाजपा-विरोधी मोर्चे के लिए अपरिहार्य हुईं मायावती


लगातार चुनावी पराजयों से राजनीति के हाशिए पर पहुंचीं मायावती फिर सुर्खियों में हैं. उन्होंने न केवल मुख्यधारा की तरफ वापसी की है, बल्कि इधर एकाएक भाजपा-विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में उनकी चर्चा होने लगी है. चर्चा अकारण भी नहीं है.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने रविवार को कह दिया कि 2019 में भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन में हमें कम सीटें मिली तो भी मंजूर है. उनके बयान का मंतव्य यही समझा जा रहा है कि वे बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन बनाए रखेंगे, भले ही उनकी पार्टी के हिस्से कम सीटें आएं.

उधर मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता बसपा-प्रमुख मायावती से निरंतर सम्पर्क में हैं. नवम्बर में होने वाले विधान सभा चुनाव में वहां कांग्रेस-बसपा गठबंधन लगभग तय माना जा रहा है. मायावती पहले भी मध्य प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस को समर्थन दे चुकी हैं. मध्य प्रदेश ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी दोनों दलों का गठबंधन होने के आसार हैं.

मायावती होने का मतलब

अस्सी लोक सभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में मायावती कितनी महत्त्वपूर्ण हैं, यह हाल के उप-चुनावों से साबित हो जाता है. गोरखपुर, फूलपुर से लेकर कैराना और नूरपुर के प्रतिष्ठा वाले लोक सभा-विधान सभा उप-चुनावों में भाजपा को हराने में उनकी बड़ी भूमिका रही. उन्होंने कहीं घोषित तौर पर तो कहीं मौन संकेतों से विपक्ष का साथ दिया. मायावती के प्रतिबद्ध मतदाता के लिए उनका एक इशारा काफी होता है.

इस चुनावी फॉर्मूले में 2014 से अब तक अजेय समझे जा रहे नरेंद्र मोदी को परास्त करने का सूत्र विपक्ष के हाथ लगा. कर्नाटक में अंतत: भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में मिली सफलता ने विपक्ष को एकजुट करने में सहायता की है. इस एकता में मायावती की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. बंगलूर के विपक्षी मंच के बीचोंबीच  न केवल सोनिया गांधी ने मायावती को गले लगाया बल्कि बसपा का एकमात्र विधायक कर्नाटक में मंत्री बना है.

अखिलेश यादव का ताजा बयान भी मायावती को भाजपा-विरोधी मोर्चे के केंद्र में ले आता है. मायावती 2019 तक सपा से गठबंधन का ऐलान कर चुकी हैं लेकिन यह भी कह चुकी हैं कि सीटों का बंटवारा पहले हो जाना चाहिए. सभी जानते हैं कि मायावती इस मामले में मंजी हुई किंतु सख्त सौदेबाज हैं. इसी आधार पर भाजपा यह प्रचार कर रही थी कि सीटों के बंटवारे पर सपा-बसपा गठबंधन टूट जाएगा. अखिलेश ने साफ कर दिया है कि वे झुक जाएंगे लेकिन गठबंधन टूटने नहीं देंगे.

यू पी से बाहर भी असरदार

मायावती उत्तर प्रदेश के बाहर भी कम प्रभावशाली नहीं. हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उनके दलित वोटरों की संख्या काफी है. मध्य प्रदेश के 2013 के विधान सभा चुनाव में सीटें उन्हें चार ही मिली थीं लेकिन वोट प्रतिशत 6.29 था. कांग्रेस की नजर  इसी वोट प्रतिशत पर है. छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस बसपा से समझौता करना चाहेगी.

राजस्थान में अभी कांग्रेस ने बसपा का साथ लेने की पहल नहीं की है. उसे अपने दम पर विधान सभा चुनाव जीतने की उम्मीद है. मगर 2019 के लिए भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए राजस्थान में भी मायावती को साथ लेना ही होगा.

उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ की कुल 155 लोक सभा सीटों को प्रभावित कर सकने वाली मायावती विपक्षी मोर्चे में महत्त्वपूर्ण नेतृत्त्वकारी भूमिका चाहें तो क्या आश्चर्य. आज भाजपा विरोधी कोई क्षेत्रीय नेता इतनी राजनैतिक हैसियत में नहीं है. सबसे बड़ी बात कि वे दलित की बेटीहैं और दलित मतदाता इस समय राजनीति के फोकस में हैं.

इसी आधार पर राजनैतिक टिप्पणीकार सागरिका घोष ने अपने ताजा लेख में 2019 के चुनावी संग्राम को चाय वाला बनाम दलित की बेटीके रूप में देखने की कोशिश की है. उनका विचार है कि विपक्ष मोदी के मुकाबले मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए संयुक्त उम्मीदवार बनाए तो टक्कर जोरदार होगी. यह प्रश्न लेकिन अपनी जगह है कि क्या विपक्षी नेता मायावती को इस रूप में स्वीकार कर पाएंगे?

हाशिए से जोरदार वापसी

कुछ महीने पहले तक मायावती राजनीति की मुख्यधारा से बाहर हो गयी लगती थीं.  उत्तर प्रदेश में 2012 के चुनाव में वे मात्र 19 विधायकों तक सिमट गयी थीं. 2014 के लोक सभा चुनाव में एक भी सीट उन्हें नहीं मिली थी. उनके कई पुराने वफादार साथी एक-एक पार्टी छोड़ गये और उन्होंने अपनी पूर्व इस नेता पर भ्रष्टाचार के अलावा कांसीराम की बनाई बसपा को खत्म करने का आरोप लगाया था.

उसी दौरान उभरी भीम सेनाने उत्तर प्रदेश के राजनैतिक मंच पर धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी. तब  कई राजनैतिक विश्लेषकों ने टिप्पणियां लिखीं कि क्या मायावती की राजनीति का अंत हो गया है?

मायावती को राजनैतिक पराजय मिलीं जरूर लेकिन उनके वोट प्रतिशत में खास गिरावट नहीं आयी थी. कुछ दलित उपजातियां भाजपा की तरफ झुकीं  किन्तु प्रमुख दलित जातियां उनके साथ डटी रहीं. खुद उन्होंने राजनैतिक परिपक्वता दिखाई. अपने भाई को पार्टी का महासचिव बनाकर जो निंदा कमाई थी, उसे पिछले दिनों हटाकर परिवारवाद की राजनीतिके आरोप धो डाले.

अभी चंद रोज पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकारी बंगला खाली करना पड़ा तो उसमें भी उन्होंने चतुर दांव खेला. बंगले को कांशीराम का विश्राम-स्मारक बता कर पत्रकारों की मार्फत जनता को दिखाया और उसके रख-रखाव का उत्तरदायित्व सरकार पर डाल कर कोठी खाली कर दी.

2014 में राजनैतिक बियाबान में जाती दिखने वाली मायावती 2019 के संग्राम से पहले भाजपा-विरोधी राजनीति के केंद्र में विराजमान नजर आती हैं.  (फर्स्ट पोस्टट,11 जून, 2018) ,     


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Friday, June 08, 2018

मरीज बच जाए तो डॉक्टर भगवान, वर्ना जल्लाद?



राजधानी के हसनगंज क्षेत्र के सरकारी पशु चिकित्सालय में चंद रोज पहले दो भाइयों और उनकी मां ने एक पशु चिकित्सक पर जानलेवा हमला किया. उनके खिलाफ पुलिस थाने में दर्ज रिपोर्ट के मुताबिक वे अपने बीमार कुत्ते का इलाज कराने अस्पताल ले गये थे. कहते हैं कि डॉक्टर ने कोई इंजेक्शन लगाया, जिसके बाद उनके पालतू कुत्ते की मौत हो गयी. तीनों ने गलत इलाज करने का आरोप लगा कर डॉक्टर पर हमला कर दिया.

पिछले हफ्ते एक भोज में उत्तराखण्ड से आये वरिष्ठ डॉक्टर मित्र से मुलाकात हुई. उनके बेटे ने पिछले वर्ष राज्य की पीजी मेडिकल परीक्षा में टॉप किया और रेडियोलॉजी की पढ़ाई कर रहा है. रेडियोलॉजी क्यों? बोले- आप देख रहे हैं कि आजकल जरा-जरा सी बात पर डॉक्टरों पर हमले हो रहे हैं. इस लिहाज से रेडियोलॉजी सुरक्षित क्षेत्र है. वे काफी देर तक कई उदाहरण गिनाते रहे थे.

पिछले वर्ष गोमतीनगर इलाके के कुछ डॉक्टर मित्रों ने इस लेखक से अनुरोध किया था कि क्या मैं राजधानी के कुछ अखबारों के सम्पादकों और वरिष्ठ पत्रकारों से उनकी बैठक करा सकता हूँ. उनकी चिन्ता थी कि आये दिन अस्पतालों और निजी क्लीनिकों में तीमारदार डॉक्टरों पर लापरवाही या गलत इलाज का आरोप लगा कर मार-पीट, तोड़फोड़ कर रहे हैं. अखबारों में सीधे यही छप जाता है कि डॉक्टर ने गलत इलाज किया या इलाज में लापरवाही की. वे पत्रकारों के सामने डॉक्टरों का पक्ष रखना चाहते थे.

कुछ वर्ष पहले पीजीआई के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने पूछा था कि मेडिकल बीट के हमारे पत्रकारों की योग्यता क्या होती है? वे किस आधार पर यह लिख देते हैं कि इलाज गलत हुआ? और, क्या मेडिकल रिपोर्टिंग का मतलब सिर्फ यह है कि वे दुखी-हताश तीमारदारों के उल्टे-सीधे आरोप खबर बनाकर छाप दें? क्या आपको अनुमान भी है कि ऐसी खबरों से सभी डॉक्टरों की योग्यता ही नहीं, चिकित्सा पर से ही जनता का विश्वास हट रहा है? और क्या बात-बात पर डॉक्टरों पर हमले इसी अविश्वास का नतीजा नहीं है?

एक और चिकित्सक-मित्र ने बताया कि वे गम्भीर मरीजों का इलाज करने की बजाय कहीं और ले जाने की सलाह दे देते हैं. कुछ गड़बड़ हुई तो कौन मार खाये. उनकी बात ने बड़ी चिंता में डाल दिया. अगर डॉक्टर गम्भीर मरीज की जान बचाने की कोशिश करने की बजाय उसे टालने लगे हैं तो उपाय क्या है?

दूसरा पहलू यह है कि कई डॉक्टर धन-पिपासु हो गये हैं. ऐसी सभी खबरें असत्य नहीं होतीं कि मुर्दे को आईसीयू में रखकर लाखों का बिल वसूला गया. सरकारी अस्पतालों में निष्ठापूर्वक सेवा करने की बजाय निजी क्लीनिक पर ध्यान देने वाले डॉक्टर भी हैं. रोग की पहचान एवं इलाज में गलतियां भी हो जाती होंगी. लेकिन कितने डॉक्टर होंगे जिनका उद्देश्य रोगी की जान की कीमत पर धन कमाना है? कोई तीमारदार या रिपोर्टर कैसे जान सकता है कि गलत इलाज किया गया? और, जिस डॉक्टर पर गलत इलाज का आरोप लगाया गया है, क्या उसने सैकड़ों-हजारों मरीजों को जीवनदान नहीं दिया है?

पैरा-मेडिकल स्टाफ या हमारी खुद की लापरवाहियां मरीज के लिए कम घातक नहीं होतीं. उस सब का दोष डॉक्टर के मत्थे कैसे मढ़ा जा सकता है? मरीज ठीक हो जाए तो डॉक्टर भगवान अन्यथा जल्लाद, यह धारणा हमें कहां ले जा रही है? डॉक्टर तक पहुंच कर भी मरीज न बचे तो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है किंतु बीमार को भगवान के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. अंतत: जाना डॉक्टर की शरण में ही होगा. यह भरोसा टूटना नहीं चाहिए.

(सिटी तमाशा, 9 जून, 2018)  

  


Friday, June 01, 2018

यह पहले भी हुआ था और फिर होगा



यह पहली बार नहीं हुआ कि मैनहोल की जहरीली गैस से एक सफाई मजदूर की मौत हो गयी और दो मरते-मरते बचे. यह भी पहली बार नहीं हुआ कि मजदूरों को बिना सुरक्षा उपकरणों के मैनहोल में उतार दिया गया था. यह भी पुराना रिवाज है कि मैनहोल की सफाई के लिए जिम्मेदार जल निगम के अधिकारियों ने दुर्घटना की जिम्मेदारी ठेकेदार पर डाल दी. ठेकेदार के बचाव में कई प्रभावशाली लोग उतर आये, यह भी पुराना किस्सा है.  

अनुभव से हम कह सकते हैं कि जलील नाम के मजदूर की मौत से कहीं कोई पत्ता नहीं हिलेगा. उस गरीब का परिवार कुछ दिन रो-धो कर रोजी-रोटी के जुगाड़ में फिर खतरे उठायेगा. हम फिर देखेंगे कि चोक मैनहोलों को साफ करने के लिए गरीब मजदूर मात्र कच्छा पहने उनमें उतर रहे हैं. किसी और दिन अखबारों में ऐसे ही किसी मजदूर के मरने की खबर छपेगी.

सुरक्षा मानक कहते हैं कि मैनहोल में उतरने से पहले उसके भीतर की जहरीली गैस का जायजा लिया जाना चाहिए. उसे पानी डालकर निष्क्रिय किया जाना चाहिए. अव्वल तो सफाई के लिए अब मशीनें उपलब्ध हैं. मैनहोल में मजदूरों को उतारने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. जरूरत पड़ने पर मजदूर को ऑक्सीजन मास्क, दस्ताने, हेलमेट, वगैरह पहना कर उसमें उतारा जाना चाहिए. ऐसा क्यों नहीं किया गया? जल निगम का जवाब है कि यह जिम्मेदारी ठेकेदार की थी. ऐसे ठेकेदार को काम ही क्यों दिया गया, जो यह व्यवस्था नहीं करता या करना ही नहीं चाहता? इसका जवाब कौन देगा?

बिजली लाइनों की मरम्मत में भी आये दिन निरीह मजदूर करण्ट लगने से मर जाते हैं. सुरक्षा के नाम पर उनके पास रबर के दस्ताने तक नहीं होते, हेलमेट,आदि की कौन कहे. निजी इमारतों की छोड़िए, सरकारी इमारतों के निर्माण के दौरान भी अक्सर मजदूर ऊंचाई से गिर कर दम तोड़ देते हैं.  बहुत दिन नहीं हुए जब विधान सभा के सामने निर्माणाधीन लोक भवन की ऊपरी मंजिल से गिर कर मजदूर की जान गयी थी. इन दिहाड़ी मजदूरों को जरूरी हेल्मेट तक नहीं दिये जाते. नियम तो नीचे जाल बिछाने का भी है.

यह सब इसलिए होता है कि इन दिहाड़ी मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती. वे इतने गरीब हैं कि दो जून की रोटी के लिए किसी भी तरह का खतरा उठाने को मजबूर हैं. सरकार, प्रशासन और ठेकेदार की नजरों में उनकी कीमत कीड़े-मकौड़ों से ज्यादा नहीं. इसलिए उनकी मौत पर कोई हंगामा नहीं होता. जिम्मेदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती.

ठेकेदारों को अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है. इसलिए भी कि ठेका लेने के बदले उन्हें अधिकारियों को कमीशन देना पड़ता है. मजदूरों की सुरक्षा का बंदोबस्त अधिकारियों के कमीशन की भेंट चढ़ जाता है. तो क्या कमीशनखोर अधिकारी इन मज्दूरों की मौत के जिम्मेदार नहीं? ठेकेदारों के साथ उन्हें भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. उन सब के खिलाफ हत्या का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज होना चाहिए? यह सब कुछ नहीं होगा. कहीं से कुछ मुआवजा मिल जाएगा, बस. फिर सब लोग भूल जाएंगे जब तक कि कोई नया हादसा न हो जाए.

ये सिलसिले क्यों नहीं बदलते होंगे? सुरक्षा के मानक क्यों बनाये गये होंगे? उनके पालन की जिम्मेदारी किसी को क्यों दी गयी होगी? उस जिम्मेदार अधिकारी के कर्तव्यपालन का निरीक्षण भी किसी के जिम्मे होगा. क्या इनमें से किसी को यह नहीं लगता होगा कि अपनी जिम्मेदारी का सही पालन नहीं करके वह बड़ा अपराध कर रहा है. एक मज्दूर की मौत क्या किसी भी अधिकारी की अंतरात्मा को कचोटती नहीं होगी?

छोड़िए भी. ये सवा, हम पूछ किससे रहे हैं?