Friday, July 27, 2018

इस बरसात में आपने कहीं केंचुआ देखा?



पहली मानसूनी बारिश में आंगन में बहुत सारे केंचुए निकल आते थे. मिट्टी के भीतर अपने ठिकानों को छोड़, रेंगते-घिसटते वे पक्के बरामदे से होते हुए घर भीतर दाखिल होने लगते. कमरों में उन्हें जाने से रोकने के लिए नमक की सीमा-रेखा तक बनानी पड़ जाती थी. गमलों की मिट्टी में भी उनका ठिकाना रहता था. घर के सामने पार्क में बिन बरसात भी उनकी खायी-उगली मिट्टी की नन्हीं-नन्हीं गोलियों के ठीहे दूब की जड़ों के ऊपर दिखाई देते थे. छोटी चिड़िया किसी केंचुए को चोंच में दबा कर अपने घोंसले की तरफ उड़ती दिखती थी, जहां बिन पंखों के नन्हे बच्चे चोंच खोले भोजन का इंतजार करते रहते थे. मैंने पिछली कई बरसातों से  केंचुए नहीं देखे. जरा गौर करिए तो और कितना कुछ हमारे आस-पास से गायब होता जा रहा है.

उनका वैसे चाहे जो नाम हो, बचपन से हमारी बहुत जानी-पहचानी लिल-लिल-घोड़ीभी देखे बहुत समय गुजर गया. बारिश के इन दिनों में उनके गुच्छे-जैसे झुण्ड किसी गमले, किसी पौधे की जड़ या आंगन के किसी कोने में दिख जाते. जरा-सी आहट पर एक-दूसरे को पीठ पर लादे लिल-लिल-घोड़ियां तेजी से भागतीं. रोते बच्चों को बहलाने के लिए वे खूबसूरत बहाना होतीं. रातों-रात उनके ढेरों बच्चे निकल आते. कहां गईं लिल-लिल-घोड़ियां, और केंचुए, तितली, और भी जाने क्या-क्या?

जीवन का यह हिस्सा हम शहरियों के जीवन ही से गायब नहीं हुआ है. सुदूर गांवों के खेतों-बागानों में भी विभिन्न जीव-प्रजातियां गायब हो रही हैं, जो हमारे पर्यावरण का जरूरी हिस्सा थीं. बरसात में बाहर निकलने वाले केंचुए शहरियों के घरों में वितृष्णा भले जगाते रहे हों, किसानों का उनसे बेहतर दोस्त नहीं था. मिट्टी के भीतर उनकी सतत उपस्थिति और सक्रियता उसे पोला बनाए रखती थी. यह पोली मिट्टी खूब पानी सोखती थी. भूजल स्तर बना रहता था. पोली मिट्टी में फसलें अच्छी होती थीं. बेहिसाब रासायनिक खादों और कीटनाशकों ने इन किसान-मित्रों की बेरहमी से हत्या कर दी. आज केंचुए दुर्लभ हैं और उन्हें ढूंढ कर पालने की नौबत आ गयी है.

कूड़ा-प्रबंधन से लेकर जैविक खेती तक को बढ़ावा देने के लिए कई साल से काम कर रहे मुस्कान ज्योतिके साथी मेवा लाल से पूछिए तो वे देर तक आपको केंचुओं के योगदान के बारे में बताते रहेंगे. मेरा उनसे वादा है कि मैं केंचुए देखने उनके साथ बाराबंकी के उन खेतों में जाऊंगा, जहां उन्होंने रासायनिक खादों से मुक्त जैविक खेती को बढ़ावा देने का सफल प्रयोग किया है. उनकी मदद से वहां किसान अनियंत्रित कीटनाशकों और उर्वरकों की बजाय जैविक खाद का प्रयोग कर रहे हैं. इससे खेतों में केंचुए फिर पलने लगे हैं. मिटी पोली बन रही है. पानी धरती के भीतर जा रहा है. फसलें अच्छी हो रही हैं.

हम मनुष्यों ने विकास के नाम पर अपने लिए जो सुख-सुविधाएं जुटाने की होड़ पाली है, उसमें अपने अलावा और किसी के बचने की गुंजाइश नहीं छोड़ी है. कंक्रीट के जंगल का विस्तार, हरियाली से दुश्मनी, अंधाधुंध रसायनों, कीटनाशकों, आदि-आदि के प्रयोग से वह सूक्ष्म जीव-संसार नष्ट होता जा रहा है जो है हमारा ही हिस्सा. केंचुए, तितली, गौरैया, आदि समाप्त हो रहे हैं तो हमारा ही अंश मिट रहा है. यह हमारा कोरा भ्रम है कि हम अपने को सुरक्षित कर रहे हैं. सत्य यह है कि अपने पर्यावरण के साथ हम स्वयं खत्म हो रहे हैं. अपने 
समाप्त होते जाने से हमने आंखें मूंद रखी हैं. फिलहाल, केंचुए नहीं निकल रहे तो यह बरसात उदास है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 जुलाई, 2018) 





Tuesday, July 24, 2018

राहुल की गठबंधन-परीक्षा



कांग्रेस ने यह मान कर ठीक ही किया कि 2019 के आम चुनाव में में नरेंद्र मोदी को वह अकेले दम नहीं हरा सकती. इसके लिए विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना जरूरी है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद सम्भालने के बाद हुई पहली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का यह स्वर बहुत महत्त्वपूर्ण कहा जाना चाहिए. निर्वाचित सांसदों के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी बनने पर गठबंधन के नेता के रूप में राहुल को पेश करना सिर्फ औपचारिकता है. आज अत्यंत सीमित सांसद संख्या के बावजूद कांग्रेस अखिल भारतीय उपस्थिति वाली पार्टी है. कई राज्यों में वह भाजपा के सीधे मुकाबले वाला दल है. क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर वह भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय गठबंधन बना और चला सकती है. 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए उसी के कारण चला. कांग्रेस आगे भी ऐसा कर सकती है.

यह सिर्फ सम्भावना है. राहुल गांधी के लिए पहली चुनौती यहीं से शुरू होती है. परस्पर विरोधी हितों और महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय दलों के नेताओं को एक मंच पर लाना आसान काम नहीं है. कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस से टकराव है. कई दलों का भाजपा से कांग्रेस सरीखा तीखा विरोध नहीं है. भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन बनाने के लिए राहुल को वहां सहयोग की कीमत अपनी जमीन छोड़ कर चुकानी पड़ेगी. वे किस-किस के लिए कितनी जगह खाली करेंगे? फिर स्वयं कांग्रेस के लिए कितना स्थान बचा रहेगा, जबकि इस समय उसे अपने पुनरुत्थान के लिए संघर्ष करना है.

अब जबकि सोनिया गांधी नेपथ्य में हैं, अत्यन्त महत्वाकांक्षी चंद क्षेत्रीय नेता क्या राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकर करने को सहज ही तैयार हो जाएंगे? कांग्रेस कार्य समिति के फैसले पर देवेगौड़ा की सहमति को छोड़ कर सभी क्षेत्रीय नेता मौन हैं. ममता बनर्जी ने पहले ही भाजपा विरोधी फेडरल फ्रण्टकी तैयारी का ऐलान कर दिया है. सम्भावना है कि इसमें वे कांग्रेस को भी शामिल करेंगी लेकिन अपनी पहल की बागडोर राहुल को क्यों थमा देंगी?  तेलंगाना के चंद्रशेखर राव की तरह चंद्र बाबू नायडू राष्ट्रीय भूमिका के आने के संकेत दिये हैं. नवीन पटनायक भाजपा और कांग्रेस से बराबर दूरी बनाए रखने की रणनीति पर चल रहे हैं.

बिहार में राजद के छोटे भागीदार के रूप में उनकी दोस्ती चल जाएगी लेकिन उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश उन्हें कितनी जगह देंगे? सपा-बसपा दोनों मिल कर भाजपा को हराने की स्थिति में हैं तो वे कांग्रेस को शामिल करेंगे भी या नहीं? करेंगे तो दूसरे राज्यों में उसकी कितनी बड़ी कीमत मांगेंगे? यानी क्षेत्रीय क्षत्रपों के अलग-अलग राजनैतिक स्वार्थ हैं. कांग्रेस के साथ कोई रियायत वे नहीं करने वाले. राहुल की परीक्षा यह है कि उन्हें कांग्रेस को खड़ा करना है और गठबंधन भी बनाना है. यह डगर सचमुच फिसलन भरी है.

दिखता तो है कि पिछले एक साल में राहुल ने अपने को नरेंद्र मोदी से सीधे मुकाबले के लिए तैयार किया है. गुजरात चुनाव से लेकर हाल के अविश्वास प्रस्ताव तक वे क्रमश: रणनीति बदलते एवं आक्रामक होते आये हैं. इसमें भाजपा से ज्यादा क्षेत्रीय दलों के लिए स्पष्ट सन्देश है कि 2019 में भाजपा को रोकना है तो कांग्रेस ही उस मोर्चे की धुरी बन सकती है और राहुल उसके स्वाभाविक नेता हैं. क्षेतीय दल इस संदेश को कितना ग्रहण कर रहे हैं?

भाजपा इस खतरे को अच्छी तरह पहचानती है. इसीलिए नरेंद्र मोदी लगातार न केवल कांग्रेस पर हमलावर हैं बल्कि क्षेत्रीय दलों को सावधान करते रहते हैं कि कांग्रेस किस तरह अपने सहयोगी दलों को छलती रही है और आगे भी ऐसा करेगी. वह क्यों चाहेगी कि कांग्रेस के नेतृत्त्व में उसके विरुद्ध कोई गठबंधन बने. गठबंधन की राहुल की राह बहुत कुछ निर्भर करेगी वर्षांत में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनाव नतीजों पर. अगर कांग्रेस वहां भाजपा से सत्ता छीन पाती है तो उसके लिए 2019 की राह ही नहीं, क्षेत्रीय दलों का नेतृत्त्व पाना भी आसान हो जाएगा.

मोदी के विरुद्ध राहुल की दूसरी बड़ी तैयारी चुनावी मुद्दे चुनने में दिख रही है. यह महत्त्वपूर्ण होगा कि मोदी सरकार के खिलाफ वे क्या-क्या मुद्दे लेकर जनता के बीच जाते हैं. 2014  की तुलना में लोकप्रियता कम होने के बाद भी मोदी चुनाव जिताऊ नेता बने हुए हैं. जनता का एक बड़ा वर्ग उनसे निराश नहीं हुआ है. जो विफलताएं हैं भी, उन पर आक्रामक हिंदुत्त्व का भाजपा-संघ का एजेण्डा हलके नशे की तरह तारी है. इसलिए गुजरात चुनाव के समय राहुल गांधी ने उदार-हिंदुत्त्व का जो चोला पहना था, वह उतारा नहीं है. बल्कि, उन्होंने इधर लगातार यह दिखाने की कोशिश की है कि कांग्रेस को भी हिंदुत्त्व से प्रेम है किंतु किसी के प्रति नफरत भरा नहीं. अविश्वास प्रस्ताव पर अपने धारदार भाषण में जब वे नरेन्द्र मोदी को धन्यवाद देते हैं कि आपने मुझे हिंदू होने का मतलब समझाया, आपने मुझे कांग्रेस होने का मतलब समझायातब वे जनता को सायाश यही संदेश दे रहे थे. इसी के बाद वे देश में जगह-जगह नफरत में मारे जा रहे लोगों की चर्चा करते हैं, सबसे मुहब्बत करने और स्वयं नरेद्र मोदी से भी नफरत नहीं करने की बात कहते हुए प्रधानमंत्री के गले लग जाते हैं.

इसमें चाहे जितनी नाटकीयता देखी जाए, चाहे जितना वितण्डा खड़ा किया जाए, असल में यह मोदी के खिलाफ एक राष्ट्रीय विमर्श चुनने का राहुल का योजनाबद्ध प्रयास था. इसमें उग्र हिंदुत्त्व और नफरत की राजनीति के मुकाबले बहुलतावादी भारतीय संस्कृति का मुद्दा जनता के सामने रखने का प्रयास दिखाई देता है. वह कितना प्रभावी होगा, यह अलग बात है.

राहुल को कांग्रेस की बागडोर ऐसे समय मिली है जब पार्टी विपक्ष में और सबसे कमजोर हालत में है जबकि मुकाबले में बहुत ताकतवर नेता तथा सत्तारूढ़ दल है. यह विपरीत स्थितियां उनकी राजनीति और नेतृत्त्व कौशल के लिए बड़ा अवसर भी बन सकती हैं. कांग्रेस में दूसरे नम्बर की हैसियत से वे एक दशक से ज्यादा गुजार ही चुके हैं. अब परीक्षा का समय है. उनके लिए अच्छी बात यह है कि कांग्रेस की जड़ें अखिल भारतीय और गहरी हैं.  

भाजपा आज देश भर में चाहे जितना छाई दिख रही हो, उसकी अखिल भारतीयता अपेक्षाकृत नयी है. अनुकूल हवा-पानी पाते ही कांग्रेसी जड़ों को पनपने में देर नहीं लगेगी. यह अनुकूलता भाजपा के अपने अंतर्विरोधों से, क्षेतीय दलों के साथ गठबंधन की रणनीति से और राहुल की अब तक की कांग्रेस-दीक्षा से सम्भव हो सकती है. कांग्रेस को लगभग खत्म कर चुकने का दावा करने के बावजूद भाजपा का कांग्रेस-भय इसी कारण बना हुआ है.  
(प्रभात खबर, 25 जुलाई, 2018) 



Friday, July 20, 2018

क्योंकि सफाई करना ‘दूसरों’ का काम है



हमारी पीढ़ी ने अपने स्कूली दिनों में विद्यालय परिसर की खूब साफ-सफाई की है. हफ्ते-दस दिन में एक बार सफाई-अभियान या श्रमदान होता था. अध्यापक भी शामिल होते थे. इसकी सराहना होती थी. अभिभावकों ने कभी बुरा नहीं माना. किसी-किसी स्कूल में वार्षिक परिणाम-पत्र में विद्यार्थी की स्वच्छता की आदत के बारे में अंक या टिप्पणी दर्ज की जाती थी. कुछ स्कूल माता-पिता से बच्चों की घर में साफ-सफाई की आदत के बारे में भी पूछते और सलाह देते थे. गर्मियों की छुट्टी में गांव जाने वाले विद्यार्थियों को पेयजल स्रोतों के आस-पास श्रमदान से सफाई करने का निर्देश मिलता था. स्कूल खुलने पर किसने क्या-क्या किया इस पर निबंध लिखवाया जाता था.

आज जबकि राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान प्रधानमंत्री का पसंदीदा कार्यक्रम है, बच्चों से स्कूल की साफ-सफाई करना गलत काम माना जा रहा है. अभिभावक भी नाराज होते हैं. शिकायत करते हैं कि बच्चों के हाथ में झाड़ू पक‌ड़ाई गयी. बहुत कम अभिभावक होंगे जो बच्चों को घर की साफ-सफाई में शामिल करते हैं. वे स्वयं ही नहीं करते तो बच्चों को क्या सिखाएंगे.. कामवालियां हैं, झाड़ू-पोछे वालियां हैं. यह उनका काम बन गया. माता-पिता और बच्चे मिल कर घर गन्दा करते हैं. अपनी जूठी थाली तक नहीं उठाते. स्कूल में झाड़ू उठाना तो अपराध ही हो गया.

पिछले दिनों कुछ स्कूलों में बच्चों से सफाई कराने वाले अध्यापकों को मीडिया और सरकारी प्रताड़ना का भागीदार बनना पड़ा. मीडिया में भी आजकल ऐसे फोटो या वीडियो बड़ी नकारात्मक खबर की तरह पेश किये जाते हैं. हैरत होती है कि चीजों को देखने-समझने का तरीका कितना बदल गया है. ज्यादातर सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता है. बारिश में छतें चूती हैं. पानी भर गया तो प्रिंसिपल ने छात्रों को सफाई में लगा दिया. इसमें क्या गलत हो गया. विद्यार्थी अपना स्कूल साफ रखें, श्रमदान करें. क्या अपराध है? बहुत अच्छा होता अगर प्रिंसिपल, अध्यापक भी इसमें शामिल होते. 

हम यहां उन कतिपय घटनाओं की चर्चा नहीं कर रहे जहां प्रताड़ना या जातीय दबंगई के लिए कुछ खास विद्यार्थियों को ही स्कूल परिसर की सफाई में लगा दिया जाता है. उस पर निश्चय ही कार्रवाई होनी चाहिए. सभी विद्यार्थी मिल कर अपने स्कूल को साफ रखने में जुटते हैं तो इसको खुशखबर के रूप में क्यों नहीं देखा जाता? क्या इससे बच्चे कुछ सीखते नहीं? घर, मुहल्ले और स्कूल की साफ-सफाई पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बननी चाहिए.

क्या नाज-नखरे वाले महंगे निजी स्कूलों के कारण ऐसा माना जाने लगा है कि बच्चे अपना स्कूल साफ नहीं कर सकते? वहां नन्हे-नन्हे बच्चों को साहबीजीवन शैली सिखाई जाती है, जिसमें बन-ठन कर रहना तो शामिल है लेकिन खुद अपने काम करना छोटाहो जाना है. झाड़ू लगाना, सफाई करना छोटेलोगों का काम है. उनका काम गन्दगी फैलाना है. यह पीढ़ी बड़ी होकर अपने आस-पास सफाई रखने का ध्यान भला कैसे रखेगी? इसीलिए वह गंदगी देख कर नाक-भौं सिकोड़ती है, शासन-प्रशासन को दोष देती और खुद चलती कार से कचरा फैलाती फिरती है. यह नजारा हम हर कहीं देखा ही करते हैं.

स्वच्छता अभियान नारों से सफल नहीं होगा. नारे जीवन में अपनाने होंगे. जिसने बचपन से घर, मुहल्ले और स्कूल में सफाई नहीं की, उसे अपनी आदत का हिस्सा नहीं बनाया, वह मंत्री-अफसर के रूप में दिखावे को हाथ में झाड़ू थामे सचित्र खबर भले बन जाए, सफाई में रत्ती भर योगदान नहीं कर सकता. दिमाग में सफाई नहीं होगी तो जमीन पर कैसे उतरेगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 जुलाई, 2018)

 

Friday, July 13, 2018

पॉलीथीन-प्रतिबंध की पंचतंत्र-कथा



पढ़ने-सोचने का ज्यादा चलन तो रहा नहीं, फिर भी अपने महान ज्ञान कोश पंचतंत्रका नाम काफी सुना-सुना लगता होगा. वैसे, बता दें कि पंचतंत्रहै गजब की चीज. हल काल में प्रासंगिक. जैसे, एक कथा-प्रसंग है. वर्धमान नगर के राजा के शयन कक्ष में सुबह-सुबह सफाई करते समय गौड़म किसी से दुश्मनी निकालने के लिए धीरे से कुछ बड़बड़ा देता था, इस तरह कि अधजागे राजा के कान सुन लें. राजा चौंक कर उठता. पूछता- ये तूने क्या कहा, गौड़म?’ गौड़म अनजान बन कर कह देता- पता नहीं हुजूर, मैं रात भर जुआ खेलता रहा. झाड़ू लगाते-लगाते झपकी आ गयी. पता नहीं नींद में मैंने क्या कह दिया. क्षमा, महाराज.

राजा सोचता- गौड़म ने नींद में जो कहा, वह सही होगा. रियल फीडबैक. बस, उस बंदे का काम लग जाता. पिछले हफ्ते जब राज्य सरकार ने पॉलीथीन पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की तो हमें गौड़म की याद आ गयी. विष्णु शर्मा से लेकर हमारे जमाने तक हर सरकार में गौड़मों की कमी नहीं. वे रात भर जुआ खेलें, न खेलें, हर साल-दो साल में एक बार पॉलीथीन पर प्रतिबंध लगाने की बात सरकार के कान में फुसफुसा जरूर देते हैं.

हुआ तो उससे पहले भी है लेकिन दो वर्ष पूर्व सपा सरकार ने पॉलीथीन पर रोक लगाने की जोर-शोर से घोषणा की थी. प्रदेश मंत्रिमण्डल ने बकायदा फैसला लिया था, अधिसूचना जारी की गई थी. सख्ती से अमल के लिए जिला प्रशासन, नगर निगम, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, आदि कुछ विभागों की कमेटी बना दी गई थी. फैक्ट्रियों पर छापे पड़े थे. बड़ी-बड़ी दुकानों की तलाशी में जुर्माना वसूला गया था. खोंचे-ठेले वाले पॉलीथीन के थैले छुपा कर रखने के लिए पीटे गये थे. लोग बाजार में घर से लाए गए थैलों के साथ दिखने लगे थे. दुकानों में कागज के लिफाफों की आमद बढ़ गई थी. फैसले को पलटवाने-बदलवाने के लिए पॉलीथीन लॉबी बड़ी सक्रिय रही थी.

फिर जल्दी ही हमने देखा कि धड़ल्ले से पॉलिथीन बनने-बिकने और इस्तेमाल होने लगी. रोक पर अमल के जिम्मेदार विभाग एक-दूसरे पर  टालते रहे. फिर सब शांत बैठ गए. कहा गया कि प्रतिबंध को लागू करने के लिए जरूरी नियमवाली ही नहीं बनी. खैर, विधान सभा चुनाव भी नजदीक थे. फिर किसको याद रहता. क्यों याद रहता.

अब भाजपा सरकार ने पॉलीथीन पर प्रतिबंध की घोषणा दुगुने जोश से की जा रही है. कहा जा रहा है कि इस बार और भी सख्त आदेश आएगा. पॉलीथीन बंद हो कर रहेगी. अब पता नहीं, यह सिर्फ संयोग है कि इस बार फिर चुनाव नजदीक हैं, लोक सभा के.

खैर, पंचतंत्र की उस कथा का अगला प्रसंग यह है कि कुछ समय बाद गौड़म को लगता है कि मैने अमुक बंदे से पूरा बदला ले लिया है. वह शरणागत हो गया है. तब वह अगली सुबह राजा के कान के पास उसकी तारीफ में फुसफुसा देता है. राजा सोचता है, मैंने गौड़म की नींद में कही बात को सच मान कर उस बेचारे पर बड़ा अन्याय किया. बस, स्थितियां दूसरे दिन से ही बदल जाती हैं.

पंचतंत्र की कथाओं में नीति-वाक्यभी खूब आते हैं. वनराज पिंगलक चतुर मंत्री दमनक की बुद्धिमानी से खुश होकर यह नीति-वाक्य बोलता है- गहरी पैठ वाले सरल-चित्त और बुरी आदतों से बच कर रहने वाले, पहले से जांचे-परखे हुए मंत्री राज्य को उसी तरह सम्भाले रहले हैं जैसे पकी, सीधी, बिना गांठ वाली आजमाई हुई लकड़ी का खम्भा छत को सम्भाले रहता है.

विष्णु शर्मा ने उस काल के दरबारी मंत्री देखे थे. आज राज-काज अफसर चलाते हैं. पद-प्रतिष्ठा बदली है, गौड़मों का स्वभाव नहीं. फिलहाल तो वह फिर गुस्से मेंंलगता है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 जुलाई, 2018)

आस्था के केन्द्र, अव्यवस्था के मंदिर


पुरी के जगन्नाथ मंदिर की व्यवस्था ठीक करने के बारे में सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले ने हमारे बड़े और प्रसिद्ध मंदिरों के हालात, प्रबंधन और दर्शनार्थियों की दिक्कतों की ओर शासन-प्रशासन ही का नहीं पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया है. शीर्ष अदालत ने उड़ीसा सरकार को निर्देश दिये हैं कि इस मंदिर में भक्तों से दुर्व्यवहार, और सेवकों का उन्हें परेशान करना बंद हो. अतिक्रमण एवं गंदगी दूर करने के साथ ही मंदिर के प्रबंधन में पर्याप्त सुधार किये जाएं. यह भी कहा है कि दर्शनार्थी जो चढ़ावा चढ़ाते हैं उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए. भक्तों को बिना परेशानी के दर्शन करने का अवसर दिया जाए. वहां सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं.

देश की सर्वोच्च अदालत के इस हस्तक्षेप से देश के कई अन्य मंदिरों में व्याप्त अव्यवस्था और दर्शनार्थियों के उत्पीड़न की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है. वैष्णो देवी जैसे कुछ प्रख्यात और बेहतर प्रबंधन वाले मंदिरों को छोड़ दें तो हिंदुओं के ज्यादातर मठों-मंदिरों में धर्मावलम्बियों का शोषण-उत्पीड़न होता है. पण्डे-पुजारियों से लेकर दर्शन कराने के नाम पर दलाल तक भक्तों से जोर-जबर्दस्ती करते हैं, चढ़ावे के नाम पर उनसे लूट होती है, चढ़ावे का कोई हिसाब-किताब नहीं होता, मंदिरों का रख-रखाव ठीक नहीं है, गंदगी और अतिक्रमण है, कई जगह पुजारियों के भेष में असामाजिक, नशेड़ी और अपराधी भी छुपे होते हैं. बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ दूर-दूर से आने वाले दर्शनार्थियों को इससे न केवल घोर असुविधा होती है, बल्कि उनकी आस्था पर भी चोट पहुंचती है.

मृणालिनी पाधी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भक्तों की कई दिक्कतों, उनके साथ सेवकों के दुर्व्यवहार और चढ़ावे के दुरुपयोग के साथ ही गंदगी और अतिक्रमण का मुद्दा उठाया था. जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और अशोक भूषण की अवकाशकालीन पीठ ने आठ जून को इस याचिका पर सुनवाई की. अदालत ने केंद्र सरकार, उड़ीसा सरकार और मंदिर प्रबंधन को नोटिस देकर कहा कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों और संविधान के दिशा-निर्देशक सिद्धानतों का मामला है. हमारे ये मंदिर धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सांस्कृतिक महत्त्व के हैं. लाखों यात्री पर्यटन और आस्था के लिए यहां आते हैं. वे बड़ी मात्रा में चढ़ावा चढ़ाते हैं. उन्हें निर्विघ्न रूप से दर्शन करने का अवसर मिलना चाहिए, चढ़ावे का सदुपयोग हो और सेवकों को मंदिर प्रबंधन उचित मेहनताना दे.

शीर्ष अदालत ने पुरी के जिला जज को निर्देशित किया है कि वे 30 जून तक अंतरिम रिपोर्ट दाखिल करें कि दर्शनार्थियों को क्या दिक्कतें होती हैं, चढ़ावे का क्या होता और प्रबंधन में क्या दिक्कतें हैं.  कोर्ट ने पुरी के कलेकटर से लेकर उड़ीसा सरकार तक को विस्तार से कई निर्देश दिये हैं.

सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के दो दिन बाद ही जगन्नाथ मंदिर का एक दिन का चढ़ावा दस लाख 47 हजार 501 रुपये हो गया. पिछले कई सालों में यह एक दिन का सबसे ज्यादा चढ़ावा है. इससे पहले आम दिनों में दो लाख और पर्वों पर चार लाख तक ही दैनिक चढ़ावा आता था. बाकी रकम सेवक और पण्डे-पुजारी दर्शनार्थियों से झटक लेते थे और वह उनकी जेब में चला जाता था. सुप्रीम कोर्ट के चाबुक के बाद एक दिन का चढ़ावा साढ़े दस लाख होने से समझा जा सकता है कि कितनी बड़ी रकम सेवक या पुजारी सीधे हड़प जाते थे.

नयी व्यवस्था लागू होने से मंदिर के सेवक आंदोलित हैं. उनका कहना है कि उनके पेट पर चोट हुई है. बड़ी मात्रा में उनकी कमाई बंद हो काने से उनका नाराज होना स्वाभाविक है. सुप्रीम कोर्ट ने सेवकों को मंदिर प्रबंधन की ओर से उन्हें निश्चित पारिश्रमिक दिये जाने का निर्देश दिया है.आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में सेवकों को पर्याप्त मेहनतान मिलने लगेगा, मंदिर की आय बढ़ेगी, व्यवस्था सुधरेगी और दर्शनार्थियों को भगवान जगन्नाथ के दर्शन आसानी से हो सकेंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने जगन्नाथ मंदिर मामले में उड़ीसा सरकार को निर्देश दिया है कि वह देश के कुछ महत्त्वपूर्ण मंदिरों की व्यवस्था का अध्ययन करे. उदाहरण के लिए अदालत ने वैष्णो देवी मंदिर, सोमनाथ मंदिर और  स्वर्ण मंदिर के नाम सुझाये हैं. इन मंदिरों की बहुत अच्छी व्यवस्था और दर्शनार्थियों की सुविधाओं की चर्चा होती रहती है. यहां जाने वाले दर्शक प्रसन्न होकर लौटते है. कोर्ट ने कहा है कि इन मंदिरों के प्रबंधन से सीख लेकर जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन को सुधारा जाए.

सुप्रीम कोर्ट के सुझाये चंद मंदिरों के अलावा भी कुछ देश में कुछ मंदिर अच्छी व्यवस्था के लिए जाने जाते हैं. शिरडी का सांई मंदिर अपनी सहज, सस्ती, साफ-सुंदर व्यवस्था के लिए जान जाता है. वहं न केवल दर्शनार्थियों को आराम से दर्शन हो जाते हैं बल्कि भक्तों को बहुत सस्ते में रहने की अच्छी व्यवस्था और सुस्वादु भोजन भी उपलब्ध होता है.

इस सन्दर्भ में मैं पटना के हनुमान मंदिर का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा. पटना रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही आज हम जिस भव्य, साफ-सुथरे, व्यवस्थित हनुमान मंदिर के दर्शन करते हैं, कोई देढ़ दशक पहले तक वह घोर अव्यवस्था, अराजकता और गंदगी के कारण कुख्यात था. चढ़ावे की रकम का कोई हिसाब-किताब न था. बिहार के अपराधियों पर नकेल कसने के लिए चर्चित आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल ने जब पुलिस सेवा छोड़ कर धर्म-अध्यात्म का रास्ता पकड़ा तो  सबसे पहले इस मंदिर के कायाकल्प का बीड़ा उठाया.

अब आचार्य कहे जाने वाले किशोर कुणाल ने शीघ्र ही मंदिर की व्यवस्था इतनी सुधार दी कि साफ-सफाई के अलावा वहां बनने वाला प्रसादमभी प्रसिद्ध हो गया. भक्तों की भीड़ बढ़ी और मंदिर की कमाई भी कई गुना बढ़ गयी. मंदिर के चढ़ावे से पटना में एक कैंसर अस्पताल का संचालन होने लगा. आज यह बड़ा अस्पताल है जो बिहार जैसे गरीब राज्य में मरीजों को बहुत कम कीमत पर बेहतर इलाज उपलब्ध कराता है. कई मामलों में नि:शुल्क भी. हनुमान मंदिर के चढ़ावे से और भी जन-सेवा के काम होते हैं. किसी मंदिर की कमाई से कितना अच्छा सेवा-कार्य हो सकता है, पटना का हनुमान मंदिर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है.

वहीं दूसरी तरफ बिहार के गया में स्थित विष्णुपाद मंदिर में गंदगी, अतिक्रमण और दर्शनार्थियों के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतें आती रहती हैं. गया हिंदुओं के लिए महत्त्वपूर्ण तीर्थ है. वहां लाखों की संख्या में यात्री जाते हैं.  इन पंक्तियों के लेखक को एक बार एक बड़ी कम्पनी के सर्वोच्च अधिकारी के साथ इस मंदिर जाने का मौका मिला. मंदिर के पण्डे-पुजारियों और अन्य कर्मचारियों को उनके आने की पूर्व सूचना थी. जैसे ही हम मंदिर प्रागण में पहुंचे हमें घेर लिया गया. सभी उस बड़े आसामीसे अधिकाधिक दक्षिणा लेने के लिए धक्का-मुक्की करने लगे. बड़ी मुश्किल से उन्होंने पूजा निपटाई और वहां से निकल कर राहर की सांस ली. मंदिर के चारों ओर और नदी तट तक इतनी गन्दगी थी कि हमें नाक पर रुमाल रखना पड़ा. पैरों के नीचे कीचड़ बजबजा रहा था. वहां जाकर मन में किसी तरह की श्रद्धा नहीं हुई. यह कोई एक दशक पहले की बात है. आजकल पता नहीं क्या हाल है.

गया की तुलना में पड़ोस ही में स्थित बोध गया के बोधि वृक्ष और बुद्ध मंदिर में जाकर अद्भुत शांति और सुखद अनुभूति मिलती है. वहां इतनी सफाई और शांति है कि उस प्रांगण में बैठ कर ध्यान लगाने का मन हो आता है. यही हाल पड़ोसी जिले नालंदा के पावापुरी का है जहां भगवान महावीर को मोक्ष प्राप्त हुआ था. अत्यंत शांत, स्वच्छ और व्यवस्थित. गुरुद्वारे भी अपनी व्यवस्था से बड़ी श्रद्धा जगाते हैं. अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का तोकहना ही क्या. वैसी सुंदर व्यवस्था हिंदू मंदिरों में क्यों नहीं हो सकती?

कुछ वर्ष पहले एक विदेशी मित्र के साथ मिर्जापुर के विन्ध्यवासिनी देवी के मन्दिर जाने का अवसर मिला. हमारी गाड़ी वहां पहुंची ही थी कि हमें चारों तरफ से घेर लिया गया. कुछ लोग हाथ पकड़ कर खींचने लगे. विदेशी मित्र को खींच कर एक तरफ ले गये. उसे उनसे छुड़ाना मुश्किल हो गया. हम अंतत: मंदिर में नहीं जाए बिन ही लौट आये. विंध्यकासिनी मंदिर की बड़ी प्रतिष्ठा है. वहां हजारों दर्शनार्थी जाते हैं. ऐसे व्यवहार से उनकी आस्था को कितनी ठेस पहुंचती होगी. कोई दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने विंध्यवासिनी मंदिर की व्यवस्था ठीक करने की कोशिश की थी तो पण्डा समुदाय रुष्ट होकर आंदोलन करने पर उतारू हो गया था.

जगन्नाथ मंदिर हो या विंध्यवासिनी, पण्डों-पुजारियों-सेवादारों की रोजी-रोटी उससे जुड़ी है, इसमें कोई संदेह नहीं. धर्मावलम्बियों के लिए जो आस्था है, वह इनके लिए रोजगार है. किंतु इसके भी नियम होने चाहिए. निश्चित व्यवस्था होनी चाहिए. श्रद्धालुओं को वीआईपी दर्शन के नाम पर तंग करने, अनुचित मांग करने, चढ़ावा जेब में रख लेने और मंदिर की अन्य सुविधाओं की घोर उपेक्षा के नाम पर इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती. सभी मंदिरों को व्यवस्थित तरीके से चलाया जाना चाहिए ताकि दर्शन में सुविधा हो और चढ़ावे का सदुपयोग हो. सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि जगन्नाथ मंदिर की व्यवस्था वैष्णोदेवी मंदिर की तरह चलायी जाए. वास्तव में यह आदेश देश के सभी मंदिरों पर लागू किया जाना चाहिए. 

(सुपर आयडिया, जुलाई, 2018)   


Tuesday, July 10, 2018

फिर उग्र ध्रुवीकरण ही सहारा?



स्वाभाविक है कि भारतीय जनता पार्टी 2019 में केंद्र की सता में बहुमत से वापसी की कोशिश करे, जैसे कि विरोधी दल उसे बेदखल करने के प्रयत्न में लग रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष काफी समय से चुनावी मोड में हैं. अंदरखाने तैयारियां हैं ही, सरकारों के स्तर पर खुल्लमखुला लुभावनी चुनावी घोषणाएं होने लगी हैं. चर्चा यहां यह करनी है कि मोदी सरकार क्या उपलब्धियां लेकर जनता के पास जाना चाहती है और स्वयं जनता-जनार्दन उसके लिए कैसा प्रश्नपत्र तैयार कर रही है?

2014 में देश की जनता कांग्रेस-नीत यूपीए शासन के भ्रष्टाचार और नाकारापन से त्रस्त थी. वह बदलाव चाहती थी. भाजपा में तेजी से उभरे नरेंद्र मोदी ने अपनी वक्तृता, तेजी और ताजगी से भ्रष्टाचार मिटा कर, काला धन वापस लाने एवं चौतरफा परिवर्तन के वादों से जो लहर पैदा की उसने भाजपा को विशाल बहुमत से सत्ता में ला बिठाया. आज जब वे चार साल पूरे कर चुकने के बाद पांचवें वर्ष में जनता की परीक्षा में बैठने वाले हैं तो पास होने की कसौटी क्या होगी? सरकार के पास तो उपलब्धियां गिनाने के लिए हमेशा ही बहुत कुछ होता है. मोदी सरकार ने भी अपना चार साल का प्रभावशाली लेखा-जोखा पेश किया है. मगर पास-फेल करना जनता के हाथ में है.

आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार ने नोटबंदी जैसे दुस्साहसिक और जीएसटी जैसे साहसिक कदम उठाये. इनके नतीजों पर विवाद हैं. तमाम दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में नहीं है, विशेष रूप से वह हिस्सा जो सीधे जनता को प्रभावित करता है. महंगाई लगातार बढ़ी है. पेट्रोल-डीजल के ऊंचे भावों ने उसे अनियंत्रित किया है. बैंकों पर डूबे हुए कर्ज का बोझ बढ़ा किंतु प्रयासों के बावजूद वसूली के प्रयास सफल होते न दिखे. बेरोजगारों की संख्या बढ़ने की तुलना में रोजगारों का सृजन अत्यंत सीमित हुआ. युवा वर्ग में आक्रोश है जो तरह-तरह के असंतोषों में फूटा. देश भर का किसान इस पूरे दौर में क्षुब्ध और आंदोलित रहा. बदहाली के कारण उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला बिल्कुल कम न हुआ. हाल ही में खरीफ फसलों के समर्थन मूल्यों में अब तक की सबसे बड़ी वृद्धि की जो घोषणा की गयी है, उससे भी वृहद किसान समुदाय प्रसन्न नहीं लगता.

कतिपय आरोपों  के अलावा मोदी सरकार को भ्रष्टाचार के मामलों में क्लीन चिट हासिल है. यूपीए के दूसरे दौर की सरकार के लिहाज से यह बड़ी राहत है लेकिन आम जनता को रोजमर्रा के कामों में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल गई हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है. काले धन पर अंकुश नहीं लग सका. डिजिटल लेन-देन के मोर्चे पर भी शुरुआती उपलब्धि हाथ से फिसल गयी. नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह कह कर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है कि 2014 के बाद देश की अर्थव्यवस्था सबसे तेज गति से पीछे की ओर गयी है.

सामाजिक क्षेत्र में सरकार बहुत कुछ करती दिखाई दी लेकिन वास्तव में परिवर्तन कितना आया? हाशिए पर जीने वाली बड़ी आबादी के हालात कितना सुधरे? स्वच्छता अभियान और 2019 तक देश को खुले में शौच-मुक्त करने की महत्वाकांक्षी, सराहनीय योजना पर स्वयं प्रधानमंत्री ने बहुत रुचि ली किंतु आंकड़ों से इतर व्यवहार में वह कितना उअतर पायी? दलितों के कल्याण के वास्ते घोषणाएं बहुत हुईं लेकिन उन्हें सचमुच कितनी आजादी और सामर्थ्य मिली? महिलाओं के प्रति समाज और राजनीति के नजरिए एवं व्यवहार में कितना फर्क आया?

दैनंदिन जीवन में अनुभव करने के कारण जनता इन मुद्दों से सीधे जुड़ी रहती है. वह क्या महसूस करती है? यहां यह कहना आवश्यक है कि देश की ये बहुतेरी समस्याएं न आज की हैं, न इनके लिए सीधे मोदी सरकार जिम्मेदार है. चूंकि स्वयं मोदी ने व्यक्तिगत रूप से भी इस बारे में जनता में बहुत ज्यादा उम्मीदें जगाईं, बढ़-चढ़ कर दावे किये थे, इसलिए उनकी सरकार की जवाबदेही निश्चय ही बढ़ जाती है.

पिछले दिनों की चंद घटनाओं ने संकेत दिये हैं कि मोदी सरकार इन कसौटियों पर शायद असहज अनुभव कर रही है. प्रधानमंत्री का जोर आज भी परिवर्तन और विकास के मुद्दों पर है. उनकी लोकप्रियता अधिक कम नहीं हुई है. लेकिन उनके मंत्री और भाजपा नेता क्या कर रहे हैं? केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने चंद रोज पहले झारखण्ड में उन आठ लोगों को जमानत पर छूटने पर माला पहना कर मिठाई खिलाई जिन्हें अदालत ने गोरक्षा के नाम पर हत्याओं का दोषी पाया है. उसी दिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की खबर आयी कि वे बिहार के अपने निर्वाचन क्षेत्र में दंगा भड़काने के आरोप में जेल में बंद बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं के घर गये, उनके साथ हुए अन्यायपर रोये और बिहार की अपनी ही सरकार को ही दोष देने लगे.

इन्हें हम इन नेताओं की स्फुट भटकनों के रूप में भी देख सकते थे परंतु वरिष्ठ भाजपा नेता, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अपने ही कैडर के हाथों अब तक जारी ट्रॉलिंग को किस रूप में देखें, जबकि पार्टी-नेतृत्त्व और सरकार उनके पक्ष में आना तो दूर, मौन साधे रहे? राजनाथ सिंह और गडकरी उनके बचाव में आये जरूर मगर काफी बाद में. फिर, पिछले मास जम्मू-कश्मीर सरकार से भाजपा के अचानक अलग होने के फैसले से क्या समझा जाए, जबकि कश्मीर में शांति बहाली भाजपा सरकार का प्रमुख एजेण्डा था?

तो, क्या इसे उग्र हिंदुत्त्व और प्रखर राष्ट्रवाद के पुराने एजेण्डे को प्रमुख स्वर देने के रूप में देखा जाए? यह आशंका इसलिए बलवती होती है कि 2014 के चुनाव की पूरी तैयारी भाजपा ने इसी एजेण्डे के तहत की थी. प्रधानमंत्री-प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी परिवर्तन लाने, विकास करने तथा भ्रष्टाचार और परिवारवाद मिटाने की गर्जनाएं कर रहे थे तो उनके कई नेता नेता गोहत्या, खतरे में हिंदुत्त्व, देशद्रोह, जैसे मुद्दे उछालने में लगे थे. खूबसूरत सपने दिखाने और भावनाओं के उबाल का यह चुनावी मिश्रण-फॉर्मूला सफल रहा था. अब जबकि सपनों को साकार करने के प्रयासों की परीक्षा होनी है, तब क्या फिर से धर्म और राष्ट्रवाद की भावनाओं का ज्वार उठाना भाजपा को आवश्यक लग रहा है? विपक्षी मोर्चेबंदी की काट के लिए उपलब्धियां पर्याप्त नहीं लग रहीं? ध्रुवीकरण का सहारा लिए बिना रास्ता कठिन लग रहा है?

सरकारों की परीक्षा का पैमाना जनता कब क्या बनाती है, यह अक्सर स्पष्ट नहीं होता. 2004 में एनडीए का शाइनिंग इण्डियाआशा के विपरीत उसने नकार दिया था. 2009 में यूपीए को अप्रत्याशित विजय दे दी थी. 2014 में जनता ने विशाल बहुमत से भाजपा को सत्ता सौंपी. 2019 के लिए प्रश्न-पत्र वह बना ही रही होगी.      
 
(प्रभात खबर, 11 जुलाई, 2018) 

Saturday, July 07, 2018

असली मुद्दा तो एडमिशन का था



प्राध्यापकों से मारपीट एवं कुलपति पर हमले के प्रयास की दुर्भाग्यपूर्ण एवं निंदनीय घटना के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिये जाने की आड़ में मूल मुद्दा दब जाएगा या दबा दिया जाएगा. अब मामला राजनैतिक और कानून-व्यवस्था का बन गया है.

कुछ छात्र-छात्राओं को इस वर्ष विश्वविद्यालय ने अगली कक्षाओं में प्रवेश देने से इनकार कर दिया था. कारण यह कि पिछले वर्ष उन छात्र-छात्राओं ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के विश्वविद्यालय आगमन पर उन्हें विरोध स्वरूप काले झण्डे दिखाये थे. इस अपराधमें उन्हें गिरफ्तार किया गया, जेल में रखा गया और विश्वविद्यालय से निष्काषित कर दिया गया था. बाद में कुछ को परीक्षा देने दी गयी थी लेकिन परीक्षाफल रोक लिया गया. फिर कुछ छात्र-छात्राओं का परीक्षाफल इस शर्त के साथ जारी किया गया कि वे इस विश्वविद्यालय में अगली कक्षाओं में प्रवेश नहीं लेंगे. कुछ ने शायद ऐसा लिख कर भी दिया.

कुछ छात्र-छात्राओं को लगा और बिल्कुल सही लगा कि यह अन्याय और अलोकतांत्रिक है. मुख्यमंत्री शिवाजी से सम्बद्ध जिस कार्यक्रम में भाग लेने विश्वविद्यालय जा रहे थे, उसमें विश्वविद्यालय के धन का इस्तेमाल गलत है., इस आधार पर विरोध किया गया था. यह विशुद्ध रूप से वैचारिक आंदोलन था. काले झण्डे दिखाना या काफिले के सामने आ जाना प्रतिरोध पुराना लोकतांत्रिक तरीका है. विश्वविद्यालय में इससे पहले कई बार हो चुका है.

इसकी आड़ में दूसरे बहानों से अगली कक्षाओं में प्रवेश न देने का फैसला अलोकतांत्रिक है. इसलिए कुछ छात्र-छात्राएं कुलपति कार्यालय के पास शांति पूर्वक धरने पर बैठे थे. उनके समर्थन में कई वरिष्ठ शिक्षाविद, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी धरने पर बैठे थे. धरने के तीसरे दिन कुछ बाहरी लोगों ने पास ही में प्राध्यापकों पर हमला कर दिया. उसके बाद धरना देने वालों और उनके समर्थकों को पकड़ कर पुलिस थाने भेज दिया गया. विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया. अब मामला कुछ और ही बन गया है.

असल मुद्दा, जिस पर बहस होनी चाहिए थी, यही है कि छात्र-छात्राओं से लोकतांत्रिक विरोध करने का अधिकार कैसे छीना जा सकता है जबकि कई बड़े आंदोलन, जिनमें स्वतंत्रता संग्राम और 1974-75 का इंदिरा सरकार विरोधी उग्र आंदोलन भी शामिल है, विश्वविद्यालायों और कॉलेजों से शुरू हुए और फैले? प्रत्येक राजनैतिक दल की छात्र इकाइयां हर कॉलेज और विश्वविद्यालय में सक्रिय हैं. राजनैतिक दलों की छात्र इकाइयों के रूप में ही  वे छात्र संगठनों के चुनाव लड़ते हैं. अक्सर सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर सार्थक आंदोलन भी करते रहे हैं. विश्वविद्यालय के छात्र संगठनों से राजनैतिक पाठ पढ़ कर निकले कई विद्यार्थी आज विभिन्न दलों में ऊंचे पदों पर और सरकारों में शामिल हैं.

विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने चाहिए लेकिन राजनैतिक सोच को विकसित होने, समाज और राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप करने से वयस्क छात्र-छात्राओं को कैसे वंचित किया जा सकता है? वे प्राथमिक कक्षाओं के मासूम विद्यार्थी नहीं हैं. पढ़ाई का सवाल हो या फीस वृद्धि, हॉस्टल की अव्यवस्थाएं हों या सम-सामयिक मुद्दे, वे अपनी आवाज उठाएंगे ही. प्रशासन को उनकी बात सुननी चाहिए. समाधान नहीं निकाला जाएगा तो मामला भड़केगा. तब सारा दोष आवाज उठाने वालों के मत्थे कैसे मढ़ा जा सकता है? यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि समय रहते उनकी बात सुन कर समाधान क्यों नहीं निकाला गया?

परिसर में हिंसा के बाद ये सवाल विमर्श से बाहर हो गये हैं. यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है.


(सिटी तमाशा, नभाटा, 7 जुलाई, 2018)