Friday, August 31, 2018

सड़कों के गड्ढे, मौतें और राम भरोसे जिंदगी


मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के वादे के मुताबिक जून 2017 तक प्रदेश की सड़कों के सारे गढ्ढे भर दिये जाने थे. तय समय पर यह काम नहीं हो पाया. सड़क विभाग के मंत्री और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने तब कहा था कि जनवरी 2018 तक सड़कें गढ्ढा-मुक्त बना दी जाएंगी. फिर भी यह काम पूरा नहीं हो पाया था तो सार्ववजनिक निर्माण विभाग के 12 अभियंताओं को निलंबित कर दिया गया था. उन पर आरोप था कि सरकार का वादा पूरा करने में उन्होंने लापरवाही बरती.

इस कार्रवाई का नतीजा क्या निकला, मालूम नहीं. सड़कों के गड्ढे कुछ जरूर भरे गये होंगे. ज्यादातर जगहों पर वे जानलेवा बने रहे. यहां हमारी चिंता कारण वह रिपोर्ट है जो पिछले हफ्ते इसी अखबार में छपी थी. शुभम सोती फाउण्डेशनकी इस रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष के 232 दिनों में राजधानी लखनऊ में 1001 दुर्घटनाएं हुईं जिनमें 381 लोगों की मौत हुई और 627 गंभीर घायल हुए. यह बहुत डरावना आंकड़ा है.

शुभम सोती 12वीं कक्षा का छात्र था जब सन 21010 में सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गयी थी. उसके परिवारजनों ने उसकी याद में फाउण्डेशन बनाया जो जनता में, विशेष रूप से युवाओं में सड़क सुरक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने का काम करता है. उसका अध्ययन बताता है कि राजधानी में जो दुर्घटनाएं हो रही हैं उनके मुख्य कारण हैं- सड़कों के गड्ढे और तेज रफ्तार. मरने और घायल होने वालों में कम उम्र नौजवानों की संख्या सबसे ज्यादा है.

इस साल हो रही अच्छी बारिश ने सड़कों को और भी जानलेवा बना दिया है. दोष बारिश का नहीं, सड़कों का मानकों के अनुरूप नहीं बनना है. जिन सड़कों में गड्ढे थे या जिनमें पैबंद लगाया गया था, बारिश ने उन्हें उधेड़ दिया. सड़कें बनाते समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि उनमें पानी नहीं भरे. जल निकासी होती नहीं और पानी कोलतार का दुश्मन हुआ. नतीजा गहरे गड्ढे. लखनऊ की जो सड़कें बेहतर मानी जाती थीं, उनकी भी बजरी-गिट्टी इन दिनों उखड़ गयी है. दोपहिया वाहनों के लिए यह बहुत खतरनाक साबित हो रहा है.

सड़क दुर्घटनाओं के मामले में उत्तर प्रदेश वैसे भी देश में अग्रणी है. यातायात विभाग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2017 में राज्य में  38,411 दुर्घटनाएं हुई जिनमें  20,142 लोग मारे गये और 27, 507 घायल हुए. देश में यह सबसे ज्यादा है. दुर्घटनाएं और मौतें हर साल बढ़ रही हैं. इस मामले में कानपुर नगर सबसे खतरनाक जिला है. फिर लखनऊ का नम्बर है. तीसरे स्थान पर आगरा.

सड़क दुर्घटनाएं कम हों, उनमें इतनी बड़ी संख्या में जानें न जाएं, ऐसे  उपाय जमीन पर कहीं नहीं दिखते, हालांकि भारत सरकार ने उस अंतराष्ट्रीय घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर रखे हैं जिसमें संकल्प लिया गया है कि सड़क-सुरक्षा के ऐसे उपाय किये जाएंगे कि 2020 तक सड़क दुर्घटनाओं में मौतों की संख्या आधी हो जाए. उत्तर प्रदेश में तो अभी मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. पता नहीं यहां किसी को ऐसे संकल्प-पत्र की याद भी है या नहीं.

जनता यातायात नियमों का पालन नहीं करती. हमारे वीवीआईपी नियम तोड़ना और धौंस जमाना सिखाते हैं. रास्तों पर अतिक्रमण हैं. यातायात पुलिस का सारा ध्यान वीवीआईपी की झूठी शान बनाये रखने में है. जनता की सड़क-सुरक्षा पर उसका ध्यान नहीं. जिम्मेदार विभाग सड़कों के गड्ढे भर देने में  लापरवाह है. दुर्घटना होते ही जल्दी से जल्दी इलाज की व्यवस्था नहीं. फिर कैसे कम हों दुर्घटनाएं और मौतें?

गुरुवार को यह मामला विधान परिषद में उठा लेकिन पक्ष-विपक्ष में व्यक्तिगत आक्षेपों तक रह गया. मूल मुद्दे पर चर्चा ही नहीं हुई. क्या कहें?

('सिटी तमाशा', नभाटा, 01 सितम्बर, 2018)



Friday, August 24, 2018

हमारी बेचारी पुलिस और कानून-व्यवस्था



हजरतगंज थाने के इंसपेक्टर पर कड़ी कार्रवाई हो जाएगी, यह मंगलवार की शाम ही तय था. आखिर भारतीय जनता पार्टी के राज में भाजपाइयों पर ही लाठी चलाने की जुर्रत कोई इंसपेक्टर कैसे कर सकता है. विरोधी दल वाले प्रदर्शन कर रहे होते तो चाहे जितना लाठी चलाइए, आंसू गैस छोड़िए. शाबाशी मिलेगी.

अदालती आदेश से सचिवालय से हजरतगंज चौराहे तक प्रदर्शन करने पर रोक है. उस दिन भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ता नवजोत सिंह सिद्धू का पुतला फूंकने निकले थे. जो पार्टी सत्ता में होती है, उसके लोगों पर नियम-कानून लागू नहीं होते, यह बात पुलिस इंसपेक्टर भूल गये या उनमें कर्तव्यनिष्ठा कुछ ज्यादा ही थी. प्रदर्शनकारियों को रोका गया तो उन्होंने पुलिस चौकी प्रभारी की पिटाई कर दी. तब इंसपेक्टर ने लाठी चलवा दी. कुछ कार्यकर्ता घायल हो गये जिनसे सहानुभूति जताने मंत्री भी दौड़े आये. मुख्यमंत्री तक फरियाद हुई. तभी निश्चित था कि इंसपेक्टर नपेगा. फिलहाल वह निलम्बित है. इससे पहले जांच की खाना पूरी भी करवा ली गयी.

गुरुवार को अटलजी की अस्थि कलश यात्रा थी. लखनऊ विश्वविद्यालय के पुलिस चौकी प्रभारी को उस भीड़ में वह अभियुक्त दिख गया जो कुलपति के साथ मारपीट में वांछित था. उसने फौरन उसे पकड़ा. मगर एक भाजपा विधायक के समर्थकों ने चौकी प्रभारी से मार-पीट कर उसे छुड़ा लिया. उसकी मदद के लिए और पुलिस बल नहीं आया. मामले में आगे भी शायद कुछ नहीं होगा.

ये दो वाकये यह बताने के लिए यहां दर्ज किये गये हैं कि पिछली सपा सरकार में पुलिस के साथ ठीक यही व्यवहार समाजवादी पार्टी के लोग करते थे. सपाइयों पर किसी तरह की कार्रवाई करने वाले पुलिस वालों को इसी तरह प्रताड़ित किया जाता था. सपा विधायक ही नहीं छोटे कार्यकर्ता भी पुलिस वालों का गिरेबान पकड़ लेते थे, उनके साथ मारपीट करते थे, थाने में घुस कर अभियुक्तों को छुड़ा ले जाते थे.

नतीजा? पुलिस बल में भीतर-भीतर डर, असंतोष और गुस्सा भरा रहता है. ऐसे माहौल में पुलिस निश्चित हो कर कानून-व्यवस्था बनाये रखने का दायित्व कैसे निभा सकती है? कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपराध कम नहीं हो रहे. अपनी जिम्मेदारी निभाने में पुलिस को खुली छूट नहीं होगी तो कानून-व्यवस्था कैसे बनी रहेगी? जहां निषेधाज्ञा लागू है वहां प्रदर्शन कर पुतला फूंकने आएंगे तो क्या पुलिस को उनका स्वागत करना चाहिए था?  

मुख्यमंत्री बार-बार अधिकारियों को चेतावनी दे रहे हैं. पुलिस अफसरों के पेच कस रहे हैं. निलम्बन और तबादले कर रहे हैं. किंतु इसका असर होता नहीं दिखता. कारण यही है कि पुलिस दवाब में  है. उसे डर रहता है कि पता नहीं किस अभियुक्त के तार सत्ता पक्ष में ऊपर तक जुड़े हों और उलटे पुलिस पर ही कार्रवाई न हो जाए. पिछली सरकार में सपा नेता चुंगी दिये बिना और मांगे जाने पर चुंगी वालों को मार-पीट कर फर्राटा भरते थे. उन्हें मालूम था कि उनकी सरकार में उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा. अब यही बात भाजपाई मानते हैं. फिर सुधार कैसे हो?

कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी और सिपाही स्वीकार करते हैं कि उन्हें अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं है. वे सत्तारूढ़ पार्टी के दवाब में रहते हैं. उसका अदना-सा नेता भी थानेदारों को फोन पर घुड़कियां देता है. उन्हें अपमानित करता है. अपमानित और डरे पुलिस बल से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह निष्पक्ष और स्वतंत्र होकर काम करे. वे या तो कर्तव्यनिष्ठा की सजा भुगतें या नेताओं के इशारे पर नाच कर खुद भी ज्यादतियां करते रहें. पुलिस नाकामयाब और बदनाम है तो उसके बड़े कारण हैं. पुलिस सुधार की कई सिफारिशों में इस सब का उल्लेख है. 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 अगस्त, 2018) 

Tuesday, August 21, 2018

कांग्रेस का कठिन रास्ता




चुनाव आयोग के इनकार के बाद एक देश, एक चुनावका भाजपा का अभियान फिलहाल निकट भविष्य में फलीभूत होता नहीं दिखता. भाजपा शुरुआत के लिए यह माहौल तो बना ही रही थी कि 2019 में आम चुनाव के साथ आठ-दस राज्यों के विधान सभा चुनाव भी करा लिये जाएं. चार राज्यों के चुनाव वैसे भी लोक सभा के साथ होने हैं. चार राज्यों के चुनाव, जो इस वर्ष के अंत तक होने हैं, कुछ टाल कर और एक-दो अन्य राज्यों में समय पूर्व चुनाव कराकर एक देश, एक चुनावका श्रीगणेश किया जा सकता था. इसमें किसी संविधान संशोधन की भी जरूरत नहीं थी.

भाजपा के बारम्बार दोहराये गये प्रस्ताव और विधि को पहल से अगर इस तरह का कोई माहौल बना भी था तो व्यावहारिक कारणों से मुख्य निर्वाचन आयुक्त के स्पष्ट इनकार के बाद सबसे ज्यादा राहत कांग्रेस ने ली होगी. कांग्रेस को लग रहा था कि भाजपा एक देश, एक चुनावको भी येन-केन प्रकारेण हर चुनाव जीतने की अपनी रणनीति में शामिल कर रही है. मसलन, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के चुनाव, जहां भाजपा सत्ता-विरोधी रुझान का सामना कर रही है, लोक सभा के साथ कराकर वह अपना नुकसान टालने की चाल चल रही है, क्योंकि तब क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव को प्रभावित कर रहे होंगे.

बहरहाल, कांग्रेस का भला ऐसी हवाई राहतों से होने वाला नहीं. यदि मोदी और शाह कांग्रेस-मुक्त भारतके नारे पर अमल करने पर तुले ही हैं तो कांग्रेस के बचाव का एक ही तरीका हो सकता है कि वह नयी परिस्थितियों में व्यावहारिक रणनीति अपनाये, अपने मूल्यों से स्वयं को पुनर्जीवित करने का अवसर तलाशे, संगठन को सुदृढ़ एवं व्यापक बनाए और पलट कर वार करे. क्या कांग्रेस के भीतर ऐसे कोई तैयारी चल रही है?
बीती मार्च में हुए कांग्रेस महाधिवेशन और पिछले मास कांग्रेस कार्यसमिति ने 2019 के आम चुनाव में साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने और देश के निर्माताओं के सपनों के अनुरूप भारत के विचार को बहालकरने के लिए समान विचार वाले दलों से गठबंधन का व्यावहारिक मार्ग अपनाना तय कर लिया था. आम चुनाव दूर नहीं हैं. क्या इस दिशा में उसने कुछ कदम आगे बढ़ाये?

पार्टी के हालात को देखते हुए सन 2003 की तरह गठबंधन का नेतृत्व करने का दावा हालांकि इस बार कांग्रेस ने छोड़ दिया है लेकिन राज्य सभा के उप-सभापति के चुनाव में उसके पास अच्छा मौका था कि वह भावी गठबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की पहल कर सके. इसमें वह सफल नहीं हो सकी. क्षेत्रीय दल भी आपस में कोई सूत्र नहीं जोड़ सके. भाजपा ने जद (यू) के प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाकर बीजू जनता दल को भी साध लिया. गठबंधन की रणनीति में भी फिलहाल एनडीए बेहतर हाल में दिखाई देता है.

बीजद का कांग्रेस-विरोध नया नहीं है लेकिन राज्य सभा के उप-सभापति के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी उसके प्रत्याशी को वोट नहीं दिया जबकि अरविंद केजरीवाल भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धुर विरोधी मानते हैं. यह विरोधाभास बताता है कि भाजपा के खिलाफ एक मजबूत और बड़ा गठबंधन बनाना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल होने वाला है. कुछ क्षेत्रीय दल ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस-विरोधी हैं तो कुछ को लगता है कि आज की स्थितियों में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने की बजाय अकेले ही भाजपा का मुकाबला करना अच्छा होगा. इस द्वंद्व से उन्हें उबारने का उत्तरदायित्व भी कांग्रेस को लेना होगा.

भाजपा-विरोधी दलों को वह साध सके, इसके लिए कांग्रेस को पहले अपने संगठन को चक-चौबंद करना होगा. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस संगठन बिखरा हुआ और निष्क्रिय है. तीन दशक से सत्ता से बाहर रहने के अलावा भी इसके कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं. राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सम्भाले पर्याप्त समय हो चुका लेकिन वे अब तक उत्तर प्रदेश में एक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष नहीं दे सके. यूपी और बिहार ही क्यों, आसन्न चुनाव वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी पुराने कांग्रेसी दिग्गज पार्टी हित में काम करने की बजाय एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता ठाने हुए हैं. क्या यह अच्छा नहीं होता कि कांग्रेस वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के मुकाबले अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने मैदान में उतरती? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव  ही उसे ऐसा करने से रोकता है. खतरा उठा कर दो टूक फैसले करने और अपेक्षाकृत नये चेहरों को सामने लाने से राहुल भी बचते आ रहे हैं. बचाव की यह शैली कांग्रेस के बचे-खुचे कार्यकर्ताओं में जोश कैसे भरे?

सन 2018 की कांग्रेस नेहरू की कांग्रेस नहीं है. पुराने दिग्गजों और मूल्यों को एक किनारे कर इंदिरा गांधी ने 1971 में उसे नया अवतार दे दिया था. आज राहुल के पास इंदिरा वाली कांग्रेस भी नहीं है. उनके पिता राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण तथा अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने एवं राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति देकर कांग्रेस की भटकन और पतन का जो रास्ता खोला था, उसने पार्टी को पुराने जनाधार से वंचित कर खोखला किया. 1997 से सोनिया के बागडोर सम्भालने के बाद कांग्रेस कुछ सम्भली और गठबंधन की राजनीति का नया दौर उसने सफलता से चलाया. यूपीए-2 की बदनामियों और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नये अवतार ने उसे 2014 में जो पटकनी दी, उससे उबरने का रास्ता अब उसे खोजना है. एक तरह से कांग्रेस को नया अवतार लेना है. इसके लिए जिस दृष्टि, खतरे उठाने की आवश्यकता है, क्या राहुल उसे समझते हैं? उसके लिए तैयार हैं?

दलित राजनीतिक नेतृत्व के उभार, मंडल आयोग की रिपोर्ट के पश्चात पिछड़ा वर्ग की गोलबंदियों और भाजपा की उग्र हिंदू ध्रुवीकरण की रणनीति ने 1990 के बाद से भारतीय समाज और चुनावी राजनीति को पूरी तरह उलट-पुलट दिया है. इसमें कांग्रेस के लिए जगह सिकुड़ती चली गयी किंतु ऐसा भी नहीं है कि उसके लिए सम्भावना समाप्त हो गयी हो.

सन 2014 में भारी बहुमत पाने वाली भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत मत मिले थे जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में लोक सभा में बहुमत पाने वाली किसी भी पार्टी को मिले सबसे कम वोट हैं. जिसे कांग्रेस के राजनैतिक प्रस्ताव में भारत का विचार (आयडिया ऑफ इण्डिया) कहा गया है, उसकी बहुत बड़ी जगह आज के भारत में भी मौजूद है.  उस जगह को भरने लायक विश्वास कांग्रेस पा सके, यह कोशिश राहुल कर सकें तो कांग्रेस का पुनर्जन्म हो.

अन्यथा, उन्हें तब तक इंतजार करना होगा जब तक भाजपा अपनी ही गलतियों से उनके लिए जगह खाली न कर दे.

(प्रभात खबर, 22 अगस्त, 2018) 


Friday, August 17, 2018

ये किसका शहर है पिटा हुआ?



शहरी विकास और स्वच्छता सर्वेक्षणों के बाद अब रहने की सुविधाओं के लिहाज से बेहतर शहरों की सूची में भी राजधानी लखनऊ फिसड्डी साबित हुआ है तो आश्चर्य कैसा? उत्तर प्रदेश का एक भी शहर इस सूची के पहले 32 में स्थान नहीं पा सका है तो समझा जा सकता है कि हम किस हाल में रह रहे हैं. आश्चर्य इस पर भी नहीं होना चाहिए कि सूची में सबसे नीचे आने वाला शहर रामपुर भी यूपी ही का है.

ईज ऑफ लिविंगयानी जहां रहना आरामदायक अर्थात सुविधाजनक हो, सर्वेक्षण के लिए जो मापदण्ड तय किये गये थे उनमें सुशासन का हाल, शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति, सुरक्षा-व्यवस्था, आवासीय और मूलभूत सेवाएं, बिजली-पानी आपूर्ति भी शामिल हैं. इस पैमाने पर लखनऊ को प्रदेश में अव्वल आना चाहिए था. सरकार यहीं बैठती है, एक से एक नामी स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय हैं, सरकारी और निजी बड़े अस्पताल हैं, पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा बिजली-पानी लखनऊ वालों को मिलते हैं. इन पैमानों पर भी लखनऊ अच्छे नम्बर नहीं पा सका. उसे 73वां स्थान मिला. मतलब बहुत खराब. सबसे अच्छा शहर पुणे निकला. सोच लीजिए कि पुणे की तुलना में हमारा लखनऊ कितना बदहाल है.

अपने शहर को सबसे खराब नम्बर मिश्रित भू-उपयोग, आवास और समावेशीकरण, पार्क एवं खुली जगह तथा पहचान एवं संस्कृति के लिए मिले हैं. सीधा मतलब है लखनऊ में उपलब्ध जमीन का बेहतर उपयोग नहीं किया गया है. रिहायशी इलाके और वंचित वर्गों के लिए अवास सुविधा विकसित कर पाने में यह विफल है. बागीचों और खुली जगहों के लिए कभी मशहूर लखनऊ पांच में से मात्र 0.27 नम्बर पा सका है तो क्या समझा जाए? यही हाल पहचान और संस्कृति के क्षेत्र में है. हम बड़ा गर्व करते हैं कि देश भर में लखनऊ की विशिष्ट पहचान है, कला और संस्कृति के मामले में इसका कोई सानी नहीं, लखनवी खान-पान, बोली और पहनावे की धूम है, वगैरह. किंतु इस सर्वेक्षण में हमें 6.25 में से मात्र 0.67 अंक मिले हैं. कहां खड़े हैं हम? अपने मुंह मियां मिट्ठू ही न!

ऐसे सर्वेक्षणों का और कोई मतलब भले न हो लेकिन इतना तो पता चलता ही है कि कुछ खास मानकों पर देश के दूसरे राज्यों एवं शहरों की तुलना में आज हम कहां हैं. यह जितना हमारी सरकारों, स्थानीय प्रशासनों और नगर निकायों की विफलता है, उतना ही हमारी यानी जनता की कर्तव्य-विहीनता का द्योतक है. शहरों के चेहरे सबसे ज्यादा उसके निवासी बनाते-बिगाड़ते हैं. इससे हमारा नागरिक-बोध और दायित्व-बोध भी पता चलता है.

हम अपने शहर से प्यार नहीं करते. उसके प्रति लापरवाह हैं. इसीलिए इस सर्वेक्षण के परिणामों पर कोई चिंता भी नहीं दिखाई देती. हुआ करे लखनऊ फिसड्डी, हमें क्या! यह जिम्मेदारी सरकार की है, नगर निगम की है, हमसे क्या मतलब. हम मस्ती करेंगे और कचरा फैलाएंगे. हम जहां मर्जी आई थूकेंगे. कहीं भी गाड़ी खड़ी करेंगे, घर के आगे नाली बंद करेंगे, अतिक्रमण करेंगे, सार्वजनिक सम्पत्ति की तोड़-फोड़ करेंगे, कहीं से बल्ब चुरा लाएंगे और टैक्स चोरी करने में दूसरों के कान काटेंगे. नियम-कानून मानना हमारी शान में गुस्ताखी है.

किसी को सड़क पर टोक कर देखिए कि आपने गाड़ी गलत खड़ी की है या आप उलटी दिशा से आ रहे हैं या सर, बर्गर-कोक खा-पी कर प्लेट-गिलास सड़क पर मत फैंकिए. वह मारपीट पर उतारू हो जाएगा लेकिन शर्मिंदा कतई न होगा. फिर किसको क्या पड़ी है कि उसका शहर सर्वेक्षण में कहां खड़ा है!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 जनवरी, 2018)

   

Thursday, August 16, 2018

सरकारी अनुदान और लड़कियों के आश्रय दाता



मां मर गयी, पिता ने दूसरे शादी कर ली. सौतेली मां ने सताया तो ननिहाल भेज दी गयी. वहां भी ठौर न मिली तो दर-दर भटकने लगी. रेल पुलिस ने आश्रयहीन लड़की को संरक्षण गृह पहुंचा दिया. गरीबी और लाचारी के किस्से भी बहुत हैं. किसी को घर वाले बेहतरी की उम्मीद में संरक्षण गृह पहुंचा गये तो कोई माता-पिता लड़की का बोझनहीं ढो पाने की विवशता के कारण.संरक्षण गृह भयानक नरक साबित हुए. किस्से आप पढ़-सुन ही रहे हैं. इस समाज में लड़कियों के साथ क्या-क्या हो रहा है. गर्भ में न मारी गईं तो जीते-जी रोज-रोज मारी जाती रहेंगी. सरकारी अनुदान से सुरक्षा और आश्रय देने के नाम पर खुली संस्थाएं उनके लिए दैहिक-मानसिक यातना गृह साबित हो रही हैं. जिला प्रशासन, पुलिस, एनजीओ, मंत्री-विधायक, आला अफसर सब उस गिरोह में शामिल हैं.

बिहार के मुजफ्फरपुर के बाद अपने प्रदेश में देवरिया के एक आश्रय गृह में लड़कियों के यौन शोषण का मामला क्या खुला, चारों तरफ से ऐसे सरकारी एवं एनजीओ संचालित संस्थाओं की पोल सामने आने लगी. अच्छा हुआ कि योगी सरकार ने राज्य के सभी ऐसे आश्रय गृहों की जांच के आदेश दिये हैं. जहां यौन शोषण के मामले नहीं हैं, या पता नहीं चल पा रहे वहां इतना तो है ही कि रजिस्टर में दर्ज महिलाओं में से अधिकसंख्य गायब हैं. कहां, गईं? संचालकों के पास कोई जवाब नहीं है. वे बहाने बना रहे हैं. असल बात ये है कि वहां महिलाएं रखी ही नहीं गईं, सिर्फ रजिस्टर में उनके नाम लिख दिये गये ताकि उनकी संख्या के बल पर सरकार से अनुदान मिलता रहे. किसी ने मुहल्ले की महिलाओं के नाम लिख लिये ताकि कभी निरीक्षण के समय उन्हें बुलाया जा सके.

ज्यादातर आश्रय गृहों में जरूरी सुरक्षा व्यवस्था नहीं है. गंदगी और दूसरी अव्यवस्थाओं का तो कहना ही क्या. अक्सर खबरें आती रहती हैं कि अमुक आश्रय गृह से लड़कियां भाग गईं. बाल गृहों से बच्चे भी भागते रहे हैं. ज्यादातर मामले ऊपरी जांच-पड़ताल के बाद दबा दिये जाते रहे. कभी जिम्मेदार विभाग और जिले के अधिकारियों ने ठीक-ठीक पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि अंदर के हालात क्या-कैसे हैं. अनुदान लूटने के खेल में सभी शामिल हैं. वर्ना पंजीकरण रद्द हो जाने के बावजूद संरक्षण गृह कैसे चल रहा था? जिला प्रशासन और पुलिस आश्रयहीन लड़कियों को वहां क्यों भेज रहे थे?

समाज कल्याण विभाग की कई योजनाएं हैं. अच्छा-खासा बजट है. आश्रय-हीन कन्याओं, महिलाओं, शिशुओं, किशोरों, वृद्धों, विकलांगों, मानसिक रोगियों, भिक्षुओं, आदि को आश्रय देने वाली संस्थाओं को अनुदान देने की व्यवस्था है. संस्थाओं का बाकायदा पंजीकरण, निरीक्षण और सत्यापन होता है. पिछले वर्षों में दिये गये अनुदान के व्यय की जांच होती है. नियमों के अनुसार काफी कागजी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं. इस हिसाब से किसी भी संस्था को गड़बड़ करने पर पकड़ा जा सकता है. लेकिन देखिए कि कोई पकड़ा नहीं जाता. जो जितना ज्यादा गड़बड़ करता है उतना ज्यादा अनुदान पा जाता है. ईमानदारी से समाज सेवा करने वालों को सरकारी अनुदान नहीं मिल पाता. संस्थाओं से लेकर विभाग में ऊपर तक मिलीभगत है.

जब भी कोई बड़ा मामला खुलता है तब पूरा तंत्र हरकत में आता है. कुछ समय को व्यवस्था में हल-चल मचती है. कुछ निलम्बन, वगैरह होते हैं. जांच बैठती है. फिर धीरे-धीरे चीजें वापस उसी पटरी पर आ जाती हैं. किसी महिला संरक्षण गृह में लड़कियों के यौन शोषण का मामला कोई पहली बार नहीं खुल रहा है. ये मामले भी जल्दी भुला दिये जाएंगे, एक और मामला सामने आने तक.         


(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 अगस्त, 2018)

Wednesday, August 08, 2018

सिर्फ स्वार्थ की राजनीति


हमारे देश में किसी मुद्दे पर विभिन्न राजनैतिक दल कैसा रुख अपनाएंगे और क्या पैंतरे दिखाएंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि वह मुद्दा किन लोगों से जुड़ा है और वे आसन्न चुनाव को किस तरह प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. बिल्कुल ताजा मामला एससी-एसटी एक्ट का है, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के कुछ दिशा-निर्देशों के बाद बीती 20 मार्च से आज तक संसद से सड़क तक हंगामा बरपा है. इस दौर में चूंकि देश की चुनावी राजनीति दलित-केंद्रित हो गयी है, इसलिए सभी राजनैतिक दल दलित-हितैषी बन गये हैं. एक होड़ मची है कि उसका चेहरा दूसरों से अधिक दलित हितकारी दिखाई दे. उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं है कि पूर्व में इसी मुद्दे पर उनका रुख क्या रहा है. देश का दलित समुदाय किस हाल में है, यह भी उनकी चिन्ता का केंद्र नहीं है.

बीती 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक) कानून, 1990 के बारे में चंद दिशा-निर्देश दिये थे ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को फंसाया न जा सके. पहले व्यवस्था थी कि दलित उत्पीड़न की शिकायत आते ही आरोपित व्यक्ति को बिना प्रारम्भिक जांच पड़ताल के तुरंत गिरफ्तार किया जाए. उसकी जमानत की व्यवस्था भी नहीं थी. देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि इस सख्त कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है. इसलिए उसने निर्देश दिया कि गिरफ्तारी से पूर्व प्रारम्भिक जांच हो, सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाए और जमानत देने पर भी विचार किया जाए.

इन निर्देशों को एससी-एसटी एक्ट को नरम बनाना माना गया. देश भर में विभिन्न दलित संगठन सड़कों पर उतर आये. मोदी सरकार का शुरुआती रुख था कि शीर्ष अदालत ने कानून को बदला नहीं है, बल्कि उसका दुरुपयोग न होने देने के लिए कुछ व्यवस्थाएं दी हैं. यह पैंतरा भाजपा की मूल राजनीति के अनुकूल था क्योंकि उसका मुख्य जनाधार सवर्ण हिंदू जातियां रही हैं, जो इस कानून की चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं और इसीलिए इसके विरोध में रहे हैं. किंतु जैसे-जैसे दलितों का आंदोलन उग्र होता गया, विरोधी दलों ने मोदी सरकार को दलित-विरोधी बताना शुरू किया और सत्तारूढ़ एनडीए के दलित घटक दलों ने भी विरोध में आवाज उठायी तो भाजपा सतर्क हो गयी. 
मोदी सरकार इसलिए भी घिरती दिख रही थी कि इस कानून को नरमबनाने का आदेश देने वाले एक न्यायमूर्ति ए के गोयल को सरकार ने उनकी सेवानिवृत्ति के अगले दिन ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बना दिया. रामविलास पासवान जैसे एनडीए सहयोगियों ने इसका खुला विरोध किया.

चूंकि 2019 में दलित वोट निर्णायक साबित होने हैं, इसलिए भाजपा ने फौरन पैंतरा बदला. सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गयी. कोर्ट का रुख पूर्ववत रहा तो संसद के चालू सत्र ही में नया विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने की रणनीति बनी. फिलहाल नया विधेयक लोक सभा से पारित हो गया है. सरकार यह प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही कि एससी-एसटी एक्ट को पहले से अधिक सख्त किया जा रहा है. मोदी जी कह रहे हैं कि उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अगस्त क्रांतिकर दी है.

कांग्रेस समेत अन्य विरोधी दल जो भाजपा को पहले से दलित विरोधी साबित करने में लगे थे, इस बहाने और सक्रिय हो गये. उन्होंने चुनौती दी कि एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने के लिए सरकार तत्काल अध्यादेश क्यों नहीं ला रही. अध्यादेश आसान रास्ता था लेकिन सरकार विधेयक पर संसद में बहस कराकर अपना दलित-प्रेमी चेहरा प्रस्तुत करने और दूसरों को दलित-विरोधी बताने का मौका क्यों छोड़ती.

दलितों की सबसे आक्रामक राजनीति करने वाली बसपा-नेत्री मायावती को एससी-एसटी एक्ट को नरमकिये जाने पर सबसे ज्यादा बिफरना ही था. उन्होंने इस कानून को बाबा साहेब आम्बेडकर और दलितों के लम्बे संघर्ष का परिणाम बताते हुए भाजपा को इसे नरम बनाने की साजिश करने का आरोप लगाया. अब जबकि एससी-एसटी एक्ट को फिर से उसी तरह सख्त बनाने के लिए विधेयक लोक सभा से पारित हो गया है, वे इसके लिए दलितों के आंदोलन तथा उनकी एकजुटता को श्रेय दे रही हैं. किंतु, ग्यारह वर्ष पहले सवर्णों को साथ लेकर बहुजन की बजाय सर्वजनकी सोशल इंजीनीयरिंग से उत्तर प्रदेश की सत्ता पाने वाली मायावती ने एससी-एसटी एक्ट को सबसे ज्यादा नरम बनाने वाले आदेश जारी किये थे, यह शायद आज वे याद भी न करना चाहें.

सन 2007 के चुनाव में मायावती को दलितों के अलावा सवर्णों के समर्थन ने बहुमत दिलाया था. एससी-एसटी एक्ट पर अमल से सवर्ण नाराज न हो जाएं, इसलिए मई और अक्टूबर 2007 में दो अलग-आलग आदेशों से उन्होंने उत्तर प्रदेश में इस कानून को इतना नख-दंत विहीन कर दिया था, जितना वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से भी नहीं हुआ. उन आदेशों का सार यह था कि हत्या और बलात्कार को छोड़कर दलित उत्पीड़न के अन्य मामले एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज न किये जाएं और यदि कोई दलित किसी को इस कानून का दुरुपयोग करे उस पर आईपीसी की धाराओं में मुकदमा लिखा जाए. आज चूंकि उन्हें सबसे पहले अपने अपना दलित जनाधार बचाना है इसलिए सवर्णों की नाराजगी की चिंता किये बगैर उसी कानून की सख्ती के लिए आक्रामक रुख अपनाना पड़ रहा है.

इस वक्त एक भी राजनैतिक दल नहीं होगा जो एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के कारण इ से फिर से सख्त बनाने का विरोध करे. भाजपा को, जिसे अपने सवर्ण वोट बैंक की निगाह से इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए था, इसकी सबसे बड़ी हिमायती दिखने का प्रयास कर रही है. कारण है दलितों का देशव्यापी बड़ा वोट बैंक.अस्सी लोक सभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा का गठबंधन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. यहां उसे दलितों के पक्ष में मायावती से भी ज्यादा खड़े दिखना है. सवर्ण थोड़ा नाराज हुए भी तो साथ ही रहेंगे. दलित वोट मिल गये तो नैया पार.

विडम्बना देखिए कि सुप्रीम कोर्ट की उसी पीठ ने पिछले साल जुलाई में यह कहते हुए कि दहेज निरोधक कानून की सख्ती का दुरुपयोग भी होता है, उसे नरमबनाने के निर्देश दिये थे. अब दहेज कानून में बिना आरोपों की प्रारम्भिमक जांच के तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती. महिला संगठनों ने दहेज कानून को उत्पीड़क के पक्ष में उदार बनाने के खिलाफ आवाज उठायी थी. धरना-प्रदर्शन किये थे लेकिन चूंकि दलितों  की तरह महिलाएं एकजुट वोट-बैंक नहीं हैं, इसलिए कोई राजनैतिक दल उनके साथ खड़ा नहीं हुआ. दलितों के साथ खड़ा दिखने के लिए उनमें युद्ध छिड़ा हुआ है.

(प्रभात खबर, 09 अगस्त, 2018)


Friday, August 03, 2018

हथिया बरसी तौ का होई, कक्का?



पिछला पूरा सप्ताह बारिश के नाम रहा. सतझड़ी. ऐसा कई साल बाद हो रहा है कि हफ्ते भर से ज्यादा हो गया, बादल छाये हैं और जब-तब बरस रहे हैं. कभी फुहारें, कभी तेज धार. राजधानी और आस-पास बाढ़ जैसी आ गयी है. सड़कें, गलियां पानी में डूबी हैं, धंस रही हैं. घरों में पानी घुस रहा है. नगर निगम और प्रशासन हलकान है. हालात काबू से बाहर वैसे ही रहते हैं, अब सब निरुपाय हैं. मीडिया कह रहा है कि बारिश ने सरकार एवं शहर प्रशासन के दावों तथा तैयारियों की पोल खोल दी है. ढोल में पोल ही होता है. तभी वह बजता है.

यह अति-वृष्टि नहीं है. मौसम विभाग के आंकड़े बता रहे हैं कि सामान्य बारिश है. औसत से थोड़ा ज्यादा. बस, सावन जैसा सावन आया है. अब यह सावन का दोष नहीं है कि हमने उसके स्वागत के लिए भी गुंजाइश नहीं छोड़ी. सामान्य वर्षा भी हमारे शहर बर्दाश्त नहीं कर पाते. हमने शहरों को न वैसा बनाया, न इस लायक रहने दिया. शहर असामान्य हैं. सामान्य मौसम को कैसे सहें?

सावन-भादौ में हफ्ते-दस दिन लगातार बारिश सामान्य ही बात होती थी. खेती-किसानी से लेकर दूसरे कई काम न हो पाते तो सयाने आसमान की ओर देख कर कहते थे- क्या मंशा है, नहीं करने देता कुछ काम? वह न सुनता तो बड़बड़ाते और गांवों-खेतों की नालियों, गूलों, नहरों की देखभाल को निकल जाते कि पानी अटके नहीं. एक-दूसरे को सावधान करते- अरे, कक्का, हथिया बरस रहा है. कहावत रही कि हथिया नक्षत्र में हाथी की सूंड़ बराबर मोटी धार बरसती है.!

सोचता हूँ, यहां सचमुच हथिया बरस गया तो क्या होगा? जल-थल-प्रलय? सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में बेहतरीन ढाल वाली नालियां अब तक मिलती हैं. बेहतरीन नगर नियोजन का प्रमाण.आज की असभ्यता का इतिहास कभी लिखा जाएगा तो नदी-नालों-नालियों में निर्माण और तालाबों में बहुमंजिली इमारतों का लेखा-जोखा हमारे नगर नियोजन की मूर्खताओं से हतप्रभ करेगा. भावी अध्ययेता कैसे कह सकेंगे कि हम विकसित समाज थे? किताबों में वैज्ञानिक विकास के प्रमाण होंगे लेकिन जीवन-पद्धति घनघोर अवैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करेगी.

धरती की अपनी बनावट होती है. पानी ढाल की तरफ बहता है. नदियों-तालाबों में वह ठौर पाता है. धरती वर्षा को यथा सम्भव रोकती, सोखती और फिर आगे बढ़ाती है. हमने धरती ही बिगाड़ दी. नदियां उजाड़ दीं. उनके जल-ग्रहण क्षेत्र में कब्जे कर कर लिये. तालाब पाट कर इमारतें बना दीं. मिट्टी को कंक्रीट और कोलतार की अनगिन परतों में बदल दिया. बारिश कहां ठौर पाये? वह उपद्रव न मचाये तो कहां जाए? बारिश का स्वागत करने लायक इस धरती को हमने छोड़ा ही नहीं. जो वर्षा उत्सव होनी थी, वह बड़ा संकट है.  

देख ही रहे होंगे कि बहने की कोशिश करते ठहरे पानी में हमारी सभ्यता का कैसा चेहरा प्रकट हो रहा है. वहां क्या-क्या उतराता दिखता है? क्या उसमें हम अपना चेहरा देख पाते हैं? जब बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में पानी भरा है,घरों से बाहर निकला मुश्किल है, तब भी क्या हम सोच पा रहे हैं कि हमारी विकास-यात्रा किस तरफ जा रही है? दस साल पहले ऐसा हाल नहीं था तो आज क्यों हुआ और दस साल बाद क्या होगा?

क्या कहीं कोई चिंता है कि इस विनाश-यात्रा को अब भी पलटने की कोशिश शुरू की जानी चाहिए? ‘स्मार्ट सिटीकी बजाय नेचर सिटीकी तरफ एक कदम?  


('सिटी तमाशा', नभाटा, 04 अगस्त, 2018)