Sunday, November 25, 2018

30 साल में अयोध्या की सरयू में बहुत पानी बह चुका


पिछले तीस वर्षों में भारतीय राजनीति ने बहुत उठा-पटक देख ली. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने का भाजपा-विहिप का राजनैतिक अभियान भी कई उतार-चढ़ाव से गुजर चुका. बीच के कई साल वह नेपथ्य में गया तो स्वयं भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में भी उसकी जगह बहुत पीछे चली गयी थी. तब उसकी कुछ खास सियासी वजहें थीं. आज 2018 में वह फिर भाजपा की चुनावी राजनीति के केंद्र में है तो भी उसके बड़े कारण हैं. स्थितियां लेकिन बहुत भिन्न हैं.

इन तीस-बत्तीस वर्षों में दुनिया और भी ज्यादा बदल गयी. विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने खूब छलांग लगाई, मानव के जीने, रहने और संवाद  करने का तौर-तरीका सर्वथा नया हो गया तो धर्मांधता से उपजे आतंकवाद ने बहुत दहलाया और खून-खराबा मचाया. वैचारिक स्तर पर वाम विचार और राजनीति का प्रभाव कम होता गया और दक्षिणपंथी सोच कई देशों में राजनीति पर हावी हो गया.

1990 में आडवाणी की राम-रथ-यात्रा की खबरें देने के लिए हमारे पास प्राइवेटट न्यूज चैनेल नहीं थे, ईमेल नहीं था.  मोबाइल फोन की शुरुवात भारत में जुलाई 1995 में हुई. लैण्डलाइन फोन था लेकिन 145 भारतीयों में सिर्फ एक के पास. खबरें, नारे और अफवाहें फैलाने के लिए मोटर साइकिलों पर सवार युवा दस्ते चीखते-चिल्लाते-भगवा ध्वजज फहराते सड़कों पर दौड़ते थे. अखबारों का ही सहारा था. आज टीवी-इण्टरनेट छोड़िये, हर क्षण हाथ में पकड़े छोटे से मोबाइल-स्क्रीन पर पल-पल का सत्य-असत्य-प्रपंच सब हाजिर है.
दुनिया बदली, तौर तरीके नये हुए लेकिन सत्ता के लिए धर्म की राजनीति की रवायत नहीं बदली.    

थोड़ा पीछे चलें

तब और अब के हालात को समझने के लिए थोड़ा पीछे देखना ठीक रहेगा. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाने की गुन-मुन अक्टूबर 1984 में तेज होना शुरू हुई थी जब विहिप ने राम जन्म-भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया था. उस समय अयोध्या से लखनऊ तक की 130 किमी की पद-यात्रा भी की गई थी. उसके बाद धीरे-धीरे यह अभियान बढ़ाया गया. 1986 आते-आते इसकी गूंज राजनैतिक गलियारों तक पहुंच गयी थी.

विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स हमलों से घायल राजीव गांधी को विहिप के राम मंदिर अभियान को हवा देने में अपना त्राण दिखाई दिया या उनके सलाहकारों ने उन्हें यह राह सुझाई. 1986 में उन्होंने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने की पहल की और 1989 में चुनावों के ठीक पहले विहिप को बाबरी मस्जिद के निकट मंदिर के लिए भूमि पूजन की अनुमति दे दी.

राजीव को इस चाल का कोई लाभ होता-न होता, भाजपा ने विहिप का राममंदिर अभियान लपक लिया. वह विहिप को पीछे कर स्वयं सामने आ गयी. 1989 के चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस अपार बहुमत खो कर सिमट गयी तो भाजपा  लोक सभा में दो से 84 सीटों तक पहुंची. अगस्त 1990 में त्त्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने हिंदू ध्रुवीकरण की बढ़ती राजनीति की काट के लिए मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी तो 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की राम रथ यात्रा पर निकले.

इन दो घटनाओं ने भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया. मध्य और निम्न जातियों के उभार से चुनावी राजनीति उसी पर केंद्रित हो गयी. भाजपा भी थोड़ा रास्ता बदलने को मजबूर हुई. राम मंदिर के नाम पर भड़की भावनाओं से उपजे जुनून ने 1992 में बाबरी ढांचा तो जमींदोज कर दिया लेकिन क्या वहां राम मंदिर बनवाना इतना आसान था?

भाजपा की दुविधाएं

आज यह सवाल फिर भाजपा के सामने खड़ा है, जबकि वह राम मंदिर अभियान को अपनी सत्ता बचाने के लिए इस्तेमाल कर रही है. आज उसकी दुविधाएं बहुत हैं.

पहला तो यही कि 1990 के अयोध्या कूच के दौरान केंद्र और उत्तर प्रदेश में उसकी विरोधी दलों की सरकारें थीं. केंद्र में नरसिंह राव और लखनऊ में मुलायम सिंह यादव थे. आज दोनों जगह भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं. तब कानून व्यवस्था बनाये रखना भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं थी, बल्कि 'परिंदा भी पर नहीं मार सकता' जैसी मुलायम की घोषणा को ध्वस्त करने की चुनौती उनके सामने थी.

अयोध्या में आज भी सुरक्षा बंदोबस्त तगड़े हैं लेकिन उस समय तो चप्पे-चप्पे पर चौकसी थी. भाजपा-विहिप के नेता तब खेतों, जंगलों, नदियों को पार कर चोरी से अयोध्या पहुंचे थे. आज उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. बल्कि, ज्यादा से ज्यादा भीड़ वे खुद जुटा रहे हैं. तब विहिप को पीछे कर भाजपा नेता स्वयं भीड़  का नेतृत्त्व करने लगे थे तो आज विहिप नेताओं-संतों को आगे आने दिया जा रहा है. आज की चुनौती राम मंदिर के प्रति समर्पण दिखाना है लेकिन अपनी ही सरकारों के लिए समस्या नहीं बनना है.

भाजपा की इन दुविधाओं को शिव सेना खूब भुना रही है जो महाराष्ट्र की राजनीति में फिलहाल उसके खिलाफ है. भाजपा को कटघरे में खड़ा करते हुए वह पूछ रही है कि राम मंदिर बनाने की नीयत वास्तव में है तो अध्यादेश क्यों नहीं ला रहे? निर्माण शुरू करने की तारीख क्यों नहीं बता रहे?          

शेर की सवारी तो नहीं?

अयोध्या में राम मंदिर बनाने का अभियान अगर भाजपा के लिए उग्र हिंदू ध्रुवीकरण करके राजनैतिक सत्ता पाने  की रणनीति थी तो उसमें वह कुछ सीमा तक कामयाब भी हुई किंतु मण्डल राजनीति उस पर हावी हो गयी. 2014 का उसका केंद्र में सत्तारोहण और पिछले चार सालों में कोई 22 राज्यों की सत्ता तक पहुंचने का श्रेय राम मंदिर अभियान को नहीं दिया जा सकता. 2014 और उसके बाद भाजपा की राजनीति विकास, पारदर्शिता एवं परिवर्तन के नारे पर केन्द्रित रही. 2019 के आम चुनावों में विजय के लिए उसे ये नारे कई कारणों से तारणहार नहीं लग रहे. उसने फिर कमण्डल हाथ में थामा है.

संकट के समय भाजपा को राम ही याद आते हैं लेकिन आज परिस्थितियां बहुत भिन्न हैं. राम मंदिर बनाने-बनवाने का यह अभियान आज ठीक उसी तरह भाजपा का खेवनहार नहीं भी बन सकता जिस तरह 1990-92 में बना था. यह उसके लिए शेर की सवारी ज्यादा साबित हो सकता है.

उन तमाम हिंदू धर्मावलम्बियों, संतों , आदि को भाजपा कैसे समझाएगी जो राम मंदिर निर्माण को राजनीति नहीं, अपने धर्म से सीधे जोड़ कर देखते हैं? कांग्रेस, सपा, बसपा राम मंदिर की राह में रोड़ा थे तो अब क्या बाधा है जबकि केंद्र और राज्य में भाजपा की भारी बहुमत वाली सरकारें हैं? यह सवाल भी उससे उसके समर्थक धर्म प्राण हिंदू पूछ ही सकते हैं कि केंद्र में साढ़े चार साल सत्ता में रहते राम मंदिर बनवाने के लिए क्या किया? अब ऐन चुनावों के समय ही यह क्यों याद आया?

अयोध्या के राम घाट का पानी आज वही नहीं है जो तीस साल पहले था. 

नवम्बर 25, 2018




Friday, November 23, 2018

मूर्तियों की राजनीति कहां ले जाकर पटकेगी?



हैरानी अब नहीं होती. भाजपा पिछले काफी समय से जातीय गौरव बैठकें कर रही है. दो-चार रोज पहले निषादों की बैठक में उप-मुख्य्मंत्री केशव प्रसाद वर्मा ने कहा कि भाजपा निषाद राज केवट की मूर्ति लगवाएंगे. तब एक नेता जी ने शबरी की मूर्ति लगाने की मांग की. निषाद राज ने वन को जाते राम, लक्ष्मण और सीता को अपनी नौका से गंगा पार कराई थी तो शबरी ने वन में भटकते राम-लक्ष्मण को स्वयं चख-कख कर मीठे बेर खिलाये थे. निषादराज की मूर्ति लगाएंगे तो शबरी की क्यों नहीं!  केवट जातीय गौरव हैं तो शबरी क्यों नहीं!

चुनाव नजदीक हैं. भारतीय जनता पार्टी दलितों-पिछड़ों के वोट हासिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही. लोक सभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन को कामयाब होने से रोकना है तो दलित-पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करना होगा. इन जातीय सम्मेलनों में हो क्या रहा है? दलितों-पिछड़ों के विकास की बात? शिक्षा और रोजगार की बात? समाज को आगे ले जाने की चर्चा?

सरदार पटेल की विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति इसलिए नहीं बनायी गयी कि राजनीति में वे उपेक्षित रहे या नेहरू की कांग्रेस ने उन्हें सम्मान नहीं दिया. वह मूर्ति इसलिए बनवायी गयी है कि पटेल, यानी व्यापक कुर्मी समुदाय खुश हो और पार्टी के पक्ष में वोटों की वर्षा कर दे. देश के निर्माण में सरदार पटेल की भूमिका भूल जाइए. उन्हें कुर्मी नेता के रूप में याद कीजिए. वोटों की राजनीति ने राम मनोहर लोहिया को वैश्य बना दिया है. बापू बनिया हैं. फिर शबरी और निषाद राज की मूर्तियां लगाने की मांग क्यों न हो. आज वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं.

जब हमने टीवी के पर्दे पर एक नेता को शबरी की मूर्ति लगाने की मांग करते देखा तभी संयोग से हमारी मुलाकात एक जरदोजी कारीगर से हुई. कपड़ों पर भांति-भांति की कढ़ाई करने का ऐसा हुनर कि देखते रह जाएं. वर्षों के अनुभव से सधा हाथ. साड़ी हो या कुर्ता, रंगीन धागों से ऐसी कढ़ाई कर देते हैं कि उसकी खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है. तारीफ की तो कहने लगे कि साहब, अब काम ही नहीं मिलता. पहले दुकानों से खूब काम मिल जाता था. अब व्यापारी मशीनों से काम कराने लगे हैं. हम एक कढ़ाई दो-चार दिन में करते हैं, मशीनें एक दिन में दर्जन भर पीस तैयार कर देती हैं. हमें तो अब पुताई का काम करके पेट पालना पड़ रहा है.

एक बेहतरीन जरदोजी कारीगर अपने हुनर से नाम और दाम कमाने की बजाय पुताई करने को मजबूर है. परिवार पालना है. उसके हाथ के हुनर को बढ़ावा देने के लिए कोई पार्टी कुछ नहीं कर रही. कितनी कलाएं दम तोड़ रही हैं. कारीगर भूखे मर रहे हैं. देश में खरबपतियों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है. गरीबों की हालत नहीं सुधर रही. छोटे किसान खेती छोड़ने को मजबूर हैं. गांव उजड़ कर शहरों में ठुंस रहे हैं. पढ़े-लिखे नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा. समस्याओं का अम्बार लगा है.

सत्ता में बैठे जिन लोगों को इन सब की तरफ ध्यान देना चाहिए था, कला और कारीगरों का जीवन स्तर उठाने के काम में लगना था, वे गरीबों की जाति ढूंढ-ढूंढ कर मूर्तियां बनवा रहे हैं. ऊंची-ऊंची मूर्तियां बनवाने से गरीब जनता का पेट कैसे भरेगा? उसका जीवन सम्मानजनक कैसे बनेगा? इस पर सवाल नहीं उठ रहे.

वोट की राजनीति ने जरूरी सवालों को कितना पीछे धकेल दिया है. कोई पार्टी इसमें पीछे नहीं. मुद्दा रोजगार नहीं है. बेहतर जीवन स्थितियां मुद्दा नहीं हैं. मुद्दा जाति है, धर्म है और मूर्तियां हैं.

(सिटी तमाशा, 24 नवम्बर, 2018)       

Friday, November 16, 2018

बीमार और बेलगाम बच्चे किसने बना दिये?



ताजा रिपोर्ट है कि लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में आजकल हर महीने करीब 20 बच्चे डायबिटीज के रोगी पाये जा रहे हैं. कुछ वर्ष पहले तक यह संख्या इक्का-दुक्का ही थी.  मुम्बई के बाल-इण्डोक्राइन विशेषज्ञों के शोध में पाया गया है कि पिछले दो दशक में भारत में बच्चों में डायबिटीज बीमारी दो से तीन प्रतिशत तक बढ़ी है. लखनऊ से लेकर मुम्बई तक के विशेषज्ञों का अध्ययन बताता है कि इसकी वजह अनाप-शनाप एवं अनियमित खान-पान, खेल-कूद की कमी और पढ़ाई का बढ़ता दवाब है.

तकलीफ होती है लेकिन आश्चर्य नहीं होता. किसी मुहल्ले में चले जाइए, बच्चे खेलते नहीं दिखाई देंगे. शाम हो या छुट्टी के दिन, पार्कों-गलियों-नुक्कड़ों में बच्चों का शोर सुनाई नहीं देता. बच्चों का खेल और  शोर-शराबा देखना-सुनना हो तो झुग्गी-झोपड़ियों का रुख करना होगा. वहां के बच्चे आज भी बचपन जीते हैं, गरीबी और अभावों में ही सही. कॉलोनियों में आ बसे मध्य-वर्गीय परिवारों के बच्चे घरों, स्कूलों और कोचिंग संस्थानों में कैद हैं. मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक हिमांशु कुमार का शोध इसी की पुष्टि करता है. जो बीस बच्चे हर महीने डायबिटीज के रोगी पाये जा रहे हैं वे शहर के नामी स्कूलों में पढ़ने वाले हैं. गरीब बस्तियों से शायद ही कोई बच्चा डायबिटिक पाया जाता हो.

बच्चों की दिनचर्या देख कर अक्सर मन में पीड़ा उठती है. छोटे-छोटे बच्चे हाथ में स्मार्ट फोन लिये बिना दूध पीते हैं न खाना खाते हैं. माता-पिता के पास उन्हें बहलाने-व्यस्त रखने का एक ही तरीका बचा है- मोबाइल. स्कूल जाते हर बच्चे के पास स्मार्ट फोन है. फोन से ज्यादा वह खेल है. मना करने पर वह कलह का कारण है. वह घर के किसी कोने में या अपने कमरे में चुपचाप कैद रहने का माध्यम है. कोई शरारत नहीं, घर के बाहर छुपन-छुपाई-गेंदताड़ी, उछल-कूद नहीं. सारी दोस्तियां और झगड़े भी मोबाइल में.

थोड़ा बड़े होते ही स्कूल-कॉलेज के बाद कोचिंग की दौड़. नाइण्टी परशेण्ट से ज्यादा नम्बर लाने का दवाब. बहुत सारे बच्चे घर से दो-दो टिफिन लेकर निकलते हैं. एक स्कूल के लिए दूसरा कोचिंग के वास्ते. सुकून से बैठ कर खाने का वक्त नहीं. अब तो टिफिन की जगह स्विग्गीवगैरह ने ले ली है. रोटी-पराठा, आलू-पूरी नहीं. फास्ट फूड जिसे जंक कहा जाता है. डॉक्टरों की इस चेतावनी का कोई असर नहीं कि जंक फूड बच्चों को थुल-थुल, आलसी और बीमार बना रहा है. डायबिटीज को क्या दोष देना कि वह बच्चों को भी नहीं छोड़ रहा.

खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है तो मध्य-वर्ग के पास भी पैसा आ रहा है. बिना सोचे-समझे जीवन-शैली बदली जा रही है. प्रतिद्वंद्विता-सी मची है. स्कूटी, बाइक और कारें बच्चों के हाथ में देने में गौरव-बोध है. पैदल चलना किसी को गवारा नहीं. आये दिन कारों में नशा करते-झगड़ते युवाओं की खबरें क्यों कर चौंकाएंगी.

तीन दिन पुराने वाकये से कोई अचम्भित नहीं हुआ होगा जब दो गाड़ियों मे सवार दोस्तों ने आपस ही में असलहे लहराये और एक-दूसरे की कारों के शीशे तोड़ कर बीच सड़क बवाल करते रहे. यह नयी उच्छृंखल पीढ़ी का फनहै. समय यह सब नहीं सिखाता. उसे मत कोसिये. इसकी जड़ें लालन-पालन में देखिये.

माता-पिता और सयानों को को आंख दिखा कर मनमानी करने वाली पीढ़ी को हमने बचपन से कितनी मुहब्बत दी? हर सुविधा से लाद देना और जमीन पर पांव न रखने देना प्यार होता है? कभी बने उसके लिए घोड़ा? कभी उसके साथ बैठ कर कहानियां सुनाईं? हमारे पास वक्त नहीं और जन्म दिन के उपहार महंगे मोबाइल और गाड़ियों तक सीमित हो गये हैं तो बच्चे बीमार ही होंगे- डायबिटीज हो या बेलगाम दिमाग.
     
(सिटी तमाशा, 17 जनवरी, 2018)    

Monday, November 12, 2018

विपक्षी एकता के नाविक नायडू


हमारे देश में राजनैतिक दलों का पलटी मारना कोई नयी बात नहीं है. मुलायम सिंह यादव से लेकर नीतीश कुमार तक और ममता बनर्जी से लेकर स्व जयललिता तक कई बार आश्चर्यजनक रूप से पैंतरे बदलते रहे हैं. बिल्कुल हाल में चन्द्रबाबू नायडू का कांग्रेस से तालमेल करना कुछ ज्यादा ही चौंका गया. 1982 में जब तेलुगु देशम पार्टी बनाकर लोकप्रिय अभिनेता से राजनेता बने एन टी रामाराव ने राजनीति में कदम रखा था तो तेलुगू-स्वाभिमान को कुचलने और आंध्र प्रदेश के साथ लगातार अन्याय करने के लिए कांग्रेस को सबसे बड़ा शत्रु घोषित किया था. बाद में उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने बगावत करके तेलुगु देशम पार्टी पर अपना कब्जा जमाया तब भी तेलुगू-स्वाभिमान और आंध्र-गौरव की अलग जगाये रखते हुए कांग्रेस और सोनिया गांधी पर कड़े प्रहार करना जारी रखा. उनका पूरा अस्तित्व कांग्रेस-विरोध पर टिका हुआ था.

आज वही नायडू न केवल तेलंगाना का चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन करके लड़ रहे हैं, बल्कि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस को केंद्र में रख कर विपक्षी एकता की मुहिम छेड़े हुए हैं. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि तेलुगू देशम पिछले चार साल तक एनडीए की सहयोगी और मोदी सरकार में भागीदार रही.  इतना धुर विरोधी रुख, बल्कि पार्टी की नींव ही खिसका देने वाला रवैया अपनाने का कारण स्पष्ट ही भाजपा से उनकी बड़ी नाराजगी है. उनका आरोप है कि आंध्र प्रदेश के साथ जो छल-कपट पहले कभी कांग्रेस करती थी, वही अब भाजपा कर रही है. कांग्रेस को हमने सजा दे दी, पिछले लोक सभा चुनाव में उसे एक सीट नहीं मिली. अब भाजपा को सजा देने का समय आ गया है.

यह घोषणा दोहराते हुए नायडू तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से बाहर निकल कर भाजपा के विरुद्ध विपक्षी दलों का गठबन्धन बनाने के अभियान पर निकल पड़े हैं. उन्होंने पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा प्रमुख मायावती, सपा-बुजुर्ग मुलायम सिंह यादव, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, द्रमुक नेता स्टालिन, जनता दल (सेकुलर) के देवेगौड़ा और कुमारस्वामी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार, ‘आपके अरविंद केजरीवाल और नेशनल कांफ्रेस के फारूख अब्दुल्ला से मुलाकात की है. ममता बनर्जी से भी वे सम्पर्क में हैं. आने वाले दिनों में वे दिल्ली में विपक्षी नेताओं की बैठक बुला रहे हैं. उन्होंने साफ कहा है कि 2019 में मिल कर नरेंद्र मोदी को हराने के लिए विपक्षी एकता जरूरी है. कांग्रेस के बारे में वे कह रहे हैं कि विपक्षी एकता के जहाज का लंगर वही बन सकती है, भले ही हमारे उससे मतभेद रहे हों. यह भी उन्होंने साफ कर दिया है कि वे गठबंधन के नेता होने के दावेदार नहीं, बल्कि भाजपा विरोधी दलों को एक करने में सहायक होना चाहते हैं.  

तो, क्या चन्द्रबाबू नायडू विपक्षी एकता के वह नाविक बन सकते हैं जो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भाजपा विरोधी दलों एक साथ खेने का काम कर सके? जब-जब केंद्र में सत्तारूढ़ मजबूत दल एवं नेता को हराने की आवश्यकता पड़ी, विरोधी दलों को एकजुट करने के लिए किसी न किसी मध्यस्थ की भूमिका महत्त्वपूर्ण हुई. कभी यह काम जयप्रकाश नारायण ने किया तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे मंजे नेता ने. 2019 में यह भूमिका निभाने के लिए नायडू की राह बहुत आसान नहीं होगी हालांकि उन्हें गठबंधनों को बनवाने और चलवाने का पर्याप्त अनुभव है.

आंध्र के नवाचारी और विकास-धर्मी मुख्यमंत्री के रूप में उनकी देशव्यापी पहचान है. सूचना प्रोद्योगिकी के विकास और शासन-प्रशासन में उसके सार्थक उपयोग की शुरुआत करने का श्रेय भी उन्हें है. सन 1996 और 1997 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा की तथा सन 1999 में एनडीए की सरकार बनवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उन दिनों उन्हें किंगमेकरनाम से जाना गया था. क्या एक बार फिर वे उस भूमिका को सफलतापूर्वक निभा पाएंगे?

बीती 27 अक्टूबर को मायावती से मिलकर ही नायडू को अनुभव हो गया होगा कि इस बार की राह बहुत कठिन होने वाली है. ममता बनर्जी से मिलकर भी उन्हें ऐसा ही लगे तो आश्चर्य नहीं. हालांकि दोनों ही नेत्री अभी मोदी सरकार के बहुत खिलाफ हैं लेकिन उनकी अपनी शर्तें है और महत्त्वाकांक्षाएं भी. मायावती ने नायडू को किसी तरह का आश्वासन नहीं दिया. उलटे, अजित जोगी ने मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन घोषित कर नायडू की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. मायावती और अजित जोगी छातीसगढ़ में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. उधर, ममता बनर्जी ने बहुत पहले से जनवरी 2019 में कोलकाता में भाजपा-विरोधी दलों की बड़ी रैली करने का ऐलान कर रखा है. इसमें वे कांग्रेस से लेकर बसपा तक को बुला रही हैं. जाहिर है, उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं.

नायडू की पहली बड़ी बाधा यही है कि नेता का नाम पहले तय करके कोई मोर्चा बनाना लगभग असम्भव होगा. दूसरी बड़ी समस्या नायडू का कांग्रेस को विपक्षी एकता का लंगर घोषित करना बनेगी. भाजपा विरोधी कई दल और नेता हैं जो कांग्रेस को साथ लेने पर भले राजी हो जाएं, उसे एकता की धुरी बनाने के नाम पर बिदक जाएंगे.

नायडू का एक फॉर्मूला काम कर सकता है. दिल्ली में राहुल समेत कुछ बड़े नेताओं से मिलने के बाद  उन्होंने जो कहा उससे इस फॉर्मूले के संकेत मिलते हैं. उनका कहना है कि ममता बनर्जी बंगाल में, स्टालिन तमिलनाडू में, देवेगौडा कर्नाटक में, मायावती-अखिलेश उत्तर प्रदेश में, शरद पवार महाराष्ट्र में, अब्दुल्ला कश्मीर में और वे खुद आंध्र एवं तेलंगाना में मजबूत हैं. इसमें बिहार में लालू यादव की पार्टी को जोड़ा जा सकता है. यानी क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत भाजपा-विरोधी दलों को अपने-अपने राज्यों में मिलकर लड़ाया जाए. जहां भाजपा से कांग्रेस की सीधी टक्कर है वहां कांग्रेस का साथ दिया जाए. इस तरह राज्यवार अलग-अलग रणनीति से भाजपा को हराया जा सकता है. गठबंधन के नेता का सवाल चुनाव बाद के लिए छोड़ दिया जाए.

नायडू शायद इसी सूत्र पर काम कर रहे हैं. भाजपा-विरोध को एकता की डोर बना रहे हैं. उन्होंने साफ कर दिया है कि देश में इस समय दो ही प्लेटफॉर्म हैं. एक- भाजपा और दूसरा- भाजपा-विरोधी. जो हमारे साथ नहीं है, वह भाजपा के साथ माना जाएगा. भाजपा को हराना वे देश को बचानामान रहे हैं.

आम चुनाव में भाजपा को हराने की अनिवार्यता अनुभव करने के बाद भी कई क्षेत्रीय क्षत्रपों की दूसरी भी प्राथमिकताएं हैं. गठबंधन के सहारे कांग्रेस पुनर्जीवित हुई तो कई क्षेत्रीय दल उसे अपने लिए खतरा मानते हैं. इसलिए अपना राजनैतिक मैदान बचाये रखना भी प्राथमिकता है. चूंकि तत्काल बड़ा खतरा भाजपा दिख रही है, इसलिए नायडू की मुहिम आगे बढ़ सकती है. 

( प्रभात खबर,13 नवम्बर, 2018)           
          

Friday, November 09, 2018

प्राणहारिणी हवा, समाज और हमारी चुनौतियां



पटाखे भी हिंदू धर्म में शामिल हो गये हैं! जो लोग बहुत जहरीली हो गयी हवा को घातक होने से बचाने के लिए पटाखे नहीं फोड़ने की अपील करते रहे, उन्हें हिन्दू विरोधी घोषित किया जा रहा है. यहां तक कि, देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी हिंदू धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने वाला बताया जा रहा है. शीर्ष अदालत ने रात आठ से दस बजे तक ही कम नुकसान वाले पटाखे चलाने का निर्देश दिया था. इस निर्देश की खुली अवहेलना की गयी. खूब पटाखे चले, शोर तो जो हुआ, सो हुआ, हवा के जहरीले तत्व बहुत खतरनाक सीमा से ऊपर पहुंच गये.

सोशल मीडिया में बड़े पैमाने पर इस प्रवृत्ति पर चिंता जताई जा रही है. खतरनाक वायु प्रदूषण के बावजूद खूब पटाखे फोड़ने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुली अवहेलना करने पर सजग समाज की चिंता स्वाभाविक है. एक बड़ा वर्ग है जो इस चिंता का मखौल उड़ा रहा है. पटाखों पर नियंत्रण का निर्देश उसे हिंदू धर्म के विरुद्ध लग रहा है. ऐसे सोच पर हँसी आती है. उससे अधिक क्षोभ होता है. दिमागों में घृणा भर-भर कर ये कैसा वर्ग तैयार किया गया है? ये वही सोच पा रहे हैं जिसका प्रोग्राम इनके मस्तिष्क में फीड कर दिया गया है. इन्हें समाज और स्वयं अपने भविष्य की चिन्ता नहीं है.

विकास के वर्तमान ढांचे में हमने बहुत सारी गलतियां कर डाली हैं. अनेक अतियां हो गयी हैं. इस कारण कई प्राणि-प्रजातियां विलुप्त हो गईं. मानव जाति का अस्तित्व भी खतरे में पड़ता जा रहा है. देर हो चुकी है, तो भी अब अतियों पर रोक के कुछ उपाय करने ही होंगे. पटाखों पर नियंत्रण ऐसे ही उपायों का हिस्सा है ताकि हर सांस के साथ जो हवा हम अपने फेफड़ों में भर रहे हैं वह जीवनदायिनी  की बजाय प्राणहारिणी न हो जाए.  नदियों को और प्रदूषित होने से बचाने के लिए पर्वों-उत्सवों पर मूर्तियों, पूजा-सामग्री, आदि का विसर्जन बंद करना होगा. उसमें इसमें धर्म-विरुद्ध क्या है? और, पटाखे कब से हिंदू धर्म या रीति-रिवाज का हिस्सा हो गये? जब पटाखे नहीं थे तब क्या हिंदू नहीं थे? वास्तव में हिंदू- धर्म को सबसे बड़ा खतरा ऐसे ही संकीर्ण, ‘प्रोग्राम्ड दिमागों से है.

नाला बन गयी नदियों में हर पर्व पर डुबकी लगाने वाला समाज उनकी दुर्गति पर आंदोलित नहीं होता. गंगा यदि सबसे पवित्र नदी है तो आस्था का सवाल कह कर भी कोई नहीं पूछता कि उसकी अविरलता क्यों बाधित की गयी है? क्यों उसे जगह-जगह सुरंगों में डाल कर बांधा जा रहा है? शहरों के सीवर क्यों उसमें गिराये जा रहे हैं? आंख बंद करके कीचड़ में डुबकी लगा कर कुम्भ-स्नान का पुण्य बटोरा जा रहा है. उसी गंगा की अविरलता सुनिश्चित करने के लिए अनशन करते प्रसिद्ध विज्ञानी से संत बने स्वामी सानंद ने अपनी जान दे दी. तब किसी हिंदू धर्म-रक्षक को दु:ख नहीं हुआ. कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ. प्रदूषणकारी पटाखों पर तनिक नियंत्रण के प्रयास धर्म-विरोधी हो गये.

सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने वाले सुर्पीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाई गईं. धर्म और परम्परा के नाम पर एक अन्याय का समर्थन करने वालों में सत्तारूढ़ दल सबसे आगे रहा. सर्वोच्च अदालत की ऐसी तौहीन देश, संविधान और लोकतंत्र पर कितना बड़ा हमला है, इस पर कौन चिंतित है? संवैधानिक संस्थाओं से सरकार ही छेड़छाड़ नहीं कर रही, जनता को भी उनके खिलाफ भड़का रही है. निश्चय ही यह बहुत खतरनाक और चुनौतीपूर्ण समय है. यह हमारी परीक्षा का भी समय है.
   
(सिटी तमाशा, 10 नवम्बर, 2018)    



Friday, November 02, 2018

‘ऑक्सीजन बार’ और ‘एयर प्यूरीफायर’ से जीवन बचेगा?


अब राजभवन, मुख्यमंत्री आवास, सचिवालय के इर्द-गिर्द और कुछ अन्य वीआईपी इलाकों में पानी का छिड़काव होगा. अग्निशमन गाड़ियों से इन क्षेत्रों के पेड़ तर किये जाएंगे ताकि हवा में जहर कुछ दबे. जिला प्रशासन की कोशिश होती है कि वीआईपी लोगों को जितनी सम्भव हो साफ हवा उपलब्ध कराई जाए. लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा, हुजूर? उनके लिए हवा-पानी इस धरती के अलावा और कहां से ले आएंगे?

अभी जाड़ा आया नहीं है. शरद ऋतु में भी हवा में जहरीले तत्व खतरनाक सीमा तक हो गये हैं. पिछले साल पूस में यह हाल हुआ था. यानी हर साल हालात खराब होते जा रहे हैं. सरकार और प्रशासन को कुछ नहीं सूझता कि क्या करें तो वह पानी छिड़कवाने लगते हैं, निर्माण कार्य बंद करा देते हैं, सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करने की अपील करते हैं. ऐसे उपाय जिससे फिलहाल वायु प्रदूषण कुछ कम हो जाए.

हमारी सरकारों की नीतियां और विकास का रास्ते ऐसे हैं कि अधिक से अधिक वाहन बनें और बेचे जाएं, ज्यादा से ज्यादा कंक्रीट का निर्माण हो, गांव उजड़ें और शहर और बड़े होते जाएं, राज मार्ग बनें, वातानुकूलित भवन तैयार हों, जनता वस्तुओं का अंधाधुंध उपभोग करे. इन सबसे प्रदूषण ही फैलना है. प्रदूषण में अस्थाई रूप से थोड़ी कमी करने के लिए यही सरकारें कहती हैं कि फिलहाल गाड़ी कम चलाइए, निर्माण कार्य रोक दीजिए, कचरा कम फैलाइए, वगैरह. क्या विडम्बना है और कैसा विरोधाभास!

तथाकथित विकास का यह रास्ता हमें भुलावे में रख कर विनाश की ओर लिये जा रहा है. जीवन की सहजता और स्वास्थ्य नष्ट कर रहा है. प्रकृति को हमने अपना दुश्मन बना लिया है. पचीस-तीस साल पहले इसी लखनऊ में कितने पेड़ थे. सड़कों के किनारे बड़े-बड़े छायादार पेड़. तालाब थे. बाग-बगीचे थे. वे कहां गये? राजभवन के पास बहुत सुंदर राजकीय नर्सरी थी. आज उसकी जगह वीवीआईपी अतिथि गृह है. पेड़ों को सड़कें खा गईं. तालाबों की जगह कंक्रीट की मीनारें खड़ी हैं. वाहनों से सड़कें, गलियां, मुहल्ले पट गये.

इंदिरानगर अगर राजधानी का पिछले पांच साल से सर्वाधिक प्रदूषित इलाका है तो सिर्फ इसलिए कि कभी तालाबों और हरियाली से भरे इस क्षेत्र में आज सिर्फ कंक्रीट भरा है. किसने किया यह सब? क्या सोचा था कि सांस लेने लायक हवा बची रहेगी?

अरबों-खरबों रु की लागत से स्मार्ट सिटी बनाने का शोर है. अरे पगलो, स्मार्ट गांव बनाओ तो कुछ बात बने. गांव छोटे रहें लेकिन उन्हें सारी आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण बनाओ. देखना कि वहां प्रकृति बची रहे. तालाब, नदी, जंगल, खेत बचे रहें. मिट्टी-पानी की इज्जत करना सीखो तो हवा हमारा ध्यान रखेगी. विकास की परिभाषा बदलो. आत्मघाती रास्ता छोड़ो.

लेकिन नहीं, पहाड़ों पर हजारों पेड़ काट कर ऑल वेदर रोडबनाने वाले, नदियों का प्रवाह रोक कर उन्हें सुरंगों में डालने वाले, गावों-खेतों को उजाड़ कर सेजबनाने वाले, तालाबों-झीलों को पाट कर इमारतें बनाने वाले, जंगलों में बंगले बनवाने वाले समझ ही नहीं रहे कि इस तरह जो सभ्यता हम तैयार कर रहे हैं, उसमें जीवन रह ही नहीं जाना है. कितने जीव-जंतु-वनस्पतियां इस धरती से लापता हो गईं. नदियां मर गईं. पहाड़ भरभरा कर टूट रहे हैं, जहां कभी जलभराव नहीं होता था, ऐसे शहरों में भारी बाढ़ आ रही है. सब देख रहे हैं लेकिन सावधान नहीं हो रहे.

सारी प्रकृति को चौपट कर मनुष्य बचा रहेगा क्या? ‘एयर प्यूरीफायरऔर ऑक्सीजन बारकब तक काम आएंगे?                 


('सिटी तमाशा', नभाटा, 3 नवम्बर, 2018)