Thursday, February 28, 2019

सपने हैं, सपनों का क्या!



पिछले सप्ताह पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड) के नैनी-सैनी हवाई पट्टी से विमान सेवा शुरू होने की खबर पढ़ कर दिल-दिमाग स्मृतियों के झंझावात में फँस गया. इस सुंदर पर्वतीय घाटी में छोटे विमानों के उड़ने-उतरने लायक यह हवाई पट्टी बने बीस वर्ष से ज्यादा हो गये. वह शायद 1998 या 99 का साल था जब मैं उस पर खड़ा था. पहाड़ों की गोद में बनी हवाई पट्टी देखने की उत्कंठा थी. देख कर निराशा ही हुई. आस-पास चर रहे जानवर हवाई पट्टी से आ-जा रहे थे. चारों ओर लगी तार-बाड़ उन्हें रोकने में कामयाब नहीं थी. 

तब तक उत्तराखण्ड राज्य नहीं बना था. पर्वतीय विकास विभाग के बड़े बजट से, जिसमें केन्द्र सरकार का भी अच्छा योगदान होता था, हवाई पट्टी बना कर उत्तर प्रदेश सरकार उसे भूल चुकी थी. सन्‍ 2000 में उत्तराखण्ड अलग राज्य बन गया. राज्य बनने के 18 वर्षों में वहाँ कांग्रेस और भाजपा की सरकारें अदल-बदल कर आती रहीं. कभी-कभार उन्हें इस हवाई-पट्टी की याद आती थी. कभी उसकी मरम्मत और कभी उद्घाटन की औपचारिकता के साथ शीघ्र विमान सेवा शुरू करने की घोषणाएँ भी हुईं जिन्हें जल्दी ही भुला दिया जाता रहा. बहरहाल, हवाई पट्टी बनने के दो दशक से ज्यादा समय बाद नैनी-सैनी से हवाई सेवा शुरू हो गयी.

इस खबर से मन में झंझावात उठने का सम्बंध बीस साल पहले उस हवाई पट्टी पर खड़े-खड़े देखे गये सपने से है. मैं सोचने लगा था कि कंक्रीट के जंगल बन गये महानगरों में तमाम शारीरिक-मानसिक व्यथाएँ झेलते रहने की बजाय हम अपने गाँव ही में रहते. गाँव अच्छी सड़कों से जुड़े होते. हम सुबह अपनी छोटी कार से या बस सेवा से इस हवाई अड्डे तक आते. हेलीकॉप्टर या विमान से बड़े शहरों की अपनी नौकरी में जाते और शाम को गाँव वापस लौट आते. गाँव का शुद्ध हवा-पानी मिलता. अपने खेतों का कीटनाशक-रसायन-विहीन अन्न और शाक-भाजी खाते. सेहत ठीक रहती और परिवार के साथ जीवन बीतता. शहर भी जनसंख्या के दवाब में चरमारने से बचे रहते. 

पहाड़ी शिखरों तक बढ़िया नेटवर्क होता. हमारे बच्चे इस तेज नेटवर्क के सहारे दुनिया भर से जुड़े होते. फुर्सत में मैं भी अखरोट या बांज वृक्ष के नीचे बैठ कर लैपटॉप पर कहानी या लेख लिख लेता और सम्पादकों को ई-मेल कर देता.... साथ आये स्थानीय मित्रों ने वापस चलने का आग्रह करते हुए उस दिन मेरा स्वप्न भंग कर दिया था.

इतने वर्षों में वह स्वप्न मैं कभी भूला नहीं. लखनऊ की चौतरफा अराजकता, घातक प्रदूषण, अनियंत्रित यातायात, मिलावटी खान-पान और  पत्थर होते आपसी रिश्तों से त्रस्त मन अक्सर सोचता है कि आखिर मेरा सपना साकार क्यों नहीं हो सकता था. तरक्की का वही रास्ता हमने क्यों चुना जिसमें शहर विकराल होते गये और गाँवों को लीलते गये? तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं से गाँवों को विकसित करने की राह क्यों नहीं चुनी गयी? प्रकृति को बचाते हुए उसकी गोद में सुखपूर्ण मानव जीवन क्यों सम्भव नहीं था? गाँव में रहते हुए हम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और टेक्नॉलॉजी की सुविधाएँ क्यों नहीं पा सके? क्यों भीख माँगने के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ता है? क्यों ऐसा हो गया कि घर के भीतर एयर-प्यूरीफायर लगाकर फेफड़े बचाने पड़ रहे हैं? खूबसूरत सपने के बाद हकीकत देख कर मन व्यथा से भर उठता है.

जब पिथौरागढ़ से विमान सेवा शुरू होने का समाचार पढ़ा तो व्यथा और गहरी हो गयी. पिछले ही साल मैं अपने छोटे बेटे के आग्रह पर उसे अपना गाँव दिखाने ले गया था. पिथौरागढ़ जिले का वह हरा-भरा खूबसूरत दूरस्थ गाँव हमसे कबके छूट गया. मोटर रोड से साढ़े तीन किमी का पहाड़ी रास्ता पार कर जब हम अपनेगाँव पहुँचे तो पलायन से उजड़े वीरान या खण्डहर मकानों ने हमसे लाख उलाहने किये. कभी चहल-पहल से ग़ूँजता गाँव मात्र सात व्यक्तियों के रहने से किसी तरह जीवित मिला. इन में एक साठ वर्ष से ऊपर और बाकी सत्तर-अस्सी साल वाले हैं. सीढ़ीनुमा खेतों में फसलें नहीं, कंटीले झाड़-झंखाड़ उगे थे. जंगल फैलते-फैलते मकानों तक बढ़ आये हैं. गाँव के सारे कुत्ते बाघों के पेट में चले गये. बाघों के डर से गाय-भैंस धूप में भी गोठ से बाहर नहीं बांधे जाते. बंदरों और जंगली सुअरों के आतंक से क्यारियों में साग-भाजी उगाना भी बंद हो गया. चार मील दूर राशन की दुकान से गल्ला ढोया जाता है.             

हमने बहुत धीरे से अपने मकान का बंद दरवाजा धकेला था. मकड़ियों के जालों से भरा खोलीका रास्ता पार कर हम भीतर दाखिल हुए. घर तो वह रहा नहीं लेकिन मकान की दीवारें, बल्लियाँ और छत के पाथर ठीक-ठाक मिले. भीतर के कमरे में जहाँ हमारे कुलदेवता का ठीया था, वहाँ स्थापित मेरे हाथ की नाप की वेदी, जो मेरे यज्ञोपवीत के समय बनायी गयी थी, मौजूद थी. क्या देवता अब भी वहाँ होंगे? पास में ही वह थूमी तो साबूत है जिस पर बंधी रस्सी को नचा-नचा कर ईजा नय्यीमें दही फेंट कर मक्खन बिलोती थी. हथचक्की पता नहीं कहाँ गयी लेकिन उसकी घर्र-घर्रमेरे कानों में गूँजने लगी थी. उसी के साथ बचपन, किशोरावस्था और जवानी के दिनों की सैकड़ों ध्वनियाँ भी...

“तुम्हारे मकान में नल लगाने वाले मजदूर रहे. बिजली वाले भी. लीपते थे, चूल्हा जलाते थे. उस धुएँ से मकान बचा है.एक बहन ने बताया तो मैं वर्तमान में लौटा. अच्छा, अब गाँव में बिजली आ गयी है, जब उजाला करने वाले नहीं रहे. घरों तक नल भी आ गये. आधे-अधूरे शौचालय बने दिखे. मोबाइल का सिग्नल है. यह विकासकी निशानियाँ हैं. गाँव का उजड़ना किस विकास की निशानी है?

लौटने के बाद से गाँव अक्सर मेरे सपनों में आता है. विमान सेवा शुरू होने के बाद सपने बढ़ गये हैं और दर्द भी. जानता हूँ, उन विमानों से पर्यटक, प्रवासी तथा अधिकारी उतरेंगे और दौराकरके राजधानियों को लौट जाएंगे. उस हवाई पट्टी पर उतरने वालों का गाँवों से कोई रिश्ता न होगा. समय के साथ विमानों की आवा-जाही बढ़ेगी. उधर, गाँव में हमारा मकान एक दिन चुपचाप ढह जाएगा.
नभाटा, मुम्बई, 17 फरवरी, 2019)  

   
  

Monday, February 25, 2019

चुनावी तराकश के तीर तैयार



सन्‍ 2019 के चुनावी संग्राम का मैदान सज रहा है. कुछ सेनाएँ काफी पहले से तैयार हैं, कुछ अंतिम तैयारियों की हड़बड़ी में हैं और कुछ अब भी ठीक से तय नहीं कर सके हैं कि किस शिविर का रुख करना है. जो संग्राम के अंतिम दिन तक अदले-बदले और पैने किये जाते रहेंगे वह हैं इस युद्ध में इस्तेमाल होने वाले हथियार. जनता को प्रभावित करने, एक-दूसरे के व्यूह को भेदने और रणनीतियाँ विफल करने में इन जुबानी तीरों की बड़ी भूमिका होती है.

बीते रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जिन दो बड़े और बहु-प्रचारित कार्यक्रमों में हिस्सा लिया उनसे भाजपा के चुनावी तरकश के मुख्य तीरों का स्पष्ट संकेत मिलता है. पहला कार्यक्रम था किसान सम्मान निधि योजना की शुरुआत. देश के एक करोड़ से ज्यादा किसानों के बैंक खातों में पहली किस्त के दो-दो हजार रु जमा कराये गये. एक साल में हर किसान के खाते में छह हजार रु जमा करने की योजना है.

दूसरा कार्यक्रम कुम्भनगरी, प्रयागराज में संगम-स्नान करना था. यह सामान्य कुम्भ स्नान नहीं था, बल्कि चुनाव मैदान की ओर अग्रसर आस्थावान हिंदू प्रधानमंत्री की ऐसी संगम-डुबकी थी, जो व्यापक हिंदू समाज को विशेष चुनावी संदेश देने के लिए लगाई गयी है. मोदी जी ने इस अवसर का एक और भावुक इस्तेमाल किया. उन्होंने कुम्भ के स्वच्छआयोजन का श्रेय सफाई कर्मचारियों को देते हुए उनके पाँव पखारे. सफाईकर्मियों के पैर धोने की यह सेवा व्यापक दलित समाज के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश देना है.

आसन्न संग्राम के तीन हथियार तो ये निश्चित ही होने हैं. मोदी सरकार को लगता है कि देश भर के किसानों की नाराजगी उस पर भारी पड़ रही है. हाल के तीन राज्यों में उसकी पराजय में किसानों के गुस्से का बड़ा हाथ रहा. गोसंरक्षण के हिंदू एजेण्डे के तहत बंद बूचड़खानों के कारण बड़ी संख्या में छुट्टा जानवरों के फसलें चौपट करने से उत्तर भारत के राज्यों के किसान और भी हैरान-परेशान हुए हैं. बड़े पैमाने पर किसान-ऋण माफी, किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणएँ और गो-संरक्षण शालाएँ बनाने की कवायद नाकाफी लग रही हैं. किसानों के इस गुस्से को भुनाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पूरा जोर लगाये हुए हैं. उन्होंने और भी बड़े स्तर पर ऋण माफ करने के वादे किए हैं. किसानों को खुश करने की कोशिश पक्ष-विपक्ष दोनों की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल होना स्वाभाविक है.

दूसरा बड़ा चुनावी शस्त्र हिंदूवादी राजनीति है. भाजपा का यह हमेशा ही प्रमुख हथियार रहा है लेकिन इधर राहुल गांधी ने भी कांग्रेस को हिंदू चोला पहनाया है. वे मंदिरों में पूजा-पाठ कर रहे हैं, माथे पर तिलक-चंदन छाप कर केदारनाथ की यात्रा कर आये और जनेऊ धारण कर कर्मकाण्ड करते भी खूब दिख रहे हैं. कांग्रेस की नयी रणनीति उन उदार हिंदुओं को मनाना है जो अल्पसंख्यक-तुष्टीकरणके आरोपों के प्रभाव में उग्र हिंदू बन कर भाजपा के पाले में चले गये हैं. साथ ही, यह भाजपा पर उसी के हथियार से हमला करने की रणनीति भी है. लिहाजा भाजपा को अपना भगवा रंग और गाढ़ा करना है. अर्धकुम्भ को कुम्भप्रचारित कर, उस पर अरबों रुपये व्यय करके और दुनिया भर में उसके भव्य और स्वच्छ आयोजन के प्रचार से भाजपा यही कोशिश कर रही है.

उग्र हिंदूवादी राजनीति के साथ दलित-पिछड़ा हितैषी चेहरा प्रस्तुत करके भाजपा ने 2014 और उसके बाद कई चुनाव जीते. तबसे ही दलित-पिछड़ा उसकी प्राथमिकता में रहे लेकिन हाल के महीनों में इस राजनीति ने करवट बदलनी शुरू की है. विशेष रूप से अस्सी सीटों वाले उत्तर-प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन ने उसकी नींद उड़ा रखी है. इसलिए इस चुनावी संग्राम में दलित-पिछड़ा तीर खूब चलने हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुम्भ स्नान के बाद सफाई कर्मियों के पैर धोकर अपने तूणीर में एक और तीर जमा कर लिया है. विपक्ष इसी तीर से मोदी सरकार को दलित-विरोधी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा.

बड़े पैमाने पर राष्ट्रवाद और देशभक्ति का ज्वार इस चुनाव में अनिवार्य रूप से उठाया जाना है. उरी में हुए आतंकी हमले के बाद सितम्बर 2016 में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सीमा में घुसकर जो सर्जिकल स्ट्राइक की थी, देश-रक्षा के उस अत्यंत साहसी अभियान की चर्चा को भाजपा ने अब तक इसीलिए शांत नहीं होने दिया था. इधर पुलवामा में हुए सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद देश भर में गम और गुस्से का जो सैलाब उठा है, उसे राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावनाओं से बखूबी जोड़ा जा रहा है. भाजपा के पास यह उस ब्रह्मास्त्र की तरह है जिसकी काट विपक्षी दल नहीं कर सकते. देश की सुरक्षा के मुद्दे पर चुनावी राजनीति करना आत्मघाती साबित होगा. स्वाभाविक है कि भाजपा भी इसका इस्तेमाल सोच-समझ कर ही करेगी.

कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मोदी सरकार की उपलब्धियों के तीर इस चुनावी संग्राम में प्राथमिकता में नहीं रहेंगे. यूँ गिनाने को यह सरकार बहुत सारी उपलब्धियाँ गिनाती है लेकिन शायद उन्हें चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं समझती. दूसरा खतरा यह है कि विपक्ष के पास इन तीरों की अच्छी काट मौजूद है. 2014 के चुनाव-प्रचार में भाजपा और मोदी जी के बड़े-बड़े वादे विपक्ष क्यों भूलने लगेगा. जब-जब भाजपा उपलब्धियों का शंख-घोष करेगी, विपक्षी महारथी उसके वादों का हिसाब पूछ कर जोरदार पलटवार करेंगे.

यूपीए सरकार में हुए भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले 2014 में भाजपा के पास घातक शस्त्रों के रूप में थे. विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस ने इस बार राफेल विमान सौदे को मोदी सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार का बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की है. राहुल गांधी इसे लेकर नरेंद्र मोदी पर सीधा और व्यक्तिगत हमला कर रहे हैं. चुनाव प्रचार में वे इसे और तीखा करेंगे, हालांकि भाजपा को सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय का कवच मिल गया है. तय है कि राफेल से लेकर बोफोर्स, टू-जी, कोयला खान, चारा घोटाला जैसे प्रकरणों के वार-प्रत्यावार खूब होंगे.  

भाजपा राष्ट्रवाद और उग्र हिंदुत्व तो विपक्ष कृषि व किसानों की दुर्दशा, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता और संवैधानिक संस्थाओं पर हमले के तीर चलाएँगे. चुनावी शंखनाद होते ही आरोप-प्रत्यारोपों का जो सिलसिला शुरू होगा उसमें सच-झूठ सब गड्ड-मड्ड हो जाएगा. झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने की हरचंद कोशिश की जाएगी. जनता के लिए ही नहीं अनेक बार मीडिया के लिए भी यह तय करना कठिन हो जाएगा कि आरोपों का धुआँ किसी चिंगारी से उठ रहा है या धुआँ भी धोखा ही है.

चुनाव-दर-चुनाव प्रचार व्यक्तिगत और मर्यादा विहीन होता चला आ रहा है. इस बार नैतिकता और भी पददलित होंगी.                   
    
(प्रभात खबर, 26 फरवरी, 2019)   

Sunday, February 17, 2019

मोदी की प्रशंसा करना मुलायम को और दयनीय बनाता है



वर्तमान लोक सभा की अंतिम बैठक में समाजवादी पार्टी के लाचार संरक्षक मुलायम सिंह यादव की एक टिप्पणी सुर्खियों में है. सपा समेत विपक्ष के सभी नेता बगलें झांकते हुए उनके बयान पर सफाई देने में लगे हैं और भाजपा नेताओं की बांछें खिली हुई हैं. मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक, इसे तूल दिये पड़ा है. मुलायम के बयान के विविध अर्थ लागाये जा रहे हैं.

आखिर मुलायम ने कहा क्या? उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शुभकामनाएँ देते हुए कामना की कि आप फिर प्रधानमंत्री के रूप में वापस आएँ. हम आपको धन्यवाद देते हैं कि आपने सबके साथ मिलकर काम किया. हमने जब भी आपसे किसी काम के लिए कहा, आपने उसी वक्त आदेश दिये. इसके लिए आपका सम्मान करते हैं.
आखिर मुलायम की इस टिप्पणी में ऐसा क्या है कि विपक्ष के लिए आसमान टूट पड़ा और भाजपा को वरदान प्राप्त हो गया? इस बयान को यदि मुलायम की पिछले दो-तीन साल की स्थितियों और लोक सभा की विदाई बैठक के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसमें तूफान खड़ा करने जैसी कोई बात नहीं है.

पहली बात यह कि राजनीति के हिसाब से अवस्था ज्यादा नहीं होने के बावजूद मुलायम पर उम्र हावी हो गयी है. वे अस्वस्थ भी रहते हैं. अक्सर भावुक हो जाते हैं और कुछ भी बोल देते हैं. समाजवादी पार्टी में विभाजन के बाद से दोनों धड़ों के बीच किसी तरह अपना संतुलन साधने कोशिश में उनके अजब-गजब बयान मीडिया की सुर्खियाँ बनते रहते हैं. कभी पुत्र अखिलेश को लताड़ते हैं और भ्राता शिवपाल के मंच पर उन्हें आशीर्वाद देते हैं. उसके चंद दिन बाद अखिलेश के साथ खड़े होकर इशारों में शिवपाल की आलोचना करते हैं. हर बार मीडिया इसे कभी उनका अखिलेश का साथ देने और कभी शिवपाल को मजबूत करने के रूप में देखता है.

तो, लोक सभा में उन्होंने जो कहा पहले तो उसे राजनैतिक मतभेद भुलाकर सबके मंगल की कामना करने के रूप में देखा जाना चाहिए, जैसी कि अनतिम बैठक की परिपाटी है. सभी सदस्य इस अवसर पर वैचारिक मतभेदों के बावजूद परस्पर निंदा-आलोचना से बचते हैं. विदाई भाषण में तारीफें ही की जाती हैं. इसलिए अगर वे प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी की खुलकर  प्रशंसा कर गये तो आश्चर्य नहीं.  हाँ, उनके फिर से प्रधानमंत्री बनने की कामना को राजनैतिक चश्मे से देखा जा रहा है जो इस चुनावी वर्ष में स्वाभाविक है. इसे अधिक से अधिक राजनैतिक वानप्रस्थ की ओर अग्रसर  मुलायम की भावनाओं के अतिरेक से अधिक नहीं समझा जाना चाहिए. मुलायम का राजनैतिक समर्पण तो यह कतई नहीं है.

दूसरी बात यह कि, विपक्षी नेता अपने निजी या पार्टी के कामों के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्रियों  से अनुरोध करते हैं, यह कोई छुपी बात नहीं है. हमने जब भी किसी काम के लिए कहा, आपने उसी समय आदेश दियेकहना इसी संदर्भ में था. मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप मेंआदित्यनाथ योगी के शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर उपस्थित होकर भी मुलायम ने चौंकाया था. याद कीजिए कि उस मंच पर मुलायम मोदी के कान में कुछ फुसफुसाए थे. कई दिन तक उस फोटो के साथ मीडिया में यह चर्चा होती रही थी कि आखिर मुलायम ने मोदी से कहा क्या होगा!

यह भी याद करना चाहिए कि 2014 में मोदी सरकार के शपथ ग्रहण में अमित शाह ने मुलायम को पीछे की कुर्सी से खुद लाकर आगली पंक्ति में बैठाया था. मुलायम के पोते तेजप्रातप यादव की शादी के समारोह में मोदी आशीर्वाद देने पहुँचे थे. यह सब राजनैतिक शिष्टाचार हैं जो बरते ही जाने चाहिए. इनका अर्थ यह नहीं कि मोदी मुलायम पर कृपालु हैं या मुलायम भाजपा-विरोध का अपना विचार त्याग कर मोदी-समर्थक हो गये हैं.

हमने ऊपर मुलायम की अवस्था और अस्वस्थता की चर्चा की थी. उनकी राजनैतिक पारी अब अधिक शेष नहीं है. जो मुलायम 1980 और 90 के दशक में भाजपा-विरोधी राजनीति के शिखर-नेता थे, वह 2019 में विपक्ष ही नहीं अपनी पार्टी के भी हाशिए पर हैं. मोदी को उनसे आज  कोई खतरा नहीं है. बल्कि, मुलायम ही उनसे व्यक्तिगत सहयोग और कृपा के आकांक्षी हो सकते हैं. इसलिए उन्होंने मोदी की तारीफ के पुल बांध दिये हों तो भी आश्चर्य नहीं.

मुलायम अब लाचार नेता हैं. वे एक ऐसे राजनैतिक परिवार के मुखिया हैं जहाँ शक्ति के कम से कम तीन ध्रुव हैं. बड़े बेटे अखिलेश को स्वयं उन्होंने मुख्यमंत्री बनाया और उस छोटे भाई की नाराजगी मोल ली जिसने उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाजवादी पार्टी को खड़ा किया था. उस भाई से वे अलग नहीं हो सकते, इसलिए उसका साथ देना भी मजबूरी है. तीसरा शक्ति केंद्र उनकी दूसरी शादी से जन्मा रिश्ता है. तीनों केंद्र अति महत्वाकांक्षी हैं. मुलायम तीनों के बीच झूलने को मजबूर हैं. इसीलिए उनकी बातों को अब बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता.   

कभी क्षेत्रीय दलों और वामपंथियों के बीच सम्मान से स्वीकारा जाने वाला तथा प्रधानमंत्री पद का बड़ा दावेदार यह समाजवादी पहलवान आज अपने ही अखाड़े में चित है. विपरीत परिस्थितियों में भी ठसक से रहने वाले मुलायम अब न सेनापति रहे और न संरक्षक के रूप में प्रभावशाली.

मुलायम का यह हश्र दयनीय लगता है. मोदी की अतिरेक भरी प्रशंसा करना उन्हें और भी दयनीय बनाता है.  

(news18.com, 14 फरवरी, 2109) 



Saturday, February 16, 2019

‘विकास’ के प्रतीक तारों के मकड़जाल


चंद रोज पहले कांग्रेस के लखनऊ रोड शो में बड़ी गाड़ी की छत पर खड़े राहुल, प्रियंका, ज्योतिरादित्य समेत  सभी नेताओं को तारों के मकड़जाल से उलझते, झुकते-बचते सभी ने देखा. फिर उन्हें बड़ी गाड़ी से उतर कर छोटी गाड़ियों पर  खड़े होना पड़ा. पार्टी महासचिव के रूप में प्रियंका का पहला दौरा टीवी चैनलों से पूरे देश में प्रसारित हो रहा था. चैनलों के एंकर रोड-शो के आयोजकों की इस बात के लिए आलोचना कर रहे थे कि उन्होंने यात्रा-मार्ग तय करते समय सड़कों के ऊपर लटकते-झूलते तारों पर ध्यान क्यों नहीं दिया. बेतरतीब तारों के मकड़जाल पर सवाल कोई नहीं उठा रहा था. आखिर वे इतने भद्दे और असुरक्षित ढंग से लटके ही क्यों है?

किसी भी शहर के किसी इलाके में चले जाइए, तरह-तरह के तार सड़क के आर-पार, मकानों की बालकनियों, छतों, खम्भों, पेड़ों से लटकते-झूलते दिख जाएंगे. कोई ठीक आपके सिर की ऊंचाई तक लटका है, कोई हाथ ऊपर उठाने पर टकरा जाता है, किसी को बंदरों ने अपना झूला बना रखा है, किसी पर पतंग उलझी है, किसी पर बरसात में चढ़ गयी बेल की सूखी लतरें अटकी हैं.

एक दौर था जब सड़कों की एक तरफ बिजली और दूसरी तरफ टेलीफोन के तार दौड़ा करते थे. ठीक-ठाक खम्भे होते थे और तार भी अपनी जगह दुरुस्त.  समय के साथ बिजली और टेलीफोन वालों  की चुस्ती जाती रही. बीएसएनएल लैण्डलाइन के दिन लद गये हैं और जो कनेक्शन बचे हैं उनके तार खम्भों की बजाय पेड़ों, इमारतों, बिजली के खम्भों पर बंधे है, जिनका झूलना-लटकना लाजिमी है. बीएसएनएल वाले अब खम्भे नहीं लगाते. 

बीएसएनएल को मात देती कई टेलीकॉम कम्पनियां आ गयी हैं. कहने को उनके कनेक्शन भूमिगत ओएफसी केबल से होते हैं लेकिन ऐसी सुविधा वे घर-घर नहीं पहुंचा सके, इसलिए वे भी अपने तार बिजली के खम्भों और पेड़ों पर बांध कर ले जाते हैं. कई बार तो वे कई-कई मकानों के छतों से तार फंदा कर कनेक्शन देते हैं. यही हाल टीवी केबल नेटवर्क वालों का है. सबको बिजली के खम्भों और पेड़ों का सहारा है.

बिजली के खम्भों पर बिजली के तार कम, दूसरे तार ज्यादा बंधे मिलेंगे. इतने ज्यादा कि खम्भे का गला घुटता होगा. पता नहीं बिजले विभाग वाले इसकी बकायदा इजाजत देते है या यूँ ही कुछ ले-दे कर धंधा चल रहा है. इन झूलते  तारों को अक्सर बालू-मौरंग के ट्रक, आदि तोड़ते रहते हैं. किसी भी सुबह आप पा सकते हैं कि आपका केबल टीवी काम नहीं कर रहा, या सुबह नींद खुलने के बाद अंगड़ाई  लेने की फोटो शेयर करने के लिए  फेसबुक खुल नहीं रहा. ब्रॉडबैण्ड डाउन है. तहकीकात करने पर घर के बाहर तार टूटे मिलेंगे.

कांग्रेस के रोड शो में हमने देखा कि सुरक्षाकर्मी तारों को फण्टियों से उठा-उठा कर रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा हास्यास्पद  दृश्य हम लगभग रोज देखते हैं. समझदार ट्रक ड्राइवर एक सहायक को  गाड़ी की छत पर इसी काम के लिए चढ़ाए रखता है कि वह ऊपर लटकते तारों को टूटने से बचाने के लिए उठाता रहे. इस प्रयास में गाड़ी इतनी धीमे चलती है कि जाम लग जाता है.

नई कॉलोनियों के विकास के समय घोषणा होती है कि सभी किस्म के तार भूमिगत होंगे लेकिन घोषणा ही भूमिगत हो जाती है. विभाग वाले तर्क देते हैं कि भूमिगत तार कब कौन एजेंसी खोद कर काट डाले, इसलिए ओवरहेडही ठीक है. टूटने पर जोड़ना आसान तो होगा.

तारों के यह मकड़जाल में हमारे विकासके सटीक प्रतीक हैं. देश और समाज ऐसे ही लटकता-झूलता-टूटता-जुड़ता चल रहा है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 फरवरी, 2019)  
  



Sunday, February 10, 2019

अर्द्ध कुम्भ को कुम्भ बनाकर राजनैतिक पुण्य तो मिलने से रहा



उत्तर प्रदेश की आदियनाथ योगी सरकार ने दो वर्ष पूर्व सत्ता सम्भालने के कुछ समय बाद ही 2019 में इलाहाबाद (तब उसका नया नामकरण प्रयागराज नहीं हुआ था) में लगने वाले अर्द्धकुम्भ को कुम्भऔर कुम्भ को महाकुम्भघोषित किया था तभी संकेत मिल गये थे कि आम चुनाव के ठीक पहले पड़ने वाले इस विशाल आध्यात्मिक-धार्मिक-सांस्कृतिक जुटान का इस्तेमाल वह राजनैतिक, बल्कि चुनावी लाभ लेने के लिए करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.  .

प्रयाग और हरिद्वार में प्रत्येक बारह वर्ष बाद पड़ने वाले कुम्भ पर्वों के बीच, छह साल के अंतराल पर अर्द्धकुम्भ का भी आयोजन होता रहा है. माना जाता है कि माघ मास के कुम्भ योग के विशेष स्नान पर्वों पर प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम और विलुप्त कही जाने वाली सरस्वती की त्रिवेणी में डुबकी लगाना मोक्ष दिलाता है. अर्धकुम्भ की भी अपनी महिमा है लेकिन उसका महात्म्य (पूर्ण‌) कुम्भ जितना नहीं है.

योगी सरकार ने जैसे ही अर्द्ध कुम्भ को कुम्भबनाया वैसे ही उसका बजट भी कई गुना बढ़ा दिया. सन 2013 के पूर्ण कुम्भ के लिए प्रदेश सरकार का बजट दो सौ करोड़ रुपये था. तब राज्य में अखिलेश यादव के नेतृत्त्व में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने कुम्भ के लिए 341 करोड़ रु  दिये थे. इसके अलावा 800 करोड़ रु का विशेष पैकेज भी स्वीकृत किया था.  इकॉनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार उस साल पूर्ण कुम्भ पर कुल मिलाकर करीब तेरह सौ करोड़ रु का व्यय हुआ था.

सन 2019 के कुम्भके लिए  योगी सरकार ने 2500 करोड़ रु के बजट की घोषणा हुई की जो केंद्रीय अनुदान और विशेष पैकेज को मिलाकर, इकॉनॉमिक टाइम्स के अनुसार, 4236 करोड़ रु हो जाता है. अनुमान है कि यह खर्च बढ़कर पाँच हजार करोड़ रु तक जा सकता है. याने इस अर्द्ध कुम्भ की व्यवस्था पर पिछले पूर्ण कुम्भ में हुए व्यय की तुलना में तीन से चार गुणा से ज्यादा खर्च किया जा रहा है.

इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा सरकार प्रयाग के अर्द्धकुम्भ को जनता के धन से अत्यंत भव्य बानाकर उसका राजनैतिक लाभ लेने के लिए कितनी कोशिश कर रही है. उसके प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है. यह प्रचार इतन सघन है कि आम जनता और विदेशी नागरिक ही नहीं साधु-संत तक इसे अर्द्ध कुम्भ की बजाय कुम्भ कहने को विवश हो गये हैं. सरकार की पूरी मशीनरी 192 देशों से प्रतिनिधियों को बुलाकर कुम्भके सफल और भव्य आयोजन का श्रेय लूटने की कोशिश में है. प्रवासी भारतीय सम्मेलन का आयोजन भी इसी दौरान वाराणसी में करके उसमें आये प्रतिनिधियों को कुम्भ स्नान का पुण्य दिलाया गया.

ऊपरी तौर पर इस भव्य ताम-झाम को उत्तर प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिएबताया जा रहा है लेकिन भीतर-भीतर हिंदुत्त्व का संघी स्वरूप और उग्र राष्ट्रवाद का एजेण्डा चलाया जा रहा है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सत्ता खोने और कांग्रेस का उभार शुरू होने के बाद से भाजपा फिर अयोध्या में राम मंदिर के नारे की शरण में जा रही है. इसे कट्टर हिंदू ध्रुवीकरण का मुद्दा बनाने के लिए वह साधु-संतों के प्रयाग जमावड़े को माध्यम बनाने की पूरी कोशिश कर रही है.

यह अकारण नहीं है कि योगी सरकार ने प्रयागराज कुम्भमें अपने मंत्रिमण्डल की बैठक विश्व हिंदू परिषद की सनातन धर्म संसदसे ठीक पहले 29 जनवरी को की. 31 जनवरी और एक फरवरी को होने वाली इस धर्म संसद में भाजपा सरकार से राम मंदिर निर्माण की मांग जोर-शोर से उठने वाली है. भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार उसके निशाने पर काफी समय से है कि पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद उसने मंदिर बनाने की गम्भीर पहल क्यों नहीं की. इस नाराजगी से बचने के लिए भाजपा सरकार सुप्रीम कोर्ट में मामला लम्बित होने की आड़ लेती रही है. इसी कारण साधु-संतों की ओर से अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण शुरू करने का दवाब बन रहा है.

यह भी संयोग नहीं है कि उसी दिन यानी 29 जनवरी को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपील दायर की कि अयोध्या में राम जन्म भूमि न्यास के लिए जिस 67 एकड़ जमीन को अधिग्रहीत किया गया थ उसमें सिर्फ 0.313 एकड़ भूमि ही विवादित है. इसलिए 0.313 एकड़ भूमि को छोड़ कर बाकी भूमि न्यास को सौंप दी जाए. प्रयागराजमें बैठी योगी सरकार ने केंद्र की इस पहल का स्वागत करने में तबिक देर नहीं लगाई.

कुल मिलाकर मोदी-योगी सरकारों की कोशिश है कि हिंदू धर्मावलम्बियों की इस सबसे बड़ी जुटान में भाजपा की ऐसी छवि पेश की जाए कि हिंदुओं की सबसे बड़ी हितैषी वही है. वर्ना पूरी कैबिनेट और बाकी मंत्रियों के साथ प्रयाग में डुबकी लगाने और प्रयागराजके विकास के लिए फैसले लेने का क्या अर्थ था. अकबर के किले के भीतर अक्षयवट के दर्शन साढ़े चार सौ साल बादजनता के लिए खोलने का प्रचार भी जोरों से किया जा रहा है.  हर कुम्भ पर गंगा में अतिरिक्त पानी छोड़ा जाता रहा है ताकि संगम पर वह कुछ साफ दिखाई दे लेकिन योगी सरकार का प्रचार है कि पिछले पांच साल में गंगा निर्मल बना दी गई है.

सन 2019 का कुम्भ मेलाआध्यात्मिक –सांस्कृतिक से कहीं अधिक भगवा राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है, इसका प्रमाण मेला-स्थल के सेक्टर चार में स्थित विश्व हिंदू परिषद का शिविर है जो सबसे ज्यादा व्यस्त, सक्रिय और हिंदू संगठनों के नेताओं का मिलन एवं विमर्श स्थल है. भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का यहाँ लगातार आना और चर्चा करना जारी है. उनके दौरे कुम्भ स्नानके बहाने होते हैं लेकिन वास्तविक उद्देश्य आसन्न चुनाव की रणनीतियों पर चर्चा करना होता है कि कैसे इस विशाल जुटान का राजनैतिक लाभ ले सकते हैं.

सवाल यह है कि क्या कुम्भमेले के भव्य और सफलआयोजन से और इस अवसर का पूरा इस्तेमाल करके योगी सरकार या भाजपा  इसका राजैतिक लाभ पा सकेगी?

पहली बात तो यह कि देश की धर्म-परायण  जनता कुम्भ को कभी भी राजनैतिक अखाड़ा नहीं मानती. संन्यासियों के विभिन्न अखाड़े और धार्मिक संस्थाएँ कुम्भ और अर्द्ध कुम्भ के अवसर का प्रयोग धर्म-प्रचार के लिए पहले भी करती रही हैं. वहाँ लोग सांसारिक माया-मोह त्याग कर साधु-संन्यासी बनने के लिए भी आते हैं. व्यापक जन समुदाय अपनी मान्यताओं के अनुसार स्नान कर मोक्ष पाने की कामना लिये, संन्यासियों की चरण-रज में लोट कर धन्य होने, और चमत्कारी साधुओं से अपने कष्टों की मुक्ति की लालसा में आता रहा है. उसे कोई भ्रम नहीं रहता कि संगम तट की विशाल भीड़ कोई राजनैतिक या चुनावी सभा है. ऐसी कोशिश उसके लिए इस पावन अवसर की मर्यादा और गरिमा भंग करना है. कुम्भ को चुनावी लाभ की राजनीति बनाने की कोशिश इसीलिए उलटी पड़ सकती है.

दूसरी बात यह कि कुम्भ में जुटने वाला जन समुदाय अपने-अपने क्षेत्रों में गम्भीर समस्याओं से पीड़ित है. योगी राज में उत्तर प्रदेश की विशाल ग्रामीण आबादी छुट्टा जानवरों से त्रस्त है और उनसे अपनी फसलें बचाने के लिए सर्द रातों में पहरा देने को मजबूर है. कुम्भ का सफल और भव्य आयोजन’’ ऐसे विकट समस्याओं पर पर्दा नहीं डाल सकता. कुम्भ नहा कर पुण्य कमाने गई जनता का इंतजार उनके घर-गाँव में जो तकलीफें कर रही हैं, उससे मुक्ति कैसे मिलेगी?      

(नवजीवन)
        
  
      

Saturday, February 09, 2019

ट्रेन बिना विलम्ब स्टेशन पर पहुँच चुकी है!


लखनऊ जंक्शन पर आपका स्वागत है’- प्लेटफॉर्मों से लेकर प्रतीक्षालय तक तीखी उद्घोषणा से गूँज रहे थे. गुरुवार की शाम लगातार बताया जा रहा था कि ट्रेन संख्या 12533 प्लेटफॉर्म नम्बर छह से अपने निर्धारित समय 19.45 पर छूटेगी. शाम के 18.45 हो रहे थे. ट्रेन नं 15044 काठगोदाम-लखनऊ एक्सप्रेस के आने का वक्त हो चुका था. उसके बारे में कोई सूचना न पूछताछ काउण्टर पर थी, न उद्घोषणा में. रिकॉर्डेड आवाज लगातार पुष्पक एक्सप्रेस की सूचना प्रसारित किये जा रही थी.

मोबाइल पर नेशनल ट्रेन इंक्वायरी सिस्टम बता रहा था कि 15044 ट्रेन आलमनगर स्टेशन पर खड़ी है. फोन पर यात्री बता रहे थे कि ट्रेन काफी देर से वहीं खड़ी है. स्टेशन पर कई लोग परेशान घूम रहे थे कि इस ट्रेन के आने की कोई सूचना क्यों नहीं दी जा रही. थोड़ी में साइट बताने लगी यह ट्रेन अपने निर्धारित समय 18.45 पर लखनऊ  जंक्शन पहुँच चुकी है. दौड़ कर प्लेटफॉर्म देखे तो ट्रेन का कहीं अता-पता न था.  

घड़ी की सुइयाँ शाम के सात बजे से आगे बढ़ चुकी थीं लेकिन उद्घोषणा सिर्फ पुष्पक एक्सप्रेस के बारे में हो रही थी. साइट पर ट्रेन नं 15044 के बिना विलम्ब लखनऊ पहुँचने की सूचना थी जबकि उद्घोषणा में इसका कोई जिक्र न था. साढ़े सात बजे बाद अचानक ट्रेन नं 15054, लखनऊ-छपरा एक्सप्रेस के बारे में बताया जाने लगा कि वह प्लेटफॉर्म नं एक से अपने निर्धारित समय 20.50 पर छूटेगी.  आधे घण्टे तक लगातार यही घोषणा होती रही. आने वाली किसी ट्रेन की कोई सूचना किसी भी माध्यम से नहीं मिल रही थी. यात्री फोन से बता रहे थे कि ट्रेन नं 15044 आलमनगर से थोड़ा-सा सरकी और फिर खड़ी हो गयी. कई यात्री वहीं उतर कर अपने ठिकाने जाने लगे थे.

पूरे दो घण्टे स्टेशन पर प्रतीक्षा करने के बाद अंतत: 8.35 पर उद्घोषणा हुई कि ट्रेन प्लेटफॉर्म नं 2 पर आ रही है. जो ट्रेन रेलवे इंक्वायरी साइट पर ठीक 6.45 बजे लखनऊ पहुँची दिखाई जा रही थी वह पूरे दो घण्टे विलम्ब से लखनऊ जंक्शन पर पहुँची. ट्विटर और फेसबुक पर रेल मंत्री और रेलवे बोर्ड के नाम भेजे गये संदेश बताते हैं कि ऐसा कई ट्रेनों के साथ हो रहा है. वेबसाइट पर ट्रेन समय पर पहुँची दिखाई जाती है लेकिन वास्तव में वह बहुत विलम्ब से आती है.

पूरे दो घण्टे स्टेशन पर इंतजार करते हुए हम सोच रहे थे कि कितना कीमती समय बेकार जा रहा है. दो घण्टे में कितने जरूरी रचनात्मक काम किये जा सकते हैं. कितने कीमती दिन बेकार जा रहे हैं. रेलवे क्यों नहीं समझता होगा. ट्रेनें देरी से चल रही हैं. यह कोई नयी बात नहीं है लेकिन रेलवे झूठी सूचना देकर यात्रियों को क्यों ठग रहा है?

साइट पर जानबूझ कर ट्रेनें राइट टाइम दिखाना किसको खुश करने के लिए किया जा रहा है? क्या इसी बिना पर रेल मंत्री ट्रेनों के बेहतर संचालन का दावा कर रहे हैं? जनता इस दावे पर कैसे विश्वास करे? यात्री तो परेशान हैं. झूठी सूचनाएँ उन्हें और भी व्यथित कर रही हैं. इसका जनता पर जो प्रभाव पड़ना है, पड़ ही रहा है. मंत्री और रेलवे बोर्ड खुश हों तो हों.

झूठी सूचनाओं से मंत्रियों और अफसरों को खुश करने की सरकारी तंत्र की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. कागज पर और वेबसाइट पर सब चुस्त-दुरुस्त है. इससे कौन खुश हो रहा है? ट्रेन लेट है तो कम से कम बता दीजिए. प्रयास कीजिए कि वे सही समय से चलें. झूठी सूचनाएँ आपके नम्बर नहीं बढ़ाने वाली.  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 फरवरी, 2019)  
      
   

Tuesday, February 05, 2019

बिना गठबंधन की एकता



बीती 19 जनवरी को ही वे सब कोलकाता में एक मंच पर इकट्ठा हुए थे. ममता बनर्जी की बुलाई रैली के मंच से उन सबने मोदी के नेतृत्त्व वाले एनडीए को केंद्र की सत्ता से उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था. बीते रविवार को कोलकाता में बड़े नाटकीय घटनाक्रम के बाद एक बार फिर वे सुर में सुर मिलाकर मोदी सरकार को कोसने,  उसे लोकतंत्र, संघीय स्वरूप और संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने वाला बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. वे सब ममता बनर्जी के पीछे खड़े होकर मोदी के खिलाफ एकजुट दिखने की कोशिश कर रहे हैं.

पिछले डेढ़-दो साल से ऐसी ही स्थिति बनी हुई है. कांग्रेस समेत भाजपा विरोधी कई क्षेत्रीय दल 2019 के आम चुनाव में मोदी को परास्त करने के लिए एकजुट होने की कोशिश करते रहे हैं. महागठबंधन बनाने की चर्चाएं जब-तब होती रहीं. विपक्षी नेताओं के दिल्ली डेरों से लेकर प्रांतीय राजधानियों के सरकारी बंगलों तक बैठकों के दौर चलते रहे. महागठबंधन बनाने की पहली बड़ी कोशिश लालू यादव की पहल पर डेढ़ साल पहले पटना रैली में हुई थी. उत्तर प्रदेश के दो धुर विरोधी दलों, सपा और बसपा के एक साथ आने की जमीन उसी पहल से बननी शुरू हुई थी. पटना रैली से बड़े-बड़े ऐलान हुए थे. उसके बाद से महागठबंधन बनने की चर्चाओं को गति मिली थी, हालांकि क्षेत्रीय दलों के अन्तर्विरोधों ने उसकी सम्भावनाओं पर सवाल भी खूब लगा दिये थे.

उसके बाद विपक्षी दलों को एक और बड़ा अवसर मई 2018 में मिला जब कर्नाटक चुनाव में भाजपा की सत्ता कब्जाने की कोशिश नाकाम हुई और कुमारस्वामी के नेतृत्त्व में कांग्रेस-जनता दल (सेकुलर) की सरकार बनी. कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों की सबसे बड़ी जुटान बना. वह मंच विपक्षी नेताओं के लिए न केवल अत्यंत उत्साहवर्धक था, बल्कि एकता के प्रतीक रूप में कुछ अद्भुत दृश्य  बहुत दिनों तक मीडिया में छाये रहे थे.

सोनिया और मायावती की स्नेहिल आलिंगन वाली बहुप्रचारित तस्वीर बंगलूर के उसी मंच की है. लग रहा था कि मायावती का पुराना कांग्रेस विरोध अब तिरोहित हो जाएगा. उसी मंच पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा नेता मायावती का बड़े आदर से स्वागत किया था. पटना से सांकेतिक रूप में शुरू हुई उनकी दोस्ती उसी दिन सार्वजनिक और व्यवहार में आयी थी. बंगलूर के उसी मंच पर बंगाल के पुराने राजनैतिक शत्रु माकपा नेता सीताराम येचुरी और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी भी मौजूद थीं. एक-दूसरे को फूटी आंख न देखने वाले ये नेता उस दिन मुस्कराते हुए कुछ पल को आमने-सामने भी हुए. वहाँ और भी क्षेत्रीय नेता थे जिनका जोश बता रहा था कि उन्हें भाजपा को सताच्युत करने के लिए एकता का सूत्र मिल गया है.

जिस तरह पटना की रैली के बाद महागठबंधन की सम्भावना धूमिल होती गयी उसी तरह बंगलूर के विपक्षी जमावड़े से निकले एकजुटता के संदेश भी जल्दी से उलटे संकेत देने लगे. सोनिया गांधी के गलबहियाँ डालने वाली मायावती कांग्रेस पर हमलावर होती गईं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में तालमेल न हो पाने के बाद मायावती के लिए कांग्रेस साँपनाथहो गयी, भाजपा से कतई कम बुरी नहीं. माकपा और तृणमूल को तो खैर साथ आना ही नहीं था, सोनिया से ममता की बाद की मुलाकातें भी सुनिश्चित नहीं कर सकीं कि उनकी पार्टियों में तालमेल होगा.

इन रैलियों, मुलाकातों का विपक्ष की नजर से एक ही सुखद परिणाम निकला कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबन्धन हो गया. भाजपा को हराने की दिशा में यही एक महत्त्वपूर्ण बात हुई. इसके अलावा टीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव और तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू ने विपक्षी एकता की जो पहल की वह किसी नतीजे तक नहीं पहुँची. तेलंगाना में तेलुगु देशम, कांग्रेस और वाम दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरह नाकामयाब रहे. इस प्रयोग की विफलता के बाद कांग्रेस तेलुगु देशम से दूरी बनाने में लगी है. संकेत हैं कि वह आंध्र में उसके साथ मिलकर लोक सभा चुनाव नहीं लड़ेगी.

अपने अंतर्विरोधों, क्षेत्रीय समीकरणों और कांग्रेस से पुराने बैर के कारण अब तक भाजपा विरोधी दल राष्ट्रीय स्तर किसी एकता का आधार तैयार नहीं कर सके. आम चुनाव सामने हैं. अब कोई गठबन्धन बन पाएगा , इसके आसार नहीं दीखते. इसके बावजूद इन दलों में  2019 के चुनाव में भाजपा को धूल चटाने की तीव्र लालसा दिखाई देती है. भाजपा सभी को अपने राजनैतिक अस्तित्त्व के लिए बड़ा खतरा दिख रही है. इसलिए वे एकजुटता दिखाने, एक मंच पर आने और भाजपा के विरोध के लिए सामूहिक मुद्दा तलाशने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते.

ममता बनर्जी की विपक्षी रैली को एक महीना भी नहीं हुआ कि कोलकाता विपक्षी दलों के लिए फिर एक ऐसा अवसर ले आया जब वे मिलकर केंद की मोदी सरकार के खिलाफ अपनी मुद्दा आधारित एकजुटत दिखा सकते थे. शारदा घोटाले के सिलसिले में वहाँ के पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने सीबीआई क्या पहुँची कि ममता बनर्जी ने मोदी सरकार के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया. वे संघीय ढाँचे को ध्वस्त करनेका आरोप लगा कर धरने पर क्या बैठीं कि पूरा विपक्ष ममता के समर्थन में और मोदी सरकार के विरुद्ध एक सुर में बोलने लगा. कई दलों के बड़े नेता कोलकाता जाकर ममता के धरना-मंच में शरीक हो आये. कई ने अपने-अपने गढ़ों से मोदी सरकार के खिलाफ हुंकार भरी.     

करीब बाईस राजनैतिक पार्टियाँ मोदी सरकार के खिलाफ और ममता बनर्जी के समर्थन में इस समय बयान दे रही हैं. इनमें कांग्रेस समेत विभिन्न राज्यों के महत्त्वपूर्ण और बड़े दल शामिल हैं. ममता के मामले में बीजू जनता दल ने भी भाजपा विरोधी तेवर दिखाये हैं. लगता है कि भाजपा के विरुद्ध व्यापक मोर्चा तैयार है लेकिन वास्तव में कोई मोर्चा तैयार नहीं है. ममता के पक्ष में खड़े सारे नेता उन्हें अपना नेता मानने को कतई तैयार नहीं होंगे.

इस तथ्य के बावजूद भाजपा के लिए 2019 का संग्राम आसान नहीं है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अलग मैदान में उतरने के बावजूद सपा-बसपा के गठबन्धन से लड़ाई बहुत कठिन हो चुकी है. बिहार में नीतीश के कारण एनडीए मजबूत भले दिखता हो, विरोधी गठबन्धन को कमजोर नहीं आंकना चाहिए. इसके अलावा कुछ राज्यों में भाजपा की कांग्रेस से सीधी लड़ाई है और उन राज्यों में 2014 के बाद से कांग्रेस मजबूत हुई है.

किसी संयुक्त मोर्चे या गठबंधन के बिना भी भाजपा विरोध के स्वर तीव्र हो रहे हैं. विपक्ष इन विरोधी सुरों को तेज से तेज बनाये रखना चाहता है. फिलहाल यही स्वर उनकी एकजुटता है.  


(प्रभात खबर, 6 फरवरी, 2019)

Sunday, February 03, 2019

किसी रफूगर से कब मिले थे आप?



वक्त और तरक्कीके साथ कितनी चीजें, कैसी-कैसी कारीगरी और कारीगर गायब होते जा रहे हैं. कई चीजें नई जीवन शैली के साथ चलन से बाहर हो गईं, कुछ को टेक्नॉलॉजी ने इतिहास के कूड़ेदान में धकेल दिया और कुछ की कद्र करना हम ही ने छोड़ दिया.

शहर की सम्मानित  संस्था सनतकदा ने इस बार अपने सालाना उत्सव का विषय हुस्न-ए-कारीगरी-ए अवधको अपना विषय बनाया है. एक जमाना था जब अवध की कारीगरी का हुस्न दुनिया जहाँ में मशहूर था. चिकन, जरदोजी, कामदानी, चटापट्टी, वगैरह के कद्रदां आज बहुत कम हैं, लेकिन हैं. ये नाम गाहे-ब-गाहे सुनाई दे जाते हैं. जो नाम सुनकर हम चौंके और पुरानी यादों में खो गये वह है रफूगरी. रफूगर भी क्या कमाल करते थे. पुराने लखनऊ के गली-मुहल्लों और  बाजारों, रंगसाजों, दर्जियों व ड्राई-क्लीनरों के यहाँ रफूगरके छोटे साइन बोर्ड खूब दिखा करते थे.

डेढ-दो दशक पहले तक भी अच्छे रफूगरों की तलाश होती थी. शॉल हो या कोट, कीमती साड़ी हो या नायाब कुर्ता, सलवार-गरारा हो या पैण्ट, कभी कील-कांटा-चिंगारी लग जाने पर नुच-फट-जल गया तो बड़ा अफसोस होता था. तभी कोई कहता था- अरे, रफूगर सब ठीक कर देगा और आप बड़ी राहत महसूस करते थे कि आपका पसंदीदा पहनावा बेकार नहीं हुआ. अच्छे रफूगर की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ता था. दो-चार रोज में रफूगर के यहाँ से वापस आने पर आपके लिए यह ढूँढना मुश्किल हो जाता था कि कपड़ा कटा-फटा किस जगह था.

क्या महीन कारीगरी करते थे रफूगर. बनारसी साड़ी के एक छोर से बारीक रेशा खींच कर कट गये हिस्से की ऐसी मरम्म्त कि गोया उतना हिस्सा साड़ी के कारीगर ने ही दोबारा बुन दिया हो. एकदम महीन सुई साड़ी के एक-एक रेशे में ऊपर-नीचे होती हुई इतनी कुशलता से गुजरती कि करघा भी दाद देता. ट्वीड के कोट में वही काम थोड़ा मोटी सुई करती. रंगीन धारियां हों या कोई डिजाइन, अनुभवी बूढ़ा रफूगर मोटा चश्मा लगाये धारी से धारी मिला देता. वह जमीन में एक कोने में बैठा काम में इतना तल्लीन होता जैसा इबादत कर रहा हो. जब तक वह सिर न उठाए, बोलने की भी हिम्मत न होती.

अब जमाना दूसरा है. कटा-फटा कपड़ा रफू कराने की कोई सोचता ही नहीं. नई पीढ़ी रफूशब्द से परिचित भी नहीं होगी. एक पीढ़ी से दूसरी-तीसरी पीढ़ी तक जाने वाले नायाब पहनावे भी गायब हो रहे हैं. एक-दो बार पहनो और बदलो वाला दौर है. कट-फट जाए तो कौन पूछे. रफूगरों की जरूरत भी इस बदलाव के साथ जाती रही. किसी-किसी ड्राई-क्लीनर के यहाँ अब भी रफूगर दिख जाते हैं लेकिन उनके हाथ में वह हुनर नहीं. कद्रदां नहीं रहे तो हुनर कहाँ-कैसे बचे. पुरानी पीढ़ी से कोई सीखना भी नहीं चाहता क्योंकि वह हुनर अब पेट नहीं भर सकता.

चीजों के गायब होने की रफ्तार शहरों में बहुत तेज है. यहाँ  दुलाइयाँ और रजाइयाँ नहीं ओढ़ी जातीं इसलिए धुनवे गायब हो गये हैं. लोहे के चाकू-छुरी की जगह स्टेनलेस स्टील की छुरियों ने ले ली है जिसमें सान नहीं धरी जा सकती. चाकू-छुरी तेज करा लो की आवाजें क्यों सुनाई देंगी. सिल-बट्टे बलेण्डरों ने खा लिये तो उन्हें बनाने वाले क्यों देहरी से आवाज देंगे. ऐसी कितनी चीजें गायब हुई हैं, याद करिए तो.

रफूगर की जगह इन सबमें निराली थी. इस स्तम्भ में हमने कुछ दिन पहले एक जरदोजी कारीगर का जिक्र किया था जो काम न मिलने के कारण रंगाई-पुताई का काम करने लगा है. पुराने हुनरमंद रफूगरों की अगली पीढ़ियाँ पता नहीं किस रोजगार में लगी होंगी. 
    
(सिटी तमाशा, नभाटा, 03 फरवरी, 2019)