Friday, March 29, 2019

चुनावी शोर में गंगा की अविरलता का मुद्दा



चुनावी शोर-शराबे और राजनैतिक-प्रतिद्वंद्वियों को किसी भी तरह नीचा दिखाने की अमर्यादित-अनैतिक होड़ से लेकर अंतरिक्ष में उपग्रह को मार गिरानेमें सफलता के गौरव-गायन में, महत्त्वपूर्ण और आवश्यक मुद्दों की चर्चा तो छोड़िए, उनका जिक्र तक गायब हो जाता है. इस सप्ताह यह सूचना शायद ही कहीं दिखाई-सुनाई दी हो कि गंगा को  प्रदूषण-मुक्त कर अविरल बनाने की मांग के लिए एक और विज्ञानी अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गया है.

आईआईटी (खड़गपुर) और आईआईएम (कॉलकाता) से पढ़ कर निकले 48 वर्षीय चंद्र विकास जब पिछले सप्ताह हरिद्वार के मातृ सदन में अनशनकारी युवा संत आत्मबोधानंद से मिले तो उन्हें लगा कि गंगा को बचाने की इस मुहिम में उनको भी शामिल होना चाहिए. चंद्र विकास ने कहा कि जब सिर्फ 26 साल के संत आत्मबोधानंद  गंगा के लिए अपने प्राण दाँव पर लगा सकते हैं तो मैं क्यों पीछे रहूँ. वे दिल्ली जाकर बीते रविवार को जंतर-मंतर पर बेमियादी अनशन पर बैठ गये.

संत आत्मबोधानन्द के बारे में भी बताना पड़ेगा. उनकी सुधि वैसे ही कोई नहीं ले रहा था. अब तो चुनावी भड़ास निकालने का दौर है. 22 वर्ष की आयु में केरल के इस युवा ने संन्यास लिया तो बदरीनाथ की यात्रा पर निकले. हरिद्वार के मातृ सदन में स्वामी शिवानंद की संगत में गंगा नदी के साथ हो रहे अत्याचारों और उसके खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई से उनका साक्षात्कार हुआ. स्वामी शिवानन्द वर्षों से इस हेतु संघर्ष करते रहे हैं. वहीं उन्हें पता चला कि अवैध खनन से गंगा नदी को बचाने के लिए 115 दिन तक अनशन करके स्वामी निगमानंद ने 
2011 में  प्राण त्याग दिये थे. स्वामी निगमानन्द का किस्सा भी किसी को क्यों याद होगा. 

पिछले वर्ष वहीं इस युवा संत ने देखा कि स्वामी सानंद गंगा नदी की अविरलता की बहाली की मांग के लिए आमरण अनशन पर हैं. स्वामी सानंद संन्यास लेने से पहले आईआईटी कानपुर के नामी प्रोफेसर जी डी अग्रवाल के रूप में जाने जाते थे. वे  प्रसिद्ध वैज्ञानिक और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संस्थापक सचिव भी रहे थे. बहरहाल, जब उनकी मांगों पर  कहीं सुनवाई नहीं हुई तो वे आमरण अनशन करने लगे. 82 वर्ष के स्वामी सानंद ने 111 दिन के अनशन के बाद 11 अक्टूबर 2018 को अपने प्राण त्याग दिये. 

तब तक 26 साल के हो चुके संत आत्मबोधानंद ने तय किया स्वामी सानंद के संघर्ष को वे आगे ले जाएंगे. अपने गुरु स्वामी शिवानंद को कठिनाई से राजी करने के बाद वे 24 अकटूबर 2018 से अनशन कर रहे हैं. इतने दिनों में उनकी सेहत अब काफी गिर गई है लेकिन उनका संकल्प और पक्का ही हुआ है.

तो, इन्हीं संत आत्मबोधानंद से मिलने के बाद चंद्र विकास भी अब अनशन पर हैं. क्या आपने नेताओं के भाषणों, पार्टियों के घोषणा-पत्रों, वादों ,आदि में कहीं इस बारे में सुना? मीडिया में पढ़ा-देखा?

यह तो याद होगा ही कि 2014 के चुनाव में गंगा को प्रदूषण-मुक्त करके अविरल बनाने की बड़ी चर्चा हुई थी. प्रधानमंत्री मोदी माँ गंगा के बुलावेपर वाराणसी से चुनाव लड़े थे. नमामि गंगेपर धन भी खूब व्यय हुआ. गंगा का प्रदूषण कम हुआ होता तो कुम्भ के दौरान नदी किनारे के कारखानों को दो महीने के लिए क्यों बंद करना पड़ता? गंगा की अविरलता के लिए कुछ ठोस हुआ होता तो स्वामी सानंद क्यों प्राण त्यागते? क्यों आत्मबोधानंद और अब चंद्र विकास अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठते?

जब गंगा के साथ यह सलूक है तो अपनी गोमती किससे फरियाद करे?
   


Saturday, March 23, 2019

ऋतु परिवर्तन की तरह और क्या बदलेगा?

अगस्त के आस-पास वर्षा ऋतु बीतने के साथ हमारे यहाँ त्योहारों-उत्सवों का जो सिलसिला शुरू होता हैवह होली बीतने के साथ एक तरह से ठहर जाता है. रक्षाबंधन से होली तक कोई आठ महीने लगातार किसी न किसी न पर्व या उत्सव के होते हैं. दीपावली के बाद शीत ऋतु में त्योहार कुछ विश्राम लेते हैं तो गुनगुनी धूप और ठंडी शामें सांस्कृतिक आयोजनों-महोत्सवों से चहक-महक उठती हैं. कितनी तरह के मेलेविभिन्न समाजों के सांस्कृतिक आयोजनलोक-उत्सवप्रदर्शनियाँशहर को आनंद-समय से भर देती हैं. पुष्प-प्रदर्शनियाँ और उद्यान-सज्जा प्रतियोगिताएँ इस समय को और भी सुवासित कर देती हैं. 

यह अलग बात हैकि जहरीली हवा का सबसे आतंककारी दौर भी इसी दौरान हम शहरियों को सहना पड़ता है. यह हमारी ही करतूतों का परिणाम हैमौसमों-ऋतुओं को उसके लिए दोषी क्यों ठहराएँ. वे हमारे तन-मन को रोमांचित-झंकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. 

मनुष्य के तमाम क्रूर हस्तक्षेप के बाद भी मौसम कैसा राग-रंग रचता है कि होली फरवरी के अंत में पड़ेमार्च के बिल्कुल शुरुआती दिनों में या एक माह बादठंडी हवा के झौंके तब तक बने रहते हैं. सूरज लाख कोशिश करे अपनी किरणों को पैना करने कीपहाड़ों पर हिमपात या मैदानों में ओला-बारिश या किसी तड़के बादलों के कुछ आवारा समूहों की आवत- जावत गर्जन-तर्जन, होली की सुबह तक हमें मौसम बहलाए रखता है कि सर्दी अभी गयी नहीं.

औरजब हम रंग-अबीर उड़ा रहे होते हैंमौसम चुपके से सर्दी पर अपनी पकड़ छोड़ देता है. एकाएक हम पाते हैं कि धूप का रंग बदल गया हैउसकी सुनहरी आभा का तेज अब आंखों को चुभने लगा हैहवा के झौंकों के साथ उड़ते आते पीले पत्तों की सरसराहट कानों में कह जाती है कि गर्मी आ गयी. सचमुचहोली मौसमी परिवर्तन की घोषणा का पर्व भी है. 

देखिए न कि होली की अगली सुबह धूप निकलते ही कैसी उदासी पसर गयी है! वह जो पहली किरणें प्यारी-सी लगती थींएक ही दिन में उनकी मासूमियत कहाँ चली गयी! कांटे उग आये क्या! इसीलिए क्यारी के फूलों को कितना ही पानी-छाँह दीजिएवे हर सुबह विदा माँगने को प्रस्तुत हो जा रहे हैं. त्वचा पर रोम-छिद्रों में एक सुरसुरी है. नयाहलका पहनावा मांगा जा रहा है. जिह्वा के स्वाद-तंतु कुछ शीतल-तरल मांगने लगे हैं. हरी-महीन ककड़ियाँ होली से पहले भले दिखने लगेंउनमें तरावटी तासीर तो होली ही जाते-जाते भरती है. 

अब एक लम्बा दौर गर्मी का रहेगा. कड़ी धूप-लू वाले तपाऊथकाऊउबाऊउदासी भरे दिन. हर साल इनका आना बेहतर दिनों की लम्बी प्रतीक्षा करने जैसा होता है. जीवन में कठिन दिनों के आने की तरहकि ऐसे भी दिन आते ही हैंजिनका कटना मुश्किल लगता है. पीछे देखिए तो पता चलता है कि अरेऐसी कितनी गर्मियाँ हम काट आये. यह अनुभूति बड़ा सुकून देती है कि कठिन दिन भी एक-एक करके बीत जाते हैं. ताप-दाघ-ऊब  जीवन का स्थायी भाव नहीं है. 

चुनाव के दिन हैं. होली से मौसम के बदलने की तरह क्या इस चुनाव से भी बदलाव आएगा? राजनीति और सत्ता में भी परिर्तन होता रहता हैहोगा भी. बात समय की है. मौसम खुद बदलता है. राजनीति और सत्ता में परिवर्तन लाना पड़ता है. जो जनता परिवर्तन ला सकती है वह कितनी तैयार हैया दलीय प्रपंच, षड्‍यंत्र, राग-द्वेषवगैरह ही चलेंगेइस तरह जो होता हैवह वास्तव में कुछ बदल जाना होता है क्या
जब तक गर्मी अपने चरम पर पहुँचेगीराजनीति का परिवर्तन-प्रहसन भी हम देंख ही रहे होंगे.

(सिटी तमाशा, नभाटा, लखनऊ, 23 मार्च, 2019)

Friday, March 22, 2019

आडवाणी की त्रासद-कथा: शिष्य ने धोखा दिया या सलाम किया?


वर्तमान राजनैतिक मंच के नेपथ्य में उदासी और उपेक्षा का चेहरा बने लालकृष्ण आडवाणी के लिए सन् 2019 की होली “राजनीति हो ली” हो गयी. मोदी और अमित शाह की नयी भाजपा ने आडवाणी जी को लोक सभा चुनाव का टिकट न देकर एक लम्बे, महत्वाकांक्षी और विवादास्पद राजनैतिक जीवन की शोक-कथा लिख दी है.

इस शोक-कथा में अभी कुछ नाम और जुड़ेंगे. फिलहाल चर्चा आडवाणी की. इस आडवाणी कथा के त्रासद-प्रसंग कम नहीं.

1990 में आडवाणी की राम रथ यात्रा का संयोजक, संघ का प्रचारक वह ऊर्जावान युवक था जिसका नाम नरेंद्र मोदी है. आडवाणी के केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के दौर में नरेंद्र मोदी के सिर पर उनका हाथ रहता है.
मोदी तेजी से उभरते हैं और राज्य के मुख्यमंत्री बनते हैं.

2002 के भयानक दंगों में राजधर्म नहीं निभानेसे रुष्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेई मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते हैं. आडवाणी मोदी का जोरदार पक्ष लेते हैं और अपने शिष्य को बचा ले जाते हैं.

2013 में  यूपीए सरकार अपनी ही नाकामयाबियों के बोझ से दबी सता से बेदखल होने की बाट जोह रही थी. भाजपा सत्ता में वापसी के लिए जोरदार तैयारियाँ कर रही थी और आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के अपने चिर-पोषित स्वप्न के साकार होने की प्रतीक्षा में थे, तब वही नरेंद्र मोदी उनकी राह में आ खड़े होते हैं. वे अपनी नयी टीम के साथ भाजपा में नेतृत्व की दावेदारी करते हैं और संघ मोदी के पीछे एकजुट हो जाता है.

अपने ही शिष्य, अपने ही पाले-पोषे चेले की चाल से आडवाणी स्तब्ध रह जाते हैं.

संघ नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करना चाहता है. आडवाणी विरोध करते हैं. राष्ट्रीय कार्यकारिणी और चुनाव संचालन समितियों की बैठकों का बहिष्कार करते हैं. चिट्ठियाँ लिखते हैं. गुस्सा दिखाते हैं. कोई नहीं सुनता. उनके पुराने सखा और समर्थक भी मौन लगा जाते हैं. कुछ हवा का रुख देख पाला बदल लेते हैं.

आडवाणी बहुत कोशिश करते हैं कि कम से कम इतना तय हो जाए कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का चयन चुनाव बाद के लिए छोड़ दिया जाए. उनकी यह बात भी नहीं सुनी जाती. जून 2013 में नरेन्द्र मोदी  चुनाव प्रचार अभियान के मुखिया बनाए जाते हैं. और सितम्बर 2013 में उन्हें भाजपा के प्रधानमंत्री-प्रत्याशी करार दिया जाता है. आडवाणी का लम्बे समय से जतन से पाला सपना किर्च-किर्च बिखर जाता है.

हताश-निराश आडवाणी घर में कैद हो जाते हैं. अपने ही चेले के हाथों यह पराजय उन्हें निरीह चेहरा बना देती है. हताशा में सीने के सामने जुड़े अपने कमजोर हाथों वाली तस्वीर उनकी लाचारी बयां करने लगती है.

मई 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं. अमित शाह उनके सेनापति. दिनों मिलकर आडवाणी को मार्गदर्शक मण्डल में स्थापित कर राजनीति से उनका वनवास घोषित कर देते हैं.

तो भी, एक आखिरी उम्मीद आडवाणी के लिए उनके शुभचिन्तक और प्रतिद्वंद्वी सामान्य राजनैतिक शिष्टाचार मानकर पाले रहते हैं. 2017 में राष्ट्रपति का चुनाव होना था और सभी मान रहे थे कि आडवाणी को यह पद मिल जाएगा. आडवाणी भी पी एम की कुर्सी न सही, प्रेसीडेण्ट ही सही वाली मुद्रा में तनिक मुस्करा देते हैं.

नरेंद्र मोदी सुनिश्चित करते हैं कि आडवाणी जी राष्ट्रपति भवन की दहलीज तक भी न पहुंचने पाएँ. किस्सा बहुत पुराना नहीं है, इसलिए दोहराने की आवश्यकता नहीं. 

आडवाणी का त्रासद किस्सा प्राचीन राज-दरबारों से लेकर वर्तमान राजनीति तक की चालों और षडयंत्रों की याद दिलाता है.

और अब, गांधीनगर की उनकी पुरानी सीट से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ेंगे. 91 साल में आडवाणी जी के लिए पूर्णतया विश्राम करना उचित रहेगा, ऐसा संदेश दे दिया गया था. अब वे विरोध भी नहीं कर सकते.    
1947 से आरसएस और 1951 में जनसंघ की स्थापना से उसके महत्त्वपूर्ण नेता रहे आडवाणी को संघ ने 1986 में अटल विहारी बाजपेयी की जगह भाजपा का अध्यक्ष बनाया था. भाजपा राजनीति के हशिए पर थी. अटल जी का लोकप्रिय उदारनेतृत्व 1984 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के सिर्फ दो सांसद जिता पाया था.

आडवाणी उग्र हिंदू नेता माने जाते थे. उनके भाषण आक्रामक होते थे. वे मुस्लिम तुष्टीकरणऔर हिंदू-उपेक्षापर तीखे भाषण देते थे. तब सेकुलरउन्हें साम्प्रदायिकता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे.

आडवाणी ने भाजपा को नये सिरे से खड़ा करने के लिए मुद्दे गढ़े और जो अवसर मिले उनको भुनाया. यह वह दौर था जब विश्व हिंदू परिषद अयोध्या में रामजन्म भूमिपर बाबरी मस्जिदकी जगह राम मंदिर बनाने का अभियान शुरू कर रही थी. 1984 में रिकॉर्ड बहुमत से सत्ता पाने वाले राजीव गांधी 1986 आते-आते अपनी सत्ता बचाने के लिए हिंदू कार्डखेलने को मजबूर हो गये थे. उन्होंने 1989 में रामजन्म भूमि का ताला खुलवा दिया और 1989 में विहिप को विवादित जमीन पर शिलान्यास की इजाजत भी दे दी.

राजीव गांधी की इस चाल को आडवाणी ने बहुत चालाकी से अपना बना लिया. उन्होंने राम मंदिर अभियान का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. 25 सितम्बर 1990 को सोमनाथ से शुरू हुई उनकी राम-रथ यात्रा ने देश में हिंदू-ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता के इतिहास का नया अध्याय लिखा.

23 अक्टूबर 1990 को बिहार में जब लालू यादव ने उन्हें गिरफ्तार करवाया तब तक भारतीय राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया था. आडवाणी हिंदू हृदय सम्राटबनकर छा गये थे. अगले चुनाव में लोक सभा में भाजपा की सदस्य संख्या दो से 85 पर पहुँच गयी. भाजपा ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. अटल जी के नेतृत्व में तीन बार एनडीए सरकार ने शपथ ली, जिसमें पांच साल का एक पूरा कार्यकाल शामिल है. भाजपा को 1991 में 120, 1996 में 161 और 1998 में 179 और 1999 में 182 सीटें जिताने वाले आडवाणी ही थे, चाहे पार्टी अध्यक्ष कोई रहा हो.  

अटल जी प्रधानमंत्री बने इसलिए कि आडवाणी तब कट्टर हिंदू चेहरा थे और सहयोगी दलों को उदार अटल सहज स्वीकार्य थे. भाजपा के सत्तारोहण का बाकी सारा श्रेय आडवाणी से कोई नहीं छीन सकता. इसलिए प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा उनके दिल में खूब सिर उठा रही थी.

अटल जी की सरकार के शाइनिंग इण्डियादौर में आडवाणी की यह तमन्ना पूरा जोर मारने लगी थी. संघ और भाजपा ने भी यह मान लिया था अब आडवाणी की बारी है.

सन 2004 के आम चुनाव में वे भाजपा का सम्भावित प्रधानमंत्री चेहरा हो सकते थे, लेकिन तभी से उनकी किस्मत ने पलटा खाना शुरू कर दिया था. आडवाणी की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एनडीए को अपदस्थ कर यूपीए सत्ता में आ गयी. 2009 में आडवाणी पी एम पद के घोषित प्रत्याशी थे लेकिन यूपीए और भी ताकतवर हो कर सत्ता में वापस लौट आया.

2103 के बाद उनके साथ छल होने लगा. पहला धोखा उस संघ परिवार ने दिया जिसके वे बड़े चहेते हुआ करते थे. 2004 और 2009 की पराजय का दोष आडवाणी के सिर मढ़ते हुए भाजपा के लिए नये और युवा नेतृत्व की वकालत शुरू की.  

नरेंद्र मोदी नाम का जो नेता उनके विकल्प के तौर पर निकला वह उग्र राष्ट्रवाद, आक्रामक हिंदू-ध्रुवीकरण और हिंदुत्त्व की  राजनीति का उनसे बड़ा खिलाड़ी निकला. गुरू को उसने उन्हीं के दाँव से चित कर दिया.

एक अपेक्षाकृत युवा, तेजतर्रार खिलाड़ी और मौका पकड़ने और भुनाने  में माहिर शिष्य का यह अपने लाचार बुजुर्ग गुरु को सलाम मान जाए या धोखा?   


https://hindi.oneindia.com/opinion/lok-sabha-elections-2019-lal-krishna-advani-witnessed-dream-house-getting-collapsed-by-his-disciple-498266.html

Tuesday, March 19, 2019

मोदी चौकीदार नहीं, प्रधानमंत्री हैं, उसी का हिसाब दें



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वयं ही अपने को चौकीदार नरेंद्र मोदीकहने की ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी होगी? उनकी देखा-देखी भाजपा मंत्रियों, नेताओं, पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों और अन्धभक्तों ने भी अपने को चौकीदार कहना-लिखना शुरू कर दिया है. भाजपा ने अब इसे अपना अभियान ही बना लिया है- “मैं भी हूँ चौकीदार.

देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को चौकीदारके रूप में नहीं चुना था. सन् 2014 के चुनाव में भाजपा की तरफ से वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे. उनकी पार्टी को जिता कर नरेंद्र मोदी को जनता ने प्रधानमंत्री चुना. उनकी जवाबदेही प्रधानमंत्री के रूप में है.

तो, नरेंद्र मोदी इस चुनाव में प्रधानमंत्री के रूप में जवाबदेह बनकर जनता के सामने क्यों नहीं आ रहे? जबर्दस्ती चौकीदारबनकर क्यों पेश हो रहे हैं? मान न मान, मैं चौकीदार! अरे भाई, क्यों? कैसा चौकीदार? किसका चौकीदार?

ध्यान दीजिए कि मैं चौकीदार हूँऔर मैं भी चौकीदारके इस शोर में हो क्या रहा है?  

मोदी सरकार से कुछ सवाल पूछे जा रहे थे, जो कि पूछे जाने चाहिए थे. मसलन, आपने इस देश के संविधान की शपथ ली थी. आपका उत्तरदायित्त्व था कि संविधान की मूल भावना के अनुरूप इस देश की शासन-प्रणाली चले. जब गोरक्षा के नाम निर्दोष मुसलमानों की भीड़-ह्त्या हो रही थी, जब किसी के चूल्हे में ताक-झांक कर उसके खाने पर शंका उठा कर घर फूंका जा रहा था, जब प्रतिरोध में आवाज उठाने वालों को देशद्रोही बताकर मारा-पीटा जा रहा था, जब गौरी लंकेश जैसे एक्टिविस्ट पत्रकार-लेखक की हत्या हो रही थी, जब रोहित वेमुला आत्महत्या करने को मजबूर किया जा रहा था, जब कन्हैया कुमार जैसे जेएनयू के युवाओं को देशद्रोही बताकर फंसाया जा रहा था, आदि-आदि, तब आप चुप क्यों थे? प्रधानमंत्री के नाते आपकी कुछ जिम्मेदारी बनती थी या नहीं?

इन सबसे आपकी वैचारिक असहमति हो सकती है. आप जिस विचारधारा की उपज हैं, वह असहमति के साहस को स्वीकार नहीं करती, यह हम जानते हैं. उसके बावजूद आप देश के प्रधानमंत्री पद पर सशपथ विराजमान हैं तो क्या संविधान और लोकतंत्र आपको यह दायित्व नहीं देते कि आप शासन-प्रमुख के नाते हस्तक्षेप करते? प्रधानमंत्री पद पर बैठे हुए आप उन बहुत सारे लेखकों, पत्रकारों, विज्ञानियों, इतिहासकारों, फिल्मकारों, कलाकारों,  रंगकर्मियों, आदि के लोकतांत्रिक विरोध को कैसे उपहास में उड़ा सकते हैं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के विरोध में पहले कभी मिले सम्मान लौटा रहे थे और प्रदर्शन कर रहे थे? प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले नरेंद्र मोदी की ऐसे में क्या जिम्मेदारी बनती थी?

प्रधानमंत्री के रूप में पाँच साल पूरे कर रहे नरेंद्र मोदी से यह सवाल भी जनता कर ही रही थी कि आपने जो बड़े-बड़े वादे किये थे, वे पूरे क्यों नहीं हो पाये? भ्रष्टाचार मिटाने, विदेशों में छुपाया हुआ चोर-धन वापस लाने, किसानों की दुर्दशा दूर करके उनकी आय दोगुनी करने, पूर्ववर्ती सरकार के दौरान हुए घोटालों के अपराधियों को सजा देने, जैसे आपके कई वादों का क्या हुआ?

क्या यह पूछना इस चुनाव में जरूरी नहीं है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी समेत कई वरिष्ठ पत्रकार-वकील, अधिकारी, आदि राफेल विमान सौदे में आप पर अनियमितता के जो आरोप लगा रहे हैं, सही या गलत, उसकी जेपीसी जांच कराने से आप बच क्यों रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट से भी क्यों कह रहे हैं कि ऐसा करना उचित नहीं होगा? हो जाने दीजिए जाँच. इस देश के बैंकिंग सेक्टर को खोखला करने वाले कई बड़े अभियुक्तोंकी जो सूची रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने कार्रवाई की अपेक्षा में आपको सौंपी थी, उनके खिलाफ आपने कोई कदम उठाया? नहीं , तो क्यों?

पांच साल के आपके कार्यकाल में आपसे पूछने के लिए इस देश की जनता के पास बहुत सवाल हैं. ऊपर तो चंद उदाहरण भर गिनाये गये हैं. एक बड़ा सवाल तो यही है कि जिस मीडिया की जिम्मेदारी जनता की ओर से आपसे सवाल करने की थी, उसके सामने आप एक बार भी पेश क्यों नहीं हुए? अपने नाम यह दुर्भाग्यपूर्ण कीर्तिमान आपने क्यों दर्ज कराया कि पूरे कार्यकाल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को सम्बोधित न करने वाले आप पहले प्रधानमंत्री हैं? आपको सवालों से इतना डर क्यों लगता है? और, मीडिया के जिस धड़े ने सवाल पूछने का दायित्व निभाया, उसकी आवाज दबाने का, उसका गला घोटने या स्वर्ण पात्र से मुँह ढकने का अलोकतांत्रिक काम आपने क्यों किया? जनता की तरफ से मीडिया के सवालों का जवाब देश का प्रधानमंत्री नहीं देगा तो कौन देगा?       

और,अब जबकि चुनाव का समय आया है, जब प्रधानमंत्री के रूप में आपका कार्यकाल कसौटी पर है तो आप अचानक कहने लगे कि मैं चौकीदार हूँ’ . भला क्यों?

नरेंद्र मोदी इस भला क्यों?’ का जवाब नहीं देंगे. जवाब देने से बचने के लिए ही तो वे प्रधानमंत्री की बजाय अपने को चौकीदार कहने लगे हैं.

यह जनता को सोचना-समझना है कि जनता के सवालों को, रोजमर्रा की जिन्दगी के मुद्दों को, वादाखिलाफी के आरोपों को, प्रधानमंत्री के रूप में संविधान के मूल्यों की रक्षा में विफलता, आदि-आदि को दबाने के लिए ही तो चौकीदार-चौकीदार का शोर मचाया जा रहा है.

सोचिए कि क्या इस शोर में सारे सवाल और मुद्दे दब गये हैं या नहीं?  अब सारी बहस चौकीदारके इर्द-गिर्द घूम रही है कि नहीं?  राहुल और प्रियंका भी अपने भाषणों में कहने लगे हैं कि चौकीदार तो अमीरों के होते हैं.यानी विपक्षी नेता भी चौकीदारके खेल में उलझा दिये गये हैं. मीडिया तो खैर मैं चौकीदार हूँखेल से चमत्कृत है ही.

क्या खूब खेल है और कैसे चतुर खिलाड़ी!

2019 के आम चुनाव में हमें चौकीदारचुनना है या ऐसी सरकार जो देश को संविधान की भावना के अनुरूप चलाते हुए जनता की भलाई के लिए काम कर सके?

2014 में हमने चाय वालाचुना था क्या? राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी, चाय बेचने वाले आदमी के रूप में नहीं.

याद ही होगा कि 2014 के चुनाव में मोदी जी अपने को चाय वालाबताते हुए घूम रहे थे. बेची होगी उन्होंने कभी चाय, या नहीं बेची होगी. उस समय यूपी शासन से ऊबे देश को चाय बेचने वाले की नहीं, ईमानदारी और समर्पण से इस बहुतावादी देश को संविधान की मूल भावना के अनुरूप सरकार चला सकने वाले नेता की आवश्यकता थी. जनता को नरेंद्र मोदी में एक नया, ऊर्जावान, बड़े-बड़े वादों से उम्मीदें जगाने वाला प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार दिखा था. इसीलिए उन्हें जनता ने भारी बहुमत से सत्ता में पहुँचाया. अब समय है कि उनसे प्रधानमंत्री के रूप में सवाल किये जाए, जवाब मांगे जाएं.

विमर्श बदल देने, मुद्दों से ध्यान भटका देने, जवाबदेही टालने में हमारे नेताओं का जवाब नहीं. मोदी जी की टीम तो इस खेल की चैम्पियन साबित हो रही.

इसलिए, आवश्यक है कि यह समझना कि ऐन चुनावों के वक्त मैं चौकीदार हूँका अभियान क्यों चलाया जा रहा है. इसीलिए जरूरी है कि इस नये जुमले में उलझ कर मूल मुद्दों से ध्यान नहीं हटा देना चाहिए.   
    
   (नैनीताल सामाचार की वेबसाइट samachar-org.in के लिए 21 मार्च, 2019)

जनता को जिम्मेदार सरकार चुननी है, चौकीदार नहीं!


हमारे देश में चुनावों के दौरान जनता को सबसे ज्यादा ठगा,  भरमाया और ललचाया जाता है, जबकि होना उलटा चाहिए था. यह समय जनता द्वारा नेताओं के कान पकड़ने, उन्हें उनके अधूरे या भूले वादों की याद दिलाने, ज्वलंत और रोजमर्रा मुद्दों को उठाने और भविष्य की योजनाओं एवंर दृष्टि के बारे में पूछने का होना चाहिए था.

नेता चुनाव के समय ही जनता के पास जाते हैं. इसलिए यह समय उन्हें ठीक से अपनी बात सुनाने का, उनकी असलियत पहचानने का और उन्हें उत्तरदाई ठहराने का होना चाहिए.
अफसोस कि ऐसा नहीं होता. उलटे, नेता जनता को ही असली मुद्दों से दूर ले जाने और अपने अनकिये-किये पर पर्दा डालने का काम बखूबी कर जाते हैं.

अब यही देख लीजिए कि नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने मैं भी चौकीदारअभियान चला दिया है. हमारे प्रधानमंत्री ने अपना नाम चौकीदार नरेंद्र मोदीरख लिया है. उनकी देखा-देखी भाजपा के लगभग सारे केन्द्रीय और राज्यों के मंत्रियों, भाजपा नेताओं और समर्थकों ने अपने सोशल मीडिया खाते में नाम से पहले चौकीदार लगा लिया है. सबमें चौकीदार बनने की होड़ लगी है.

क्यों, चौकीदार क्यों? इसलिए कि राहुल गांधी ने चौकीदार चोर हैचला दिया. जुमले गढ़ने में माहिर मोदी जी ने किसी सभा में कहा था कि – मैं देश के धन का चौकीदार हूँ’. राफेल सौदे में हुई अनियमतिताओं को मोदी सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा मुद्दा बनाते हुए राहुल गांधी ने नारा गढ़ लिया था- चौकीदार चोर है.यह मामला जोर पकड़ने लगा तो मोदी जी की टीम चौकीदारकी प्रतिष्ठा बढ़ाने और स्थापित करने में लग गयी. सो, बकायदा अभियान चलाकर प्रधानमंत्री समेत सब भाजपाई चौकीदारबन गये हैं.

अब सारी बहस चौकीदारके इर्द-गिर्द घूम रही है. राहुल चौकीदार चोर हैनारे के साथ मैदान में डटे हैं तो प्रियंका का तर्क है कि चौकीदार तो अमीरों के होते हैं.यानी विपक्षी नेता भी चौकीदारके खेल में उलझा दिये गये हैं. क्या खूब खेल है और कैसे चतुर खिलाड़ी!

2019 के आम चुनाव में हमें चौकीदारचुनना है या ऐसी सरकार जो देश को संविधान की भावना के अनुरूप चलाते हुए जनता की भलाई के लिए काम कर सके?

2014 में हमने चाय वालाचुना था क्या? राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी, चाय बेचने वाले आदमी के रूप में नहीं.

याद ही होगा कि 2014 के चुनाव में मोदी जी अपने को चाय वालाबताते हुए घूम रहे थे. बेची होगी उन्होंने कभी चाय, या नहीं बेची होगी. उस समय यूपी शासन से ऊबे देश को चाय बेचने वाले की नहीं, ईमानदारी और समर्पण से इस बहुतावादी देश को संविधान की मूल भावना के अनुरूप सरकार चला सकने वाले नेता की आवश्यकता थी. जनता को नरेंद्र मोदी में एक नया, ऊर्जावान, बड़े-बड़े वादों से उम्मीदें जगाने वाला प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार दिखा था. इसीलिए उन्हें जनता ने भारी बहुमत से सत्ता में पहुँचाया.

इसलिए आज हमें जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीसे माँगना है, ‘चाय वालाया चौकीदार नरेंद्र मोदीसे नहीं.   
यह वक्त है कि जनता पूछे और वे बताएँ कि पाँच साल प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अपने वादों पर कितना अमल किया? वे बताएँ कि समाज में बढ़ती नफरत और मार-काट रोकने के लिए उन्होंने क्या किया? हमारा संविधान हमें धर्म, मत, सम्प्रदाय, रहन-सहन, अभिव्यक्ति, आदि की जो स्वतंत्रताएँ देता है, उसकी रक्षा के लिए उनकी सरकार ने क्या किया? रोजगार बढ़ाने के लिए क्या काम हुआ? दलितों, किसानों, ग्रामीणों, आदि के कष्ट दूर करने के लिए वास्तव में क्या काम किये?

लेकिन नहीं, वे अपने को सबसे अच्छा चौकीदारसाबित करने में लगे हैं ताकि जनता ऐसे प्रश्न न पूछे जिनका जवाब उन्हें मुश्किल में डाल दे. ये जरूरी मुद्दे और सवाल दब जाएँ. जनता चौकीदारके जुमले में उलझ जाए.
विमर्श बदल देने, मुद्दों से ध्यान भटका देने, जवाबदेही टालने में हमारे नेताओं का जवाब नहीं. मोदी जी की टीम तो इस खेल की चैम्पियन साबित हो रही.

और, मान लें कि मोदी जी पिछले पाँच साल सिर्फ चौकीदारी ही करते रहे तो सवाल उठाना आवश्यक है कि फिर देश में चोरियाँ क्यों हुईं? चोर पकड़े जाने की बजाय भाग क्यों गये? और जिन चोरोंकी सूची रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने आपको दी थी, उनके खिलाफ आपने क्या किया?

इससे बड़ा सवाल यह, यूपीए शासन की जिन चोरियोंका हला मचा कर आप हीरो बने, उन मामलों में चोरों को अब पकड़ा क्यों नहीं?

चूँकि मोदी जी खुद को चौकीदारकह रहे हैं इसलिए ये स्वाभाविक सवाल बनते हैं. वैसे, जनता को उनसे प्रधानमंत्रीके रूप में और बहुत सारे सवाल पूछने हैं.

यह चुनाव का समय है. जनता को अपने आँख-कान खुले रखने चाहिए. चौकीदारकी बहस में मत उलझिए. देश और समाज के सामने उपस्थित बड़े-बड़े मुद्दे उठाइए.

ध्यान दीजिए कि आपको बड़बोला चौकीदारनहीं चुनना, जनता के प्रति जवाबदेह सरकार चुननी है.      
       
   https://thefreepress.in/people-elect-responsibile-government-not-chowkidar/

Monday, March 18, 2019

आखिर कांग्रेस की चुनावी रणनीति है क्या?



कांग्रेस की नवनियुक्त महासचिव प्रियंका गांधी सोमवार को गंगा जी की मदद लेकरउत्तर प्रदेश की जनता से सच्चा सम्वादकरने निकल पड़ी हैं. उन्होंने जनता के नाम लिखी अपनी पाती में कहा है कि उत्तर प्रदेश में किसी राजनैतिक परिवर्तन की शुरुआत आपकी बात सुने बगैर, आपकी पीड़ा को साझा किए बगैर नहीं हो सकती.

तो, माना जाना चाहिए कि प्रियंका का यह अभियान उत्तर प्रदेश में राजनैतिक परिवर्तन की शुरुआत के लिए है. पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन्हें लक्ष्य भी यही दिया है कि 2022 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनानी है. यानी प्रियंका की नजर में 2022 के विधान सभा चुनाव पर हैं.
सवाल उठता है कि लोक सभा चुनाव के लिए कांग्रेस की रणनीति क्या है? चुनाव सिर पर हैं. मतदान के पहले चरण में एक महीने से भी कम समय है. कांग्रेस का तात्कालिक लक्ष्य क्या है? क्या रणनीति है?

पूछना क्या, कांग्रेस का सीधा लक्ष्य मोदी सरकार को अपदस्थ करना होना ही होगा. एक तो इसीलिए कि वह अकेली राष्ट्रीय पार्टी है जो भाजपा का मुकाबला कर सकती है और दूसरे इसलिए कि आज जमीन से उसके पाँव उखड़े हुए है. अपने राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए उसे अपना जनाधार वापस पाना है.

हकीकत यह है कि कांग्रेस आज अकेले दम पर भाजपा को सीधे चुनौती देने और उससे सत्ता छीनने की स्थिति में नहीं दिखाई देती. हाल के विधान सभा चुनावों में तीन राज्यों में भाजपा को सत्ता से बाहर करने के बावजूद कांग्रेस संगठन, कार्यकर्ता, नेता और धन के मामले में वह भाजपा से बहुत पीछे है. उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में लम्बे समय से उसके पास कायदे का संगठन भी नहीं.

हालात को देखते हुए कांग्रेस का पहला लक्ष्य यही हो सकता था कि वह महागठबंधन न सही, राज्य-स्तर पर क्षेत्रीय दलों के सहयोग से भाजपा को सत्ता में आने से रोकने की रणनीति पर चले. राष्ट्रीय स्तर की पार्टी होने और सफलतापूर्वक यूपीए जैसा गठबन्धन चला चुकी कांग्रेस के लिए यह मुश्किल काम नहीं था. उसकी तरफ से दो साल से ऐसी कोशिश होती भी दिख रही थी. लेकिन आज जब मतदान का समय करीब आ गया है तब भी कांग्रेस की चुनावी रणनीति साफ नहीं है.

जैसे, उत्तर प्रदेश में पता नहीं चलता कि सपा-बसपा से उसकी पीठ पीछे की दोस्ती है या उनसे लड़ाई. वह गठबंधन में शामिल होने को उत्सुक थी, अब भी लगती है लेकिन इस दिशा में उसने जरूरी पहल नहीं की. सपा से उसका करीबी रिश्ता दिखता है, लेकिन बसपा के करीब जाने के उसके प्रयासों को मायावती दुत्कार देती हैं. कांग्रेस यह भी नहीं कह पा रही है कि वह अकेले दम मैदान में है और भाजपा समेत सपा-बसपा से भी लड़ेगी.

विडम्बना देखिए कि प्रियंका गांधी की बहुप्रचारित गंगा-यात्रा की पूर्व संध्या पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर कहते हैं कि हम सपा-बसपा के लिए सात सीटें छोड़ रहे हैं. क्यों छोड़ रहे हैं? क्या इसलिए कि सपा-बसपा ने सोनिया और राहुल की सीटों पर कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया है? या इसलिए कि अब भी उन्हें गठबंधन में अवसर मिलने का इंतजार है?

और देखिए, कांग्रेस उत्तर प्रदेश में उस अपना दल के एक धड़े से दो सीटों पर समझौता करती है जो तीन-चार टुकड़ों बंटा हुआ है और जिसका सबसे प्रभवशाली गुट भाजपा का साझीदार है. यही नहीं, राजबब्बर बाबू सिंह कुशवाहा की उस जन अधिकार पार्टी से सात सीटों पर समझौते की घोषणा करते हैं जो पहले ही इन सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी थी.

इन समझौतों से क्या यह समझा जाए कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से तालमेल करके भाजपा को हराने के लक्ष्य पर ही काम कर रही है? ऐसा है तो वह शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से बात करने में क्यों हिचक रही, जो कि तालमेल को लायायित हैं और नाराजगी भी दिखा चुके हैं कि संकेत देकर भी कांग्रेस बात नहीं कर रही? तो क्या यह समझा जाए कि कांग्रेस शिवपाल से मिल कर अखिलेश को नाराज नहीं करना चाहती? यानी सपा से भीतर-भीतर कोई सहमति बनी है? या यह सिर्फ नतीजों के बाद की सम्भावनाओं का खुला द्वार है?

यह हाल कांग्रेस का उत्तर प्रदेश ही में नहीं है. बिहार में वह महागठबंधन का हिस्सा है लेकिन सीटों पर अंतिम सहमति नहीं बन पाई है. महाराष्ट्र में एनसीपी से तालमेल है लेकिन कुछ सीटों को लेकर खटपट कायम है. बंगाल में माकपा के साथ बात साफ नहीं हुई है और उस ममता बनर्जी से कोई चर्चा नहीं हुई जो कबसे कांग्रेस को साथ लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहती थीं. आंध्र परदेश में तेलुगु देशम से तालमेल टूट चुका है. दिल्ली और हरयाणा में आपसे तालमेल की बातचीत टूट जाने के बावजूद फिर-फिर बात हो रही है लेकिन तस्वीर कतई साफ नहीं है. हाँ-हाँ-ना-ना का दौर जारी है.

दूसरी तरफ एनडीए ने अपनी सहयोगी दलों से सीटों का समझौता न केवल फाइनल कर दिया है बल्कि जो छोटे-छोटे दल अन्यान्य कारणों से नाराज थे, उन्हें मना लिया है. असम गण परिषद जैसा सहयोगी जो एनडीए छोड़ कर चला गया था, वापस आ गया है भाजपा के नेतृत्त्व में यह गठबन्धन पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में आ डटा है, जबकि कांग्रेस, जिसे गठबन्धन की ज्यादा जरूरत है, बीच चौराहे पर इधर-जाऊँ या उधर जाऊँके असमंजस खड़ी दिख रही है.

कांग्रेस का यह असमंजस समझ में आता है. मसलन, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा से तालमेल की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती. उसे इतनी कम सीटें मिलतीं कि उसके लिए सबसे बड़े राज्य में अपनी पहचान दिखाना मुश्किल हो जाता. उसके सामने अस्तित्त्व का बड़ा संकट है. लेकिन जिस अगर-मगर में वह उत्तर प्रदेश की लड़ाई लड़ने जा रही है उससे तो यह संकट और बढ़ना ही है. तिकोनी लड़ाई से  भाजपा कीमदद हो रही है, सो अलग.

उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन पाने के लिए कांग्रेस को भाजपा से भी ज्यादा कठिन लड़ाई सपा-बसपा से ही लड़नी होगी. चूंकि इस समय यह व्यावहारिक नहीं है, इसलिए उसे भाजपा को किसी भी तरह से सत्ता में नहीं आने देने की रणनीति पर काम करना चाहिए था. यह रास्ता क्षेत्रीय दलों से बड़ी कीमत पर समझौते का ही हो सकता था. कई राज्यों में भाजपा से उसकी सीधी लड़ाई है. बाकी राज्यों में क्षेत्रीय दलों से तालमेल ही उसे भाजपा के मुकाबिल खड़ा कर सकता है.

मैदान में उतरने से पहले युद्ध क्षेत्र के अलावा अपनी और शत्रु की स्थितियों का आकलन करना ही होता है. क्या कांग्रेस इस मामले में चूक कर बैठी है?  

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