Friday, July 29, 2016

चीजें जो बदलती नहीं, सवाल कुछ उठते नहीं


कितने ही बड़े और गम्भीर हादसे क्यों न हो जाएं, कुछ तरीके कभी नहीं बदलते. हादसे के बाद खूब हो-हल्ला मचता है, जिम्मेदारियां तय की जाती हैं, प्रशासन नियमों की याद दिलाते हुए सख्ती बरतने के निर्देश जारी करता है, आम जनता का कलेजा भी कांपता है लेकिन चंद रोज बाद सब भूल जाते हैं. जो गलत हो रहा था, जो लापरवाहियां की जा रही थीं, वे फिर होने लगती हैं. अगले हादसे पर फिर वही सब कवायद दोहराई जाती है.
बच्चों को स्कूल ले जाने वाले तरह-तरह के वाहनों में बच्चों की असुरक्षा का मामला भदोही में हुए दर्दनाक हादसे के बाद एक बार गरम है. राजधानी लखनऊ तक उस हादसे की टीस महसूस की गई. स्कूली  वाहनों की फिटनेस एवं परमिट से लेकर ड्राइवर की सेहत तथा लाइसेंस की जांच करने के साथ ही स्कूलों की जिम्मेदारी तय करने के वे सारे निर्देश सरकारी फाइलों से बाहर निकाले गए हैं जिन्हें पत्रकार के रूप में चार दशक से छापते-छापते और प्रशासनिक अधिकारियों के रूप बताते-बताते हमारी पीढ़ी रिटायर हो गई. अब नई पीढ़ी ठीक वही दोहरा रही है लेकिन वे ऐहतियात और निर्देश कभी अमल में नहीं लाए जा सके. सच यह है कि जब पूरा तंत्र, जिसमें हम नागरिक भी बराबर के हिस्सेदार हैं, लस्टम-पस्टम पड़ा हो, आंखों में धूल झौंकने तथा जेबें गरम करने से चल जाता हो तो सिर्फ स्कूली वाहनों का मामला कैसे चुस्त-दुरुस्त हो सकता है. गरीब के रिक्शे में लदे-फंदे-लटकते और छोटी-बड़ी खटारा गाड़ियों में ठुंसे स्कूली बच्चे  सभी शहरों-कस्बों का आम नजारा हैं. अक्सर ही उनकी दुर्घटनाएं होतीं हैं. कभी निरीह रिक्शे वाला गालियां और मार खाता है, कभी इयर फोन लगा कर बस चलाने वाला बेवकूफ ड्राइवर. स्कूल प्रशासन, अभिभावक, आरटीओ समेत शासन-प्रशासन, आदि की जवाबदेही कहां है? शिक्षा स्कूलों का धंधा है और बसें ठेकेदारों का. आरटीओ दफ्तर का ध्यान किसी और चीज पर है. फिर ड्राइवर के वेतन से लेकर उसकी मानसिक हालत, बसों की फिटनेस, वैध परमिट, वगैरह की चिंता कौन करे? उधर, महंगी फीस के मारे अभिभावकों को सारी बचत सस्ते वाहन में करनी है. मासूम बच्चों को इस सबकी कीमत अक्सर अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. कब तक ऐसा चलता रहेगा, कोई नहीं जानता.
भदोही में जो हादसा हुआ वह भयानक है और उतनी ही निर्ममता से उस पर बात की जा रही है. हर कोई उस बस ड्राइवर को सारा दोष दे रहा है जो इयर फोन लगा कर बस चला रहा था. कुछ लोग स्कूल और बस संचालक को भी जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. फिर बहस इयर फोन की बीमारी से सेल्फी तक चली जा रही है और असल मुद्दा गायब हुआ जा रहा है. यह सवाल सिरे से नदारद है कि हमारे देश में आज भी बिना फाटक के रलवे क्रॉसिंग हैं ही क्यों? एक खबर बता रही है कि ऐसे करीब बारह हजार फाटक हैं . हाल की एक खबर ने देश को यह खुश खबरी दी कि सवा सौ-डेढ़ सौ किमी की रफ्तार से ट्रेन चलाने में सफलता पा ली गई है. जल्दी ही एक बुलेट ट्रेन चलाने की योजना है. क्या इन दोनों खबरों के एक बेहद अमानवीय सम्बन्ध नहीं है? बुलेट ट्रेन जरूरी है या रेलवे क्रॉसिंग पर फाटक लगाना? हमारी प्राथमिकताएं क्या-कैसी हैं? बुलेट ट्रेन आप जरूर चलाइए लेकिन साथ ही रेलवे क्रॉसिंग पर फाटक सुनिश्चित कीजिए, ओवरब्रिज बनवाइए या सब-वे ही सही लेकिन उन मौतों को रोकिए जो इन फाटकों पर अक्सर वाहनों के ट्रेन से टकरा जाने से हो रही हैं. (नभाटा, जुलई 29, 2016)



Friday, July 22, 2016

‘धार्मिक कार्य’ तो बहाना, मुद्दा कुछ और है


यह कैसा वक्त आ गया है कि एक मुहल्ले के निवासियों में अपने पार्क में पूजा-पाठ या नमाज-मजलिस के लिए सिर-फुटव्वल की नौबत आ जाती है, पुलिस बल तैनात करना पड़ता है, अंतत: डी एम के दफ्तर में लिखित सुलहनामे पर दस्तखत करा कर दोनों पक्षों के लोगों को गले मिलवाया जाता है! यह तो अपनी रवायत नहीं थी. पड़ोसियों में यह शक-सुबहे और झगड़े कहां से आ गए? यह धर्म के लिए तो नहीं ही हो सकता. अलग-अलग धर्मों के मानने वाले यहां सदियों से मिल कर रहते आए हैं, एक-दूसरे के धार्मिक कार्यों में भागीदार और सहायक होते आए हैं. इसलिए गलत कहा जा रहा है कि धार्मिक आयोजनों के लिए टकराव हुआ. इसकी असली वजह कोई और है.
लखनऊ की मिली-जुली संस्कृति के किस्से दूर-दूर तक कहे-सुने जाते हैं. अभी रमजान बीता है. सहरी के लिए जगाने वाले और रोजा रखने वाले हिंदू भी होते हैं. जेठ के बड़े मंगल पर भण्डारा लगाने वाले मुसलमान यहां अजूबा कैसे हो सकते हैं जबकि अलीगंज के पुराने हनुमान मंदिर के बुर्ज पर चांद-तारा जड़ा हो और पड़ायन (पण्डितयन) के नाम से भी मस्जिद जानी जाती हो! यहां गुरुद्वारे में नमाज पढ़ी जाती है और अजान के समय घण्टे-घड़ियाल बंद कर दिए जाते हैं. मुहल्ले के पार्क में धार्मिक आयोजनके नाम पर फसाद करने वाले इस रवायत से अनजान नहीं हो सकते. वे जरूर किन्हीं और बातों के फेर में आ गए होंगे. ये कैसी बाते हैं? इन्हें चुपके-चुपके कौन फैला रहा है और हाल के सालों में इनमें इजाफा क्यों हो रहा है?
बैठकों और महफिलों में, समारोहों और उत्सवों में आजकल लोग अचानक उत्तेजित क्यों होने लगे हैं? परिवार और दोस्तों में किन बातों पर तीखे विवाद होने लगे हैं ? ध्यान दीजिए कि इन बातों का हमारे रोजमर्रा के जीवन से, हमारी मौजूदा समस्याओं से और हम सबके दुख-दर्दों से कोई वास्ता नहीं है. उस दिन पान की दुकान पर चार-छह लोग सातवें वेतन आयोग का फायदा जोड़ते-जोड़ते अचानक गोमांस का मुद्दा ले बैठे. फिर हिन्दू और मुसलमान की बात होने लगी. किसी ने देश का संविधान बनाने वालों को गाले दी तो कोई अल्पसंख्यकों को सिर पर बैठाने की निंदा करने लगा. हजारों वर्षों से इस देश की इंद्रधनुषी चादर की तरफदारी करने वाले पर सब मिलकर चढ़ बैठे. गर्मा-गर्मी पान वाले की इस विनती पर विसर्जित हुई कि माई-बाप मेरी रोजी-रोटी से क्यों दुश्मनी निकाल रहे हैं. बिल्कुल सही बात. हमारी मुश्किल होती रोजी-रोटी और जीवन-स्तर पर कोई गुस्सा नहीं हो रहा. लोग शिक्षा की दुकानदारी, अनियंत्रित महंगाई, उपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाओं, गिरती कानून-व्यवस्था, खुले में सड़ते अनाज और भुखमरी पर बहस नहीं कर रहे. इनके कारणों पर वे चर्चा नहीं कर रहे जिनका कि हमारा सुकून छिन जाने से सीधा वास्ता है.

गाएं पहले भी मरती थीं लेकिन उनकी खाल निकाल कर रोजी कमाने को मजबूर दलितों पर इस तरह कहर बरपा नहीं होता था. उन्हें इस नारकीय काम से मुक्ति दिलानी थी लेकिन बर्बरता से मौत दी जा रही है. कहां से पैदा हो गईं जगह-जगह ये गोरक्षा समितियां, जिन्हें मनुष्य की चिंता नहीं, जिन्हें कचरा खाती और पॉलिथीन से घुट कर मरती गायों की भी चिंता नहीं? समाज में यह जहर कौन घोल रहा है? कौन हैं जो अफवाहें फैला कर जनता को भड़का रहे हैं? उनके मंसूबे क्या हैं? उनके पीछे कौन सी ताकतें हैं? यह समझना और समझाना आज बहुत जरूरी है. सवाल कीजिए और जवाब तलाशिए? बहकावे में मत आइए, सुनी-सुनाई बातों, सोशल साइट्स के झूठ पर मत जाइए.
(नभाटा, लखनऊ, 22 जुलाई 2016) 

Saturday, July 16, 2016

लेकिन यादों की नैनीताल एक्सप्रेस दौड़ती रहेगी


पिछले महीने नैनीताल एक्सप्रेसकी छोटी लाइन की ट्रेन पूरी तरह बंद होने की खबर पढ़कर यादों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया. बचपन के दिन. हर साल 20 मई को हमें स्कूल से रिजल्ट मिलता था. उसी शाम बाबू मुझे चारबाग स्टेशन की छोटी लाइन ले जाते, जहां नैनीताल एक्सप्रेस खड़ी रहती. ट्रेन में दो-चार परिचित मिल ही जाते. किसी एक को मेरा हाथ थमा कर बाबू उससे कहते- बच्चे को हल्द्वानी से बागेश्वर की बस में बैठा देना तो! मैं मजे से उनके साथ यात्रा करता. दूसरी सुबह वे हल्द्वानी से मुझे के एम ओ यू लिकी एक बस में बैठा देते जो खरामा-खरामा चलते हुए देर शाम बागेश्वर पहुंचा पाती. रास्ते में कण्डक्टर कई जगह उसके गर्म हो गए इंजिन में ठंडा पानी डालता. खैर, बागेश्वर में पिस्सू-खटमल भरी किसी कोठरी में एक रात काटकर अगले दिन गांव पहुंच जाता. जुलाई के पहले हफ्ते में लखनऊ लौटने के लिए आस-पास के गांवों से काठगोदाम तक जाने वाले की खोज की जाती. कोई न कोई मिल ही जाता. तब हर शाम काठगोदाम से दो खास ट्रेनें चलती थीं- आगरा फोर्ट और नैनीताल एक्सप्रेस, जो पहाड़ की बड़ी आबादी को शहरों में पहुंचाती थीं. दोनों ही ट्रेनें अब इतिहास हो गईं. वक्त के साथ छोटी लाइनें बड़ी होने लगीं, आवागमन का स्वरूप बदल गया, प्रवास की प्रवृत्ति परिवर्तित हो गई और ये ट्रेनें सिर्फ यादों में रह गईं जो हमारे लिए अपने पहाड़ से जुड़े रहने का आत्मीय माध्यम थी.
लखनऊ वापसी में हम देखते कि उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों से बसें भर-भर कर आतीं और नौकरी पर लौटते फौजियों, सरकारी कर्मचारियों और रोजी-रोटी की तलाश में भाग कर आते किशोरों को काठगोदाम स्टेशन में जमा करती जातीं. आगरा फोर्ट जल्दी छूटती थी, सात बजे के करीब.  इसलिए उसे पकड़ने की बड़ी हड़बड़ी होती. बस का ड्राइवर रास्ते भर पूछता रहता कि कोई सवारी आगरा फोर्ट पकड़ने वाली है क्या? ‘हां, हो, हांआगरा जाने वाले यात्री पीछे से आवाज देते. कण्डर को बीड़ी पर बीड़ी पिलाई जाती कि जगह-जगह गाड़ी न रोके. देर होने लगती तो यात्री बेचैन होते लेकिन ड्राइवर-कण्डक्टर उन्हें आगरा फोर्ट पकड़वाने की जिम्मेदारी लेते थे. कई बार ऐसा भी होता था कि सुस्त बस का ड्राइवर थोड़ा तेज रफ्तार गाड़ी को पास देते हुए आगरा वाले यात्रियों को उसमें भिजवा देता.
तो, काठगोदाम स्टेशन से आगरा फोर्ट रवाना होने के बाद नैनीताल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म पर लगती. इंतजार करते यात्रियों में जगह घेरने की होड़ मच जाती. तब रिजर्वेशन होता था या नहीं, मुझे नहीं मालूम. तब मैं जानता भी नहीं था कि ट्रेन में रिजर्वेशन जैसी कोई चीज भी होती होगी. आज सोचता हूँ कि फर्स्ट क्लास में रिजर्वेशन होता होगा. उसका एक ही डिब्बा लगता था, जिसे हम बड़ी हसरत से देखते. तब ए सी डिब्बे न थे. बहुत बाद में नैनीताल एक्सप्रेस के फर्स्ट क्लास डिब्बों में ए सी पलाण्ट लगाकर उसे सेकंड ए सी का दर्जा दिया गया. खैर, जब यह ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगती तो रेलवे का कोई कर्मचारी एक डिब्बे पर चॉक से खूब बड़े हर्फ में लिख देता- ‘56 ए पी ओ.यह पहाड़ का बहुत जाना–पहचाना पता था. हम बचपन से ही इससे खूब परिचित थे. गांव के कई लोग फौज में थे. उनके घर वाले स्कूली बच्चों को पकड़ कर उनसे चिट्ठी लिखवाते. पते की जगह फौजी का नम्बर, नाम और मार्फत 56 ए पी ओ लिखना काफी होता. हर फौजी का कई संख्याओं वाला एक नम्बर होता था जिसे घर वाले बहुत सम्भाल कर रखते थे और चिट्ठी लिखने वाले को कई बार हिदायत देते कि भाऊ, नम्बर ठीक से लिख देना, हां!कुछ फौजी 99 ए पी ओ वाले भी होते. ए पी ओ का अर्थ आर्मी पोस्ट ऑफिसहोता है, यह भी हमने बड़े होकर जाना.
हां, तो जिस डिब्बे पर ’56 ए पी ओलिख दिया जाता था, वह फौजियों के लिए रिजर्व होता. वही सबसे सुरक्षित डिब्बा माना जाता. छोटे बच्चों वाली महिलाएं और अकेले बच्चे अक्सर उसी में जा बैठते. फौजी उन्हें प्यार और सम्म्मान से जगह देते. कंधे पर भांति-भांति का सामान लादे कोई और आदमी उस डिब्बे में चढ़ने लगता तो फौजी टोक देते. छुटपन में मैंने इस डिब्बे में बहुत बार सफर किया. बिल्कुल युवा से प्रौढ़ सैनिक तक अपने घर-परिवार की स्थितियां एक-दूसरे से कहते रहते. वे किस्से ज्यादातर दुख और कष्टों के ही होते. कुछ फौजियों की नम आंखें और उदास चेहरे मुझे भी रुलाते. गांव से लौटते वक्त मैं नराई से भरा होता जो लखनऊ आने के कई दिन बाद धीरे-धीरे फिटती. लखनऊ से रवाना होते समय नैनीताल एक्सप्रेस खुशी और उल्लास से चहकती रहती. वापसी में उस पर उदासी पसर जाती. इस ट्रेन ने पहाड़ की कितनी व्यथा-कथाएं चुपचाप सुनकर अपनी सीटी और छुक-छुक में उड़ा दी होंगी. 
नैनीताल एक्सप्रेस हमें बहुत अपनी लगती. लकड़ी की फंटियों से बनी उसकी बेंचें हमें कभी नहीं चुभीं. बंगाली और दूसरे पर्यटक शिकायत करते लेकिन हमें उन पर बैठने में बड़ा आनंद आता, जैसे तब घर की टूटी लोहे की कुर्सी भी सोफा जैसी लगा करती थी. इसी ट्रेन में आते-जाते हम बड़े होते गए और पहाड़ के सुख-दुख से हमारा साक्षात्कार होता रहा. दुख और विरह भरी चिट्ठियों से लेकर, पहाड़ी सौगातों की कितनी ही पुंतुरियां इसने लखनऊ के गली-मुहल्लों तक पहुंचाई. कितने किशोरों को ढाबों- होटलों, घरों और दफ्तरों में नौकरियां दिलवाईं. चारबाग स्टेशन पर अक्सर इस ट्रेन से भाग कर आए पहाड़ी लड़के उतरते और शहर की भीड़ में खो जाते. पता नहीं उनमें से कितने पहाड़ लौट पाए होंगे!
सन 1969 में जब मैं आठवीं का छात्र था, एक सुबह कोई रिक्शा वाला एक भगोड़े प्रेमी युगल को कैनाल कॉलोनी वाले हमारे अहाते में पहुंचा गया था- आपके मुलुक से भाग कर आए हैं ये.हमारा अहाता पहाड़ियों के मुहल्ले के रूप में ख्यात था. घरेलू नौकर ढूंढने के लिए भी की लोग वहां आते रहते थे. तो, गोरी-फनार, भरी देह वाली उस युवती की छवि मुझे आज भी याद है. लड़का बहुत दुबला-पतला था. हमारे एक पड़ोसी पहाड़ी ने उन्हें अपनी कोठरी में जगह दे दी थी. लड़का सिंचाई विभाग की निर्माणाधीन इमारत में मजदूरी करने लगा. उसे टीबी का रोग रहा होगा. खून की उलटी करते-करते जल्दी ही वह मर गया. लड़की काफी समय उम्रदराज पड़ोसी के साथ रही. मैं उससे पहाड़ी गीत पूछ-पूछ कर डायरी में लिखा करता था. एक दिन स्कूल से लौटने पर सुना कि वह किसी के साथ भाग गई. बाद में वह मुझे उदय गंज-हुसैन गंज की गलियों में सब्जी का टोकरा सिर पर धरे फेरी लगाती दिखी. कई पहाड़ी परिवार उसके नियमित ग्राहक और दुख-दर्द के भागीदार थे. फिर उसकी गोद में एक नन्हीं बच्ची आई. बेटी को गोद में लेकर वह हुसैन गंज तिराहे पर सड़क पर बैठ सब्जी बेचने लगी. कुमाऊं परिषद का दफ्तर वहीं पर था. मैं उधर जाता तो वह दिखाई देती. उसकी बेटी बड़ी होती रही और वह मोटी-थुलथुल और बीमार. एक दिन कुमाऊं परिषद में ही सुना कि वह सब्जे बेचने वाली मर गई. उसकी बेटी का पता नहीं क्या हुआ होगा. नैनीताल एक्सप्रेस की यादों के साथ ऐसी व्यथा-कथाएं भी जुड़ी हैं.      
1971 में उसी मुहल्ले में शेखर दा से भेंट हुई. उसी के माध्यम से साल-दो साल बाद शमशेर से मुलाकात हुई जब वह अल्मोड़ा महाविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चुने  गए थे. फिर उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष वाहिनी के कई साथियों से परिचय बढ़ा. ये लोग प्रतिनिधिमण्डल लेकर विधायकों-मंत्रियों से मिलने लखनऊ आते रहते. शेखर दा को उनके अलावा भी बहुत सारे लोगों से मिलना होता था. उसकी डायरी फोन नम्बरों और पतों से भरी होती. मैं उसके साथ ही लगा रहता. वापसी में वह देर ही कर देता. स्टेशन जाने से पहले उदयगंज तिराहे पर हलवाई की दुकान से कुल्हड़ में दूध लेकर ब्रेड या बन भी खाने जरूरी होते थे. हम रिक्शे पर गर्म दूध छलकाते हुए स्टेशन भागते. एकाधिक बार ऐसा भी हुआ कि नैनीताल एक्सप्रेस के छूटने का टाइम हो गया और शेखर पाठक का पता नहीं. गार्ड की सीटी और हरी झण्डी रोकने का दुस्साहस शमशेर ही कर सकता था. प्लेटफॉर्म पर गार्ड से शमशेर की बहस हो रही होती कि लम्बे-लम्बे डग ट्रेन की तरफ बढ़ते दिखते. इस दौड़ में मैं पीछे छूट जाता. चलती ट्रेन से शेखर दा का लम्बा हाथ फिर मिलेंगेकहता हुआ हिलता दिखता तो मैं घर लौट आता. शमशेर को जरूर याद होगा और हमारे प्रिय प्रोफेसर शेखर पाठक नैनीताल एक्सप्रेस की उन यात्राओं को कैसे भूल सकते हैं भला.
और गिर्दा! वह पीता-गाता रहता और हमारी महफिल पीती-सुनती सम्मोहित रहती. ट्रेन कबके जा चुकी होती और टिकट लौटाने की सुध भी किसे होती थी. कभी समय पर याद दिलाए जाने पर वह हाथ हिला देता- छोड़ो हो, आज नहीं जाते!फिर कौन उसे मना सकता था. ट्रेन में बैठ गया तो भी फैज़ या नाजिम या साहिर या गौर्दा या खुद का कलाम जारी रहता. सुनने वालों में नैनीताल एक्सप्रेस के यात्री और टी टी सभी शामिल होते, जब तक कि ट्रेन का झटकेदार पालना उसे सुला न देता होगा.  सोमरस की तरंगों पर सवार हमारे प्यारे हरुआ दाढ़ी ने भी इस ट्रेन के टी टी को अंग्रेजी में कम भाषण नहीं सुनाए ठहरे! चंद्रेश शास्त्री के साथ देखी अंग्रेजी फिल्मों का असर ऐसे ही मौकों पर बाहर निकलता था.
बहुत बाद तक नैनीताल एक्सप्रेस हमारे लिए पहाड़ का हरकारा बनी रही. दोस्तों के लिए किताबें, अखबारों-पत्रिकाओं के लिए लेख और चिट्ठियां हमने इसी ट्रेन से भेजे. नैनीताल एक्सप्रेस के डिब्बों का चक्कर लगाते हुए सिर्फ इतना कहना होता- दाज्यू, अल्मोड़ा के चेतना प्रेस या नैनीताल के राजहंस प्रेस तक यह बण्डल पहुंचा देंगे?’ परिचित न होते तो भी कई हाथ उठ जाते और सामान ठिकाने तक जल्दी और सुरक्षित पहुंच जाता. नैनीताल समाचारके लिए कितनी ही बार हाफ टोन ब्लॉक इसी तरह भेजे गए. राजीव या हरीश डाक से फोटो भेज देते और मैं ब्लॉक बनवा कर स्टेशन पर नैनीताल जाने वाले किसी भी दाज्यू के हाथ में पैकेट थमा देता.
कोई 18-20 वर्ष पहले जब यह ट्रेन काठगोदाम से आखिरी बार चली, संयोग से मैं उसमें सवार था. पूरी यात्रा में लोग उदास होकर इस ट्रेन के संस्मरण सुनाते रहे थे. उसके बाद भी नैनीताल एक्सप्रेस लाल कुंआ से लखनऊ के बीच चलती रही. तब भी हमारे लिए इस ट्रेन का महत्व बना रहा था. जब लालकुंआ से भी वह गायब हो गई तभी हमारा रिश्ता उससे टूट गया था, हालांकि वह लखनऊ को पहाड़ के एक कोने टनकपुर से अपने सफर की आखिरी रात तक जोड़े रही थी.
भावुकता अपनी जगह है लेकिन सच यही है कि यादें हमें परिवर्तन की प्रवृत्ति और उसकी दशा-दिशा का संकेत देती हैं. नैनीताल एक्सप्रेस के बंद हो जाने का कारण सिर्फ आमान परिवर्तन नहीं है. उत्तराखण्ड राज्य का बनना, समाज के मिजाज और आर्थिकी का बदलना बड़े कारण हैं. प्रवास का रूप-स्वरूप भी तो कितना बदल गया. कुछ समय बाद बड़ी लाइन पर लखनऊ से काठगोदाम तक एक नैनीताल एक्सप्रेस फिर चलेगी. उसके कोच बेहतर और आरामदायक होंगे लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए वह वही नैनीताल एक्सप्रेस नहीं होगी जो बंद हो गई. उस ट्रेन की छुक-छुक, इंजिन से उड़ते कोयले के चूरे और देह भर में समाई धुएं की गंध हम भुला न पाएंगे.
(इसे यहां भी पढ़ सकते हैं- 
 http://www.nainitalsamachar.com/lekin-yaadon-ki-nainital-express/



वही तो साधती रहीं आपका जीवन-छंद, जिज्ञासु जी!

तसव्वुरात की परछाइयां हैं कि खत्म नहीं होतीं...
लेकिन गुरु जी, स्मृतियों के इस झंझावात को रोकना होगा. हाँ, उससे पहले वह पक्ष अवश्य कहना होगा जिसके बिना आपके बारे में कुछ भी कहा-लिखा अपूर्ण रहेगा- आपकी श्रीमती जी’, जैसा कि आप उन्हें कहते रहे.
कोई आठ-दस वर्ष पहले एक बार किसी इण्टरव्यू के सिलसिले में मैंने आपसे पूछ लिया था- अपनी रचनात्मक यात्रा में आपको परिवार का कितना सहयोग मिला?’ आपके जवाब ने मुझे स्तब्ध कर दिया था, जो शब्दश: इस तरह था- खेद है कि परिवार की ओर से मुझे सहयोग नहीं मिला.
मैंने सोचा था आप अपने परिवार को, खासकर पत्नी को पूरा श्रेय देंगे लेकिन यह क्या कह गए थे गुरू जी, आप? उस दिन नहीं टोक पाया था. आज आप चले गए हैं तो कुछ सवाल करने की गुस्ताखी करूं? आप नाराज मत होना. मुझसे आप कभी नाराज नहीं हुए. भरोसा करते रहे मुझ पर. तो बताइये, यह क्रूर जवाब आपने क्यों दिया था?
हां, आज भी आपका जवाब मुझे अन्यायपूर्ण लगता है.
पांच जून 1955 को अल्मोड़ा से जिस देवकी देवी को आप ब्याह लाए थे और जिसने इतने वर्ष आपकी हर प्रकार अद्भुत सेवा की, अगर वह पूर्ण सहयोगी नहीं थी तो गुरू जी, कोई परिवार सहयोगी नहीं हो सकता.
मैंने आपको इतने लम्बे सम्पर्क में कभी एक नीबू खरीदते नहीं देखा. आप सिर्फ एक चीज खरीद सकते थे, सिगरेट की डिब्बी. घर में किताबों के अलावा आपको सिर्फ ऐशट्रे और बाथरूम के मग्गे का पता होता था. आप पूरा वेतन ईमानदारी से श्रीमती जी के हाथ में रख देते थे और रोज घर छोड़ने से पहले उनके सामने अपना हाथ फैला देते थे, जिस पर वे हिसाब लगाकर आपकी दिन भर की सिगरेट और चाय का खर्च रख देती थीं. यदा-कदा इस शिकायत के साथ कि कल तुमने एक डिब्बी सिगरेट ज्यादा खर्च की है, हां!
परिवार चलाना, बच्चे पालना क्या होता है, आप कतई नहीं जानते थे. बच्चों को पढ़ने के लिए बिना शोर डांटा जा रहा होता था या आटा-दाल के कनस्तर धीरे से खाली किए जा रहे होते थे तो सिर्फ इसलिए कि तब आप रची जा रही कविता में छंद की मात्राएं दुरुस्त कर रहे होते थे. आपके रचनाकार का उस घर में कितना सम्मान था, यह शायद आपको पता न रहा हो लेकिन आखिरी सांस तक भी आपने जिन पुस्तकों को अलमारी में सजा-धजा देखा, उनमें साफ, नया जिल्द चढ़ाने की फुर्सत भी श्रीमती जी ने ही निकाली थी.
आप भूले हों तो हों, हम कैसे भूल सकते हैं कि खुर्रमनगर (पंतनगर) में जब आपका मकान बन रहा था तो देवकी जी फटी धोती पहन कर दिन भर मजदूरों के साथ ईटा-गारा ढोती थीं ताकि रोज एक मजदूरी बचे. आपकी रोटी पकाने के बाद भी वे अंधेरे में सिर पर ईटें रख कर छत के ढोले तक पहुंचाया करती थीं ताकि सुबह आते ही राजमिस्त्री काम पर लग सके. जिस मकान पर आपने बड़े फख्र से बंसीधर पाठक जिज्ञासु की तख्ती टांगी, उसका गारा-सीमेण्ट आपकी देवकी पर्वतीया के खून-पसीने में सना है. यह नाम कभी आपने ही उन्हें दिया था लेकिन नेम प्लेट पर इसे भी शोभायमान करना आप भूले ही रहे!
और, याद है, घर से चाय-सिगरेट के खर्च के साथ रोज मिलने वाली हिदायत- किसी की एक पैसे की चाय मत पीना, हां! अपने पैसे से पीना. (घर आने पर चाय पिलाइए तो जिज्ञासु शौक से पीएंगे लेकिन दफ्तर में पी गई हर कप चाय का पैसा वे अपनी जेब से देते थे. कलाकार-रचनाकार से चाय पी लेना अपराध था उनके लिए.)
रिटायरमेण्ट के बाद जिन-जिन बीमारियों का हमला आप पर हुआ, उनसे वे ही लड़ती रहीं. रोग ग्रस्त शरीर आपका था लेकिन युद्ध उनका. घंटों आपका मलपश खुजलाना है, दवा चुपड़नी है, अपने हाथों खाना खिलाना है. पिछले आठ-दस सालों से वे आपकी नींद सोती थीं, आपकी हर करवट पर जगती थीं. अपनी उनकी सिर्फ सांस थी और वह भी आप ही के लिए जरूरी थी. जाड़ों में धूप में बैठा कर दो-तीन बार हाथ-पैरों और कमर की मालिश से लेकर हर जरूरत का पूरा ध्यान. सुबह के दलिया से रात के दूध तक, समय-समय पर दवा, फल, जूस, बिस्कुट, जाने क्या-क्या, जिनका एक टुकड़ा कभी उनके अपने मुंह में नहीं गया. वह पतली-दुबली काठी दो रोटी और दाल-भात से चलती रही. उनकी चौकसी सीमा पर तैनात जवान की सतर्कता को मात करती थी. और जब कभी, आप कुछ खाने-पीने से मना कर देते थे तो क्या प्यारी डांट लगाती थीं, कि बुड्ढे, खाओ-खाओ, खाओगे नहीं तो टिकोगे कैसे, और तुमको मैं मरने दूंगी क्या! पिछले कई साल से तो आप उनके लिए नन्हे बालक ही थे जिसे लाड़ में गरियाना-खिलाना-हंसाना जैसे उनके अपने लिए भी जीने का जरिया था. गालियों भरी उनकी प्यारी डांट सुनकर आपके होठों पर हंसी थिरक उठती थी और आप चुपचाप खा लेते थे. सब कहते थे कि जिज्ञासु जी को तो उनकी पत्नी ने टेक रखा है. बिल्कुल सच कहते थे. वह तो सृष्टि का अटूट नियम टूटने का खतरा था, नहीं तो देखते कि आठ जुलाई को भी आप कैसे जाते!
आपकी सारी कविता-कहानियों के नेपथ्य में, आपकी सारी भटकनों में, आपके रिश्तों के निर्वाह में, आपकी एकनिष्ठ कुमाऊंनी सेवा तथा साफगोई और ईमानदारी के पीछे वे अनिवार्य रूप से रही हैं, गुरू जी! उनका सहयोग अप्रतिम है. देखिए, आपके जाने के बाद वे एकदम से खाली हो गई हैं.
आपकी कुमाऊंनी सेवा का समादर समाज ने किया, आपको प्यार और सम्मान मिला. इस लोक में आपको याद रखा जाएगा. और, उस लोक में अब आपको खूब पता चल रहा होगा कि कौन थीं देवकी और उनका आपके जीवन एवं कर्म में कितना बड़ा योगदान रहा. अब तो आप अपना बयान बदल देना, गुरू जी!

और, आज अपने नब्बू का नमस्कार भी लेना, जिसे कहना मैं आपके सामने पड़ते ही हमेशा भूल जाता रहा. (फिलहाल इतना ही)

Friday, July 15, 2016

जिज्ञासु जी : 'उत्तरायण' से आगे 'आंखर' तक

जिज्ञासु जी ने 'उत्तरायण' के लिए चलाना शब्द इस्तेमाल किया था लेकिन जो उन्होंने किया वह चलाना नहीं उसे सींचना, पालना, पोषना और निरंतर समृद्ध करना था. वे बताते थे कि जब मैं उत्तरायण में तैनात हुआ तब मुझे खुद कुमाऊंनी नहीं आती थी. बचपन से देहरादून, दिल्ली, शिमला और अम्बाला रहा. पंजाबी को मैं अपनी मातृभाषा कहा करता था. फिर कुमाऊंनी सीखनी शुरू की. श्रीमती जी से शुरुआत की. फिर लखनऊ की सयानी महिलाओं के साथ बैठा.

 दरअसल, यह कहना कि उन्हें कुमाऊंनी नहीं आती थी, उनकी विनम्रता थी. अपनी दुधबोली उन्हें ठीक-ठाक आती थी लेकिन वे उस बोली में 'उत्तरायण' कार्यक्रम का नियोजन और संचालन करने के लिए उसमें पारंगत होना चाहते थे. कुमाऊंनी के विविध उच्चारण, इलाकाई विभेद, उच्चारण के जरा से अनतर से गहरा अर्थ-भेद, सब भली-भांति जान लेना चाहते थे. बहुत जल्दी जिज्ञासु जी ने बहुत अच्छी कुमाऊंनी सीख ली और कामचलाऊ गढ़वाली भी. जबलपुर वाले कुमाऊंनी भाषा और संस्कृति विशेषज्ञ त्रिलोचन पाण्डे जी से पत्र व्यवहार होने लगा. 1964 तक अपनी दुधबोली पर उनकी बढ़िया पकड़ हो गई थी. अब वे लोगों को भांति-भांति के कुमाऊंनी उच्चारण और उसके बारीक भेद सिखाने लगे थे. इसके बाद शुरू हुआ कुमाऊंनी कवियों से सम्पर्क. खुद भी कुमाऊंनी में कविता, गीत, कहानी, रूपक और नाटक लिखने लगे. लिखने को तो उन्होंने कुमाऊंनी में कव्वाली भी लिखी और गवाई. उसके बाद वे ओबीआर पार्टियों के साथ रिकॉर्डिंग मशीन लेकर पहाड़ के कौतिकों में घूमने लगे. बागेश्वर, द्वाराहट, जौलजीवी, गोचर, देवीधुरा, जाने कहां-कहां. ब्रजेंद्र लाल साह, चारु चंद्र पांडे, अनुरागी जी की मार्फत लोक संगीत की समझ बढ़ी. 1939-40 में अल्मोड़ा से कुमाऊंनी में अचल पत्रिका निकालने वाले जीवन चंद्र जोशी अपना बुढ़ापा लखनऊ में काट रहे थे. जिज्ञासु जी उनकी शरण भी जाते.

फिर एक नया दौर आया जब आकाशवाणी के स्टूडियो में आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक भाषा की कवि गोष्ठियां और लोक संगीत संध्याएं आयोजित होने लगीं. उत्तरायण कार्यक्रम की ऐसी धूम मची कि पहाड़ी गांव-कस्बों से ही नहीं, सीमांतों पर तैनात उत्तराखण्डी फौजियों की चिट्ठियों से उत्तरायण एकांश की मेजें और अल्मारियां भरने लगीं. पंद्रह मिनट से शुरू हुआ कार्यक्रम बहुत जल्दी पहले आधे घण्टे और फिर एक घण्टे का कर दिया गया. सांसदों-विधायकों की भेंट वार्ताओं, विकास के खोखले दावों, वगैरह की बजाय, वह सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक धड़कन बन गया. प्रवासी उत्तराखण्डियों के साथ-साथ समूचे उत्तराखण्ड के संस्कृति कर्मियों का लोकप्रिय मंच वह बहुत अरसे तक बना रहा. 'उत्तरायण' का कार्यक्रम अधिकारी कोई भी रहा हो, कुमाऊं-गढ़वाल का मूल निवासी या हिंदी भाषी, वे जिज्ञासु जी पर इतना भरोसा करते थे कि पूरे कार्यक्रम की तिमाही प्लानिंग उनसे ही कराते. उनके काम में शायद ही किसी अधिकारी ने दखल दिया हो. 
'उत्तरायण' को यह श्रेय जाता है कि उत्तराखण्ड की बोलियों का उस दौर का कोई नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार, वगैरह नहीं बचा होगा जो 'उत्तरायण' का मेहमान न बना हो और जिसकी रिकॉर्डिंग उसके संग्रह में मौजूद न हो.
नाजुक मैग्नेटिक स्पून टेपों में रिकॉर्डेड वह कीमती संग्रह अब वहां नहीं है. चंद ही टेप डिजिटल फॉर्मेट में बदल कर सुरक्षित रखे जा सके. यह भी जिज्ञासु जी का बड़ा दर्द था जिसे लिए-लिए वे चले गए.
[] []
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
हुसैनगंज चौराहे के बर्लिंगटन होटल के परिसर में मीटिंग हो रही है. जिज्ञासु जी ने कई लोगों को बटोर रखा है. एक सांस्कृतिक संस्था बनाने की बात हो रही है. कुमाऊंनी-गढ़वाली में नाटक मंचित करने की योजना बनती है. 1974 में बनी सस्था का नाम रखा गया शिखर संगम’ और नवम्बर 1975 में लखनऊ के इतिहास में पहली बार एक कुमाऊंनी (मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं- लेखक/निर्देशक- नंद कुमार उप्रेती) और एक गढ़वाली नाटक (खाडू लापता, लेखक-ललित मोहन थपलियाल, निर्देशक-जीत जरधारी) खेले गए. बंगाली क्लब के खचाखच भरे हॉल में बैठे दर्शक रोमांचित थे और मुख्य अतिथि के रूप में आईं शिवानी ने स्वतंत्र भारत के अपने वातायन कॉलम में जी भर कर इन प्रस्तुतियों की सराहना की. उन्होंने दोनों बोलियों में हस्तलिखित/साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका त्वीले धारो बोला का भी लोकार्पण किया था जिसके सम्पादक थे जिज्ञासु. उस पत्रिका में श्यामाचरण दत्त पंत एवं जयंती पंत से लेकर नागेंद्र दत्त ढौंढियाल तक के की महत्वपूर्ण लेख तथा कई कविताएं थीं, जो जाहिर है कि जिज्ञासु जी के उत्तरायण-संग्रह का प्रसाद थे.

'शिखर संगम' जल्दी भंग हो गई. कोई बात नहीं. जिज्ञासु जी ने नई टीम जुटा कर आंखर का गठन कर लिया. दौड़-भाग चल रही है. चंदा जुटाया जा रहा है. जिज्ञासु जी रसीद बुक लेकर पहाड़ियों के घर-घर जा रहे हैं. कहीं तीखी-कटु बातें भी सुनने को मिलती हैं लेकिन चंदा तो लेना ही है. नाटक के लिए महिला पात्र नहीं मिल रही हैं. समझाया जा रहा है लोगों को कि लड़कियों को संस्था में भेजो. गाली भी पड़ रही है कि अपनी लड़कियों को क्यों नहीं नचाते. कोई बाधा उनके संकल्प को तोड़ नहीं पाती. देखते-देखते बड़ी टीम खड़ी हो गई जिसमें लड़कियों-महिलाओं की अच्छी संख्या थी. अगले दस वर्ष तक अपनी बोली के नाटकों का मंचन और बोलियों में आंखर पत्रिका का प्रकाशन चलता रहा. पत्रिका कुछ समय नियमित रूप से मासिक भी निकलती रही. बोलियों के नाटकों की टीम लेकर जिज्ञासु जी ने भोपाल, मुरादाबाद, पीलीभीत, कानपुर और अल्मोड़ा-नैनीताल तक की यात्राएं कीं. बाद में आंखर भी बिखर गया लेकिन जिज्ञासु जी अपनी जेब से पैसा लगा कर आंखर पत्रिका का प्रकाशन किए जा रहे हैं. दुखी भी होते हैं कि कोई सहयोग नहीं करता लेकिन गांठ में दाम और तन-मन में त्राण रहते दो साल खुद से खींच ले गए पत्रिका को. फिर शरीर ने साथ देना छोड़ दिया. शिकायतों-तकलीफों की गठरी लेकर वे घर भीतर सीमित हो गए. अकेले. तब तक यह शिष्य भी गुरू बन कर अपनी दुनिया में ज्यादा माती गया था.

आकारवर्धक शीशा लेकर पढ़ना और छिट-पुट लिखना तब भी उनका जारी था. यदा-कदा कुछ पत्रिकाओं में वे छपे दिखाई देते थे या घर जाने पर कतरनें दिखाते थे. उनका एक कविता संग्रह हिंदी में (मुझको प्यारे पर्वत सारे) और एक कुमाऊंनी में (सिसौंण) छप पाया था. और संग्रहों के लिए पाण्डुलिपियां तैयार करते रहते थे लेकिन छापने वाला था कौन! तीन महीने पहले मेरी आखिरी मुलाकात में भी कह रहे थे कि यार, नब्बू, कुछ कहानियां पूरी करनी हैं, संग्रह निकलवाना है.

वैसे, सच यही है कि उनकी कविताओं-कहानियों का उस सबके सामने कोई मोल नहीं है जो उन्होंने कुमाऊंनी बोली के लिए किया, नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए किया. (क्रमश:)

Thursday, July 14, 2016

जिज्ञासु जी : काठ के दो बक्से और 'उत्तरायण'

तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
गुरुवार को उनका साप्ताहिक अवकाश होता था. अवकाश में भी उत्तरायण की सेवा में जाना पुनीत कर्तव्य जैसा था लेकिन किसी-किसी अवकाश को वे अपने काठ के दोनों बक्से खोल कर पूरा दिन उनकी उखेला-पुखेली और साज-समाव में लगा देते. इस बीच यह शिष्य पहुंच गया तो सम्भाली चीजें फिर बाहर निकल आतीं- तुमने नागार्जुन की कविताएं तो पढ़ी हैं लेकिन बाबा का गद्य देखा है क्या... ये ले जाओ, रतिनाथ की चाची पढ़ना... पंत और निराला का कविता-विवाद जरूर पढ़ना चाहिए... और ये देखो, राम विलास शर्मा ने निराला पर कैसा अद्भुत लिखा है... अरे, तुमने मुख सरोवर के हंस नहीं पढ़ा अभी तक? फिर क्या पढ़ा यार! और देवेंद्र सत्यार्थी? लोक का अध्ययेता...बेला फूले सारी रात’. यह लो तुम उस दिन मांग रहे थे गढ़वाली पर राहुल की पुस्तक....और ये निशा निमंत्रण’, जिसमें बच्चन ने नया छंद ईजाद किया है. 

वे किताबें निकालते जाते, उनके बारे में बताते जाते... फिर कोई पुरानी पत्रिका का अंक खोल कर बैठ जाते- ये सुनो, गोपाल सिंह नेपाली का गीत- मां, मत हो नाराज कि मैंने खुद ही मैली की न चुनरिया... और इसमें रामानंद दोषी के बहुत सुंदर गीत छपे हैं...ये देखो... शाम ढलने लगती और कई बार गरम किया खाना एक बार फिर गरम करतीं देवकी जी रसोई से डांट लगा रही होतीं- नहीं खाते हो आज ये खाना?

काठ के ये दो बड़े बक्से मिला कर उनकी बैठक में रखे रहते और बैठने की सैटी का काम करते. उस पर खाना भी हो जाता और वक्त-जरूरत झपकी भी ले ली जाती. ये बक्से जिज्ञासु जी की कीमती सम्पत्ति हैं और आज उनके नहीं रहने पर भी घर में उनकी उपस्थिति बनाए हुए हैं.
[] [] 
करीब 31 वर्ष उत्तरायण को पूरी तरह समर्पित करने के बाद जब 1994 में वे रिटायर हुए, तब तक कई रोगों ने उनके शरीर पर हमला बोल दिया था. एक्जीमा की सूखी पपड़ियां जब पूरे शरीर को ढक लेती थीं तो उनसे खुजाते भी न बनता था. उनकी सदा सेवारत पत्नी किसी तीली पर दवा लगा कर उन पपड़ियों को सहलातीं और अपने हाथों खिलाती. खूनी बवासीर जब जोर मारती तो रक्त चढ़ाने तक की नौबत आ जाती. रक्त चाप बढ़ा, हड्डियां कमजोर पड़ीं, कमर जल्दी झुक गई, दांतों ने धीरे-धीरे साथ देना छोड़ दिया और चस्मे का शीशा हर साल और मोटा होता गया. उतनी उम्र नहीं हुई थी जितने के वे लगने लगे थे. तो भी सुबह बरामदे में और दिन में बैठक में कुर्सी मेज पर बैठ कर वे कविताएं रचते, लेख लिखते, अखबारों-पत्रिकाओं से कतरनें काटते-चिपकाते, अपनी किताबों की जिल्द सही करते, पुरानी चीजें निकाल कर पढ़ते और सारा दिन अपने को रचनात्मक रूप से व्यस्त रखते. उनके रिटायर होने के बाद आकाशवाणी ने उनकी क्षमता और अनुभव का कोई मोल नहीं लगाया. सरकारी तंत्र में इस बात का कोई मूल्य ही नहीं था कि उत्तरायण की लोकप्रियता और स्तर के पीछे डेढ़ पसलियों के इस व्यक्ति का बड़ा हाथ था. उत्तरायण क्रमश: सरकारी गति को प्राप्त होता रहा और जिज्ञासु नामधारी व्यक्ति के भीतर उसके पतन की पीड़ा ग्रंथियां बन कर जमा होती रहीं. उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाली भीड़ नदारद हो चुकी थी. सुख-दुख बांटने के लिए नंद कुमार उप्रेती जैसे कुछेक दोस्त बचे थे लेकिन वे भी जल्दी साथ छोड़ गए. जब कभी मैं उनके पास जाता तो शिकायतों का पुलिंदा तैयार रहता- कोई नहीं आता यार, अब. और मैं कहीं जा नहीं पाता. अब मैं पढ़ भी नहीं पाता. जबकि उनके हाथ का आकारवर्धक शीशा गवाही देता रहता कि पढ़ना कैसे छोड़ सकते हैं वे!

मुझसे भी शिकवा कम नहीं होता- कहां रहते हो यार, तुम भी आज छह महीने बाद आए हो.’ एक-दो  महीना उन्हें छह महीने से ज्यादा ही लगता होगा. जब ज्यादा ही नराई लग जाती थी तब किसी सुबह-सुबह पत्नी के साथ टेम्पो में बैठ कर हमारे घर आ जाते. अपने साथ कभी मेरे लेखों की कतरनें ले आते, कभी कोई पुरानी किताब या पत्रिकाओं के अंक और कभी पढ़ने के लिए कुछ नया मांग ले जाते. एक-कर सबके हाल पूछते- शेखर की कोई चिट्ठी आई? अब चारु चंद्र जी भी पत्र नहीं लिखते. गिरीश क्या कर रहा है? नैनीताल समाचार तो मुझे भेजते ही नहीं. पता नहीं दुधबोली का अंक निकला या नहीं? जो-जो याद आ जाता, सबका हाल-चाल पूछते जब तक कि उनकी पत्नी लगभग डांटते हुए उन्हें उठा नहीं देती- चलो-चलो अब, लता को बैंक की देर हो गई. 

वह आदमी जो सारा लखनऊ पैदल नापा करता था, जो लखनऊ के तमाम मुहल्लों में रचनाधर्मी और संस्कृति प्रेमी पहाड़ियों के घर आंख बंद करके भी पहुंच जाता था, जो उत्तराखण्ड के मेलों-कौतिकों से लोकगीतों की रिकॉर्डिंग कर लाने के लिए कष्टदायी यात्राएं किया करता था, उसे लाचार होकर घर बैठे देखना बहुत पीड़ा दायक होता था. पिछले छह-सात साल से तो वे बिल्कुल घरी गए थे और कोई साल भर से बिस्तर पर, जबकि क्षीण कान-आंख के साथ स्मृति-लोप ने भी आ घेरा था.

आठ जुलाई को जो हुआ वह वास्तव में मुक्ति थी. 
[] []
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-

आकाशवाणी के लॉन की हरी दूब पर जाड़ों की धूप में बैठे वे मुझे सुना रहे हैं अपनी दास्तां, क्योंकि मैंने ही लगा रखी थी रट-


साढे तीन साल का था जब पिता मुझे अपने साथ देहरादून लेते गए. पिता विशारद-संस्कृत के छात्र थे और पुरोहिताई करते थे. वहीं उन्होंने मुझे पाटी पर अ-आ-क-ख सिखाए. फिर गीता प्रेस, गोरखपुर की छपी किताबें लाने लगे. लगु सिद्धान्त कौमुदी और अमर कोश रटाया. एक श्लोक रटने पर एक पाई मिलती थी. इसी तरह संस्कृत नाटक भी पढ़ डाले. फिर पिता को दिल्ली जाना पड़ा और दिल्ली से शिमला, जहां 1945 या 1946 में डीएवी हाईस्कूल में छठी में भर्ती कराया गया. एक कवि सम्मेलन में मदन लाल मधु को सुना जो शिमला में अध्यापक थे. तब कविता का चस्का लगा. शिमला बस अड्डे पर पूर्ण सिंह की धर्मशाला में एक कवि सम्मेलन सुना, जिसमें पंत, बच्चन, महादेवी और निराला ने काव्य पाठ किया था. उसके बाद कविता लिखना शुरू किया.

बाद में मैंने उनसे यह भी पता किया था- जन्म- 21 फरवरी 1934, ग्राम-नहरा, पोस्ट-मासर, जिला-अल्मोड़ा. माता- आनदी देवी, पिता- पुरुषोत्तम पाठक. अपना नाम कभी बंसीधर लिखते, कभी वंशीधर. अंग्रेजी में बी डी पाठक.

आकाशवाणी भवन के गेट पर एक पहाड़ी भाई के चाय के खोंचे पर जारी है कहानी-
सन 1950 में हाईस्कूल किया और पिता के साथ वापस दिल्ली जाने से इनकार कर दिया. अखबारों-पत्रिकाओं में मेरी कविता और कहानियां छपने लगी थीं. संस्कृत के ट्यूशन भी पढ़ाता था. जयदेव शर्मा कमल से इसी कारण भेंट हुई. कमल जी भारतेंदु विद्यापीठ में हिंदी कविता पढ़ाते थे. 1953 की बात है शायद, उन्होंने अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ा देने का अनुरोध किया. यहीं पड़ी हमारी पक्की पारिवरिक दोस्ती की नींव जो आजीवन मजबूत बनी रही और मेरे आकाशवाणी, लखनऊ में आने का कारण बनी.

कभी नजरबाग-सुन्दरबाग और कभी क्ले-स्क्वायर-मुरलीनगर की गलियों में आते-जाते जारी रहता यह किस्सा. मैं कोचता और वे बताते जाते- कमल जी शिमला, आकाशवाणी केंद्र में नियुक्त हो गए थे. फिर उनका तबादला दिल्ली और उसके बाद लखनऊ हो गया. मैं उन दिनों खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, अम्बाला छावनी के दफ्तर में टाइपिस्ट था. एक दिन लखनऊ से कमल जी का अंतर्देशीय पत्र मिला कि मैं केंद्र निदेशक, आकाशवाणी के नाम विभागीय कलाकार के रूप में नियुक्ति हेतु आवेदन पत्र भेज दूं. 1962 के चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत पर्वतीय अंचल के श्रोताओं के लिए उत्तरायण कार्यक्रम शुरू करने का फैसला किया था, जिसे प्रसारित करने की जिम्मेदारी लखनऊ केंद्र को मिली थी. उसी में एक जगह निकली थी. मैंने आवेदन पत्र भेजने की बजाय तार भेज दिया कि मैं लखनऊ पहुंच रहा हूं. इस तरह मैं सात जनवरी 1963 को उत्तरायण में विभागीय कलाकार की हैसियत से काम करने लगा. पंद्रह मिनट का कार्यक्रम अक्टूबर 1962 में शुरू हो चुका था, जिसे जीत जरधारी और कमल जी संचालित कर रहे थे. उसके बाद इसे मैंने और जरधारी ने चलाया.’ (क्रमश:)