Friday, July 20, 2018

क्योंकि सफाई करना ‘दूसरों’ का काम है



हमारी पीढ़ी ने अपने स्कूली दिनों में विद्यालय परिसर की खूब साफ-सफाई की है. हफ्ते-दस दिन में एक बार सफाई-अभियान या श्रमदान होता था. अध्यापक भी शामिल होते थे. इसकी सराहना होती थी. अभिभावकों ने कभी बुरा नहीं माना. किसी-किसी स्कूल में वार्षिक परिणाम-पत्र में विद्यार्थी की स्वच्छता की आदत के बारे में अंक या टिप्पणी दर्ज की जाती थी. कुछ स्कूल माता-पिता से बच्चों की घर में साफ-सफाई की आदत के बारे में भी पूछते और सलाह देते थे. गर्मियों की छुट्टी में गांव जाने वाले विद्यार्थियों को पेयजल स्रोतों के आस-पास श्रमदान से सफाई करने का निर्देश मिलता था. स्कूल खुलने पर किसने क्या-क्या किया इस पर निबंध लिखवाया जाता था.

आज जबकि राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान प्रधानमंत्री का पसंदीदा कार्यक्रम है, बच्चों से स्कूल की साफ-सफाई करना गलत काम माना जा रहा है. अभिभावक भी नाराज होते हैं. शिकायत करते हैं कि बच्चों के हाथ में झाड़ू पक‌ड़ाई गयी. बहुत कम अभिभावक होंगे जो बच्चों को घर की साफ-सफाई में शामिल करते हैं. वे स्वयं ही नहीं करते तो बच्चों को क्या सिखाएंगे.. कामवालियां हैं, झाड़ू-पोछे वालियां हैं. यह उनका काम बन गया. माता-पिता और बच्चे मिल कर घर गन्दा करते हैं. अपनी जूठी थाली तक नहीं उठाते. स्कूल में झाड़ू उठाना तो अपराध ही हो गया.

पिछले दिनों कुछ स्कूलों में बच्चों से सफाई कराने वाले अध्यापकों को मीडिया और सरकारी प्रताड़ना का भागीदार बनना पड़ा. मीडिया में भी आजकल ऐसे फोटो या वीडियो बड़ी नकारात्मक खबर की तरह पेश किये जाते हैं. हैरत होती है कि चीजों को देखने-समझने का तरीका कितना बदल गया है. ज्यादातर सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता है. बारिश में छतें चूती हैं. पानी भर गया तो प्रिंसिपल ने छात्रों को सफाई में लगा दिया. इसमें क्या गलत हो गया. विद्यार्थी अपना स्कूल साफ रखें, श्रमदान करें. क्या अपराध है? बहुत अच्छा होता अगर प्रिंसिपल, अध्यापक भी इसमें शामिल होते. 

हम यहां उन कतिपय घटनाओं की चर्चा नहीं कर रहे जहां प्रताड़ना या जातीय दबंगई के लिए कुछ खास विद्यार्थियों को ही स्कूल परिसर की सफाई में लगा दिया जाता है. उस पर निश्चय ही कार्रवाई होनी चाहिए. सभी विद्यार्थी मिल कर अपने स्कूल को साफ रखने में जुटते हैं तो इसको खुशखबर के रूप में क्यों नहीं देखा जाता? क्या इससे बच्चे कुछ सीखते नहीं? घर, मुहल्ले और स्कूल की साफ-सफाई पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बननी चाहिए.

क्या नाज-नखरे वाले महंगे निजी स्कूलों के कारण ऐसा माना जाने लगा है कि बच्चे अपना स्कूल साफ नहीं कर सकते? वहां नन्हे-नन्हे बच्चों को साहबीजीवन शैली सिखाई जाती है, जिसमें बन-ठन कर रहना तो शामिल है लेकिन खुद अपने काम करना छोटाहो जाना है. झाड़ू लगाना, सफाई करना छोटेलोगों का काम है. उनका काम गन्दगी फैलाना है. यह पीढ़ी बड़ी होकर अपने आस-पास सफाई रखने का ध्यान भला कैसे रखेगी? इसीलिए वह गंदगी देख कर नाक-भौं सिकोड़ती है, शासन-प्रशासन को दोष देती और खुद चलती कार से कचरा फैलाती फिरती है. यह नजारा हम हर कहीं देखा ही करते हैं.

स्वच्छता अभियान नारों से सफल नहीं होगा. नारे जीवन में अपनाने होंगे. जिसने बचपन से घर, मुहल्ले और स्कूल में सफाई नहीं की, उसे अपनी आदत का हिस्सा नहीं बनाया, वह मंत्री-अफसर के रूप में दिखावे को हाथ में झाड़ू थामे सचित्र खबर भले बन जाए, सफाई में रत्ती भर योगदान नहीं कर सकता. दिमाग में सफाई नहीं होगी तो जमीन पर कैसे उतरेगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 जुलाई, 2018)

 

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