आज शाम, बल्कि कुछ देर पहले ही 'म्योर पहाड़-म्येरि पछ्याण' ग्रुप में नई-पुरानी पीढ़ी को गिर्दा को याद करते हुए सुनना उत्तराखंडी समाज में गिर्दा की धड़कन को अनुभव करना था। सबने गिर्दा को अपने-अपने ढंग से याद किया। अधिकतर ने उनकी कविताएं-गीत-गजल सुनाए। गिर्दा कुमाउनी की खसपर्जिया शैली में लिखता बोलता था। आज वह कभी पछाईं में बोल रहा था, कभी सोर्याली में गुनगुना रहा था, कभी जोहारी लटक के साथ आंदोलित हो रहा था। इनमें कुछ गिर्दा के साथ के लोग थे और कुछ ने उन्हें देखा भी नहीं था लेकिन वे उसे ऐसे याद कर रहे थे जैसे कि वर्षों उसके साथ रहे हों। याद करने वालों से जाने-अनजाने उसके कुछ शब्द बदल गए थे, कुछ शब्दों ने दूसरी उप-बोलियों में नया रूप धर लिया था, लेकिन भाव वही थे, तेवर वही थे, भंगिमाएं वही थीं। कुछ ने गीतों को गिर्दा की अपनी धुनों में गाने की कोशिश की, कुछ ने धुन बदलने के प्रयोग किए और कुछ आंतरिक जोश में बेसुरे भी गाते गए। सच बात यह है कि गिर्दा की स्मृतियों में उनके लिए संगीत महत्त्वपूर्ण नहीं था, सुर-ताल का अर्थ नहीं था , अर्थ था गिर्दा के होने और कई-कई पीढ़ियों के मानस में उसके रच-बस जाने का। यह बड़ी बात है।
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