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Saturday, February 13, 2021

स्कूल जाते बच्चों की खुशी और हीनता ग्रंथि

कोरोना काल की लम्बी बंदी के बाद स्कूल खुले हैं। कोई ग्यारह मास बाद कक्षा छह-सात-आठ के बच्चों को स्कूल जाते देखना सुखद था। वे बड़े उत्साह सें जा रहे थे। उनके चेहरे की खुशी मास्क के छुपाए नहीं छुप रही थी। आंखों में चमक थी। स्वाभाविक ही यह उमंग पढ़ाई के लिए नहीं थी। दोस्तों, टीचरों से मिलने और एक सुपरिचित वातावरण में निश्चिंत होकर भाग-दौड़ करने की ललक सबसे अधिक रही होगी। लम्बी कैद के बाद आज़ादी की अनुभूति।

कोरोना का प्रकोप आंकड़ों में कम होता दिखता है लेकिन निश्चिंत होने का समय नहीं है। आशंका बनी हुई है कि संक्रमण कभी भी बढ़ सकता है। केरल समेत कुछ राज्यों में बढ़ा हुआ है। यूं, सारी गतिविधियां लगभग सामान्य रूप से चलने लगी हैं। सिनेमा हॉल भी पूरी क्षमता से चल गए हैं। बाजारों में भीड़ पहले की तरह उमड़ रही है। जनता आवश्यक सावधानियों का पालन नहीं कर रही। प्रशासन ने भी जैसे हाथ-पैर छोड़ दिए हैं। ऐसे में कई अभिभावकों का संकोच या डर गलत नहीं है।

तो भी, बड़ी उमंग से स्कूल जाते बच्चों को देखना आश्वस्तिदायक है। यह स्थितियों के सामान्य होते जाने का भरोसा-सा देता है। हमने एक परिचित अध्यापक से पूछा- इतने लम्बे समय बाद बच्चों से मिलना कैसा लगा?’ उत्तर देते हुए उनकी आंखें जैसे भर आईं- ऑनलाइन क्लास होती थी लेकिन बच्चों को सामने देखने और सुनने की बात ही और होती है। हर बच्चा कुछ न कुछ अजब-गजब बताने को व्याकुल था। कोरोना ने उनके मनोविज्ञान पर असर डाला है।

मनोविज्ञान पर तो लगभग सभी के असर पड़ा है। कोई सिर्फ घर में कैद रहने के कारण मनोरोगी बना तो कोई मृत्यु कै भय से। जिनकी नौकरियां चली गईं, वेतन कटौती हो गई और ज़िंदगी की गाड़ी को किसी तरह खींचते रहने के लिए जो दिन-रात परेशान हैं, उनके मनोविज्ञान को कौन देख रहा है? यह सुनते ही टीचर जी गम्भीर हो गईं। कहने लगीं कि कुछ बच्चे जो ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्ट फोन नहीं जुटा सके या देर से इंतज़ाम कर सकें, स्कूल आने की खुशी के बावजूद उनके भीतर कुण्ठा पहले ही दिन से दिखने लगी है। एक तो पढ़ाई में पिछड़ने का बोध और दूसरे स्मार्ट फोन न होने की हीनता ग्रंथि।

याद आया कि ऑनलाइन पढ़ाई के शोर में कुछ खबरें यह भी बता रही थीं कि निजी स्कूलों के भी चौथाई से अधिक  (एनसीआरटी के सर्वे में 28 फीसदी) बच्चों को स्मार्ट फोन या लैपटॉप की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। कई घरों में सिर्फ एक मोबाइल था जिससे माता-पिता और बच्चे किसी तरह काम चला रहे थे।सरकारी स्कूलों में तो कहीं-कहीं नब्बे फीसदी बच्चे फोन, लैपटॉप, इंटरनेट या बिजली के बिना थे। फोन के लिए घरों में बच्चों ने माता-पिता से झगड़े किए। किशोर वय बच्चों के मानस पर इसका असर पड़ना अत्यंत स्वाभाविक था।

कोरोना ने सिर्फ शारीरिक एवं मानसिक रूप से ही बीमार नहीं बनाया, असमानता और उससे उपजा हीनता बोध भी बढ़ाया। पिछले महीने ही वह रिपोर्ट आई थीं की कोरोना काल में भी देश के अमीरों की सम्पत्ति कई गुणा बढ़ गई। जब बेरोजगार कामगार मीलों पैदल चलकर अपने गांव लौट रहे थे, जब नौकरियां जा रही थीं, जब बहुत सारे घरों में चूल्हे बुझ रहे थे, तब देश के अमीर और अमीर हो रहे थे। उसी दौर में कई बच्चे अपनी गणित या भौतिकी का ऑनलाइन पाठ नहीं पढ़ पा रहे थे क्योंकि वे फोन और नेट कनेक्शन से वंचित हैं।

जिस नव उदारवादी नीतियों पर देश आगे बढ़ रहा है उसमें गरीब-गुरबों के लिए जीवन निरंतर कठिन और मारक होते जाना है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 फरवरी, 2021)