Saturday, March 18, 2023

गांव के जमीनी हालात और पत्रकार की गिरफ्तारी

चंद रोज पहले एक खबर छपी थी कि उत्तर प्रदेश की एक मंत्री गुलाब देवी से उनके क्षेत्र की समस्याओं के बारे में सवाल पूछने के बाद एक पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया। सम्भल जिले के गांव बुधनगर में वादे के मुताबिक विकास न होने के बारे में मुरादाबाद उजाला के संवाददाता संजय राणा ने प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) गुलाब देवी से, जो स्थानीय विधायक हैं, सवाल पूछे थे। इस पर मंत्री नाराज हुई थीं। उसके तुरंत बाद स्थानीय भाजपा नेता शुभम राघव ने पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई कि संजय राणा ने उन पर हमला किया और सरकारी काम-काज में बाधा पहुंचाई। पुलिस ने संजय को गिरफ्तार कर लिया। फिलहाल पत्रकार जमानत पर रिहा है।

Indian Express अखबार ने अपने आज (रविवार, 19 मार्च, 2023) के अंक में सम्भल के उसी गांव बुधनगर से एक जमीनी रिपोर्ट प्रकाशित की है जो बहुत कुछ बता देती है। इस अखबार के संंवाददाता धीरज मिश्र ने  बहुत आवश्यक पत्रकारीय उत्तरदायित्व निभाया है जो अब विरल होता जा रहा है। इस रिपोर्ट को अधिकाधिक व्यक्तियों की नज़र में आना चाहिए, यह सोचते हुए उसके  मुख्य तथ्यों को यहां पेश कर रहा हूं।

बुधनगर गांव के अधिकसंख्य घरों में शौचालय नहीं हैं। नालियां नहीं हैं। सीवेज रास्तों पर बहता रहता है। गांव को मुख्य सड़क से जोड़ा नहीं गया है। यहां तमाम समस्याएं हैं। 80 साल की शिवदेवी बताती है कि उसे अपने जीवित रह्ते शौचालय का प्रयोग कर पाने की कोई आस नहीं है। करीब 1000 की आबादी वाले इस इस गांव में अधिकसंख्य घरों में शौचालय नहीं हैं। बुधनगर और दो अन्य गांव एक ही पंचायत के अधीन हैं। इनमें सबसे बड़ा गांव खण्डुआ है जहां घरों में शौचालय बनवाने के लिए निर्धारित अधिकांश बजट लगा दिया गया। इसलिए वहां के कुछ घरों में एक से अधिक शौचालय बन गए हैं। शिवदेवी कहती हैं कि मेरी उम्र में सुबह-शाम या रात में खुले में शौच के लिए जाना बहुत मुश्किल हो गया है।

बुधनगर के एक अन्य निवासी बीरपाल सिंह कहते हैं कि चुनाव के समय किए गए वादे शायद ही जमीन पर उतरते हों। जिन लोगों को हमने वोट दिया वे विधाय्क बने, मंत्री बने, सांसद बने लेकिन हम जैसे थे वैसे ही रहे। जो नेता खुले में शौच मुक्त गांव बना देने के दावे करते हैं उन्हें इस गांव में आना चाहिए। वे कहते हैं कि मेरे घर के सभी दस जन खेतों में शौच करने जाते हैं। दूसरी समस्याएं भी हैं। बरसात में पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। न पक्की सड़कें हैं न नालियां। सीवेज हमारे रास्तों पर बहता है। कचरा निस्तारण किसे कहते हैं, यहां कोई नहीं जानता।

पत्रकार संजय राणा ने मंत्री गुलाब देवी से, जब वे 11 मार्च को एक कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं, सार्वजनिक शौचालय न होने, मैरिज हॉल की कमी और सड़क न बनने के बारे में सवाल पूछे थे। कार्यक्रम के बाद भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिला महासचिव शुभम राघव ने संजय राणा के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई कि उन्होंने सरकारी काम में बाधा डाली और उन पर हमला किया। पुलिस ने राणा को धारा 151 में गिरफ्तार कर लिया। बाद में उनकी जमानत हुई। राणा कहते हैं कि मुझे 30 घण्टे हिरासत मेंं रहना पड़ा। मुझे रिपोर्ट के बारे में कुछ पता नहीं। मैं शुभम राघव से कभी नहीं मिला। मुझे हथकड़ी लगाई गई और गांव वालों के सामने मेरी परेड कराई गई जैसे कि मैंने कोई अपराध किया हो। आप स्वयं देख लीजिए कि क्या मैंने मंत्री जी से गलत पूछा। हमने उन्हें वोट दिया है। हमें अधिकार है कि उन्हें जिम्मेदार ठहराएं। 

सफाई की गांव में बहुत बड़ी समस्या है। तीन गांवों के लिए एक सफाई कर्मचारी है। अंदर की कुछ सड़कें बनी हैं लेकिन नालियां नहीं बनी हैं। इससे गंदगी रास्तों पर बहती है और प्राथमिक विद्यालय के पास जमा हो जाती है। पिछले चुनाव में गुलाब देवी ने मुख्य सड़क से गांव को जोड़ने वाली सड़क बनाने की वादा किया था। अभी तक कुछ नहीं हुआ है। गांव के किसान खेमपाल सिंह कहते हैं कि ऐसे में अपने जन प्रतिनिधि से सवाल पूछना क्या गलत है?  

Indian Express ने मंत्री गुलाब देवी से भी इस बारे में बात की। उन्होंने कहा कि विधायक निधि से एक सड़क की मंजूरी हुई है जो शीघ्र बनेगी। नालियों की जरूरत है, उन्हें भी जिला पंचायत फण्ड से बनाया जाएगा। मुझे पता चला है कि गांव में कुछ ही शौचालय है। इस बारे में शीघ्र सर्वे करवाया जाएगा।

- न जो, 19 मार्च 2023

Monday, March 06, 2023

खूबसूरत वादियों, मोहिले जन और विचित्र कथाओं का वृतांत

करीब छह-सात वर्ष पहले जब कुमाऊं मंडल विकास निगम का बेहतरीन प्रकाशन थ्रोन ऑफ गॉड्स’ (धीरज सिंह गर्ब्याल और अशोक पाण्डे) हाथ में आया था तब उसके पाठ की बजाय उसमें प्रकाशित अत्यंत सुंदर-कलात्मक चित्रों में खोकर रह गया था। हमारे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के तिब्बत से सटीं  ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों, वहां की शौका (रङ) जनजाति और उनके बहुत कम जाने गए जीवन, संस्कृति, इतिहास और परम्परा पर यह एक कॉफी टेबल बुकसे कहीं अधिक मायने रखती है- संदर्भ ग्रंथ की तरह भी। पिछले दिनों जब अशोक पाण्डे की नई किताब जितनी मिट्टी उतना सोनापढ़ना शुरू किया तो सबसे पहले थ्रोन ऑफ गॉडकी याद आई। उसकी तस्वीरों ने मोह लिया था तो इसके शब्दों की सरलता, यात्रा वृतांत की रोचकता-गहनता और उससे मस्तिष्क में उभर आने वाले शब्द-चित्रों ने पकड़े रखा। किताब पूरी कर चुकने के बाद भी वे शब्द-चित्र और उनका अत्यंत साधारण कहन दिल-दिमाग में बने हुए हैं।

अशोक पांडे ने अपनी ऑस्ट्रियाई साथी, मानवशास्त्री सबीने लीडर के साथ 1994 से 2003 के बीच ब्यांस, चौंदास और दारमा घाटी के सुदूर अंतरे-कोनों की लम्बी-लम्बी शोध-यात्राएं की, रङ गांवों में कई-कई दिन बिताए, उनके जीवन के विविध पक्षों का अध्ययन किया और मोहिले रिश्ते बनाए। स्वयं अशोक के शब्दों में इन घाटियों के गांवों में उन्होंने कुल मिलाकर तकरीबन चार साल बिताए। 'जितनी मीटी उतना सोना' उन्हीं यात्राओं का वृतांत है। 'थ्रोन ऑफ गॉड्स' में भी उन्हीं शोध यात्राओं का निष्कर्ष बोलता है।

'लप्पूझन्ना' और 'बब्बन कार्बोनेट' जैसी पुस्तकों के विरल कथ्य और कहन से पिछले दिनों चर्चित रहे अशोक पांडे यहां बिल्कुल दूसरे रूप में हैं। यहां उनकी खिलदंड़ी और व्यंग्यात्मक भाषा नहीं है। इस किताब के अत्यंत सरल गद्य में उनके कवि, अनुवादक, अध्येता, घुमक्कड़ और सहज मित्र रूप के दर्शन होते हैं। अशोक और सबीने तीनों सीमांत घाटियों के पुरुषों, महिलाओं, युवाओं-बूढ़ों-बच्चोंं से बहुत आत्मीय होकर मिलते हैं, उनके घरों, गोठों या रसोइयों में रात बिताते हैं, खाना खाते हैं और बात-बात में उनके इतिहास, वर्तमान, देवी-देवता, मिथकों और परम्पराओं की पड़ताल करते जाते हैं। इसलिए इस किताब का गद्य सामान्य बातचीत वाला  है जिसमें स्थानीय मुहावरे, लोकोक्तियां और कहानियां अपना अलग आस्वाद रचती हैं। वे घोड़ों की उदासी, बकरियों की दार्शनिकता, हरियाली की सुस्ती, अंधेरे का हरापन, चमकीले दिन का आलस, नक्काशीदार दरवाजों पर लगे तालों की उदासी, वगैरह भी देख ही लेते  है और ऐसे अनिर्वचनीय मानवीय दृश्य भी "जिन्हें देखे जा सकने की कल्पना भी हमारे सभ्य संसार में नहीं की जा सकती।" तब "आप असीम कृतज्ञ होने के अलावा क्या कर सकते हैं!" 

सिन-ला जैसे बीहड़ दर्रे को खराब मौसम एवं खतरनाक स्थितियों में पार करने का रोमांच भी इसमें मिल जाता है- "बर्फ टूटने की आवाज से बड़ी, कड़कदार और डरावनी आवाज मैंने आज तक नहीं सुनी है। यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है। यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं।" यह हिमालय को बहुत करीब से देखने, अनुभव करने, बर्फ-नदियों-झरनों-पत्थरों से बतियाने और मिथकों की कल्पनाशीलता से चमत्कृत होने का वृतांत भी है। 

यह यात्रा वृतांत दारमा, ब्यांस और चौंदास घाटियों के प्राकृतिक और मानवीय सह-जीवन का अत्यंत सरल लेकिन विश्वसनीय दस्तावेज बन गया है।1962 से पहले तिब्बत से व्यापार पर लगभग एकाधिकार के कारण जो शौका खूब सम्पन्न थे, जो उतने ही विनम्र एवं शालीन थे, जिनका इलाका दुर्गम ही नहीं एक रहस्यलोक-सा था, जिनकी कई व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं सभ्य कहे जाने वाले समाजों को मात करती थीं, उन शौकाओं के बारे में आज से सवा सौ साल पहले चार्ल्स ए शेरिंग जैसे प्रशासनिक अधिकारी और गहन अध्येता ने लिखा था- "इन खूबसूरत वादियों में अब भी जीवन का रूमान और कविता बचे हुए हैं।" विकास की बहुत सारी अतियों और पलायन के बावजूद आज भी वहां बहुत कुछ बचा हुआ है, इसकी गवाही अशोक पाण्डे की यह किताब देती है। यह भी पच्चीस साल पहले की गई यात्राओं की किताब है और इस बीच वहां बहुत कुछ बदला होगा। आज वे अत्यंत सुंदर वादियां उतनी दुर्गम नहीं रहीं लेकिन जीवन और कविता वहां बची रहे, यह कामना है। 

'जितनी मिट्टी उतना सोना' (हिंदयुग्म प्रकाशन) पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि अगर शांति काकी या सनम काकू से नहीं मिले और च्यक्ती भी नहीं पी तो जीवन क्या जिया! पिछले दिनों पिण्डर घाटी का अनिल यादव का यात्रा वृतांत 'कीड़ाजड़ी' पढ़ते हुए भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी। 

- न.जो, 6 मार्च, 2023     

     

Friday, March 03, 2023

'बढ़ते जंगल' और घटती ऑक्सीजन का क्रूर सत्य


पिछले दस सालों में देश के 1,611 वर्ग किमी जंंगल ढांचागत विकास और औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले कर दिए गए- यह नई दिल्ली के कुल क्षेत्र से कुछ बड़ा ही इलाका होगा और हमारे देश के कुल वन क्षेत्र (7.75 लाख वर्ग किमी) का 0.21 फीसदी है। और, विकास योजनाओं के लिए सौंपे गए जंगलों के बदले 'जंगल लगाने' का सच यह है कि निजी जमीनों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की हरियाली तथा सड़क के किनारे किए गए वृक्षारोपण, वगैरह को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है। अर्थात, कहानी यह है कि देश में जितना वन क्षेत्र बताया जाता है, उतना असल में है नहीं। सरकारी आंकड़े जिसे वन क्षेत्र या  'वनावरण' (फॉरेस्ट कवर) कहते हैं उसमें मंत्रियों के बंगलों की हरियाली, चाय बागान, आदि के साथ वह आंकड़े भी शामिल हैं जिनमें बताया जाता है कि हर साल कितना वृक्षारोपण किया जाता है।

प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक Indian Express आजकल एक खोज समाचार शृंखला प्रकाशित कर रहा है जो खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय समूह के साथ मिलकर तैयार की गई है। इसमें भारतीय वनक्षेत्र और अवैध एवं फर्जी तरीकों से हो रही वन-तस्करी के जो विवरण सामने आए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। हर साल वृक्षारोपण के कीर्तिमान बनाने और 'बढ़ते वनक्षेत्र' का दावा करने वाली हमारी सरकारों ने 1980 के बाद से वनक्षेत्र के आधिकारिक आंकड़े मीडिया को बताना बंद कर रखा है। Indian Express ने इस समाचार शृंखला के लिए पहली बार वह आंकड़े प्राप्त कर लिए जिसे सरकार 'वन क्षेत्र' कहती है। उसी से पता चला है कि जिस जंगल में अवैध कब्जे कर लिए गए, जहां जंगल साफ कर दिए गए, जहां वाणिज्यिक उपयोग के लिए पेड़ लगाए गए, सड़कों के किनारे जो पेड़ हैं, चाय के बागान, सुपारी के पेड़ों का झुरमुट, शहरी कॉलोनियों की हरियाली, गांवों के बगीचे, वीवीआईपी बंगलों के पेड़, आदि को भी 'वनक्षेत्र' में शामिल कर लिया जाता है।

इस खोजी रपट में पाया गया है कि औद्योगिक परियोजनाओं के लिए दिए गए जंगल जहां बहुत पुराने, महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य वन-सम्पदा होते हैं वहीं उसके 'ऐवज' में तैयार क्या जाने वाला 'वन' कागजी अधिक होता है। जिस वैकल्पिक भूमि पर यह वन लगाया जाता है वह इस लायक होती ही नहीं कि वहां वास्तव में वन विकसित हो सके। इसलिए हाल के वर्षों में वन क्षेत्र में हुई 'वृद्धि' वास्तविक वृद्धि नहीं कही जा सकती। सरकार के अनुसार 1980 के दशक में जो भारतीय वन क्षेत्र 19.53 प्रतिशत था वह 2021 में 21.71 प्रतिशत हो गया था और आज 24.62 प्रतिशत हो गया है- कागज में! वास्तव में हो यह रहा है कि बहुमूल्य प्राकृतिक जंगल नष्ट हो रहे हैं या किए जा रहे हैं और उनकी जगह कागल पर जंगल की खेती की जा रही है। जिसे वास्तविक वन-सम्पदा और जैव विविधता कहा जाता है, उसे भारी नुकसान हो रहा है।

भारत ने अंतराष्ट्रीय 'क्लाइमेट चेंज' सम्मीलनों के तहत यह वादा किया हुआ है कि वह 2030 तक ढाई से तीन अरब टन कार्बनडाइऑक्साइड और सोखने की क्षमता बढ़ाएगा। इस्का सीधा अर्थ यह हुआ कि जंगल बढ़ाने होंगे। इसीलिए वृक्षारोपण के कई कार्याक्रम चलाए जा रहे हैं। जिन औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगल दिए जाते हैं उनसे  प्रति हेक्टेयर की  दर से, जो जंगल के महत्त्व के हिसाब से 9.5 लाख से 16 लाख रु प्रति हेक्टेयर तक तय होती है, वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए रकम वसूली जाती है। यह रकम केंद्रीय खाते से फिर सम्बद्ध राज्यों के खाते में भेजी जाती है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों के अनुसार 2016 से अब तक करीब 66 हजार करोड़ रु केंद्रीय खातेमें जमा हुए थे जिनमें से 55 हजार करोड़ रु राज्यों के को दिए जा चुके हैं। राज्यों को इस रकम से वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए योजनाएं बनाकर केंद्र को भेजनी होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार यह रकम पूरी तरह खर्च नहीं की जा सकी है।   

वायुमण्डल में लगातार कम होती ऑक्सीजन एवं बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरे प्रदूषक तत्वों के पीछे भी लगातार नष्ट होते प्राकृतिक वन हैं। जहां पुराने प्राकृतिक वन खूब ऑक्सीजन देते और कार्बनडाइआक्साइड सोखते हैं, वही वैकल्पिक,सतही और कागजी वन न ऑक्सीजन ठीक से दे पाते हैं और न ही प्रदूषण सोख पाते हैं। फिर भला हमें 'ग्लोबल वार्मिग' पर क्यों आश्चर्य करना चाहिए और क्यों पूछना चाहिए कि आम में बौर जनवरी में ही क्यों आ गया या गर्मी इतनी जल्दी कैसे आ गई या अतिवृष्टि एवं बादल फटने की घटनाएं इतनी क्यों होने लगी हैं? 

'Indian Express' की यह समाचार शृंखला सिर्फ वनों को होने वाले नुकसान और कागजी जंगलों के बारे में नहीं है, बल्कि इसमें यह भी सामने आ रहा है कि किस तरह वन-तस्कर दुनिया भर में सक्रिय हैं। जबसे यूरोप तथा अमेरिकी देशों ने वनोपज से बना सामान तब तक खरीदने पर रोक लगा दी है जब तक कि उसे यह प्रमाणपत्र हासिल न हो कि यह सामान वनों के अवैज्ञानिक दोहन से नहीं बना है (बल्कि यह  वनों के संरक्षण की नीतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है) तबसे भारत ऐसा फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाली एजेंसियों का बड़ा केंद्र बन गया है। म्यामार (पूर्व में बर्मा) में सैन्य तानाशाही द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने के विरोध में जबसे वहां के विश्वविख्यात सागौन (बर्मा टीक) को खरीदने पर अमेरिका समेत कई देशों ने रोक लगा दी है, तबसे 'बर्मा टीक' भारत के जरिए विदेशों में इसी संदिग्ध प्रमाणपत्रों की आड़ में बेचा जा रहा है। 'बर्मा टीक' पूरे विश्व में आलीशान फर्नीचर और ऐशगाह नौकाओं के निर्माण के लिए ख्यात है और उसकी बड़ी मांग है। 

दो मार्च से प्रकाशित हो रही 'Indian Express' की यह शृंखला अवश्य पढ़नी चाहिए।

- न. जो, 04 मार्च, 2023




Wednesday, February 22, 2023

ताकि हम उम्र भर मनुष्य बनें और प्रेम करना सीखें

लम्बा अरसा हुआ, हिंदी कविता में स्त्री-चेतना की लगभग अनिवार्य उपस्थिति दर्ज़ हुए। शायद ही कोई समकालीन या पिछली दो-तीन पीढ़ियों का कवि हो जिसकी कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाहना न हो। आज तो बहुत सारी कवयत्रियां लिख रही हैं और सदियों से संचित अपनी पीड़ा और आक्रोश को अपने-अपने तरीके से स्वर दे रही हैं। अच्छी बात यह है कि कवि भी इस चेतना से लैस हैं और मार्मिक एवं तेवरदार कविताएं लिख रहे हैं। हालांकि अब यह एक फैशन जैसा भी बन गया है। व्यवहार में घनघोर पुरुषवादी कवि भी स्त्री-विमर्श लिखने में पीछे नहीं रहते। खैर, समाज काफी बदला है। स्त्रियों के प्रति नज़रिए और स्वयं स्त्रियों के अपने प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है। सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्तर पर स्त्रियों ने आगे बढ़कर मुकाम हासिल किए हैं लेकिन एक सम्पूर्ण और स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में स्त्री की सहज स्वीकार्यता को अब भी लम्बा सफर तय करना बाकी है। साहित्य, विशेष रूप से कविता में यह स्वागत योग्य तेवर और दृष्टि तीव्रतर होती दिखाई दे रही है। 

हाल के वर्षों में रूपम मिश्र ने हिंदी कविता की इस पृष्ठभूमि में सर्वथा नए तेवर, विषय की गहनता और कहन के साथ अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। अभी उनका पहला कविता संग्रह आया है- "एक जीवन अलग से" जिसने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान खींचा है। पिछले कुछ वर्षों से रूपम की सर्वथा भिन्न तरह की कविताएं फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं। पिछले दिनों लखनऊ में उन्हें मंच से सुनने का भी अवसर मिला था। उनकी कविताओं में बेलाग कहन की मौलिकता तो है ही, उस 'पुरबिया परिवेश' की पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक जकड़न, धड़कन और तेवरदार प्रतिरोध भी है, जहां वे पली-बढ़ीं-रहती हैं और जहां के समाज की तमाम भीतरी तहों से अच्छी तरह परिचित हैं। ये कविताएं उसी परिवेश का निर्मम, विडम्बनात्मक और आक्रोशभरा बयान हैं। नारी-मुक्ति की पुरजोर घोषित चाहना इन कविताओं का अंतर्निहित स्वर है- "लड़ाई की रात बहुत लम्बी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो/ लेकिन न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जवाबदेही होगी।" (दुख की बिरादरी)

पूर्वी उत्तर प्रदेश का क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत काफी पिछड़ा है। स्वाभाविक ही स्त्रियों की स्थिति भी वहां अत्यंत उपेक्षित-शोषित रही है। पिछड़ी और दलित बहुल जातियों वाले इस क्षेत्र में स्त्री दोहरी-तिहरी मार का शिकार रही है। सवर्ण परिवारों की स्त्रियों का भी इस मामले में बुरा हाल रहा है। कम उम्र के ब्याह और  घर की 'कैद' बरकरार हैं। रूपम मिश्र की कविताओं में यही समाज स्त्री के चौतरफा दुखोंं, विडम्बनाओं और अंतनिर्हित प्रतिरोध के साथ गूंजता है लेकिन वास्तव में ये कविताएं पूरे देश की स्त्रियों का बयान और आक्रोश बनकर सामने आती हैं। यहां जन्म से लेकर पिता के घर की बंदिशें, मर्यादाएं और फिर ससुराल एवं पति के 'प्रेम' की वे निर्मम सच्चाइयां खुलती हैं जो बहुत कम देखी और महसूस की जाती हैं। जिसे परिवार और समाज विवाह कहता है, जिसका बड़े धूमधाम से समारोह आयोजित किया जाता और माता-पिता ईश-कृपा से 'बोझ मुक्ति' और 'ऊऋण' होना कहते हैं जिसे, वह वास्तव में है ऐसा है- 

"... घूंघट में एक पंद्रह साल की बच्ची का दृश्य है/वह एक धुंधली रोशनी की छांव में थकी, अनमनी बैठी है/ जिसे अभी खाना और नींद चाहिए थी/ उसे थमा दी जाती है एक जाहिल देह /.... और भारतीय वाङ्‍मय उसे पवित्र दाम्पत्य कहता है/ ... इस तरह स्त्री को कैद करने की ज़िद घर नाम की व्यवस्था बनाता है।" (अभी हम)   

यह रूपम की कविता का तेवर है और सवाल भी है। यहां 'प्रेम' स्त्री के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है, उसे निश्शस्त्र करने का, ठगने और गुलाम बनाने का- " स्त्रियां आदिकाल से जीतने की चीज थीं/ उन्हें जीतो साम-दाम-दण्ड-भेद चाहे जैसे/ पर इतने हथियारों की जरूरत कहां पड़ती है/ प्रेम है न, वो सब पर भारी पड़ा" (देह बड़ी सुविधा की चीज है) ...  

"पिता को विभीषण बनकर बच्चियों को बताना चाहिए/ अपनी जाति का वो अभेद अचूक अहिंसावादी हथियार- 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं'/ जिससे स्त्रियां हमेशा हारती रहीं" (पिता और बच्चियां) ... 

"तुमने जब भी कहा प्रेम करता हूं तुमसे/ मन पाथर हो जाता है/ ये आखर इतना जुठारा गया है कि आत्मा चखने से करमराती है" (दुख से सगेदारी)  

"जब तुम साथ कहोगी तो वो प्रेम कहेगा/ जब तुम प्रेम कहोगी तब वह प्रणय कहेगा/ जब तुम प्रणय कहोगी तो सावधान रहना वह पाप कह सकता है/ एक दिन तुम उछाल देना उसके सारे नैतिक शब्दों को/ साहस करना और बस संंसर्ग कहना/ तब देखना वो तिलमिलाकर फेंक देगा अपने सारे चमकीले हथियार/ और अपने महाशस्त्र प्रेम के लिए बिकल हो जाएगा" (महाशस्त्र) 

प्रेम के हथियार से पुरुष ने स्त्री को हमेशा से ठगा है, दबाया है लेकिन स्त्री के भीतर प्रेम की चाह उतनी ही आदिम है। प्रेम के बिना उसका जीवन अधूरा है लेकिन जिस प्रेम की चाहना और अतृप्ति उसे सभ्यता की सदियों से रही है, वह प्रेम कैसा है? संकलन की शीर्षक कविता 'एक जीवन अलग से' में वे बताती हैं- 

"प्रेम व रहन की रीति को प्रकृति से सीखना था हमें/ ... एक जीवन जिसमें मैं तुम्हें सारे बादल-झरने-नदियों और पहाड़ों के/ एक दूसरे से प्रेम करने के किस्से सुनाती/ मैं तुम्हारे पवित्र माथे को चूमकर दिसावर जाने वाली/ सारी बहकी हवाओं के प्रेमी झकोरों का नाम बताती/ ...एक ऐसा जीवन होता जिसमें हम उम्र भर मनुष्य बनना और प्रेम करना सीखते।

लेकिन यहां तो "डरती हिरनियां हैं/ जो कुलाचों के लिए तरसती हैं/ ... एक अभुआता समाज कायनात की सारी बुलबुलों की गर्दन मरोड़ रहा है" (अभुआता समाज) ... इस अभुआते समाज की सारी सड़न उघाड़ कर रख देती हैं ये कविताएं और उस दिन की अगवानी के लिए बेकरार हैं जब इसी धरती पर सब स्त्री-पुरुष उसी तरह प्यार करेंगे जैसे बादल-झरने-नदियां और पहाड़ एक-दूसरे से करते हैं,और -

"जहां प्रेम हो जाना एक फूलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता हो/ जहां नदियां पाटी न जाती हों/ जहां हरे पेड़ काटे न जाते हों? जहां पिता कहता ब्याह इतना भी जरूरी नहीं होता मेरी लाडो।" (उनके रोने से धरती भीज उठती है)

इन कविताओं में पिता, भाई, चाचा समेत घर एवं बिरादरी के पुरुष, प्रेमी और मां, चाची, भाभी, बुआ समेत सारी स्त्रियां बार-बार आते हैं।  "अपने घर-जवार की चिन्हारी में ढला हम भाई-बहनों का मन/ पिता, चाचा, आजा के जनारी भर की हमारी दुनिया/ यहां उजाला भी उनकी ही खादी की धोतियों से छनकर आता था/ संझियरई में बिहंसे हमारे गंवई चित्त/ हम मनुष्य भी उतने ही थे जितना चीन्ह में आते थे" (वे कहां हैं जो कविता लिखती हैं)  और "मेरा जन्म वहां हुआ जहां पुरुष गुस्से में बोलते तो स्त्रियां डर जातीं/ मैंने मां, चाची और भाभी को हंसकर पुरुषों से डरते देखा" (मेरा जन्म वहां हुआ) 

बृहत्तर समाज की इकाई के रूप में एक परिवार के भीतर की पुरुषवादी जकड़न और प्रकट रूप में "कहां है दुख" कहकर हंसने वाली स्त्री के आन्तरिक चीत्कार से शुरू होती ये कविताएं फिर पूरे 'पुरबिया परिवेश' की होते हुए चारों दिशाओं की हो उठती हैं। समाज का 'अभुआना' यहीं मिलेगा लेकिन सड़न वह पूरी दुनिया की है। यह कहन की खूबसूरती है,अत्यंत सादगी भरी और अंंचल विशेष की बोली-बाली से उसे धार देती हुई। स्थानीय बोली-बानी का स्वाद मोहक उतना नहीं है, जितना कि कथ्य के मारे मारक लगता है। यहां सिर्फ स्त्री का मौन चीत्कार ही नहीं है, उसकी विकसित होती चेतना और क्रमश: मुखर होता प्रतिरोध भी दर्ज़ हुआ है- 

"उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना/ कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारारेंगना/ अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो यशगान/ जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है" (दुख की बिरादरी)

रूपम की कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाह वास्तव में सहचर होने, बराबरी से , पूर्ण मनुष्य की हैसियत से, पहाड़ और झरने के जैसे प्रेम से स्वीकारे और सम्मानित होने की कामना है। वे परम्परा और मर्यादा के नाम पर स्त्रियों के साथ सामंती तथा प्रतिगामी मूल्यों वाला व्यवहार किए जाने पर तीखा प्रहार करती हैं। जैसा कि बैक कवर पर प्रकाशित टिप्पणी में हमारे समय के नितांत अलग तरह के कवि देवी प्रसाद मिश्र ने लिखा है "रूपम मिश्र उन बहुत कम स्त्री कवियों में हैं जिन्होंने नारी स्वातंत्र्य के बुनियादी प्रत्ययों पर कायम रहते हुए उसकी मुक्ति को भारतीय नागरिकता की बृहत्तर मुक्ति के कार्यभार से अलगाकर नहीं देखा है।" यह सचमुच महत्त्वपूर्ण बात है। भारतीय समाज में स्त्री की बेड़ियां तब तक नहीं कट सकतीं जब तक पूरे समाज की वास्तविक मुक्ति नहीं होती। इस पूरे समाज को ही प्रतिगामी मूल्यों, लैंगिक मानदण्डों, विविध भेदभावों, मर्यादा की जकड़नों और प्रकृति विरोधी विकास के मानकों से मुक्त होना होगा। इसीलिए इस संग्रह की अंतिम कविता "कविता की जिम्मेदारी' में रूपम लिखती हैं- 

"कैसी कालिख है जो हम/ अपने ही हाथ से अपने चेहरों पर पोत लेते हैं/कैसा बहरा शोर है गर्वीली आवाजों का जो झारखण्ड से/ भात-भात रटती बच्ची को सुनकर ठक्क नहीं हो जाता/ मौत की नींद में भात के सपने देखते ये बच्चे/ इस दुनिया पर थूक कर चले जाते हैं/ और मैं हूं कि गल्पों की कसीदाकारी उसी दुनिया पर करती जा रही हूं/ कविता यहीं खत्म करती हूं कविता बहुत जिम्मेदारी का काम है।" 

इसे पढ़ते हुए मुझे राजेश शर्मा के कविता संग्रह 'जो सुनना तो कहना जरूर' की अंतिम कविता 'अच्छी कविता' की याद आ गई जो इस तरह पूरी होती है- "अच्छी कविता किताब में नहीं होती/ अच्छी कविता किताब बंद कर देती है।" 

रूपम मिश्र का यह संग्रह पढ़ना एक मौलिक ऊर्जा से भर जाना है। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।

- न. जो, 21 फरवरी, 2023

(कविता संग्रह- एक जीवन अलग से, कवयत्री- रूपम मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, मूल्य 199/-     

       

 

 



    

Saturday, February 18, 2023

"मौसम का इस तरह बदल जाना भी एक खबर होता है"

कल दिल्ली से आलोक जोशी का फोन आया। उन्होंने Hindustan Times में मौसम के बदलने की कोई खबर पढ़ी होगी। कह रहे थे- "कभी आप मौसम पर खबरें लिखते थे। शायद आज भी लिखना चाहें क्योंकि खबर के अनुसार मार्च का तापमान फरवरी में होने लगा है।। मैंने उन्हें बताया कि मैं पहाड़ में अभी जनवरी में ही बुरांश का खिला पेड़ देख आया हूं। फेसबुक पर भी लगाया था। अब जनवरी में ही आम के बौर आने लगे हैं और सहजन के फूल भी एक-दो महीने पहले खिलने लगे हैं। 

लखनऊ में अपना डेरा बदलने के बाद आजकल किताबों और पुरानी फाइलों की उखेला-पुखेली चल रही है। क्या संयोग है कि आज सुबह एक फाइल में उस खबर की कतरन मिल गई जो मैंने 15 मार्च 1992 को कानपुर के स्वतंत्र भारत में लिखी थी और 16 मार्च के अंक में पहले पन्ने पर छपी थी। तब में कानपुर में उप स्थानीय सम्पादक के तौर पर तैनात था। यह खबर मौसम के चुपचाप बदल जाने के बारे में थी, जिसकी ओर शहरों में हमारा ध्यान कम ही जाता है। उस खबर में जो बदलाव तीस साल पहले मार्च-मध्य में दिखे थे, वे अब जनवरी के अंत और फरवरी की शुरआत में ही दिखने लगे हैं। नीचे वह पूरी खबर हू-ब-हू दर्ज कर रहा हूँ-

"मौसम का इस तरह बदल जाना भी तो एक खबर होता है

नवीन जोशी

"कानपुर, 15 मार्च।  आज सुबह-सुबह होटल से लगे नीम के पेड़ से कोयल की कूक सुनाई दी। पहले दिन स्टेशन से आते समय ठेले पर बिकते काले-भूरे शहतूत दिखे थे। हवा के झोंके के साथ सड़क पर फड़फड़ाते सूखे पत्तों और धूल के गुबार ने फालसों की याद दिला दी। लाल-लाल लट्टुओं से  लदे सेमल के पेड़ पर कहीं एक फूल पट से चिटका। चढ़ते सूरज के साथ ही बदन के स्वेटर ने अचानक चींटियों-सी चुभन दी। भीतर से बेसाख्ता आवाज आई- लो, मौसम बदल गया।

"एक और  सुबह गंगा तट की ओर जाना हुआ। रूखी रेत की मेड़ों पर उगाई गई हरी-हरी लतरों में खिले छोटे-छोटे पीले फूलोंं ने भी बदल रहे मौसम के साथ ककड़ी की याद दिला दी। उन पीले फूलों की जड़ों में वह धीरे-धीरे आकार ले रही होगी। वहीं कहीं लगभग वैसी ही बेलों में तरबूज और खरबूज की गोलाइयों का भविष्य तय हो रहा होगा। बालू की सतहों के नीचे गंगा की आर्द्रता और उर्वरा शक्ति से ताकत पाकर अलमस्त फैली बेलों की महीन शाखाओं में गुप-चुप वानस्पतिक प्रक्रियाएं चल रही होंगी प्रकृति का कोई अनचीन्हा पर गजब का चितेरा बांझ रेत की इन मौसमी फसलों को रूप, गंध और स्वाद देने के लिए बस तैयार ही समझिए।

"अपने आसपास देखिए। गुलमोहर, अमलताश, नीम जैसे पेड़ों की शाखाएं तेज हवा के झोंकों से सूनी होती दिख रही हैं। लेकिन और भी कुछ उनमें हो रहा है जो दिखाई नहीं दे रहा। मौसम के ताप और तेवर से इशारा पाकर सूनी होती शाखों की गांठों पर जीवन की हरियाली के अंकुर फूट रहे हैं। मिट्टी से खाद-पानी लेकर शाखाओं-प्रशाखाओं में एक खामोश हलचल मची है। नव-पल्लवों और कलियों का निर्माण हो रहा है जो फूटेंगे तो मई-जून की दुपहरियों को लाल गुलमोहर और पीले अमलताश के चटक रंगों और निमकौरियों की नीम -गंध से भर देंगी। देखिए कि हर चीज कितनी तैयारी मांंगती है और अभी भी उसी तरह से हो रही है जैसी सदियों से होती आई है। 

"हौले-हौले कितना कुछ बदल जाता है आसपास लेकिन महानगरों की आपाधापी, सनसनी, आतंक और रोजी-रोटी की व्यस्तताओं के चलते इन चीजों पर नजर ही कहां जाती है। सब कुछ अचानक हुआ दिखता है। अचानक ही एक रोज धूप के दांत तीखे हो जाते हैं। बिल्कुल अचानक एक सुबह धुंध और धूल से भरी उदासी ले आती है। अचानक ही सड़कें पीले पत्तों से भर जाती हैं। मूंगफली, अमरूद और हरी सब्जियों के दिन इने-गिने रह जाते हैं। बाजारों की शक्ल एक बार फिर बदलने लगती है। 'समर वियर' से सज जाते हैं शो-केस और सिल्क के चटक रंगों पर हावी होने लगते हैं सूत के शालीन रंग। लखनवी चिकन और बंगाली तांत की मांग बढ़ने लगती है। पत्र-पत्रिकाओं के महिला पृष्ठों पर 'गर्म कपड़ों की सुरक्षित संंभाल' जैसे विषयों पर लेख छापने की तैयारी होने लगी होगी। गर्मी बस आ ही पहुंची है। सुबह-सुबह की हवा भी तुर्शी खो रही है। क्यारियों में खिले जाड़ों के मौसमी फूल आंंखिरी हंसी हंस रहे हैं। तिपतिया पैंजी नन्हीं-नन्हीं आंखों से गदराए गेंदे को घूर रही है, जिसे अभी कुछ दिन और खिलना है।

"छह महीने से कहीं दुबकी हुई थी जो छिपकलियां, वे घरों की दीवारों-छतों पर फिर रेंगने लगी हैं। हवा और पानी में कुलबुलाने लगे हैं तरह-तरह के रोगाणु। शहर के बाहर खेतों में फूली पीली-पीली सरसों अब पकने लगी है। गेहूं की खड़ी बालियों के भीतर पनपा दुधिया प्राण तत्व ठोस आकार लेने लगा है और अमराइयों की शाखाओं में उठ रहा  है बौर। अर्थात मौसम सचमुच बदल गया है।

"और मौसम का इस तरह बदल जाना भी तो एक खबर होता है हुजूर, और ऐन इसी शहर में!" 

(लिखा गया 15 मार्च, 1992, यहां प्रस्तुत- 19 फरवरी, 2023)

Thursday, February 16, 2023

विज्ञान और ब्रह्माण्ड- एक रोचक एवं सरल पुस्तक-शृंखला



अंतरिक्ष में स्थापित अब तक की सबसे बड़ी दूरबीन 'जेम्स वेब' से मिले ब्रह्माण्ड के पहले चित्र जब जुलाई 2022 में जारी किए गए तो, आम जनता ने ही नहीं, विज्ञानियों ने भी उन्हें एक चमत्कार की तरह देखा। अखबारों ने उन्हें पहले पेज पर प्रकाशित किया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में  उन्हें तरह-तरह से दिखाया गया। इससे पहले ब्रह्माण्ड का नजारा दिखाने वाले सबसे बड़ी दूरबीन 'हबल' थी। 'हबल' से प्राप्त चित्रों और 'जेम्स वेब' से मिले चित्रों में बहुत अंतर इस मामले में है कि नए चित्र ब्रह्माण्ड  को और करीब तथा सूक्ष्मता से दिखाते हैं। इससे ब्रह्माण्ड की संरचना और उसके बहुत से रहस्यों पर नई रोशनी पड़ने की उम्मीद है। 

ब्रह्माण्ड बहुत पहले से मनुष्य की जिज्ञासा का केंद्र रहा है। धरती से दिखने वाले तारों को पहले-पहल इनसान ने आसमान के छेदों या उसकी छत पर टंके अथवा लटके हुए समझा था। तब उन्हें नंगी आंखों से ही थोड़ा-सा देखा जा सकता था। सूर्य और चंद्रमा समेत बाकी ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं, यही माना जाता था। इन्हें देवता की तरह देखा और पूजा जाता था। उनसे मनुष्य डरते भी थे। ज्ञान के अभाव में अंधविश्वास और अप्रामाणिक बातें फैली हुई थीं। कालांतर में कोपरनिकस, गैलीलियो, केप्लर और न्यूटन जैसे विज्ञानियों ने अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के बारे में नई वैज्ञानिक  जानकारियां दुनिया को दीं। फिर आइंस्टाइन जैसे विज्ञानी ने विज्ञान को नई प्रामाणिक जमीन पर खड़ा किया। यह सप्रमाण स्थापित हो गया कि हमारे सौरमण्डल का केंद्र सूर्य है और पृथ्वी समेत बाकी ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। इस ज्ञान तक पहुंचने में सदियां लगीं। अब भी विज्ञान की यात्रा जारी है। ब्रह्माण्ड केबारे में निरंतर नई-नई और रोचक जानकारियां सामने आ रही हैं। तो  भी बहुत कुछ अनुत्तरित है। दुनिया भर में विज्ञानी ब्रह्माण्ड के रहस्यों को खोजने में लगे हैं। 'जेम्स वेब' दूरबीन से अब जो देख पाना सम्भव हुआ है, वह और नई जानकारियां देगा।

अंग्रेजी में जहां हमारे ब्रह्माण्ड के बारे में विस्तार से और रोचक तरीके से बताने वाली बहुत पुस्तकें हैं, वहीं हिंदी इस मामले में काफी गरीब रही है। हिंदी में विज्ञान या तो जटिल अनुवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया या फिर अबूझ तकनीकी शब्दावली में लिखा जाकर अल्मारियों में कैद रह गया। हमारे प्यारे सखा और दाज्यू देवेंद्र मेवाड़ी जैसे बहुत कम लेखक विज्ञान को सरस, सरल और रोचक बनाकर पेश करते हैं। उनसे पहले गुणाकर मुले और कुछ अन्य लेखकों का नाम इसी बाबत लिया जा सकता है। 

'नवारुण' प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित 'विज्ञान और ब्रह्माण्ड' शृंखला की चार पुस्तकों को देखकर अत्यंत प्रसन्नता इसलिए हुई इनके लेखक विज्ञानी गिरीश चंद्र जोशी ने बहुत सरल भाषा में हमारे ब्रह्माण्ड की वैज्ञानिक खोजों का इतिहास से लेकर वर्तमान तक और भविष्य की योजनाओं एवं सम्भावनाओं का भी रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। यह सामान्य पाठकों के लिए तो सरस एवं जानकारीप्रद है ही, किशोर एवं युवा छात्रों के लिए अत्यंत उपयोगी है। शृंंखला की पहली पुस्तक "इतिहास तथा आधुनिक अवधारणा" (कुल पृष्ठ 190, मूल्य 290/-) अंतरिक्ष के बारे में मानव की आदि-जिज्ञासा एवं प्रारम्भ से पुनर्जागरण काल तक  खगोल विज्ञान के विकास के बारे में बताती है। दूसरी पुस्तक (पृष्ठ 86, मूल्य 130/-) दूरबीन के विकास और खगोल विज्ञान में उसके योगदान की विस्तार से चर्चा करती है। यहां गैलीलियो की छोटी सी दूरबीन से लेकर नवीनतम 'जेम्स वेब' दूरबीन तक का रोचक विवरण है। भविष्य में इस क्षेत्र में और क्या होने वाला है, इसका भी वर्णन आसान भाषा में किया गया है। तीसरी किताब "पृथ्वी तथा सौरमण्डल के सदस्य" (पृष्ठ 104, मूल्य 200/-) हमारी धरती और सौरमण्डल के अब तक ज्ञात नौ ग्रहों  के साथ ही उन ग्रहों के चंद्रमाओं या उपग्रहों से सम्बद्ध जानकारियों का खजाना है। चौथी पुस्तक "तारे, नीहारिकाएं, आकाशगंगा, मंदाकिनियां तथा ब्रह्माण्डिकी" (पृष्ठ 140, मूल्य 215/-) हमें दिखने और नहीं दिखने वाले तारों, विभिन्न आकृतियों में उनके समूहों, गतियों, दूरियों, आदि को आसानी से समझाया गया है। 

अब तक की खोजों से सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति 'बिग बैंग' से हुई अर्थात अनंत घनत्व वाले एक बिंदु के महाविस्फोट से निकली असीमित ऊर्जा से ब्रह्माण्ड शुरू हुआ और तब से इसका निरंतर विस्तार होता जा रहा है। ब्रह्माण्ड कोई स्थिर इकाई नहीं है, न ही इसकी सीमा है। जिस ऊर्जा से इसका जन्म हुआ वही इसे आज तक विस्तारित करती जा रही है। विज्ञानियों के मन में ये सवाल भी हैं कि क्या किसी रोज ब्रह्माण्ड का विस्तार रुक जाएगा? क्या उसके बाद यह सिकुड़ना शुरू होगा? क्या एक दिन यह उसी तरह नष्ट हो जाएगा जैसे इसकी उत्पत्ति हुई थी? ये रोचक प्रश्न हैं और विज्ञानियों के पास भी इनका कोई उत्तर नहीं है। अध्ययन और प्रयोग जारी हैं। इसी अध्ययन को ब्रह्माण्डिकी कहा गया है। 'विज्ञान और ब्रह्मांड' शृंखला की चारों पुस्तकें हमें विस्तार और सरलता से इसी सब के बारे में समझाती हैं।

डॉ जोशी प्रसिद्ध विज्ञानी डॉ डी डी पंत के शिष्य रहे हैं। लम्बे समय तक वे प्राध्यापक रहे और कई शोधों में उन्होंने हिस्सेदारी की। अवकाश ग्रहण के बाद विभिन्न देशों के पुस्तकालयों में उन्होंने ब्रह्माण्ड संंबंधी पुस्तकें देखने -पढ़ने के बाद सरल हिंदी में इन्हें लिखना तय किया। उनका यह काम हिंदी में सरस विज्ञान के प्रसार में महत्त्वपूर्ण होगा। 'नवारुण' पुस्तक प्रकाशन में नए मानक स्थापित कर रहा है- विषयवस्तु से लेकर डिजायन और प्रस्तुति में भी। युवा डिजायनर अर्पिता राठौर ने खूबसूरत आवरण के अलावा भीतर के पृष्ठों को भी अपने चित्रों-रेखांकनों से सजाया है। 

पुस्तक प्राप्त करने के लिए 9811577426, 9990234750 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

पुनश्च- उपर्युक्त पुस्तकें किशोर छात्रों के लिए बहुत रूप से उपयोगी हैं, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, लेकिन बालोपयोगी सरस विज्ञान पुस्तकों की भी हिंदी में बहुत जरूरत है। मुझे याद आता है कि 1980 के दशक में मैंने अपने बेटे के लिए "पृथ्वी के रूप का कैसे पता चला", "आओ, दूरबीन देखें" जैसी पुस्तकें खरीदी थीं, जो अत्यंत रोचक एवं सरल हिंदी में लिखी गई थीं और जिन्हें आकर्षक चित्रों से सजाया गया था। ऐसी पुस्तकें तब 'रादुगा प्रकाशन', मास्को से आती थीं और बहुत सस्ती मिलती थीं। वह सिलसिला कबके बंद हो गया। हिंदी में आज ऐसी पुस्तकें  तैयार किए जाने की बहुत जरूरत है ताकि अफवाहों और अंधविश्वासों के अंधेरे में धकेले जा रहे समाज की नई पीढ़ी में बचपन से ही वैज्ञानिक चेतना विकसित हो सके। यह जिम्मेदारी हिंदी के विज्ञान लेखकों और नवारुण जैसे प्रकाशनों को उठानी चाहिए।  

- न. जो. 17 फरवरी, 2023 

       

Wednesday, February 15, 2023

कीड़ाजड़ी - पिण्डर घाटी के जीवन का जादुई आईना

अनिल यादव  की कीड़ाजड़ीमें कीड़ाजड़ी उतनी ही है जितनी कीड़े में जड़ी या जड़ी में कीड़ा होता है। नाम अवश्य एक सनसनी पैदा करता है। कीड़ाजड़ी अब अपने नाम, काम और दाम से एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सनसनी है। इसे यह भी कोई देश है महाराजकी तरह अनिल यादव का ट्रैवलॉगयानी यात्रा वृतांत कहा गया है। उत्तर-पूर्वी भारत में अनिल की आवारगी का वृतांत सचमुच बहुत रोचक और खूबसूरत है लेकिन कीड़ाजड़ीमें कहीं से कहीं होते हुए कहीं आने-जाने की यात्रा नहीं है। वह पिण्डर घाटी के सुदूर क्षेत्र के एक लॉज और आसपास अनिल के अच्छा खासा समय जीने और वहां के जन-जीवन, प्रकृति, पशु-पक्षी, नदी-गाड़-गधेरे, बर्फ, पर्यटकों चाय-पानी और पदार्थको जीने और उस सब में अदृश्य को देख लेने एवं अश्रव्य को सुन लेने की विरल क्षमता का भेदक गद्य है। इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है लेकिन जो यथार्थ है उसे देख लेने, सुन सकने और लिख पाने की लेखक की क्षमता ने इस पुस्तक को उल्लेखनीय बना दिया है। यह दृष्टि और क्षमता पहाड़ को गहराई से देखने वाले यात्री-लेखकों के यहां भी दुर्लभ है। यह वास्तव में पिण्डर घाटी के बर्फीले शिखरों के निकटवर्ती इलाके का वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक एवं प्राकृतिक आईना है जो अपनी भेदक किरणों से तस्वीर के भीतर की तस्वीर भी दिखा देता है।

शायद तीन या चार साल पुरानी बात होगी। शायद कुछ और पुरानी। अल्मोड़ा से माफ करना हे पितावाले अनोखे लेखक और बहुत प्यारे साथी शम्भू राणा का कुछ इस तरह का संदेश आया था कि अनिल यादव काफी समय से लापता हैं। उनका कुछ पता नहीं चल पा रहा है। क्या आपके पास कोई सूचना है? मेरे पास कोई सूचना नहीं थी लेकिन जो जवाब दिया जा सकता था वही दिया कि अनिल बीच-बीच में लापता होता रहता है। कहीं भटक रहा होगा, आ जाएगा। मुझे यह भी नहीं पता था कि उन दिनों अनिल एक एनजीओ की योजना के तहत उत्तराखण्ड की पिण्डर घाटी के किसी सुदूर इलाके के स्कूल में बच्चों को कुछ समय के लिए पढ़ाने गया है। शम्भू से ही जानकारी मिली थी। अनिल की उसी भटकन और लापताई का परिणाम है पुस्तक कीड़ाजड़ी

उत्तराखण्ड के सुदूर एवं दुर्गम इलाकों की तरह पिण्डर घाटी के ऊपरी गांव भी गरीबी, उपेक्षा, लाचारी और पलायन झेलते आए हैं। पिण्डारी और सुंदरढूंगा ग्लेशियर के मार्ग के पड़ने के कारण 1970-80 के दशक से यहां पथारोहियों-पर्वतारोहियों का आना-जाना बढ़ा तो यहां के निवासियों के जीवन में गाइड और कुली के रूप में तदजनित ट्रिकल डाउन इकॉनॉमीके कुछ छींटे पड़ने शुरू हुए। चीन और तिब्बत होते हुए कीड़ाजड़ी (यार्सा गुन्बु) का अता-पता और ख्याति इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में यहां पहुंचे तो देसी-विदेशी दलालों-तस्करों के जरिए गरीब पहाड़ियों की हथेलियों में नोटों की कुछ गर्मी आनी शुरू हुई। सरकार जो विकासचुनाव-दर-चुनाव नहीं ला पाई वह कीड़ाजड़ी अपने आप ले आई।

साढ़े तीन हजार से पांच हजार फुट के ऊंचे शिखरों पर मिट्टी-पत्थरों के नीचे एक विशेष प्रजाति के कैटरपिलर लार्वा और एक फफूंद के अद्भुत संयोग से कीड़ाजड़ी बनती है। इन शिखरों पर जब सर्दियों में पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है तो कीड़े के खोल के भीतर से फफूंद का डंठल बाहर फूट पड़ता है। यही कीड़ाजड़ी है जिसे तलाशने और साबुत खोद निकालने के लिए इलाके के स्त्री-पुरुष-बच्चे बड़ी कठिन स्थितियों में गलती बर्फ के बीच दिन भर कुहनियों के बल रेंगते हैं। कई गम्भीर रोगों की दवा बताई जाने वाली कीड़ाजड़ी की सर्वाधिक उपयोगिता यौनशक्तिवर्धक के रूप में प्रचारित हुई। अंतराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत दस लाख से बीस लाख रु प्रति किलो और कहीं इससे भी अधिक है। पिण्डर और सुंदरढूंगा ग्लेशियरों के आस-पास भी सीमित मात्रा में कीड़ाजड़ी मिलती है। इसने यहां के लोगों का जीवन अजब-गजब ढंग से विकसित एवं विकृत कर दिया है।

अनिल यादव कीड़ाजड़ी के इतिहास-भूगोल-बाजार के बारे में थोड़ा-सा जाते हैं। बाकी वे पिण्डर घाटी के जीवन में गोते लगाते हैं। स्कूली बच्चे, मास्टर, चाय उबालते दुकानदार, जंगल-खेत आती-जाती औरतें, लड़कियां, नशा करते पुरुष, पर्यटकों-पथारोहियों को ताकते कुली-गाइड, स्थानीय देवी-देवता, मान्यताएं, कुत्ते, भेड़-बकरियां, गाय-भैंस, नदी-पेड़-पहाड़, बर्फीले शिखर, विविध रूपों-रंगों वाला आकाश, रातें, अंधेरे और हवाएं। ये सब यहां पात्रों की तरह हैं और अनिल सबसे मिलते-देखते-सुनते-बतियाते हैं। जो कहा गया उसके आगे-पीछे का अनकहा भी सुन लेते हैं। जो दिखता है, उसके नीचे-ऊपर का अनदिखा भी उनकी नजर में आ जाता है। वे नदी की आवाज में कोई नई आवाज मिली हुई सुन पाते हैं “जैसे पानी को लकड़ी की तरह चीरा जा रहा हो” और चांदनी में इस सृष्टि का हर रंग-शेड, जो जीवन के ही रंग हैं, अलग-अलग छान पाते हैं-

“मैंने आधी नींद में सुना, कुहासे में छनकर आती, ओस से भीगकर भारी हुई एक उदास लम्बी तान जिसमें मिट्टी और घास की पत्तियां चिपकी हुई थीं। मैं खिड़की खोलकर देखने लगा, देर तक धुंध में कुछ नहीं दिखाई दिया। तब मेरे भीतर एक तस्वीर बनने लगी। ज़िंदगी सूखे, कठोर पहाड़ की तरह अंतहीन फैली हुई है जिसकी दरारों में बहुत दूर कहीं-कहीं छोटे गुमनाम फूल पड़े हुए है, चिड़ियों की फड़फड़ाहट है, जलती हुई आग है, किसी जानवर के सांस की आवाज है, बच्चे की हंसी है, एक औरत की सिसकी है। वह तान इन सबको आपस में जोड़ने के लिए पानी की एक लम्बी डोर की तरह उड़ती हुई, इनमें से हर एक को एक फंदे में फंसाकर आगे बढ़ती जा रही है।”

समय के साथ पिण्डर घाटी का जीवन बदलता रहा और नहीं भी- “पिण्डर घाटी में कोई नाई नहीं है, न कोई हेयर कटिंग सैलून। पड़ोस के दो-तीन घरों के बीच एक पुराना डिब्बा घूमता है जिसमें उस्तरा, कैंची, कंघी, फिटकरी के गोले और एक नेलकटर रहते हैं। ग्रामीण एक-दूसरे के बाल काटते हैं। महीन बालों को साफ करने के लिए ब्रश और पाउडर नहीं होता, एक चुटकी आटे और कपड़़े से काम चला लिया जाता है। लौंडे-मौंडे किसी काम से जीप पर लदकर भराड़ी जाते हैं तो जेब में पैसों की उपलब्धता के आधार पर क्रमानुसार मोबाइल में गाना भराना, पसंद के बाल कटाना और बीयर पीना, तीन काम जरूर करते हैं। ....नए लड़के-लड़कियां हर मामले में उन चिकने शहरियों के जैसे होना चाहते हैं जो मोबाइल और टीवी में दिखाई देते हैं क्योंकि वे सभी उनकी जानकारी के मुताबिक श्रेष्ठ, खुश और मां कस्सम-खत्तरनाक हैं।”

जैसा कि होता है, वहां विविध और विचित्र चरित्र हैं जिनसे वह समाज व्याख्यायित होता है। अनिल उनसे आत्मीय हो उठते हैं और उनकी मार्फत दनपुरियों के जीवन के सूत्र पकड़ पाते हैं। इनमें मातृविहीन, अल्हड़ नन्हीं जोतीहै, जिसका कुली और गाइड बाप खूब पीता है (जो चंद वर्ष बाद किताब लिखे जाते वक्त बंगाल के पथारोहियों के साथ सुंदरढूंगा ग्लेशियर के एवलांच में मारा जाता है।) एक बाबा रामदेव है और यह नाम इसलिए पड़ा है कि उसे रामजी ने दर्शन देकर अपना मोबाइल नम्बर दिया था जिसे पुलिस ने जब्त कर लिया है। एक अनुपस्थित रमेश है जो वास्तव में असाधारण रूप से कठिन जीवन जीने वाले यहां के निवासियों की जिजीविषा का रूपक भर है। स्कूल के प्रिंसिपल कांडपाल हैं जो बच्चों को पीटते हुए उनका भविष्य बांचते है- अपने बाप की तरह दारू पीकर शहर की नाली में पड़े मिलेंगे, पत्ते में सब कुछ गंवा देंगे, भीख मांगेंगे, चोरी करेंगे...।” शांत स्वभाव का भोटिया कुत्ता गब्बर है जो “गरारा करते समय गले से उठने वाली आवाज में बातचीत की शुरुआत करता है।” पुराना गाइड और “पर्वतारोहण के इतिहास में न चाहकर भी याद किए जाने वाले कई अभियानों में ज़िंदा बच आया है।” पशु-पक्षी, गाड़-गधेरे, पिण्डर नदी, हवाएं, अंधेरा, बारिश, बर्फ, देवता और उनके जगरिया-डंगरिया, पेड़-जंगल, कीड़ाजड़ी, उसे टोहने-खोदने वाले ग्रामीण, दलाल-तस्कर, पुलिस-पटवारी, सब इस वृतांत में पिण्डर घाटी में मिट्टी-पत्थर की तरह छितराया जीवन उकेरते हैं। अनिल की ही तरह बच्चों को कुछ दिन के लिए पढ़ाने यहां आए दिल्ली-मुम्बई के अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ कुछ स्त्री-पुरुष भी हैं जो पहाड़ और पहाड़ियों को अपनी ही विशेषज्ञ-दृष्टि से देखते एवं परिभाषित करते हैं। कुछ दिन बाद वे लौट जाते हैं लेकिन अनिल रह जाते हैं उस जीवन में गहराई से पैठते हुए। पांच साल में वे इस इलाके में वे बार-बार आते हैं। हर बार जीवन और प्रकृति के रहस्य उनके और भी सामने खुलते हैं- “हर भौगोलिक स्थिति में फलने-फूलने वाली ज़िंदगी का वहां के अपने खतरों के साथ सचेत तादात्म्य होता है। यह जितना गहरा होता है, प्रकृति के नियमों की समझ बनती है, दक्षताएं आती हैं, जीने में सहायक विशिष्ट गुणों वाले लोग बनते हैं। ... सबसे अधिक घाटे में वे हैं जिनका प्रकृति से सबंध टूट चुका है। वे कुछ महसूस नहीं कर सकते।”

इसीलिए कीड़ाजड़ीसिर्फ यात्रा-वृतांत नहीं है। वह एक पहाड़ी इलाके के जीवन और प्रकृति में गहरे झांकने वाली खिड़की भी है। अनिल का अनूठा गद्य अतिरिक्त उपलब्धि की तरह है।

- न जो, 15 फरवरी, 2023

(कीड़ाजड़ी- अनिल यादव, हिंद पॉकेट बुक्स (पेंग्विन), 2022, पृष्ठ- 190, मूल्य रु 250/-)