Saturday, March 16, 2024

बंगलुरु का जैसा जल संकट हर शहर पर मंडरा रहा है

बंगलुरु शहर का पेयजल संकट सुर्खियों में है। दक्षिण भारत के इस बड़े शहर को रोजाना जितने पानी की जरूरत है, उसका आधा भी बड़ी मुश्किल से मिल पा रहा है। बंगलुरु दूर है, यह मानकर निश्चिंत बैठे मत रहिए। जल संकट हम सबकी देहरी पर है। हम ज़ल्दी भूल जाते हैं। क्या आपको 2019 में चेन्नै में हुए भीषण जल संकट की याद है? तब चेन्नै शहर को ऐलान करना पड़ा था कि उसके लिए 'जीरो वाटर डे' की नौबत आ गई है यानी उसके सभी जलाशय सूख चुके हैं। यह समाचार पूरे विश्व में चर्चा व चिंता का विषय बना था। उसके बाद हमने इसे भुला दिया। अब बंगलुरु का संकट सामने है। आने वाले दिनों में हमारे किसी भी शहर में पानी का भीषण संकट खड़ा हो सकता है। हम और हमारी सरकारें और उनकी विकास नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। 

बंगलुरु की एक करोड़ 40 लाख जनता को पानी उपलब्ध कराने वाले करीब तेरह हजार नलकूप सूख गए हैं। स्कूल, अस्पताल, उद्योग और शहर के प्रसिद्ध आई टी केंद्र जल संकट से परेशान हैं। बंगलुरु के अधिकारियों ने पेयजल का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त कदम उठा रखे हैं। निजी टेंकरों से पेयजल आपूर्ति करने वालों पर निगरानी की जा रही है और आवासीय इलाकों में पानी पहुंचाने वाले टेंकरों पर टैक्स लगा दिया गया है। शहर के निजी नलकूप प्रशासन ने अपने नियंत्रण में ले लिए हैं। कर्नाटक दुग्ध संघ के दूध ढोने वाले टैंकरों को पानी लाने और पहुंचाने के काम में लगा दिया गया है। 

अभी गर्मी की शुरुआत हुई ही है। आने वाले दिनों में हालात और खराब होने की आशंका है। कर्नाटक शहर किसी नदी के किनारे नहीं बसा है। इसलिए संकट बहुत बड़ा है, हालांकि जो शहर नदी के किनारे हैं, उन्होंने अपनी नदियों का क्या हाल कर रखा है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। दिल्ली की यमुना और लखनऊ की गोमती को ही देख लीजिए। इन नदियों के आस-पास से गुजरते हुए बदबू का भभका आता है। ये नदियां नहीं, सीवर बन गए हैं। 

बंगलुरु के जल संकट का कारण समझना आसान है। तीस साल पहले तक बंगलुरु का अधिकांश पानी शहर और आसपास बनाई गई झीलों से आता था। ये मानव निर्मित झीलें थीं। जैसे-जैसे शहर का विस्तार होता गया, विशेष रूप से आई टी उद्योग का बड़ा केंद्र बनता गया, बेहिसाब निर्माणों ने झीलें पाट दीं। बिल्डरों ने झीलों के आसपास की हरियाली नष्ट कर दी, उनके जल-ग्रहण क्षेत्र को कंक्रीट से पाट दिया और चुपके से, बल्कि प्रशासनिक मिलीभगत से झीलों पर भी कब्जा कर लिया। मिट्टी कंक्रीट के मलबे से पाट दी। 

मिट्टी कंक्रीट से पटती गई तो बारिश का पानी धरती के भीतर जाना कम होता गया। इस दौरान आने-जाने वाली सरकारों ने इस तरफ आंख मूंदे रखीं। 2017 में शहर के पर्यावरण प्रबंधन और नीति अनुसंधान संस्थान ने एक शोध अध्ययन में पाया था कि बंगलुरु की बची-खुची झीलें बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। यही नहीं, शहरी विकास की तेज गति के मुकाबले पानी का प्रबंध करने की चिंता नहीं की गई। 

चेन्नै के बाद बंगलुरु का यह जल संकट बड़ी गम्भीर चेतावनी दे रहा है। सत्ता पाने के लिए धर्म की राजनीति में आकंठ डूबे राजनैतिक दलों ने इस ओर देखना ही बंद कर दिया है और भक्त इसी से गदगद होकर पानी बर्बाद करने में जुटे हैं। भव्य मंदिर बन रहे हैं, मूर्तियां खड़ी की जा रही हैं, जैसे कि पानी का संरक्षण और प्रबंधन करने के लिए देवता और हमारे पुरखे आएंगे!

नीति आयोग ने 2018 में आगाह किया था कि बंगलुरु समेत देश के 21 शहरों का भूमिगत जल 2030 तक समाप्त हो जाएगा और इसका सीधा असर सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ेगा जिसके छह प्रतिशत तक कम हो जाने की आशंका है। कई विशेषज्ञ भी लगातार चेताते रहे हैं कि देश में भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है जबकि उसके रीचार्ज होने की गति बहुत ही धीमी है। 

वर्षा जल के संरक्षण और उससे भूमिगत जल को रीचार्ज करने की सरकारी योजनाएं केवल कागज पर हैं। सरकारी भवनों में रीचार्ज व्यवस्था की गई, उस पर काफी धन खर्च किया गया लेकिन वह काम करता है या नहीं, यह कोई नहीं देखता। लखनऊ में ही बड़े सरकारी भवनों में वर्षा जल रीचार्ज व्यवस्था काम नहीं करती। 

जिस तेजी और समर्पण से मंदिर बनाए जा रहे हैं, क्या उसी निष्ठा और तेजी से पानी के रखरखाव का काम नहीं किया जा सकता? उससे वोटों की फसल नहीं मिलेगी लेकिन मनुष्य के जीवित रहने के साधन बने रहेंगे। 

- न जो, 17 मार्च, 2024, लखनऊ


Thursday, March 14, 2024

मनसुप-2 : बुड़-बाड़िनौ जाड़ हुन धें ढुङ में!

उतरैणि ले है ग्ये। आज एक हफ्त है ग्यो। घुघुत-खजुर ले सगी ग्यान। पै, यो जाड़ जो थामी जान! इज कूंछि उतरैणि बटि एक खातड़ ढकीण कम है जां, पैं यां तो कतुकै ढकी जावो, थुरि-थुरि थामीणै नि रै। रत्तै-ब्याव तो कम्भ जै छुटणि लागि रै। सुर्ज उत्तरायण है ग्यो, घाम मलि कै ऊंण चैंछी मगर यां शहरन में तो अंधाकुप्प है रौ। बार बाजि रान, को कौल दोफरि है रै कै! भ्यार देखण में यस चितायीणौ जाणि आजि अन्यारै छ! कोहरा कूनान, वी बजी रौ! कोहरा जै कि भय यो! डीजल-पेट्रोल मेसी जाणि कसि बास उणै। छाड़ै धुङ भय यो- गाड़िनौ धुङ, जनरेटर, एसी, ध्वां-ध्वां-घ्वां-घ्वां करणी जाणि क्याप-क्याप मशीननौक धुङ। धरती बटि अगास जाणे धुङक कमव जस ढकी रौ। सुर्ज ले वी में हरै रौ। कां बटि ऊंछ घाम! कै दिनै दोफरि पछारि एक-द्वि बाजी सुर्ज यस देखां हुंछ जाणि दिन में जून निकइ रै। सुर्ज नि भय, सुर्जक ध्वाख भय। क्याल फिटीं जाड़! आज कतुकै दिन है ग्यान, यस्सै है रौ यां लखनौ में। वां पहाड़ में संदर घाम ऐ रौ कै बेर फोन करनी स्वार-बिरादर। रत्तै-ब्यावो जाड़ मन्तर भयै। दिन भरि घाम तापण हुं मिल गयो त आरामलि काटी जां।

पैली बै ह्यूंन में पहाड़ा मैंस घाम तापण हुं माल-भाबर जानेर भाय। क्वे आपण नानतिन या बिरादरना यां बरेलि, लखनौ, दिल्ली तरफ जांछी। पूसाक घाम तापि और माघ नै बेर घर ऊंछी। आब उल्ट है ग्यो। ह्यूंन में न माल-भाभर पन घाम ऊंणौ, न शहरन में। यस कोहरा बजी रौ। तबै आब शहरन बटि घाम तापण हुं मैंस पहाड़ जाण भै ग्यान। यस अन्यो है ग्यो कौ! उल्ट जमान। सब्बै उल्ट हुंण भै ग्यो आब, के-के कईं। पहाड़ में जै कि नि हुंछी कोहरा। हुनेरै भय। जसि चौमास में हौल लागौं उसीकै ह्यूंन में ले हुनेर भय। क्वीर फोकी रौ कूंछियां हमि। ह्यूंन में ओस पड़नेरै भ्ये, तुश्यार पड़नेरै भय, खांकर जामनेरै भाय, क्वीर ले फोकिनेरै भय। पै यस अंधाकुप्प जै कि हुंछ। वी बटि यसि बास जै कि ऊंछि। सुवास ऊनेर भ्ये- सल्ल, बांज, फयांट, भ्यकुल, पय्यां, सब बोट-बाट और पात-पतेलिनै सुवास। आहा, आजि ले उ सुवास नाक में बसीं छ। नाक बटि कल्जून जाणे औरी सुवास! पहाड़ौ हाव-पाणि भय, वीकै क्वीर ले भय। यां शहरन में त कोहरा नाम पर सुदै जहर भय यो। बीमार करि दिनेर भय यो कोहरा। डॉक्टर कूंणान, रत्तै-ब्याव भ्यार झन जावो, मास्क लगावो, बुड़-बाड़ि और नानतिनन कें कोहरा है बचाओ। अरे रनकारो, कसिक बचाओ! यो कोहरा हाव दगै घर भितर ले ऊनेरै भय। शहरक रूंण जहर पींण, बराबरै समझो। छाड़ो हारि यो गट्टि फसक। क्वे भलि-भलि बात करनुं। कस कूणयूं?

उतरैणी जिकर करणैछ्यु। हमर घुघुती त्यार! यां लखनौ में ले हमि त्यार-ब्यार माननेरै भयां। पैली जब हमि बुड़ि-बाड़ि ज्वान छियां, मसान्ति रात बैठि बेर खूब घुघुत-खजुर-तलवार-ढाल-दाड़िमौ फूल-जलेबि, सब बड़ूनेर भयां। गंग पार वाव भयां हमि, यां ले उसी चौल करीं भ्ये। नानतिनन हुं, एक च्यल-एक च्येलि छन हमार, ठुल्लि माव गछूनेर भयां। एक-एक नारींङ ले गछ्याई जानेर भय। संकरातै रत्तैब्याण नानतिनन बिजै बेर नवाय-धोवाय, म्वाट-म्वाट बनैन-सनैन गादि बेर छत में ल्हिजानेर भयां। कावन हुं पुरि, बड़, तिनड़ी साग, घुघुत अलगै धरी रूनेर भाय। पै करि हकाहाक- काले कव्वा, काले! यो घुघुता खाले। यो ल्हिजा बड़, यां दी जा सुनु घड़...” नानतिनन है बाकि हकाहाक हम द्वि जणी करनेर भयां। द्वि-चार पहाड़ि और ले भाय उतिपन। उनार छत बै ले यसी हकाहाक सुणीनेर भ्ये। अड़ोस-पड़ोसाक देसि राठ हंसि बेर कूनेर भाय- हो गया पहाड़ियों का घुघुता त्योहार!मकर संक्राति हुं उं खिचड़ीकूनेर भाय, हमि घुघुती त्यार। हमि उनन कें ले घुघुत खवूनेर भयां। परदेस में आपण त्यार-ब्यार भौतै भल चिताईनेर भाय। फिर उमर हुनै ग्ये। नानतिन ठुल है गाय, स्कूल जाण भै गया त घुघुतै माव गावून खितण में शरमाण लाग। काले-कव्वाधत्यूण हुं ले मनसानेर नि भाय। हमि फिर ले उनन हुं माव गछ्यूनेर भयां। छत में जै बेर रत्तै-रत्तै काले-कव्वाले आफी कूनेर भयां। त्यार कबै नि छाड़ हमिल। वर्षन पछार जब नाति वाव है गयां त फिर रौनक ऐ ग्ये। द्वि नाति छन हमार। द्वि सालौक फरक छ द्वीनै में। उनन दगै हमि बुड़ि-बाड़िनै बहार है ग्ये। जसिक पैली च्याल-च्येलि हुं माव गछूछियां, उसीकै नातिन हुं ले करौ। नारीङ लगै बेर घुघुतै माव गच्छ्याईं। उनन कें समझा कि कस हुंछ घुघुती त्यार। जब जाणे नान-नान छी, कयूं माननेरै भाय। रत्तै ब्याण उठि बेर घुघुतै माव गावून खिति बेर काले-कव्वाकूण में खुशि है जानेर भाय। ठुल नाति त दिन भरि काले-कव्वाकूण में लागि रूंछी। “कव्वा नहीं आ रहा, दद्दू” कै बेर डाड़ ले मार दिनेर भय। पै, काव वीक हाथ बै जै कि ल्हिजांछी घुघुत! मील लुकि बेर देखा वीकें, तब खुशि भौछी। आब नाति ले सयाण है ग्यान। स्कूल पढ़ि-पाढ़ि दूर-दूर न्है ग्यान। ठुल वाव मुम्बई में इंजीनियरिंग कॉलेज में छ। नान वाव बंगूलर में डिजायनै पढ़ाई करणौ। हमि बुड़ि-बाड़ि यकलै रै गयां।

नै-नै, यकलै कूण ठीक न्हांति। च्याल-ब्वारि दगाड़ै छन। द्वियै रत्तै आपणि-आपणि नौकरी में न्है जानान। ब्याव अन्यार हईं पछारि घर ऊनान। दिन भरि हमि द्वि बुड़ि-बाड़ि यकलै भयां, तब कौ। च्यालौ ब्या यें लखनौ में करौ। पै ब्वारि भलि मिली हमन कें। सऊर-संस्कार वाइ छ। कत्थ अस्कोटा उज्याण छ वीक मैत, मगर इज-बाब पैलियै बै यैं परदेस में बसि गाय, हमरी चारि। हमि पहाड़िन हुं परदेसै रै ग्यो। को रै ग्यो आब पहाड़ में। सबना खुट तलि हुं लागि गाय। अलग राज्य बणि बेर ले कि फैद भ्यो? गौं बांज है ग्यान और कुड़ि खन्यार। दिगौ लालि, जै बखत फाम आई त गट्ट चिताईं। औरी नरै लागि जैं। खैर कि कूणैछ्यु मी? होय, ब्वारिक बात लगै राखछि। यें लखनौ में जनमी भ्ये उ। पहाड़ देख्युं नि भय। कभतै घुमण-घामण हुं नैनताल-अलमाड़ै उज्याण ग्ये हुनेल, बस। मगर पहाड़ि रीत-रिवाज जाणनी छ। इज-बाबुल सिखै राख हुनेल। भल करौ। आपण संस्कृति कें भुलण नि चैन।

जनवरी महैण लाग नै, ब्वारि पुछण लागि जै- “अम्मा जी, घुघुते किस दिन बनेंगे? क्या-क्या सामान लाना है?” होय, तसी कै बुलैं ला। पहाड़ि बुलाण नि जाणनि। क्वे बात नै। पहाड़ै में देसि फुकण भै ग्यान मैंस! हमन हुं यतुकै भौत छ कि भली कै, चौड़ कै बुलै दीं, त्यार-ब्यार में आपण सासु दगै रिस्या में लागि रूं। घुघुतिया और हरेला त्यार मुझे अच्छे लगते हैंले कूंछि। घुघुत-खजुर आपण टिफिन बॉक्स में धरि बेर दफ्तर ले ल्हिजैं। पै, घुघुत-खजुर, पुरि-परसाद पकूणै तैं सासुकै मुख चै रूं।

एक दिन बुड़ियालि कै दे- “ब्वारी, तु ले सिख ल्हे। हमार पछारि त्वी करली।

हंसि बेर कूण लागी- “अम्मा जी आपके हाथ में बहुत स्वाद है। मुझसे वैसा नहीं हो पाता।” बुड़ी यतुकै में खुशि है जानेर भ्ये।

ऐला बरस संकरांति रत्तै-रत्तै मी ले खूब खुशि भयुं कूंछा। नै-ध्वै करि बालकनी में गयुं काव कें बुलूणै तें। (आब हम मकान छाड़ि बेर एक फ्लैट में ऐ गयां। येकि काथ कभतै और कूंल।) बुड़ियालि रातै बै अलग धरि राखछी कावौ बान, लगड़-साग-खजुर-घुघुत। कोहरा है रयुं भय भौतै। के भलि कै देखीण नि लाग्युं भय। मील कौ, बालकनी दीवाल में धरि द्युं, क्वे कावै नज़र पड़ली त खै जाल। नन्तरी धरियैं रौल। पोर्युं साल तीन दिन जाणे धरियै रान। सुकि बेर लाकड़ है ग्याछी, फिर जां ग्या हुन्याल। यो परदेस में चाड़-प्वाथ ले हराण हमन हुं। खैर, जस्सै दीवाल में धरण बैठ्युं, जां बै आ हुन्यल एक काव, हाथै बै जै टिपि लिग्यो एक घुघुत। मी जै डरि गयुं, यो कि भ्यो कै। जब देखौ काव कें ठून में घुघुत च्यापि बेर जाण, तब मन में उमाव जस ऐ पड़ौ- आहा, यास भाग हमार! उतरैणी दिन रत्तै ब्याण काव ल्हिनै गो आपण भागक घुघुत, उ ले सिद्द म्यार हाथलि! रसखान ज्युकि फाम ऐ पड़ी- काग के भाग कहा कहिए, हरि हाथ सुं ले गयो माखन-रोटी!मी हरिजै कि भयुं? कागाक नै, ‘हमारे भाग कहा कहिए कूण चैं। म्यर आङ बुरकण लागि गय। यस सौभाग्य त कभै नि मिल! दौड़ बेर भितेर गयुं, बुड़ी कें बता। उ कें भरोसै नि भय। बालकनी में ऐ बेर चाण लागी। सामणि युक्लिप्टसक बोट छ। वी टुक में बैठ बेर काव घुघुत खाण लागीं भय। तब बुड़ी कें भरोस भ्यो। भौत्तै खुशि है पड़ी और हाथ जोड़ि बेर ठाड़ि है ग्ये। मील कौ- “हिट भितेर, जाड़लि अकड़ी जाली।” तब ऐ भितेर कै। पछारि चा मील, लगड़-साग-बड़ सब खायुं भय। बुड़ी खुशि है बेर कूण लागी- “दिगौ, आज हमार पुर्ख त्यार खै ग्यान।”          

नज़र झन लागौ, बुड़ी हमरि आजि ले खूब छाव छ। लागि रूं रत्तै-ब्याव रिस्या, मल्लब किचन में। च्याल-ब्वारीना बिजण जाणे कल्यो, मल्लब नाश्ता तैयारी है जांछि। चहा ले उमाइ दीं। दिन में त ब्वारि भ्ये नि घर में, बुड़िया ले करण भय हमर खाण-पिण। दाव-भात-र्वाट-साग-पात, कम काम जै कि हुं। भान मांजणी धरि राखी एक, फिर ले बुड़िया तें मस्त काम है जां। ब्याव कै ले ब्वारी ऊण जाणे बुड़ी साग-पात पकै दीं। र्वाट मंतर ब्वारि पकूनेरै छ। बुड़िया तें मस्त तवै है जैं। हाथ-खुटन पीड़ है ग्ये कूनी रूं, काम में लागियै रूं। एक दिन मील कै दे- “त्वीलै धरि राखौ आपण ख्वार में ततु ब्वज। मणी कम कर धैं।” कूण लागी- “म्यार ले हाथ-खुट चलणै रान। बैठ जूंलौ पट्ट है जालि।” कर पैं! द्वियै सासु-ब्वारि खुशि छन त मील कि करण है रौ!

यास जाड़ में मगर बुड़ियाक हाथ कल्तरी जानी। टंकी बै नल में यतु टैण पाणि ऊं, जाणि ह्युं गयि रौ हुन्यल। आङु टेड़ी जानी। गैसा चुल में हाथ ततूंछि। देखि बेर बड़ि कांस लागें कूंछा। आजकल यो कोहरालि और ले गजब करि राखौ। मणी घाम ऊनौ, हाथ-खुट तातन। रजै-कमावा भितेर हाथ-खुट गरमै नि हुन। बेई मील ब्वारि थें कै दे- “किचन में भी गीजर लगवा देते तो तुम्हारी अम्माजी को आराम हो जाता। ठंडे पानी से उसके हाथ देखो कैसे हो गए हैं।”

कूणै तें मील भली कै कौछी मगर शैत मणी रीस जै ले झलकि ग्ये हुनेलि। ब्वारि कें पैली के कूणै नि आय। चय्यें रै ग्ये। फिर कूण लागी- “इनसे कहा तो था बाबू जी। भूल गए होंगे। आज फिर याद दिलाती हूं। जाड़ा भी बहुत हो गया इस साल।”

बुड़ी मी हुं रिसाण लागी- “तस किलै कौ तुमिल? गट लाग हुनेल वी कें। आफी रूंछी। द्वि-चार दिनौ जाड़ आजि छ। माघ आठ पैट है ग्ये आज।” मी कटकी रयुं। पै मील गलत जै कि कय। यतु खर्च करणान। किचन में गीजर लगूण में कतु जै लागि जाल? गीजर त मी लगै दिन्यु। मणी पिनसन मिलनी छ मगर यो ले उनन कें गटै लागन। कभतै घरै तें के समान लायुं तो च्यल कै द्युं –हम नहीं कर रहे थे क्या? बता देते।च्यल हमर भलै छ मगर रीस ले नाका टुक में धरीं रूं। खैर, दुसार ब्याव च्यल दफ्तर बै एक घण्ट ज़ल्दी आ, गीजर ल्ही बेर। चहा ले नि पेय, फटाफट जानै रौ कारीगर बुलूणै तें। ब्वारी ऊण जाणे किचन में गीजर फिट है ग्योछी।

“अब ठीक है अम्माजी?’ ब्वारिल खुशि है बेर पुछौ।

बुड़ी खुश त है ग्ये मगर कूण लागी- “खाल्लि यतु खर्च करौ, हफ्तेक में मौसम ठीक है जाल।”

“जरूरी था अम्माजी। हमी से देर हो गई।” कै बेर ब्वारि चहा पीण लागी।

“बाबू जी का जाड़ा लेकिन कैसे मिटे?” च्यलालि मजाक करी भलै, बोलि मारी भलै, के अंताज नि आय। मील के नि कय। वीक मन में क्वे और बात हुनेलि। रात र्वाट खाण है पैली कूण लागौ- “थोड़ी ब्राण्डी पी लीजिए बाबू जी, जाड़ा दूर हो जाएगा। अच्छी नींद आएगी। ... लाऊं?

अच्छा, यो बात छी वीक मन में! मी कें हंसि ऐ पड़ी- “नै यार, यतु उमर है ग्ये। कतुक जाड़ काटि हाल, कास-कास जाड़ देखान, कभै ब्राण्डी-स्राण्डी नि पेय।”

उ आपण कम्र में जानै रौ। मी कें मालुमै छ, भितेर बैठ बेर बणाल आपु तें द्वि पैग। ह्यूंना दिनन त करीब-करीब रोजै पीं। डायनिंग टेबल में वीक मुख बै बास ऐ जें। वीक महतारि ले जाणनि छ। पै हमि के नि कूना। अच्यालन सब्बै पीण भै गईं। टी वी में जैकें देखछा, वीका हाथ गिलास! कि च्याल-च्येलि, कि स्यणि-बैग। ब्वारीक पत्त नै। घर में त शैत नै पीनि, भ्यार पार्टी-शार्टी में जि करन हुनेलि। आफी करनी जि करनी। सिरफ आदत खराब नि हुणि चैनि। लत लागि गई त धो छुटूण।    

आज त सुर्जैकि पट्ट है ग्ये! द्वि बाजणईं। बेई मणी उज्याव जस है ग्योछी ऐल जाणे। मी सोचणैछ्युं आज घाम ऐ जाल कै। कां बै! आब भात खै बेर दिसाणै में पड़ि रूंण होल।

“आज त दस डिग्री है मलि नि जाण रय यो टम्परेचर!” बुड़ी आपण मोबाइल देखि बेर बतूणै- “रत्तै छै डिग्री छि। शीत लहर चलि रै।”

बुड़ी काम निपटै बेर गरम पाणिलि थैल भरि लै ग्ये। किचन में गीजर लागियलि जरा आराम है ग्यो। त गरम थैल रजाइ भितेर खितलि। हाथ-खुट सेकलि। दिसाण मणी गरम है जाल। कभतै म्यार उज्याण ले सरकै देलि- लियो, कमर में लगै ल्हियो।” गरम थैल भलि त लागनी भ्ये, पै मी कें बुड़ियकि फिकर बांकि है रूं। बीमार पड़लि मुश्किल है जालि। “त्वी सेक” कै बेर मी मूख ढकि ल्ह्यूंल।

भ्यार पार्क में नानतिननक धिरधिराट-कलाट लागि रौ। शीत लहर में स्कूल बंद करि राखान। दिनमान भरि धुरमंड मचै राखनान। बुड़-बाड़ि क्वे नि देखीणाय भ्यारपन। सब लुकि रा हुन्याल रजाइ-कमाव में। नानतिनन कें जाड़ै नि लागन बल।

इज एक काथ कूंछी- “नानतिननौ जाड़ ढुङ में। यस भ्यो बल कि भगवान जै बखत मनखीन कें जाड़ बाटणौछी, बुड़-बाड़ि सबन है पैली जै बेर अघिल बैठि गाय। भगवानलि उनन कें द्विय्यै हाथनलि खूब जाड़ दी दे। नानतिन वी बखत खेल कारण में लागी भाय। भगवानलि धात लगै- ओ नानतिनो, आपण बानौ जाड़ ल्हिजाओ। नानतिन कां सुणनेर भाय! खेलै में मातीण भाय। जब भगवानलि धता-धात करी त नानतिननलि वें बै कै दे- भगवान ज्यू, हमर जाड़ पार ढुंग में धरि दियो, हमि ल्ही ल्यूंल। भगवान उनर बानौ जाड़ ढुङ में धरि बेर जानै राय। नानतिन खेल में मातीणै राय। घर जाण बखत आपण जाड़ ल्हिजाण भुलि गाय। आज ले उनर जाड़ ढुङ में धरियै छ बल।”

सही हुनेलि त काथ। बुड़-बाड़िन कें सब चीजैक धो-थाण है रूं। कि जरवत छी सबन है अघिल जै बेर जाड़ मांग़णैकि। आफी रून धें। आब भुगतण भयै!

बुड़ी कें खुर-खुर नीन ऐ ग्ये। गरम पाणी थैललि तात लागि ग्ये हुनेलि। पस्त ले कि है जैं रत्तै बै काम करन-करनै। नीन ऐ गई, आराम होल। एक म्यारै मनसुप छन जो अखंड पछिल लागि रूंनी!

(कुमगढ़, जनवरी-फरवरी 2024 में प्रकाशित)

  - नवीन जोशी, लखनऊ    

                  

 

 

     

       

Saturday, March 09, 2024

मनसुप-1: जेठाक घाम

कास घाम पड़ि रान! जेठाक घाम! सुर्ज आग बरसूणौ। अगाश में कें एक टुकुड़ बादव न्हांति। जेठ लागीं द्वि-चारै दिन है रान। आजि पुर म्हैण बाकि भय। अषाड़ लागीं बेर ले झट्ट बर्ख कां हुंछि! आषाढ़स्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं...लेखि गई कालिदास। अषाड़ लाग नै, अगाश में बादवनक गरजन-तर्जन हुं बल। कां हुंणौ आब? जाणि कालिदासकि सुणनईं बादव! क्वे-क्वे बरस पुर अषाड़ सुक न्है जां। फिर असौज में जब घाम चैं खेत-पाति कें, उ बखत बरसण लागौं। क्वे बरस अषाड़ै बटि सरगा द्वार ढकी जानी। यतु बरसल जाणी धरती बगै ल्हिजाल। जाग-जाग पैर, गाड़-गध्यार बौई जानी, बरबादी-बरबादी। गौं, गाड़-भिड़, सड़क, बोट-डाव सब बगै ल्हिजांछ। क्वे भरोस नि रैगे मौसमक। यसि अणहोति माया हैगे। के कूं!

जेठा म्हैणै बात कूणैछ्यूं। भ्यार यास घाम है रान कि भितेर ले आंखन सुदै त्यूर जस लागणौ। भ्यार चांण में आंख बुजी जाणान। यां लखनौ में कम्र भितेर गोठी रयां। पंख चलणौ फर-फर-फर। हाव ले यसि गरम खितणौ जाणी कम्र भितेर आफर जोति राख हुन्यल। नानतिननलि ए सी लगै राखौ लगूणै तें, पै के करछा। भ्यार है रौ 42 डिग्री और भितेर 20-22 डिग्री में कसिक रौओ! मेरि त तबियतै बिगड़ जैं कूंछा। लागण हुं त ठंडी हाव भलि लागैं, पै आङ फिर क्वे कामक नि रै जान। फिर ए सी बिना नि रईंन और ज़्यादे देर चलै दियो त आङ पीड़, गाव में खाजि, छींका-छींक, औरी बात। त है भल भय पंखैकि गरम हाव खै ल्हियो। के करीं! आम कूंछि- मी जां कां, करम ल्हिजां जां!करमै हुन्याल जो पहाड़ छुटौ और यां लखनौक गरमाक हाथ पड़्यूं। जै बखत लू चनैं, जिबड़ाक ताव ले सुकि जां। आङ में पाणी नि हुन्यल के सोचीं। पाणि पी-पी बेर पेट उसै जांछ, पै तीस जो फिटि ग्ये! नानतिन कूंनी, फ्रिजौ पाणि किलै नि पीना, तसि ले टेड़ कि भ्ये! पै जसि ए सी हाव भ्ये, उस्सै मी तें फ्रिजौ पाणि भय। कभतै एक तुड़ुक पी हालौ, पट्ट गव बुजी जां। यसि गर्मीं में सर्दी-जुकाम! बब्बा हो, धो है जांछि। जाणि एकारि सांस लागि रै। एक सुराई धरि राखी। वीक पाणि मणी कल्जून टैण पाड़ि द्युं।

कम्र भितेर कि करौ दिन भरि! कभतै बैठ गयां, कभतै पड़ि गयां, फिर उठि बेर बैठ गयां। उड़भाड़ जस है रूं। बुड़ी कूंछि कि है रौ तुमन कैं, एक जाग भलि कै नि रै सकना! आब वी थें कि कूण भय? उ त दिन भरि टीवी लै जेड़ी रूं। मणी टीवी बंद भयो, मोबाइल चलि जां। पै, त टी वी लै म्यर बिल्कुल मन नि लागन कूंछा।औरी कलाट लगै राखनान। दिन भर नाच-गीता नाम पर सुदै उपन जा चटकूनी त च्याल-चेलिन कें। छि! मोबाइल में ले वी भय हर बखत। अरे, फोन छ त, यथ-उथ बात करणै तै ठीक भय। पै तै में ले सिनेमा, वीडियो, फोटो, क्याप-क्याप ऊंण लागि ग्यो। जै कें देखछा वी मोबाइल में माती रौ। ओच्छ्याट जस नै लागनै पै! खैर, जमान-जमानै बात भ्ये। पैली मी टी वी में दिन में द्वि बखत समाचार जरूर सुणंछ्यूं, रत्तै-ब्याव। आब उं ले बजी गईं। समाचार जै कि हुनी आब! नाम रै ग्यो समाचार, करण भै ग्यान अनाचार। अखबार में ले के मन लागणी जस नि हुंन। के भल बांचण जस नि हुन। पै, एक फ्यार पेज पल्टण बाट छनै छन। कभतै-कभतै मी यस चितूं कि यो नई जमान हमार जास मैंसनै तैं नि रै गय। पै के करीं, उमर काटण भ्ये, जसी-तसी काटणयां।

बैठी-बैठियैं मनसुप लागनी। पुराण दिन आंखना सामणि रिटण लागनी। सिनेमा जस देखीं। स्कूल नि भय तब हमार गों में। भय त, मांतर भौत टाड़ भय। बाट-घाट में नानतिन अथा उपद्रव करनेर भाय। इजालि कौ, म्यर एक्कै झूस जस च्यल छ त, धो-धो पावणयूं। स्कूल ऊंण-जाण में क्वे धांक-मुक करौल, क्वे ढुंङ-पाथर हाणल, कें भ्यव घुरी रौल। आफी बजी रौं त स्कूल-फिस्कूल। घरै बैठि रयूं। भिटौलि ल्ही बेर माम ज्यू आय एक साल। उनूलि इज थें कय- “त्वील खाल्लि क्यै कुकुर्यै राखौ यो भाण्‍ज कें? म्यार दगाड़ लगै दे। वैं पढ़ै द्यूंल तकें।” तसकै लखनौ पुज्यूं माम ज्यू दगाड़। उनूंलि भली कै घ्वगा-पढ़ा आपण नानतिनन जस। यैं नौकरी लागी। मामज्यूलि यैं ब्या ले करै दे। इज छना हर साल पहाड़ जानेरै भयां। इजा मरीं बाद पट्ट हैगे। पहाड़ छुटि गय। जब तक नौकरी रै, फुर्सत नि भ्ये। फिर नानतिननै जिम्मेदारी है ग्ये। यैं लटपटी गयूं। आब बड़ै पछताव हुंछ। पहाड़ नि छोड़न चैंछी। कुड़ सुदारी हुन, कै कें साज-समाव करणै तें धरीं हुन त आब कभतै वां जाना। द्वि-चार दिनै सई, वां रूंना। ठंडि हाव-पाणि खाना। आब कां बटि? कुड़ खन्यार है गय। ढुंङ-पाथर ले छन भलै नै! 

उसिक यो ले खाल्लि मनक चुलबुलाट भय। को रै ग्यो आब पहाड़ में? जाग-जाग बै खबर मिलैं, गों उजड़ि ग्यान। घर-बार, खेति-पाति, गोर-भैंस सब छोड़-छाड़ि बेर मैंस न्है ग्यान तलिकै। हमार गों में त मैंस कूण हुं ले क्वे नि रै गय बल। परारि साल सुरेश राठ ग्यान द्याप्त पुजण। यां ऐ रौछी बतूणै तें। मील ले गोल्ल ज्यू तें भेट भेजि दे वीक हाथ। लौटि बेर असीख लै रौछी। कूण बैठौ- “काक ज्यू, क्वे नि रै गय गों में। उजाड़ है ग्यो। गट्ट लागौ देखि बेर। ग्वल्ल ज्यू मण जाणै तें ले बाट बड़ि मुश्किललि बणा। सड़क नजीक ऐ ग्ये। बिजुलि खम्भ ले लागि ग्यान। पाणी डिक्की ले बणि ग्ये। पैं कै तें? क्वे मैंस हुन धैं वां!” सुणि बेर मी कें ले गट्ट लागौ कूंछा। के कूणै जै नि आय। बड़ी उदासि लगै ग्यो सुरेश उ दिन। यस हाल है रान गोंक और मी कें यां सुर लागि रईं कि खाल्लि छोड़ि दे गों! क्याप जै कूंछी- मन कूंछ दूद-भात खूंल, करम कूंछ दगाड़ै रूंल! सांच्चि भ्ये, करम दगाड़ै , रूनेर भय। नानछना खूब रामलिल देखि राखी। राम, लक्ष्मण वन-वन डोईणान। सीताक हरण है ग्यो। लक्ष्मण परेशान छन। तब राम उनन कें समझूंनी- “भैया, करम रेख न टारी...।” हमार ले करम हुन्याल। वनवासै समझो।

दोफरी द्वि बाजि रईं। अल्लै भात खा। बुड़ी ए सी चलै बेर टोप दी ल्ही रै। टी वी-मोबाइल देखन-देखनै आंख पटै ग्या हुन्याल। च्याल-ब्वारि दफ्तर भाय। नाति-नातिणि समर कैम्प में जै रान। स्कूलै छुट्टी भया, कबै क्वे कैम्प, कबै क्वे ट्रेनिंग। फुर्सत नि भ्ये यो नानतिनन कें। घर में भया मुणी म्यर ले ब्यांव जस है रूं। दद्दू-दद्दू कै बेर दगाड़ै लागि रूंनी। काथ-क्वीड़ सुणणक बड़ै शौक भय द्वीननै कें। पै फुर्सत नि भ्ये। तबै ऐल निपट्ट शांति है रै घर में। पार सड़क बटि मोटर-गाड़िनाक चिंचाट सुणीणौ कभतै-कभतै। और के नै। सब सुनसानी छ। एक्कै म्यार मन में न्हांति शांति। मना क्वाठ भितेर ढानभुई जस है रौ।

मुणी आंख लागि जान धैं! चित्त कें चैन ऊंन। असल में, यो चित्तै छ चंचल। एक ठौर थिरीणि नि भय। अल्लै नाति-नातिणि में जै रौछी, अल्लै पहाड़ पूँजी ग्यो। नानछनाकि फाम। मामज्यू हर बरस गर्मिनै छुट्टी में मी कें पहाड़ भेजि दिनेर भाय। इजाक ले कड़कड़ाट लागि रूनेर भय- ‘भुली, म्यार भौ कें भेजि दिये। अथा नरै लागि रै। माम ज्यू लखनौ बटि ट्रेन में बिठै दिनेर भाय। मी हल्द्वाणि बटि मोटर में आफी न्है जानेर भयूं। एक बरस जेठा महैण यसि रूड़ पड़ ग्ये, कि बतूं। गोर-बाछनै तें एक हर्यूं तिनण कें नि रै गय। बांज, दुधिल, भ्यकु, सब बोट मुण्या हाल। पाणी खाव-चुप्टौव-नौव सब सुकि गाय। हमार पाणी धार में गर-गर पाणि उनेर भय। बांजाणी पाणि भय, औरी मिठ, टैण। ऊंणी-जाणी बटाव उत्ती लै पटै बिसूनेर भाय। धौ कै बेर पाणि पीनेर भाय। हाथ-खुट ध्वै, मूख छपकूनेर भाय। कूनेर ले भाय- यतु भल, मिठ पाणि और कें नि मिलौ रे, पेट भरि पी जावो। बांजाणी पाणि तस्सै हुनेर भय। संजाती वन भय उ। क्वे वांक बांज काटनेर नि भाय। पौराईं भय जंगव। औरी भल लागनेर भय। जै बखत हाव पड़ी, फर-फर-फर बांजा पात यथ-उथ फरकनेर भाय, पल्टनेर भाय। एक बखत उनरि हर्यू चाल देखियलि, दुसरि बखत सुकिल चाल। हर्यू-सुकिल, हर्यू-सुकिलहमि चाय्यैं रै जानेर भयां। त, उ बरस यसि रूड़ पड़ी कि पाणी धाराक बांज ले काटण भै गाय मैंस। चोरि-चोरि बेर काटणाय। त्वील काटीं-त्वील काटीं कै झगड़ है गय गों में। कज्जी मचि गय। बांज काटियलि धारक पाणि ले सुकि गय। तुड़-तुड़ रै गय। एक गगरि भरीण में एक घण्ट लागि जानेर भय। पाणी तें मारामार- लुछालूछ है ग्ये। जै खाव में हमि भैंसन नवूनेर भयां, वी में क्च्यार ले सुकि गय। तोर गध्यार बटि भैंसनै तें पाणि सारन-सारन कमर टुटि ग्ये। वी बरसैकि जै रूड़, बब्बा हो! फिर एक दिन बादवा फुलुक देखीणान, पार हिमाल बटी ऊण लाग बादव। हाथ जोड़ि बेर अगास चाण लाग सब जाणि- हे भगवान, हे द्याप्तो, दैण है जाया। पै ब्याव जाणे उरी गाय बादव। तौड़ातौड़ बरसण लाग। इज हपूर धुर जाई भ्ये लाकाड़ लूणै तें। वैं बै धत्यूणि लागि- “ओ नंदन, त भान-कुन लगै दे रे बंधारि! च्यला, जतु भान छन, रस्या बटि भद्याव, तौल, बाल्टी, गोठ बटि ढुट, जि हाथ पणौ सब बंधारि लगै दे धें।” यस्सै हकाहाक है गय पुर गों में। आज ले मीकें वी दिनै फाम छ।

भ्यार चड़ैक घाम है रौ। जेठ लागि रौ। किस्सै भय- जेठाक जा घाम! जेठ में घाम न भयो पैं कब होला कै है रौछा? पै, मौसमाक जास लच्छण है रान, वीमें क्वे भरोस नै। जेठ में ले चौमासै जै बर्ख है सकें। ऐली बेर त चैत-वैशाख में खूब बर्ख भ्ये। पहाड़ में त वैशाख में डाव पड़ी, ह्यूं ले पड़ौ बल। यें लखनौ में  वैशाख में जाड़ जस हुंण लागौ। यस आग लागि रौ मौसमा ख्वार, के कईं। चित्त ले यसै है रौ।

आब देखौ धें, यो चड़ैक घामन में ह्यूं पड़ियें फाम ऊणै। हमरि ब्वारि कें बड़ मलाल छ कि वील आजि तक स्नो फॉल नि देख राख कै। एक बरस पहाड़ ग्यान ह्यूंन में, ह्यूं देखुंल कै। नैनताल, राणिखेत, पार कौसाणि जाणे ग्यान। हफ्तेक रान मगर ह्यूं नि पड़। आब तसिकै जै कि पड़ि जां ह्यूं तुमि ऐ रौछा कै बेर! खिसै बेर वापस ऐ गाय। मी थें कुणैछी- पापा, स्नो फॉल कैसे देखने को मिलेगा?” जाणि मी छ्युं मौसम विज्ञानी! कटकी रयूं। फिर कूंण लागी- आपने तो खूब देखा होगा स्नो फॉल।” मी कें हंसि ऐ ग्ये। मील कय –“खूब देखा है बेटा। बचपन में स्नो फॉल क्या, स्नो-अरेस्ट हुए हैं हम!” उ त फटफट नै-ध्वै, बणि-ठणि दफ्तर जानी रै, मी कें छोड़ ग्ये स्नो-अरेस्ट में।

भौत पुराणि फाम जगै ग्ये। पांच-छयेक बरसक हुनेल्युं। पूसौ महैण छी। दिन भरि मशिण बर्ख लागी भ्ये। ब्याव हुंण जाणे काव-पट्ट है ग्ये। सब कूण बैठ- ह्यूं पड़ौल आब। खै-पी, ढकी-ढाकी पड़ि गाय। जाड़ हई भय निमखण। रत्तै बिजां जब तो भ्यार सुकिलपट्ट हईं भ्ये। कतु ह्यूं पड़ौ कै तब जाणी जब खोई द्वार नि उघाड़ि साक।आदु खोई जाणे ह्यूं थुपीण भय। भ्यार जाणै मुश्किल है ग्ये। घर में बैग कुणै तें एक मी भयूं। इजै तबीयत खराब छी। भौत कमजोर है रैछी। बेल्च ल्ही बेर बाट बणूणै सकत नि भ्ये वी कें। उतुक ह्यूं में मेरि क्ये सकत हुंछि! मै-च्याल द्विय्यै गोठी गाय भितेर। हका-हाक धता-धात करी। वाल-पाल मोव वाव आपणै बाट बणूंण में लागी भाय। मी भितेरै हगि भरी गयूं। दोफरि है ग्ये, तब एक काक ज्यूलि ब्यल्चलि ह्यूं पलि खितौ तब हमि भ्यार ऐ सक्यां। भ्यार ले हिटण बाट कां भय। ह्यूं पकै बेर पाणी इंतजाम करौ। गोठा भितेर भैंस औरी अलाण लागी भ्ये। ब्याव है ग्ये, तब वीक मुख लै न्यार खित सकां। उतु ह्यूं पड़ी में कल्ली बड़बाज्यू ले मरि गाय। शिबौ, भौतै भाल मैंस छी। आब उनन कें कसिक उठाओ! घाट ल्हिजाणक बाटै नि भय। सबनलि सल्ला करि कि बेर मुर्द कें गोठ में धरि दे। कि करछी पै? किस्स कूनेर भाय कि पाकी खाण और मरीं मैंस कें झट्ट निपटै दिण चैं! पै, वी बरस कल्ली बड़बाज्यूक मुर्द द्वि दिन गोठ धरियैं रौ। अलच्छिण बात भ्ये मगर क्वे और बाट नि भ्यो। तिसार दिन मुर्द ल्हि जाणैक लैक बाट बणै सकान। यस स्नो फॉलदेखी भय हमर। आजकला टूरिस्ट कन बड़ि है रू स्नो फॉल-स्नो फॉल। पगली रूंनान। कबै ह्यूंक हाथ पड़न तब मालुम हुन स्नो फॉलकस हुं कै। खेल है रान!

बुड़ी बिजि ग्ये। आब चहा बणालि। एक घुटुक मीकें ले द्येलि। नानतिन देखना कून- “दद्दू, इत्ती गर्मी में चाय कैसे पी लेते हो?’ उनन हुं क्याप्प भ्ये! आइसक्रीम, सॉफ्टी, कोल्डड्रिंक, जूस, जाणि क्याप-क्याप खानेर भाय। हमन हुं भय यो चहाक अमल। गरमी छाड़ि, आग बरसि जावो, हमि चहा नि छोड़ि सकना। एक-द्वि गिलास रत्तै, एक ब्याव चैनेरै भय। क्वे ऐ गयो, वीक दगाड़ ले एक-घुटुक खै ल्हिनेर भयां। ब्वारि हमरि सुदै काव पाणि खांछि। दुदौ त्वप नै खितनि। पै, हमि बुड़ि-बाड़ि मस्त कै दूद खितनू, पत्ती ले। गटबट चहा खाईं बिना धौ नि हुनेर भ्ये। चहा जरूरै चैनेर भय, दुदौ गिलास नि भयो क्वे बात नै।

ब्याव हुणि लागि ग्ये। घाम न्है ग्यो। आजि ले गरम हाव यसि चलणै, कि बतूं। रात भरि चललि त लू। रत्तै ले गरमै भ्ये हाव। पै, यस्सै में मुणी भ्यार पन हिट ऊंछु रत्तै-ब्याव। हाथ-खुट हिलूण बाट है जांछ। वाल-पाल घराक बुड़-बाड़ि देखी जानान। भेट-घाट है ग्ये, कुशव-बात, फसक-फराव है ग्ये, मन ब्यांई जां। कां-कां बटी आईं भाय यां मैंस। पहाड़ाक छन, बंगालाक छन, पंजाबाक छन, दक्षिण भारतक ले भया। सब्बै जागाक मैंस एकबटीण भाय शहरन में। द्वि र्वाट सबनै कें चैनान। जां पेट ल्हि गय, जाण भय। सबन कें आपण-आपण मुलुकै नरै लागें। सब्बै आपणि-आपणि जागै फसक करनान। बंगालक बुड़ कलकत्ताकि बात करंछ- आमार सोनार बांग्लाकूनै रूंछ। वी कें सबन है बांकि नरै माछनकि लागें। यां उस माछ मिलनै नै, योई वीक दुख भय। एक सरदार बुड़ छ, औरी मस्त, बकु-भाट। वी कें नरै-हरै के नै लागनि। हौर सुणाओ जी पंडत जी, पहाड़ दी गल्लकूं मीकें देखि बेर। एक केरलक कालो-काल बुड़ छ। लुंगी लगै बेर घुमणै तें दगाड़ लागि जांछ। नानतिन वी कें मल्लू-मल्लूकै बेर गिजूनान। कतुकै मैंस भाय यां। किसम-किसमाक, जाग-जागाक। बदइ भई जानै रूंनान। सामव बाद, ट्रक में खित, सो गाय! फिर दुसार किरायदार ऐ जानान। एक मुशई राठ ले छन। भौतै भाल, सिद-साद मैंस। लखनौक पुराण रूणि छन। हमर भल दगड़ छी। घर ऊंण-जाण, रत्तै-ब्याव दगाड़ै घुमड़। द्वि-चार बरसन बटी भौत कम बुलाण भै ग्यान। ऊंण-जाण ले कम करि हालौ। डरीं-डरीं जास चिताइनी मी कें। क्या हो गया, मौलाना?” पुछण में उनार आंख डबडबै जानीं। एक दिन सज्योल कूण बैठान- “हम यहां से कहां चले जाएं पण्डित जी, यही हमारा मुलुक हुआ!”  कैले के कै दे हुन्यल। कूण-न कूण कूण भै ग्यान अच्छ्यालन। कि है ग्यो हुन्यल आब मैंसन कें? न उनिल कें जाण भय, न हमिल। यांई जमि गयां। कां जानूं? पहाड़ बटि जड़-उपाड़ है गय। याईं बटी जूंल मलिकै। जब तक टैम दी राखौ भगवानलि, दिन काटणै रयां। पै यारो, पहाड़ नि भुलीन। कै खुवा को चड़ सुवा, कै खुवा ऐ पड़ो!

चलो, जेठा महैणा घाम देखि यतु फसक-फराव तुमन थें ले है ग्ये। मुणी टैम काटी गय। हिटनू आब। भल है रया। कभतै फिर भेट होलि त और सुख-दुख लगूंल।

-नवीन जोशी, लखनऊ

 ('दुदबोलि', अक्टूबर-दिसम्बर 2023 में प्रकाशित)