उतरैणि ले है ग्ये। आज एक हफ्त है ग्यो।
घुघुत-खजुर ले सगी ग्यान। पै, यो जाड़ जो थामी जान! इज कूंछि
उतरैणि बटि एक खातड़ ढकीण कम है जां, पैं यां तो कतुकै
ढकी जावो, थुरि-थुरि थामीणै नि रै। रत्तै-ब्याव तो कम्भ जै
छुटणि लागि रै। सुर्ज उत्तरायण है ग्यो, घाम मलि कै ऊंण
चैंछी मगर यां शहरन में तो अंधाकुप्प है रौ। बार बाजि रान, को
कौल दोफरि है रै कै! भ्यार देखण में यस चितायीणौ जाणि आजि अन्यारै छ! कोहरा कूनान,
वी बजी रौ! कोहरा जै कि भय यो! डीजल-पेट्रोल मेसी जाणि कसि बास उणै।
छाड़ै धुङ भय यो- गाड़िनौ धुङ, जनरेटर, एसी,
ध्वां-ध्वां-घ्वां-घ्वां करणी जाणि
क्याप-क्याप मशीननौक धुङ। धरती बटि अगास जाणे धुङक कमव जस ढकी रौ। सुर्ज ले वी में
हरै रौ। कां बटि ऊंछ घाम! कै दिनै दोफरि पछारि एक-द्वि बाजी सुर्ज यस देखां हुंछ
जाणि दिन में जून निकइ रै। सुर्ज नि भय, सुर्जक ध्वाख भय।
क्याल फिटीं जाड़! आज कतुकै दिन है ग्यान, यस्सै है रौ यां
लखनौ में। वां पहाड़ में संदर घाम ऐ रौ कै बेर फोन करनी स्वार-बिरादर। रत्तै-ब्यावो
जाड़ मन्तर भयै। दिन भरि घाम तापण हुं मिल गयो त आरामलि काटी जां।
पैली बै ह्यूंन में पहाड़ा मैंस घाम तापण हुं
माल-भाबर जानेर भाय। क्वे आपण नानतिन या बिरादरना यां बरेलि,
लखनौ, दिल्ली तरफ जांछी। पूसाक घाम तापि और
माघ नै बेर घर ऊंछी। आब उल्ट है ग्यो। ह्यूंन में न माल-भाभर पन घाम ऊंणौ, न शहरन में। यस कोहरा बजी रौ। तबै आब शहरन बटि घाम तापण हुं मैंस पहाड़
जाण भै ग्यान। यस अन्यो है ग्यो कौ! उल्ट जमान। सब्बै उल्ट हुंण भै ग्यो आब,
के-के कईं। पहाड़ में जै कि नि हुंछी कोहरा। हुनेरै भय। जसि चौमास
में हौल लागौं उसीकै ह्यूंन में ले हुनेर भय। क्वीर फोकी रौ कूंछियां हमि। ह्यूंन
में ओस पड़नेरै भ्ये, तुश्यार पड़नेरै भय, खांकर जामनेरै भाय, क्वीर ले फोकिनेरै भय। पै यस
अंधाकुप्प जै कि हुंछ। वी बटि यसि बास जै कि ऊंछि। सुवास ऊनेर भ्ये- सल्ल, बांज, फयांट, भ्यकुल, पय्यां, सब बोट-बाट और पात-पतेलिनै सुवास। आहा,
आजि ले उ सुवास नाक में बसीं छ। नाक बटि कल्जून जाणे औरी सुवास!
पहाड़ौ हाव-पाणि भय, वीकै क्वीर ले भय। यां शहरन में त कोहरा
नाम पर सुदै जहर भय यो। बीमार करि दिनेर भय यो कोहरा। डॉक्टर कूंणान, रत्तै-ब्याव भ्यार झन जावो, मास्क लगावो, बुड़-बाड़ि और नानतिनन कें कोहरा है बचाओ। अरे रनकारो, कसिक बचाओ! यो कोहरा हाव दगै घर भितर ले ऊनेरै भय। शहरक रूंण जहर पींण,
बराबरै समझो। छाड़ो हारि यो गट्टि फसक। क्वे भलि-भलि बात करनुं। कस
कूणयूं?
उतरैणी जिकर करणैछ्यु। हमर घुघुती त्यार! यां
लखनौ में ले हमि त्यार-ब्यार माननेरै भयां। पैली जब हमि बुड़ि-बाड़ि ज्वान छियां,
मसान्ति रात बैठि बेर खूब घुघुत-खजुर-तलवार-ढाल-दाड़िमौ फूल-जलेबि,
सब बड़ूनेर भयां। गंग पार वाव भयां हमि, यां ले
उसी चौल करीं भ्ये। नानतिनन हुं, एक च्यल-एक च्येलि छन हमार,
ठुल्लि माव गछूनेर भयां। एक-एक नारींङ ले गछ्याई जानेर भय। संकरातै
रत्तैब्याण नानतिनन बिजै बेर नवाय-धोवाय, म्वाट-म्वाट
बनैन-सनैन गादि बेर छत में ल्हिजानेर भयां। कावन हुं पुरि, बड़,
तिनड़ी साग, घुघुत अलगै धरी रूनेर भाय। पै करि
हकाहाक- “काले कव्वा, काले! यो घुघुता
खाले। यो ल्हिजा बड़, यां दी जा सुनु घड़...” नानतिनन है बाकि
हकाहाक हम द्वि जणी करनेर भयां। द्वि-चार पहाड़ि और ले भाय उतिपन। उनार छत बै ले
यसी हकाहाक सुणीनेर भ्ये। अड़ोस-पड़ोसाक देसि राठ हंसि बेर कूनेर भाय- ‘हो गया पहाड़ियों का घुघुता त्योहार!’ मकर संक्राति
हुं उं ‘खिचड़ी’ कूनेर भाय, हमि घुघुती त्यार। हमि उनन कें ले घुघुत खवूनेर भयां। परदेस में आपण
त्यार-ब्यार भौतै भल चिताईनेर भाय। फिर उमर हुनै ग्ये। नानतिन ठुल है गाय, स्कूल जाण भै गया त घुघुतै माव गावून खितण में शरमाण लाग। ‘काले-कव्वा’ धत्यूण हुं ले मनसानेर नि भाय। हमि फिर
ले उनन हुं माव गछ्यूनेर भयां। छत में जै बेर रत्तै-रत्तै ‘काले-कव्वा’
ले आफी कूनेर भयां। त्यार कबै नि छाड़ हमिल। वर्षन पछार जब नाति वाव
है गयां त फिर रौनक ऐ ग्ये। द्वि नाति छन हमार। द्वि सालौक फरक छ द्वीनै में। उनन
दगै हमि बुड़ि-बाड़िनै बहार है ग्ये। जसिक पैली च्याल-च्येलि हुं माव गछूछियां,
उसीकै नातिन हुं ले करौ। नारीङ लगै बेर घुघुतै माव गच्छ्याईं। उनन
कें समझा कि कस हुंछ घुघुती त्यार। जब जाणे नान-नान छी, कयूं
माननेरै भाय। रत्तै ब्याण उठि बेर घुघुतै माव गावून खिति बेर ‘काले-कव्वा’ कूण में खुशि है जानेर भाय। ठुल नाति त
दिन भरि ‘काले-कव्वा’ कूण में लागि रूंछी।
“कव्वा नहीं आ रहा, दद्दू” कै बेर डाड़ ले मार दिनेर भय। पै,
काव वीक हाथ बै जै कि ल्हिजांछी घुघुत! मील लुकि बेर देखा वीकें,
तब खुशि भौछी। आब नाति ले सयाण है ग्यान। स्कूल पढ़ि-पाढ़ि दूर-दूर
न्है ग्यान। ठुल वाव मुम्बई में इंजीनियरिंग कॉलेज में छ। नान वाव बंगूलर में
डिजायनै पढ़ाई करणौ। हमि बुड़ि-बाड़ि यकलै रै गयां।
नै-नै, यकलै कूण ठीक
न्हांति। च्याल-ब्वारि दगाड़ै छन। द्वियै रत्तै आपणि-आपणि नौकरी में न्है जानान। ब्याव
अन्यार हईं पछारि घर ऊनान। दिन भरि हमि द्वि बुड़ि-बाड़ि यकलै भयां, तब कौ। च्यालौ ब्या यें लखनौ में करौ। पै ब्वारि भलि मिली हमन कें। सऊर-संस्कार
वाइ छ। कत्थ अस्कोटा उज्याण छ वीक मैत, मगर इज-बाब पैलियै बै
यैं परदेस में बसि गाय, हमरी चारि। हमि पहाड़िन हुं परदेसै रै
ग्यो। को रै ग्यो आब पहाड़ में। सबना खुट तलि हुं लागि गाय। अलग राज्य बणि बेर ले
कि फैद भ्यो? गौं बांज है ग्यान और कुड़ि खन्यार। दिगौ लालि,
जै बखत फाम आई त गट्ट चिताईं। औरी नरै लागि जैं। खैर … कि कूणैछ्यु मी? होय, ब्वारिक
बात लगै राखछि। यें लखनौ में जनमी भ्ये उ। पहाड़ देख्युं नि भय। कभतै घुमण-घामण हुं
नैनताल-अलमाड़ै उज्याण ग्ये हुनेल, बस। मगर पहाड़ि रीत-रिवाज
जाणनी छ। इज-बाबुल सिखै राख हुनेल। भल करौ। आपण संस्कृति कें भुलण नि चैन।
जनवरी महैण लाग नै, ब्वारि पुछण लागि जै- “अम्मा जी, घुघुते किस दिन
बनेंगे? क्या-क्या सामान लाना है?” होय,
तसी कै बुलैं ला। पहाड़ि बुलाण नि जाणनि। क्वे बात नै। पहाड़ै में
देसि फुकण भै ग्यान मैंस! हमन हुं यतुकै भौत छ कि भली कै, चौड़
कै बुलै दीं, त्यार-ब्यार में आपण सासु दगै रिस्या में लागि
रूं। “घुघुतिया और हरेला त्यार मुझे अच्छे लगते हैं” ले कूंछि। घुघुत-खजुर आपण टिफिन बॉक्स में धरि बेर दफ्तर ले ल्हिजैं। पै,
घुघुत-खजुर, पुरि-परसाद पकूणै तैं सासुकै मुख
चै रूं।
एक दिन बुड़ियालि कै दे- “ब्वारी,
तु ले सिख ल्हे। हमार पछारि त्वी करली।’
हंसि बेर कूण लागी- “अम्मा जी आपके हाथ में बहुत
स्वाद है। मुझसे वैसा नहीं हो पाता।” बुड़ी यतुकै में खुशि है जानेर भ्ये।
ऐला बरस संकरांति रत्तै-रत्तै मी ले खूब खुशि
भयुं कूंछा। नै-ध्वै करि बालकनी में गयुं काव कें बुलूणै तें। (आब हम मकान छाड़ि
बेर एक फ्लैट में ऐ गयां। येकि काथ कभतै और कूंल।) बुड़ियालि रातै बै अलग धरि राखछी
कावौ बान, लगड़-साग-खजुर-घुघुत। कोहरा है रयुं
भय भौतै। के भलि कै देखीण नि लाग्युं भय। मील कौ, बालकनी
दीवाल में धरि द्युं, क्वे कावै नज़र पड़ली त खै जाल। नन्तरी
धरियैं रौल। पोर्युं साल तीन दिन जाणे धरियै रान। सुकि बेर लाकड़ है ग्याछी,
फिर जां ग्या हुन्याल। यो परदेस में चाड़-प्वाथ ले हराण हमन हुं। खैर,
जस्सै दीवाल में धरण बैठ्युं, जां बै आ हुन्यल
एक काव, हाथै बै जै टिपि लिग्यो एक घुघुत। मी जै डरि गयुं,
यो कि भ्यो कै। जब देखौ काव कें ठून में घुघुत च्यापि बेर जाण,
तब मन में उमाव जस ऐ पड़ौ- आहा, यास भाग हमार!
उतरैणी दिन रत्तै ब्याण काव ल्हिनै गो आपण भागक घुघुत, उ ले
सिद्द म्यार हाथलि! रसखान ज्युकि फाम ऐ पड़ी- ‘काग के भाग कहा
कहिए, हरि हाथ सुं ले गयो माखन-रोटी!’ मी
‘हरि’ जै कि भयुं? कागाक नै, ‘हमारे भाग कहा कहिए’ कूण चैं। म्यर आङ बुरकण लागि गय। यस सौभाग्य त कभै नि मिल! दौड़ बेर भितेर
गयुं, बुड़ी कें बता। उ कें भरोसै नि भय। बालकनी में ऐ बेर
चाण लागी। सामणि युक्लिप्टसक बोट छ। वी टुक में बैठ बेर काव घुघुत खाण लागीं भय।
तब बुड़ी कें भरोस भ्यो। भौत्तै खुशि है पड़ी और हाथ जोड़ि बेर ठाड़ि है ग्ये। मील कौ-
“हिट भितेर, जाड़लि अकड़ी जाली।” तब ऐ भितेर कै। पछारि चा मील,
लगड़-साग-बड़ सब खायुं भय। बुड़ी खुशि है बेर कूण लागी- “दिगौ, आज हमार पुर्ख त्यार खै ग्यान।”
नज़र झन लागौ, बुड़ी हमरि आजि
ले खूब छाव छ। लागि रूं रत्तै-ब्याव रिस्या, मल्लब किचन में।
च्याल-ब्वारीना बिजण जाणे कल्यो, मल्लब नाश्ता तैयारी है
जांछि। चहा ले उमाइ दीं। दिन में त ब्वारि भ्ये नि घर में, बुड़िया
ले करण भय हमर खाण-पिण। दाव-भात-र्वाट-साग-पात, कम काम जै कि हुं। भान मांजणी धरि राखी एक, फिर ले
बुड़िया तें मस्त काम है जां। ब्याव कै ले ब्वारी ऊण जाणे बुड़ी साग-पात पकै दीं।
र्वाट मंतर ब्वारि पकूनेरै छ। बुड़िया तें मस्त तवै है जैं। हाथ-खुटन पीड़ है ग्ये
कूनी रूं, काम में लागियै रूं। एक दिन मील कै दे- “त्वीलै धरि
राखौ आपण ख्वार में ततु ब्वज। मणी कम कर धैं।” कूण लागी- “म्यार ले हाथ-खुट चलणै
रान। बैठ जूंलौ पट्ट है जालि।” कर पैं! द्वियै सासु-ब्वारि खुशि छन त मील कि करण
है रौ!
यास जाड़ में मगर बुड़ियाक हाथ कल्तरी जानी। टंकी
बै नल में यतु टैण पाणि ऊं, जाणि ह्युं गयि रौ
हुन्यल। आङु टेड़ी जानी। गैसा चुल में हाथ ततूंछि। देखि बेर बड़ि कांस लागें कूंछा। आजकल
यो कोहरालि और ले गजब करि राखौ। मणी घाम ऊनौ, हाथ-खुट तातन। रजै-कमावा
भितेर हाथ-खुट गरमै नि हुन। बेई मील ब्वारि थें कै दे- “किचन में भी गीजर लगवा
देते तो तुम्हारी अम्माजी को आराम हो जाता। ठंडे पानी से उसके हाथ देखो कैसे हो गए
हैं।”
कूणै तें मील भली कै कौछी मगर शैत मणी रीस जै ले
झलकि ग्ये हुनेलि। ब्वारि कें पैली के कूणै नि आय। चय्यें रै ग्ये। फिर कूण लागी-
“इनसे कहा तो था बाबू जी। भूल गए होंगे। आज फिर याद दिलाती हूं। जाड़ा भी बहुत हो
गया इस साल।”
बुड़ी मी हुं रिसाण लागी- “तस किलै कौ तुमिल?
गट लाग हुनेल वी कें। आफी रूंछी। द्वि-चार दिनौ जाड़ आजि छ। माघ आठ
पैट है ग्ये आज।” मी कटकी रयुं। पै मील गलत जै कि कय। यतु खर्च करणान। किचन में
गीजर लगूण में कतु जै लागि जाल? गीजर त मी लगै दिन्यु। मणी
पिनसन मिलनी छ मगर यो ले उनन कें गटै लागन। कभतै घरै तें के समान लायुं तो च्यल कै
द्युं –“हम नहीं कर रहे थे क्या? बता
देते।” च्यल हमर भलै छ मगर रीस ले नाका टुक में धरीं रूं। खैर,
दुसार ब्याव च्यल दफ्तर बै एक घण्ट ज़ल्दी आ, गीजर
ल्ही बेर। चहा ले नि पेय, फटाफट जानै रौ कारीगर बुलूणै तें।
ब्वारी ऊण जाणे किचन में गीजर फिट है ग्योछी।
“अब ठीक है अम्माजी?’
ब्वारिल खुशि है बेर पुछौ।
बुड़ी खुश त है ग्ये मगर कूण लागी- “खाल्लि यतु खर्च
करौ, हफ्तेक में मौसम ठीक है जाल।”
“जरूरी था अम्माजी। हमी से देर हो गई।” कै बेर
ब्वारि चहा पीण लागी।
“बाबू जी का जाड़ा लेकिन कैसे मिटे?”
च्यलालि मजाक करी भलै, बोलि मारी भलै, के अंताज नि आय। मील के नि कय। वीक मन में क्वे और बात हुनेलि। रात र्वाट
खाण है पैली कूण लागौ- “थोड़ी ब्राण्डी पी लीजिए बाबू जी, जाड़ा
दूर हो जाएगा। अच्छी नींद आएगी। ... लाऊं?”
अच्छा, यो बात छी
वीक मन में! मी कें हंसि ऐ पड़ी- “नै यार, यतु उमर है ग्ये।
कतुक जाड़ काटि हाल, कास-कास जाड़ देखान, कभै ब्राण्डी-स्राण्डी नि पेय।”
उ आपण कम्र में जानै रौ। मी कें मालुमै छ,
भितेर बैठ बेर बणाल आपु तें द्वि पैग। ह्यूंना दिनन त करीब-करीब
रोजै पीं। डायनिंग टेबल में वीक मुख बै बास ऐ जें। वीक महतारि ले जाणनि छ। पै हमि
के नि कूना। अच्यालन सब्बै पीण भै गईं। टी वी में जैकें देखछा, वीका हाथ गिलास! कि च्याल-च्येलि, कि स्यणि-बैग। ब्वारीक
पत्त नै। घर में त शैत नै पीनि, भ्यार पार्टी-शार्टी में जि
करन हुनेलि। आफी करनी जि करनी। सिरफ आदत खराब नि हुणि चैनि। लत लागि गई त धो छुटूण।
आज त सुर्जैकि पट्ट है ग्ये! द्वि बाजणईं। बेई
मणी उज्याव जस है ग्योछी ऐल जाणे। मी सोचणैछ्युं आज घाम ऐ जाल कै। कां बै! आब भात
खै बेर दिसाणै में पड़ि रूंण होल।
“आज त दस डिग्री है मलि नि जाण रय यो टम्परेचर!”
बुड़ी आपण मोबाइल देखि बेर बतूणै- “रत्तै छै डिग्री छि। शीत लहर चलि रै।”
बुड़ी काम निपटै बेर गरम पाणिलि थैल भरि लै ग्ये।
किचन में गीजर लागियलि जरा आराम है ग्यो। त गरम थैल रजाइ भितेर खितलि। हाथ-खुट
सेकलि। दिसाण मणी गरम है जाल। कभतै म्यार उज्याण ले सरकै देलि- “लियो, कमर में लगै ल्हियो।” गरम थैल भलि त लागनी भ्ये,
पै मी कें बुड़ियकि फिकर बांकि है रूं। बीमार पड़लि मुश्किल है जालि। “त्वी
सेक” कै बेर मी मूख ढकि ल्ह्यूंल।
भ्यार पार्क में नानतिननक धिरधिराट-कलाट लागि
रौ। शीत लहर में स्कूल बंद करि राखान। दिनमान भरि धुरमंड मचै राखनान। बुड़-बाड़ि क्वे
नि देखीणाय भ्यारपन। सब लुकि रा हुन्याल रजाइ-कमाव में। नानतिनन कें जाड़ै नि लागन
बल।
इज एक काथ कूंछी- “नानतिननौ जाड़ ढुङ में। यस
भ्यो बल कि भगवान जै बखत मनखीन कें जाड़ बाटणौछी, बुड़-बाड़ि
सबन है पैली जै बेर अघिल बैठि गाय। भगवानलि उनन कें द्विय्यै हाथनलि खूब जाड़ दी
दे। नानतिन वी बखत खेल कारण में लागी भाय। भगवानलि धात लगै- ओ नानतिनो, आपण बानौ जाड़ ल्हिजाओ। नानतिन कां सुणनेर भाय! खेलै में मातीण भाय। जब
भगवानलि धता-धात करी त नानतिननलि वें बै कै दे- ‘भगवान ज्यू,
हमर जाड़ पार ढुंग में धरि दियो, हमि ल्ही
ल्यूंल।’ भगवान उनर बानौ जाड़ ढुङ में धरि बेर जानै राय।
नानतिन खेल में मातीणै राय। घर जाण बखत आपण जाड़ ल्हिजाण भुलि गाय। आज ले उनर जाड़ ढुङ
में धरियै छ बल।”
सही हुनेलि त काथ। बुड़-बाड़िन कें सब चीजैक
धो-थाण है रूं। कि जरवत छी सबन है अघिल जै बेर जाड़ मांग़णैकि। आफी रून धें। आब भुगतण
भयै!
बुड़ी कें खुर-खुर नीन ऐ ग्ये। गरम पाणी थैललि तात
लागि ग्ये हुनेलि। पस्त ले कि है जैं रत्तै बै काम करन-करनै। नीन ऐ गई,
आराम होल। एक म्यारै मनसुप छन जो अखंड पछिल लागि रूंनी!
(कुमगढ़, जनवरी-फरवरी 2024 में प्रकाशित)
- नवीन जोशी, लखनऊ