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Monday, November 11, 2019

आज भी खूब लगते हैं मेले लखनऊ के


हिंदू धर्मावलम्बियों के लिए कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा-स्नान का बड़ा माहात्म्य है. लखनऊ वालों के लिए उनकी गोमती या गोमा ही गंगा है. कार्तिक पूर्णिमा पर यहां गोमती-स्नान होता है. स्नान हो और मेला न लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! कतकी मेला अर्थात कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला मेला धार्मिक नहीं, लखनऊ की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचानों में एक है.

गोमती के किनारे बांस मंडी, सूरजकुण्ड, मूंगफली मंडी से सिटी स्टेशन के इर्द-गिर्द सैकड़ों साल से कतकी का मेला लगता आ रहा है. यातायात-समस्या के कारण प्रशासन ने पिछले साल से इसे झूलेलाल घाट की तरफ स्थानांतरित कर दिया है. यह लखनऊ के उन चंद मेलों में है जिसका स्वरूप वर्षों से लोक-शिल्प एवं सांस्कृतिक बना हुआ है. राजधानी के विस्तार के साथ अनेक गांव लखनऊ शहर में समा गए लेकिन आज भी बचे-खुचे गांव महीनों पहले से कतकी मेले के लिए अपने विशिष्ट शिल्प और कला-कौशल को सहेजने में लग जाते हैं.

मेले में मिट्टी के खिलौने, बर्तन, मूर्तियां, कलाकृतियां, कांच का विविध सामान, लकड़ी के खिलौनों से लेकर तरह-तरह की वस्तुएं, लोहे के बर्तन-औजार, घरेलू सामान, मसाले, जाड़ों का बिस्तर, नई-पुरानी काट के कपड़े और भी जाने क्या-क्या उपलब्ध होता है. वह सब भी जो शहरी जीवन से गायब होता जा रहा है, मेले में जनता को अपनी याद दिलाने को आता है. बच्चों के खिलौने और महिलाओं की पसंद की विविध सामग्री के बिना तो खैर मेला पूरा हो ही नहीं सकता. यही बात लखनवी चाट, कुल्फी, मक्खन-मलाई, मिठाइयों और झूलों-चरखियों, बाजों, आदि के लिए कही जाएगी. और हां, तमाशे भी मेले में मिलेंगे- बंदर नचाने वाला हो या रस्सी पर कलाबाजियां करती बालिका, बंदूक से गुब्बारों पर निशाना लगाना हो या बिसातखाने के ठेले पर चक्का फेंकना, मेले में सब मनोरंजन और खर्चने-कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं.     

स्नान तो पूर्णिमा के दिन निपट जाता है लेकिन मेला लम्बा चलता है- लगभग महीने भर. खूब भीड़ जुटती है. मेले का आनंद अधिकतर गरीब-गुरबे और निम्न मध्य वर्ग के लोग लेते हैं लेकिन कतकी मेले में शहरी मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी दुर्लभ होती पुरानी शैली की सामग्री खरीदने पहुंचते हैं. फोकअब नया फैशन-फण्डा जो है.

कतकी मेले की चर्चा के साथ लखनऊ के कई और विशिष्ट मेलों की याद आती है. जेठ के बड़े मंगल तो अब भण्डारे लगाकर ओछे वैभव-प्रदर्शन के निमित्त बन गए हैं लेकिन पहले जब जेठ का पहला मंगल ही बड़ा मंगल माना जाता था,  तब अलीगंज के नए-पुराने हनुमान मंदिरों को जाने वाले रास्ते बड़े मंगल के मेलेके लिए ख्यात थे. अलीगंज की संकरी सड़कों के किनारे मेला सजता था और हनुमान जी के दर्शन करके लौटते लोगों के लिए बड़े आकर्षण का केंद्र होता था. यह मेला आज भी लगता है लेकिन भण्डारों की होड़ में वह खो गया है. अति-साधारण चीजों का यह मेला पूरी ग्रामीण छाप में होता है और संकरी सड़क के दोनों तरफ पर छोटी-छोटी पटरियों पर सजता है.

सावन में लगने वाला बुद्धेश्वर का मेला यूं तो सोमवार को बुद्धेश्वर महादेव की आराधना से जुड़ा है लेकिन वह पूरे सावन मास लगा रहता है. मेले में संगीत भी होता है और खेल-तमाशा भी. कभी कुश्ती समेत खेल-कूद भी. तरह-तरह की खरीदारी तो चलती ही रहती है. कतकी मेले की तरह बुद्धेश्वर मेला भी डेढ-दो किमी के दायरे में करीब एक मास चलता है.

होली के बाद अष्टमी को लगने वाला शीतलाष्टमी या आठों का मेला लखनऊ का बहुत पुराना मेला है जो  मेहंदीगंज के शीतला देवी मंदिर के इर्द-गिर्द लगता है. शीतला देवी को बसौढ़ा’ (बासी पकवान) का भोग लगाया जाता है. कहा जाता है कि इस दिन होली में बने सभी पकवान खत्म करने होते हैं. अनुमान किया जा सकता है कि बढ़ती गर्मी में बासी पकवान बीमारियों का कारण न बनें, इसलिए उन्हें आठ दिन के भीतर निपटा देने के लिए यह परम्परा बनी होगी. देवी को बासी पकवानों का भोग चढ़ाने का और क्या कारण होगा? बहरहाल, यह मेला भी लखनऊ का लोकप्रिय मेला है. यहां बच्चों-महिलाओं के कौतुक की कई सामग्री मिलती हैं. नव-विवाहित दम्पति शीतला माई का आर्शीवाद लेने विशेष रूप से मंदिर में आते हैं और मेले का आनन्द लेते हैं.

बक्शी का तालाब के ग्राम कटवारा के चंद्रिका माई मंदिर में अब तो साल भर मेले का दृश्य रहता है लेकिन अमावस्या और नवरात्रों में यहां बहुत बड़ा मेला बहुत पुराने जमाने से जुटता है. महिलाओं की टिकुली-बंदी-चूड़ी- माला, बच्चों के खिलौनों, कपड़ों, लोहे के बर्तन, किसानी के औजार और जड़ी-बूटियों तक हर चीज मेले में खूब खरीदी-बेची जाती है. टोने-टोटके भी खूब उतारे जाते हैं. मेले का गंवई स्वरूप खूब खिलता है.  

ईद-उल-फित्र के अगले दिन लगने वाला टर का मेलाअपने नाम में ही नहीं अपनी प्रकृति में भी अनूठा है. मेले का आनंद सभी उठाते हैं लेकिन मूलत: यह बच्चों का मेला है जो ईदी खर्च करने की उनकी उन्मुक्तता से जुड़ा है. लखनऊ का चिड़ियाघर ईद के दूसरे दिन सुबह से देर शाम तक बच्चों की मस्ती और हुड़दंग से गुलजार रहता है. चिड़ियाघर को जाने वाली सड़कों पर मेले के विविध रंग बिखरे होते हैं. सबसे ज़्यादा आनंद और उत्साह में बच्चे होते है जो पहले दिन परिवार के बड़ों से मिली ईदीकी रकम मनमाने ढंग से खर्च करने को लालायित रहते हैं. इसमें बड़ों की कोई टोका-टाकी नहीं होती. पता नहीं इसे टर’ (या टर्र ?) का मेला क्यों कहा जाता है. क्या बच्चों की निरंतर टर्र-टर्रके कारण? यह भी पता नहीं कि यह लखनऊ में चिड़ियाघर में ही क्यों लगता है. वहां तो कोई बाजार नहीं? चिड़ियाघर बच्चों के लिए घूमने, मस्ती करने और पशु-पक्षियों के मनोरंजक संसार में विचरने की जगह है, सम्भवत: इसलिए.  टर का मेलाइलाहाबाद और गोरखपुर समेत कुछ और शहरों में भी लगता है.

नागपंचमी के दिन हुसेनगंज में लगने वाला गुड़िया का मेलाकभी खूब रौनक बटोरता था. लड़कों के गुड़िया पीटने का खूब तमाशा हुआ करता था. वक्त के साथ गुड़िया पीटना कम होता गया और अन्य कारणों से भी मेला बेरौनक हो गया. गुड़िया का मेला लगता आज भी है लेकिन अब नाम को ही रह गया है.

हैदर कैनाल के किनारे होने वाली रामलीला के दिनों में कैण्ट रोड पर हुसेन गंज चौराहे से सदर बाजार तक दशहरे का बहुत भव्य मेला लगा करता था जो दीवाली तक चलता था. यहां खील-बताशे, खिलौने से लेकर चीनी मिट्टी, कांच और मिट्टी के बर्तन, दीवाली का सामान और हर-तरह की सामग्री बिका करती थी. लखनवी शैली के मिट्टी के खिलौने यहां बहुत बड़ी संख्या में बिकने आते थे. सस्ता सामान खरीदने के लिए लोग साल भर इस मेले का इंतजार करते थे. अब यह मेला बिल्कुल सिकुड़ गया है. इसी तरह रक्षा बंधन की शाम सदर बाज़ार में लगने वाला मेला भी उजड़ चुका है.

1975-76 में शुरू हुआ लखनऊ महोत्सवअब यहां के बड़े और आधुनिक मेलों में गिना जाने लगा है. जहां दूसरे स्वत:-स्फूर्त मेलों का स्वरूप गंवई होता है, वहीं सरकारी संरक्षण में भारी-भरकम बजट से आयोजित होने वाला लखनऊ महोत्सव भव्य शहराती मेला बन गया है, जहां आम आदमी कम, राजधानी का मध्य एवं उच्च वर्ग तथा सरकारी अमला अवधी फूड’, ‘हैंडीक्राफ्ट्स और  फोक आर्टके साथ  मुम्बइया चकाचौंध में डूबता-उतराता है.

लखनऊ के उत्तराखण्डी समाज का उत्तरायणी मेलापिछले एक दशक से लखनऊ के चर्चित मेलों में गिना जाने लगा है. मकर संक्रांति पर गोमती किनारे गोविन्द बल्लभ पंत सांस्कृतिक उपवनमें दस दिन तक चलने वाला उत्तरायणी मेलाउत्तराखण्ड की लोक-संस्कृति और कलाओं के प्रदर्शन से लेकर वहां के विशिष्ट खान-पान, और हस्त-शिल्प, आदि की उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध हो चुका है. इसी तर्ज़ पर उत्तराखण्ड महोत्सवभी नवम्बर मास में आयोजित होता है.

लखनऊ के प्राचीन मेले यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और गंगा-जमुनी तहज़ीब के परिचायक रहे हैं. प्राचीन मेलों को नवाबी दौर में सांस्कृतिक प्रश्रय भी मिला. मूलत: धार्मिक स्वरूप वाले मेले भी कालांतर में सामाजिक-सांस्कृतिक और मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक बन गए. समाज की आर्थिक गतिविधि के केंद्र भी वे बनते गए. हर वर्ग की उनमें सक्रिय भागीदारी हो गई. इस तरह वर्ग-विशेष के मेले पूरे समाज के मेले बन गए.
आज के दौर की पीढ़ी अपने प्राचीन मेलों से कट गई है. हमारे अभिभावक हमें मेलों में घुमाना अपना आवश्यक कर्तव्य समझते थे. आज के माता-पिताओं की नई जीवन-शैली पुराने मेलों को देहाती मेलेमानने लगी. नई पीढ़ी को वे वह जीवन-स्पंदन नहीं सौंप पाए जो इन मेलों में धड़कता है. लखनऊ महोत्सव में फनढूंढने वाली पीढ़ी जीवन के इस आनन्द-मेलों से और अपनी जमीन से भी कटती गई है.  

आम जनता के मेले आज भी लगते हैं. अपनी जमीन से जुड़े बहुत सारे लोग वहां जुटते हैं और जीवन का आनंद-राग, कला-कौशल और माटी की महक पाकर खिलखिलाते हैं. ये मेले मीडिया की सुर्खियां नहीं बनते किंतु आम जन की जिह्वा पार उनके चटखारे-चरचे रहते हैं.     
     
(नभाटा, लखनऊ, 10 नवम्बर, 2019)