एक सुबह अचानक ध्यान गया कि कब से जूता नहीं पहना है। कोरोना-बंदी घोषित होने के बाद से उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। उसका हाल देखने गया तो दया आई। रैक में पड़ा-पड़ा वह धूल खा रहा था। उसके अंदर पड़े मुड़े-तुड़े जुराबों के ऊपर मकड़ियों ने जाला बना लिया था। झाड़ना जरूरी नहीं था लेकिन साफ करके डिब्बे में सम्भाल दिए।
जूते पर पसीजे दिल ने कपड़ों की अल्मारी की याद दिला दी।
धुले-इस्तरी किए कई जोड़े कपड़े हैंगर में लटक रहे हैं। दो-चार घरेलू कपड़ों के अलावा
साढ़े पांच महीने से बाहरी कपड़े पहने ही नहीं। घर में पैण्ट-कमीज पहनकर बैठने की
आदत कभी नहीं रही। पास की बाजार से कभी-कभार अत्यावश्यक चीजों की खरीद घरेलू कपड़ों
में हो जाती है। कोरोना ने बाहर निकलना तनावपूर्ण बना दिया है। डरे-डरे गए और
भागे-भागे लौटे। ऐसे में कौन अल्मारी से कपड़े निकाले! कुछ ‘वेबिनार’ और ‘लाइव’ में हिस्सेदारी
करनी पड़ी तो कुर्ते से ही काम चल गया या पाजामे के ऊपर कमीज डाल ली, बस!
हाथों को अगर छोड़ दें तो इन दिनों घर में सबसे अधिक धुलने
वाली वस्तु मास्क है। बाहरी कपड़े न धुलते हैं, न इस्तरी होने जाते हैं।
स्थितियां शीघ्र बदलने वाली भी नहीं कि किसी पार्टी, बारात
या सभा-गोष्ठी में सशरीर जाना होगा। किसी करीबी के शोक में शामिल होना भी सम्भव
नहीं हो पा रहा।
कपड़ों का विशेष शौक नहीं, तो भी अल्मारी भरी पड़ी
है। आखिर किसलिए? क्यों खरीदे इतने कपड़े? कई पुरुषों-महिलाओं को जानता हूं जिन्हें नए-नए काट के अच्छे से अच्छे
कपड़े पहनने का शौक है। हर महीने उनकी वार्डरोब में नई आवक होती थी। वे इन दिनों
क्या कर रहे होंगे? सजने-संवरने का चाव घर में या ‘ऑनलाइन’ कितना पूरा होता होगा? साक्षात प्रशंशा का स्थान फेसबुकी ‘लाइक’ नहीं ले सकते। कामकाजी युवा भी ‘वर्क फ्रॉम होम’
में कैद हैं। आखिर कितने कपड़े पहनेंगे?
एक इण्टरव्यू देख रहा था। बताया गया कि बड़े नाम वाली एक कम्पनी
साल भर में पांच खरब (खरब जानते हैं?) टी-शर्ट बनाती है। जाने कितनी कम्पनियां
टी-शर्ट बना रही हैं। और, दूसरे तमाम कपड़े। भारत जैसे गरीब
मुल्क के मॉल कपड़ों से भरे पड़े हैं। ये सारे कपड़े कुछ ही अल्मारियों में कैद हैं।
करोड़ों के बदन पर मुश्किल से एक कपड़ा है। वह भी आसानी से मिलता नहीं। कोरोना बंदी
में कामगारों की पैदल घर-वापसी ने नंगे पैरों में पड़े छालों का दर्द कुछ हद तक
दिखाया था। बहुत सारे लोगों को ‘फुटवियर’ (उसे जूते-चप्पल कहना ठीक नहीं) का शौक है। भारत में कितने ‘फुटवियर’ रोज बनते-बिकते होंगे?
अगर सिर्फ आवश्यकता भर के कपड़े खरीदे जाएं तो वस्त्रों का
बाजार बैठ जाएगा। मनुष्यों को उपभोक्ताओं में बदलने और उनसे अधिक से अधिक खरीद
करवाने पर टिकी इस अर्थव्यवस्था की नीव बड़ी खोखली है। इसीलिए कोरोना बंदी में वह
ढेर है। आर्थिकी यदि जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पर टिकी होती तो दृश्य
दूसरा होता। अस्पताल और आकस्मिक चिकित्सा के लाले न पड़े होते। सालाना इम्तहानों के
नम्बरों पर टिकी शिक्षा व्यवस्था इसीलिए परीक्षाएं कराने पर उतारू है। शिक्षा का
सम्बंध अगर ज्ञान और समझदारी से होता तो परीक्षाएं नहीं हो पाने का क्या मलाल होता?
कोरोना काल ने हमारी पूरी व्यवस्था को निर्वस्त्र कर दिया
है, अन्यथा बहुत सारे मुद्दों पर निगाह नहीं या बहुत काम जाती है। कितनी बड़ी संख्या
में कामगार अपने गांवों से दूर-दूर दिहाड़ी पर जीवित रहते हैं, यह इससे पहले कहां किसी को ध्यान था। वे अर्थव्यवस्था के केंद्र में ही नहीं
हैं। उनका मरना-जीना सरकारी आंकड़ों में शामिल नहीं होता।
हमारे जूते जीडीपी में गिने जाते हैं। आप भी उनका ख्याल कीजिए।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 19 सितम्बर, 2020)