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Friday, July 24, 2020

महिला अपराध और पुलिस का संवेदनहीन चेहरा


आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जो पुलिस तंत्र को कटघरे में खड़ा करती हैं, दसियों सवाल उठाती हैं और पुलिस सुधारों की सिफारिशों के गड़े मुर्दे उखाड़ा करती हैं. फिर चंद रोज में मामला शांत हो जाता है या दूसरी घटना उसे छेक लेती है. किसी नई वारदात तक हम भूले रहते हैं.

विकास दुबे के प्रसंग ने हमारी पुलिस व्यवस्था को इस तरह निर्वस्त्र किया है कि शरम-लाज ढकने में अभी कुछ दिन लग जाएंगे. इस बीच गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या हो गई. जिन हालात में यह हत्या हुई है, वह अपराधियों से अधिक पुलिस को गुनहगार ठहराती है. शासन ने कुछ पुलिस कर्मियों को लाइन हाजिर करने और दिवंगत पत्रकार के परिवार को अनुग्रह राशि देने में देर नहीं लगाई. एक जांच भी बैठा दी गई है जो देखेगी कि पुलिस ने रिपोर्ट पर तुरंता कार्रवाई क्यों नहीं की.

विकास दुबे बड़ा अपराधी था. उसके सिर पर कई नेताओं का हाथ था. इसी कारण पुलिस वालों का भी उससे याराना था. सुप्रीम कोर्ट को बड़ा आश्चर्य है कि 64 संगीन आपराधिक मामले दर्ज होने के बावजूद वह आजाद कैसे घूम रहा था. किस-किस बात आश्चर्य किया जाए! सारे मामले तो सुप्रीम कोर्ट के सामने जाते नहीं. गाजियाबाद के हमलावर विकास दुबे से बहुत छोटे थे लेकिन आपराधिक मामले उनके विरुद्ध भी हैं ही.

गुंडे बिक्रम की तलाश में घूम रहे थे. वह पुलिस से गुहार लगा रहा था. रिपोर्ट लिखवा चुका था. विक्रम के परिवार को जीवन भर यह मलाल रह जाएगा कि पुलिस ने गुण्डों को पकड़ा होता तो वह जीवित होता. जिन मासूम बच्चियों ने अपने सामने पिता की हत्या होते देखी, उनके मानसिक आघात और दु:स्वप्नों की कल्पना भी की जा सकती है क्या?  

यह छोटा-मोटा झगड़ा न था. बिक्रम की भांजी को अपराधी लगातार परेशान कर रहे थे. महिलाओं की सुरक्षा पर भी पुलिस कितनी लापरवाह है, यह पहले भी कई मामलों में साबित हो चुका है. राज्य सरकार से लेकर पुलिस मुखिया तक महिलाओं से छेड़छाड़ पर 'जीरो टॉलरेंस' की बात करते हैं, लेकिन थानों में कोई सजगता या चिंता इस बारे में नहीं है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो हाल के वर्षों में अपराध के आंकड़े जारी करने में हीला-ह्वाली कर रहा है. दो साल के बाद 2019 में 2017 के अपराध आंकड़े जारी किए गए. इसके अनुसार महिला अपराधों के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर था. उसके बाद के आंकड़े जारी नहीं हुए हैं. पुलिस का रवैया कतई नहीं सुधरा है, यह साबित करने के लिए आंकड़े चाहिए क्या?

अनुग्रह राशि देना और जांच बैठा देना आसान काम है. विरोधी दल भी आजकल पीड़ित परिवार को अनुग्रह राशि देने की मांग करके बैठ जाते हैं. इससे तात्कालिक आक्रोश कम हो जाता है. यह कौन देखेगा कि पुलिस महिला अपराधों पर भी इतनी लापरवाह क्यों है. पुलिस तंत्र में अधिकारियों से लेकर सिपाही तक को महिला मुद्दो के प्रति संवेदनशील बनाने की बातें कई बार हुई हैं लेकिन उस पर या तो अमल नहीं होता या बजट खर्च करने के लिए हवाई सेमिनार और कार्यशाला करा दी जाती हैं.

जब कोई युवती छेड़खानी की शिकायत लेकर थाने जाती है या पुलिस को ऐसी रिपोर्ट मिलती है तो उसे समझना होगा कि वह किस मानसिक यंत्रणा से गुजर रही है. उसका समूचा व्यक्तित्व हिल जाता है. पुलिस की तरफ से उसे यह आश्वासन मिलना ही चाहिए कि उसके साथ दोबारा वह सब नहीं होने दिया जाएगा. यहां तो पुलिस सिपाही ही नहीं, थानेदार और सीओ तक ऐसी शिकायतों पर हंस देते हैं. यही हंसी अपराध कराती और अपराधी का मनोबल बढ़ाती है.
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 जुलाई, 2020)