Showing posts with label भड़काऊ भाषण. Show all posts
Showing posts with label भड़काऊ भाषण. Show all posts

Friday, February 04, 2022

राजनैतिक जिह्वा पर चढ़ी कैसी शब्दावली!

भाषा पर गौर कीजिए। शब्द चयन देखिए। हाथों के इशारे, चेहरे की भंगिमा और आंखों का घूरना देखिए। तेवर देखिए और गर्जना सुनिए। लग रहा है कि चुनाव लड़ा जा रहा है? मतदाताओं को लुभाने, समझाने की कोशिश हो रही है या दुश्मनी निभाई जा रही है? विरोधी की कमियां और अपनी अच्छाइयां बताई जा रही हैं कि मार-काट का ऐलान हो रहा है? चुनाव मैदान में प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी हैं या पुरानी रंजिशों के खूंख्वार वारिस?

साल-दर-साल राजनैतिक शब्दावली ऐसा रूप लेती जा रही है कि लगता है, अपने यहां लोकतंत्र नहीं गुण्डागर्दी है। चुनाव क्या लड़ा जाता है, महाभारत का युद्ध हो जाता है जहां मर्यादाओं को तार-तार हुए भी युग बीत गए। अब तो लगता है बस, प्रतिदवंद्वी को ज़िंदा ही खा जाने वाले हैं। देख लेंगे’, ‘औकात बता देंगे’, ‘गर्मी निकाल देंगे’, ‘बदला लेंगे’, और भी जाने क्या-क्या! सुनते ही कान में गरम सीसा-सा पड़ने लगता है। बोलने वाले जन-प्रतिनिधि हैं या होने वाले हैं, वे देश-प्रदेश की नीतियां और समाज का भविष्य निर्धारित करने वाले हैं। छोटे-बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे या उसके दावेदार नेताओं की भाषा हमारे संविधान, लोकतंत्र और राजनैतिक व्यवस्था के संदर्भ में कैसी ठहरती है?

चुनाव सभाओं के मंच या डिजिटल रैलियों में ही नहीं, प्रसार माध्यमों के लेखों, भाषणों, बातचीत और प्रसारणों की भाषा भी मर्यादा, नैतिकता और मानकों का खुलकर उल्लंघन करने लगी है। चुनाव प्रचार में निष्पक्षता और सभी दलों को बराबर अवसर देने के लिए आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सभी राजनैतिक दलों को जनता के सामने अपनी बात रखने के लिए एक निश्चित समय दिया जाता है। राजनैतिक दलों से लिखित भाषण मांगे जाते हैं जिन्हें एक तटस्थ समिति चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार जांचती और स्वीकृत करती है। पिछले कई चुनावों से इस समिति का सदस्य बनने का अवसर मिलता रहा है।

कुछ वर्ष पहले तक राजनितिक दलों की प्रचार सामग्री में शालीनता होती थी। मंच पर नेता चाहे जितने अनर्गल और अपुष्ट आरोप लगाएं, लिखित भाषणों में संयम दिखाई देता था। अब ऐसा नहीं है। प्रसारण के लिए प्रस्तुत इन भाषणों में में भी आपत्तिजनक शब्दावली खुलकर प्रयोग की जाने लगी है। एक-दो चुनाव पहले तक ऐसे शब्दों या वाक्यांशों को काटे जाने पर वे मान भी जाते थे लेकिन अब उसे सही ठहराने के लिए तर्क-कुतर्क करने लगे हैं। इसे भी कटु और व्यकतिगत होती राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता का प्रमाण माना जा सकता है।

निर्वाचन आयोग ने भी शायद इस बदलते महौल को स्वीकार कर लिया है। सार्वजनिक मंचों पर राजनैतिक दलों के बड़े नेता भी जिस भाषा का प्रयोग करने लगे हैं, उस पर उसका ध्यान नहीं के बराबर है। पिछले लोक सभा चुनाव में भी आपत्तिजनक शब्दावली खूब सुनने को मिली थी और आयोग से शिकायतें भी की गई थीं। कुछ शिकायतों पर उसने ध्यान ही नहीं दिया था और कुछ को अस्वीकार कर दिया था। जिन कुछ शिकायतों पर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई, उसमें ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हुई जिससे कि नेताओं की जुबान पर लगाम लग सके।  

चुनावी जय-पराजय चूंकि धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण पर अधिकाधिक निर्भर होती गई है, इसलिए इसी आधार पर वैमनस्य फैलाने वाली भाषा का अधिकाधिक उपयोग होने लगा है। रैलियों-सभाओं में जातीय समूहों और धार्मिक गुटों को ललकारते हुए नेता सुने जा सकते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल ऑडियो-वीडियो तो अत्यंत भड़काऊ हैं। इन दिनों वैसे भी चुनाव प्रचार डिजिटल हो गया है, ये आपत्तिजनक ऑडियो-वीडियो संदेश निर्बाध फॉर्वर्ड किए जा रहे हैं। इन पर प्रतिद्वंद्वी समूहों में गाली-गलौज भी होती रहती है।

शायद अब यही न्यू-नॉर्मल है!

(चुनावी तमाशा, नभाटा, 5 फरवरी, 2022)