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Tuesday, September 19, 2023

मानव हस्तक्षेप के कारण तेजी से लुप्त हो रहा जीवन

पृथ्वी पर जीव प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया अत्यंत तीव्र हो गई है। पिछले पांच सौ वर्षों में रीढ़दार प्राणियों की 73 प्रजातियाँ लुप्त हुई हैं। यह जानकारी विज्ञानियों के एक गहन अध्ययन का परिणाम है। बीते सोमवार को यह रिपोर्ट जारी की गई है। इसमें बताया गया है कि 1500 ई. सन् के बाद जीवों के लुप्त होने की प्रक्रिया बहुत तेज हुई है। इसका परिणाम यह है कि पृथ्वी पर जीवन के विकास की प्रक्रिया विकृत हो रही है। मानव सभ्यता को सम्भव बनाने वाला जीव-जगत नष्ट हो रहा है।

रिपोर्ट के अनुसार सन् 1500 के बाद पक्षियों की 217, उभयचरों की 182, स्तनधारी जीवों की 115 और सरी-सृप वर्ग की 90 प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की चपेट में आ गई हैं। मेडागास्कर के एलिफेण्ट बर्ड’ (विशालकाय पक्षी जो उड़ नहीं पाते), तस्मानिया के शेर, न्यूजीलैण्ड के मोआ, यांग्त्सी (चीन समेत यूरेशिया की बड़ी नदी) के डॉल्फिन, उत्तरी अमेरिका के पैसेंजरकबूतर और रॉड्रिग्ज द्वीप (हिंद महासागर) के विशाल कछुए लुप्त प्रजातियों में शामिल हैं।

भारत एवं नेपाल के घड़ियाल, एशिया का कोबरा (नाग) और अफ्रीकी हाथी अब लुप्तप्राय प्रजाति हैं| पृथ्वी पर तीव्र गति से जारी प्रजाति विलुप्तीकरण में इनके शीघ्र लुप्त हो जाने का खतरा बड़ा है। विज्ञानी इसे जैविक सफायाकहते हैं। नेशनल ऑटोनॉमस युनिवर्सिटी ऑफ मैक्सिको के शोधकर्ता विज्ञानी जेरार्डो सेबालस कहते हैं कि इसका अर्थ यह है कि हम पृथ्वी पर जीवन के विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया को बड़ी क्षति पहुंचा रहे हैं। यही नहीं, इस शताब्दी में हम पृथ्वी के जीव-जगत के साथ जो कर रहे हैं, वह मानवता के लिए आफतें लाएगा। जेरार्डो इस अध्ययन दल का हिस्सा हैं। जेरार्डो और उनके सहयोगी, स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के पॉल एर्लिच की गणना के अनुसार मानव की उत्पत्ति के बाद से रीढ़दार प्रजातियों के लुप्त होने की वर्तमान दर मानव की उत्पत्ति से पहले वाली इसी दर से 35 प्रतिशत अधिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि मानव की गतिविधियों के कारण जीवों के लुप्त होने की दर तेजी से बढ़ी है।

इन विज्ञानियों के अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति नहीं हुई होती तो पिछले पाँच सौ वर्षों में जो प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं, उन्हें प्राकृतिक रूप से लुप्त होने में अठारह हजार वर्ष लगे होते। इन विज्ञानियों का अध्ययन चेतावनी देता है कि किसी एक जीव के लुप्त होने की तुलना में उस जीव की समूची प्रजाति के लुप्त होने का पर्यावरण बहुत खतरनाक असर पड़ता है। जब कोई एक जीव लुप्त होता है तो उसके कुल की दूसरे जीव उसकी कुछ कमी पूरी करने की कोशिश करते हैं लेकिन जब एक समूची प्रजाति लुप्त हो जाती है तो जैव विविधता में जो शून्य पैदा हो जाता है उसे पूरा करने में सृष्टि को लाखों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं।

विज्ञानियों का यह अध्ययन बताता है कि जैव विविधता में उत्पन्न यह शून्य मनुष्यों में अनेक बीमारियों को जन्म देता है। उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका के कबूतरों के लुप्त होने से किलनी जनित लाइम बीमारी होने लगी क्योंकि उनकी अनुपस्थिति में चूहों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी जिससे ये जीवाणु मानवों में फैल गए।  पर्यावरण विज्ञानी मानते हैं कि बड़े पैमाने पर जंगलों के विनाश से जैव विविधता को जो नुकसान पहुँचा उसी का परिणाम ईबोला, मार्बर्ग, और हंटावायरस जैसे घातक संक्रमण हैं।

जीव प्रजातियों के लुप्त होने से पृथ्वी का पर्यावरण-तंत्र और उसकी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं जिसका प्रभाव कई तरह से पड़ता है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि इससे वर्तमान मानव सभ्यता को बनाए रखना मुश्किल हो जाए। इसलिए विज्ञानियों ने अपील की है कि राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर तत्काल और बड़े पैमाने पर कदम उठाए जाएँ ताकि जीव प्रजातियों के लुप्त होने की अस्वाभाविक प्रक्रिया रुक सके।

पृथ्वी पर जीव प्रजातियों के लुप्त होने के पांच बड़े दौर माने जाते हैं। ये दौर ढाई अरब वर्ष से छह करोड़ साठ लाख वर्ष के बीच पहले गुजर चुके हैं। इस विलुप्तीकरण के कारण प्राकृतिक थे, जैसे कि ज्वालामुखियों का फटना या उल्कापात। इनसे पृथ्वी पर जीवन की स्थितियाँ बदल गई थीं। विज्ञानी मानते हैं कि विलुप्तीकरण का यह छठा दौर है और यह मानव जनित है- आबादी का बढ़ना और प्रकृति में आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप।

(कोलकाता से प्रकाशित द टेलीग्राफ में 19 सितम्बर 2023 को प्रकाशित रिपोर्ट पर आधारित। चित्र इंटरनेट से साभार)