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Monday, January 31, 2022

बब्बन कार्बोनेट: द हो, अशोक पाण्डे की क्वीड़ पथाई के क्या कहते हो!

पहाड़ की मौखिक कथा परम्परा में ‘क्वीड़’  कहने का भी खूब चलन है। जब फुर्सत हुई, दो-चार जने बैठे तो लगा दी क्वीड़। किस्सागोई तो यह है लेकिन न पूरी तरह गप्प है, न कपोल कथा, न पूरा सत्य, कौछी-भौछी। इसे फसकभी कह सकते हैं लेकिन क्वीड़का सटीक अर्थ बताना मुश्किल ठहरा। वैसे ही आसान नहीं हुआ अशोक पाण्डे की बब्बन कार्बोनेटपुस्तक (नवारुण प्रकाशन) को परिभाषित करना। जैसे क्वीड़कहे कम, ‘पाथेअधिक जाते हैं, वैसे ही इस किताब को अशोक पाण्डे की नायाब क्वीड़ पथाई कह सकते हैं। खुद अशोक ने इसे फसकों की किताबकहा है। पहाड़ के हर गांव, कस्बे और बाजार में कोई-कोई गजब का क्वीड़ पाथने या फसक मारनेवाला होता है और दूर-दूर तक लोगबाग प्रशस्ति एवं आनन्द के साथ उसका नाम लेकर कहते हैं – दs, अमुक के क्वीड़!या ओहो, अमुक की फसक!वैसे ही अशोक पाण्डे के लिए कहा जा सकता है- आहा, अशोक पाण्डे के किस्से!फेसबुक पर उनकी गजब की फैन-फॉलोइंगऐसे ही नहीं बनी।

पिछली सदी के अंतिम दो-तीन दशकों के हमारे पहाड़ी कस्बे, उच्च-वर्गीय कामनाओं से ग्रस्त या कुंठित उनके निम्न-मध्य वर्गीय परिवार, उनकी किशोर से युवा होती पीढ़ी की उमंगें, सपने, आवारगी, विद्रोह या जी बाबू जीवाली पितृ-निष्ठा और सबसे बढ़कर, सिने तारिकाओं से लेकर पड़ोस की गली की हरेक कन्या से इश्क लड़ाने की दुर्दम्य कामना अथवा इकतरफा मुहब्बत की त्रासद किंवा हास्यास्पद परिणति, आदि-आदि अशोक पाण्डे के इन किस्सों के सदाबहार विषय हैं। वे कोई एक सच्चा किस्सा उठाकर उसे ले उड़ते हैं। फिर कब एक पड़ोसी या सहपाठी की कहानी सुदूर आकाश में टिक्कुल बनती पतंग की तरह दूर-दूर जाते कभी नाचती है, कभी गोता खाती है, कभी ऊपर-और-ऊपर तनती जाती है कि तभी हत्थे से कटकर लहराती चली जाती है। किस्से की सच्चाई कहीं पीछे छूट जाती है और हमारे समाज की परतें उघड़ती जाती हैं। पेंगें मारता किस्सा अचानक खत्म होता है और आप सोचते रह जाते हैं कि सच्ची, ऐसा हुआ होगा क्या!या शिबौ, बिचारा बब्बन!

अब जसंकर सिजलरको ही लीजिए। बिजनेसमैन बाप के गल्ले से गड्डी उड़ाकर दोस्तों को मौज-मस्ती कराने वाले जयशंकर जैसे दोस्त उस उम्र में लगभग सभी के होते हैं लेकिन अशोक उसे पंचतारा होटल  के रेस्त्रां में आग और धुआं उगलते सिजलरतक ले जाकर निम्न-मध्य वर्गीय अतृप्त कामनाओं का  ऐसा प्रहसन रच देते हैं कि जसंकरही नहीं, पाठक भी अंतत: फुटपाथी ढाबे के तृप्त कर देने वाले स्वाद का मुरीद होकर चटखारे लेने लगता है। वे ऐसा परम तटस्थता से करते हैं। इस खिलदंड़ेपन में भी एक बात नोट करने की यह है कि किस्सा पढ़ने के बाद आप शिबौ-शिबौ’ (बेचारा) कहेंगे भी तो जसंकर के लिए नहीं, पंचतारा वाले सिजलरके लिए ही। बब्बन कार्बोनेटमें ऐसे कई किस्से हैं जिनमें कस्बाई, निम्न मध्यवर्गीय बेचारगी बड़े शहराती ठाट को घुत्तीदिखाती नजर आती है। कुंठाओं के बयान लगने वाले ये किस्से अक्सर अपनी गरीबी या पराजय में छुपी मस्ती की अमीरी पर इतराते हुए सम्पन्न होते हैं। एक किस्से में जब कर्नल साहब के विदेशी डॉगी-द्वय मिस्टर जोसी के सड़क छाप कुत्ते से पराजित होकर उसके शिष्य बन जाते हैं और मिस्टर जोसीको ब्लडी सिविलयनकहकर हिकारत से देखने वाले वह नामविहीन कर्नल खुद जोशी जी के हम प्याला नज़र आते हैं, तब यही देसी ठाट सीना तान, महमह कर उठता है।  

अंग्रेजी मोह से ग्रस्त कस्बाई मध्य वर्ग की टांग खींचने का कोई मौका अशोक नहीं छोड़ते। इसके लिए वे कैसी-कैसी फसक मार देते हैं! नाना जी की प्रिय हीरोइन मिनरल मारले’ (मर्लिन मनरो), सुच्चा सिंह के थ्री हॉर्स’ (थ्री आवर्स), भैया जी की ओल्ड मैन एण्ड मी’ (ओल्ड मैन एण्ड द सी), विलायती मीम के साथ माल रोड पर घूमने वाले कलूटे प्रताप सिंह बिष्ट का अपने लिए किए गए तंज ब्यूटी एंड द बीस्टको बिस्ट इस ब्यूटीफुलबताना एवं पुरिया का गुस्सा आने पर फकिट ब्लडी हुडकहना उसी मानसिकता पर बहुत रोचक टिप्पणियां हैं। हास्य और आनंद से भर देने वाले ये किस्से अपने अंतर में एक पतनशील, बाजार-आक्रांत समाज का दर्द भी साथ लिए हुए हैं।

गरीबी में भी दोस्ती की शहंशाही और टूटे सपनों में मुहब्बत से इंद्रधनुषी रंग भर देने वाले रज्जोऔर दलिद्दर कथाजैसे किस्से भी यहां हैं जो लेखक की निस्संगता के बावजूद पाठक की आंख नम कर देते हैं। यहां शादी के लिए लड़की देखने गए पूरनदा की वह दास्तां है जो उस दौर के लगभग सभी कस्बाई युवकों की हो सकती है जिन्हें दाम्पत्य निभाते-निभाते बुढ़ापे में कहना पड़ जा सकता है कि (फोटो में) कनस्तर पर खड़ी है बुढ़िया!और, ठहाके के साथ निकला यह उद्गार वास्तव में घनघोर त्रासद ठहरता है।

उनचास फसकोंकी यह किताब उस दौर के कस्बाई जीवन के भांति-भांति के रंगों से साक्षात कराने के अलावा अशोक की अनोखी भाषा का निखालिस आनंद भी देती है। अशोक अपने पात्रों के सम्वादों को ऐन उनके होठों से उच्चारित होते ही शब्द-ध्वनियों में बांध देते हैं। साथ ही उनके दुनिया देखे-दुनिया पढ़े की बौद्धिक छौंक और स्थानीय लटक के संयोग से विकसित यह भाषा जादू जैसा असर छोड़ती है। उसमें लालित्य है, खनखनाहट है और अद्भुत किस्म की निस्संगता भी, जिससे पाठक को किस्से में अटका छोड़कर लेखक चुपके से सटक लेता है।

नवारुणसे सद्य: प्रकाशित इस किताब का हिंदी में खुले दिल से स्वागत होगा ही। उनकी किताब 'लपूझन्ना' को हाथों हाथ लिया ही जा रहा है, जिसे मुझे अभी पढ़ना है।

-न. जो. 31 जनवरी, 2022