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Saturday, July 20, 2019

मोबाइल के लती हैं तो अस्पताल हाज़िर!



वो देखो चिड़िया... कैसे उड़ी, फुर्र-फुर्र’-रोते पोते को गोद में लिए बुज़ुर्ग ने उसे पार्क में उड़ती चिड़िया दिखाई. बच्चे ने उस तरफ देखा लेकिन रोता रहा. उसकी एक ही रट थी- घर चलो, घर चलो.

क्यों नाराज़ है?’ हमने पूछा तो गुस्से में बोले- हर समय मोबाइल चाहिए, और क्या!उन्होंने जेब से निकालकर उसके मुंह में टॉफी डाल दी. बच्चा शांत होकर टॉफी चुभलाने लगा.

बड़े-बड़े लोग मोबाइल में डूबे हैं. ये तो बच्चा है.हमने दिलासा दिया.

अजी, माँ-बाप ने बिगाड़ रखा है,’ वे तनाव में बोले- जब रोता है तब मोबाइल पकड़ा देते हैं. दूध पिलाना हो तो मोबाइल. खाना खिलाना हो तो. इसको तो पॉटी में बैठने के लिए भी मोबाइल चाहिएइसका बाप इतना खेलता था, बाहर इतना ऊधम मचाता था कि पकड़कर घर लाना पड़ता था. यह घर से बाहर ही नहीं निकलता. बस, मोबाइल पकड़ा दो....टॉफी खत्म होते ही बच्चा फिर रोने लगा था. वे उसे लेकर घर की तरफ चल दिए- सोचा था, थोड़ी देर पार्क में बहल जाएगा. थोड़ी देर खेलेगा, दौड़ेगा, लेकिन नहीं.बच्चा फिर जोरों से रोने लगा था.

हर घर की यही कहानी है.हमने सांत्वना देनी चाही मगर उनका बड़बड़ाना जारी था- यह मोबाइल नई बीमारी है, बीमारी....

उनकी बात से हमें वह समाचार याद आ गया जो दो दिन पहले एक अखबार में पढ़ा था कि मोबाइल और इण्टरनेट की लत एक बड़ी मानसिक बीमारी के रूप में उभर रही है. इस लत के रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. इसी कारण लखनऊ मेडिकल कॉलेज, वाराणसी में बीएचयू के अस्पताल और इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू अस्पताल में मोबाइल नशा मुक्ति केंद्र खुल गए हैं. मुम्बई-दिल्ली जैसे महानगरों में और भी पहले ऐसे सेण्टर खुल चुके हैं. हर शहर में मनोचिकित्सकों के यहाँ ऐसे रोगियों का आना बढ़ गया है.

सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव किशोर-किशोरियों और नन्हे बच्चों पर पड़ रहा है. उनका व्यवहार असामान्य हो रहा है, पढ़ाई और खेलों में उनका ध्यान नहीं लग रहा, वे चिढचिढ़े, गुस्सैल और चुप्पा बन रहे हैं. मोबाइल से थोड़ी देर की भी दूरी उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रही. हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले हुए हैं जिनमें स्मार्ट फोन खरीद कर न देने पर बच्चों ने घर छोड़ दिया या चोरी की या अपनी जान लेने तक की कोशिश की.

एक मनोचिकित्सक मित्र बता रहे थे कि नशे की लत और मोबाइल की लत में बहुत फर्क नहीं रहा. इसे छुड़ाने के लिए भी उसी तरह की काउंसिलिंग और थेरेपी की आवश्यकता होती है. वे माता-पिताओं को सलाह देते हैं कि बच्चों को मोबाइल फोन खिलौने की तरह न दें. उन्हें उनके लायक खिलौने दें, रोचक कहानियाँ सुनाएँ, बाहर ले जाएँ और उनके साथ पार्क में दौड़ने-छुपने के खेल खेलें. जब बच्चों के साथ हों तब स्वयं भी बेवजह मोबाइल इस्तेमाल न करें. बच्चे उन्हीं से ही सीखते हैं.

क्या नई पीढ़ी के व्यस्तमाता-पिता इन बातों पर ध्यान देते हैं? ऊपर वाले बुज़ुर्ग का उदाहरण कुछ और ही बताता है.

मनोविज्ञान के चार हज़ार विद्यार्थियों के बीच किया गया एक ताज़ा सर्वेक्षण कहता है कि सोशल मीडिया न केवल व्यवहार, बल्कि लोगों की राय भी बदल रहा है. नब्बे फीसदी से ज़्यादा विद्यार्थी मानते हैं कि सोशल मीडिया में अवांछित और नकारात्मक सामग्री भरी पड़ी है. इसका असर भी वैसा ही हो रहा है. वे यह भी मानते हैं कि यदि सकारात्मक सामग्री की भरमार हो तो सोशल मीडिया का रचनात्मक इस्तेमाल हो सकता है.

फिलहाल तो हम अपने चारों अच्छे लक्षण नहीं देख रहे. टेक्नॉलजी बुरी नहीं होती. सवाल यह है कि उसका प्रयोग हम कैसे कर रहे हैं.

(सिटी तमाशा, 20 जुलाई, 2019)