सोनिया
गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस का नेतृत्त्व संकट फिलहाल के
लिए टला ही था कि कुछ बड़े मुद्दों पर वैचारिक हंगामा खड़ा हो गया है. पहले उसके कई
नए-पुराने प्रमुख नेताओं ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी करने के मोदी
सरकार के फैसले का विरोध करने की पार्टी लाइन से हटकर बयान दिए यानी सरकार के इस
कदम का समर्थन किया. यहां तक कह दिया कि कांग्रेस जन भावनाओं को समझ नहीं पा रही
और अपने रास्ते से भटक गई है.
बिल्कुल ताज़ा
संकट चंद वरिष्ठ नेताओं के इस बयान से पैदा हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
को हमेशा खलनायक की तरह देखने की बजाय उनकी सरकार के अच्छे कामों की प्रशंसा भी की
जानी चाहिए. शुरुआत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश के बयान से हुई. पिछले
सप्ताह एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी का शासन-मॉडल पूरी तरह
नकारात्मक गाथा नहीं है. उनके काम के महत्त्व को स्वीकार न करके और हर समय उनको
खलनायक की तरह पेश करके पार्टी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है.
जयराम रमेश का
बयान आते ही दो अन्य जाने-माने कांग्रेस नेताओं, अभिषेक
मनु सिंघवी और शशि थरूर ने उनके बयान का समर्थन कर दिया और कहा कि व्यक्ति की नहीं, उसकी
सरकार की नीतियों की आलोचना होनी चाहिए. अक्सर विवादों में रहने वाले शशि थरूर पर
कांग्रेस की केरल इकाई,
जहां से वह सांसद
हैं, नाराज हो गई. उसने थरूर की टिप्पणियों पर उनसे
स्पष्टीकरण मांगने का फैसला किया. यह जानकारी मिलने पर शशि थरूर चुप नहीं हुए.
बल्कि, बोले कि मैं मोदी सरकार का कटु आलोचक रहा हूं और मानता
हूं कि यह रचनात्मक आलोचना रही है. मैं कांग्रेस के साथियों से उम्मीद करता हूं कि
वे मुझसे असहमत होते हुए भी मेरे रुख का सम्मान करेंगे.
उसके बाद एक
और वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली जयराम रमेश और शशि थरूर के खिलाफ मैदान में कूद पड़े.
उन्होंने आला कमान से दोनों नेताओं पर अनुशासनहीनता के लिए कार्रवाई करने की मांग
कर डाली. मोइली ने जयराम रमेश को यूपीए सरकार के दौरान नीतिगत गलतियों के लिए भी
ज़िम्मेदार ठहराया है.
इन पंक्तियों
के लिखे जाने तक थरूर,
सिंघवी और जयराम
रमेश के बयानों के बारे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्त्व के रुख का कोई संकेत
नहीं मिला है. इन मामलों से दो बातें साफ होती हैं. एक तो यही कि महत्त्वपूर्ण
मुद्दों पर कांग्रेस के भीतर स्पष्टता नहीं है. विचार-विमर्श भी नहीं हो रहा.
अनुच्छेद 370 हटाने पर पार्टी की वैचारिक लाइन तय करनी हो या मोदी सरकार के ‘अच्छे
कामों’ पर प्रतिक्रिया देना, इस
बारे में कांग्रेस कार्य समिति या शीर्ष नेतृत्त्व कोई दिशा-निर्देश नहीं दे पा
रहे. इससे कांग्रेस की समझ और नीति पर भ्रम उत्पन्न हो रहा हैं.
अनुच्छेद
370 निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के निर्णय का विरोध करना है या इसे अमल में
लाने के तौर-तरीकों का,
कांग्रेस आज तक
यह तय ही नहीं कर सकी है. संसद में उसने इस बारे में लाए गए विधेयकों का यथासम्भव
विरोध किया. जब कई नेताओं ने सरकार के
फैसले के पक्ष में बयान देने शुरू किए तो यह जताने की कोशिश की गई कि मुख्य विरोध
तो इसे लागू करने के दमनात्मक तौर-तरीकों का है. यानी, गोलमोल
रवैया. यदि कांग्रेसी जनता के बीच जाकर सरकार के खिलाफ राय बनाने की कोशिश करें भी
तो किस बिना पर?
दूसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह उभर कर आई है कि कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमला करने की पार्टी की नीति से सहमत नहीं हैं. यहां गौर
करने वाली बात यह है कि मोदी पर सबसे अधिक निजी हमले राहुल गांधी करते आ रहे हैं.
2019 का पूरा चुनाव राहुल गांधी ने 'चौकीदार चोर है' नारे
पर लड़ा. राफेल विमान सौदे में घपले के लिए उन्होंने सीधे-सीधे मोदी को जिम्मेदार
बताया. वे पूरे विश्वास से चुनाव सभाओं में कहते थे कि मोदी जी ने जनता का तीस
हज़ार करोड़ रु अनिल अम्बानी की जेब में डाल दिया. जनता ने राहुल की बातों पर भरोसा
नहीं किया. राहुल का धुर मोदी-विरोध कतई काम न आया.
आम चुनाव के
समय राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थे. आज शीर्ष पद से इस्तीफा दिए बैठे हैं. क्या जयराम
रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी और शशि थरूर जैसे बड़े नेता आज राहुल को यह जताने के लिए
ही यह बयान दे रहे हैं कि मोदी को हमेशा खलनायक बनाने से पार्टी को कुछ हासिल होने
वाला नहीं है?
यह बात आम चुनाव
के दौरान सामने नहीं आई लेकिन तब भी कुछ कांग्रेसी खेमों में गुप-चुप यह चर्चा
चलती थी कि जनता में अत्यंत लोकप्रिय नरेंद्र मोदी पर सीधे कीचड़ उछलना कहीं उलटा न
पड़ जाए.
राहुल और
कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के रुख में इस विरोधाभास के संकेत तब भी मिले थे जब
चुनाव में बुरी पराजय मिलने के बाद कांग्रेस की शीर्ष स्तरीय बैठक में राहुल ने यह
कहा था कि मोदी के विरुद्ध वे अकेले ही मोर्चा सम्भाले थे. उन्हें पार्टी के बड़े
नेताओं का समर्थन नहीं मिला. प्रियंका ने भी ऐसी ही बातें कही थीं.
बहरहाल,
कांग्रेस का यह संकट बना ही हुआ है कि आखिर वह शक्तिशाली नरेंद्र मोदी का मुकाबला
कैसे करे. पिछले पांच वर्षों में नोटबंदी जैसे कुछ अलोकप्रिय फैसलों, बेरोजगारी
की बढ़ती समस्या,
आर्थिक मोर्चे पर
कठिन हालात, किसानों के भारी असंतोष और कुछ वादाखिलाफियों के बावज़ूद
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बनी हुई है.
इसके दो
प्रमुख कारण नज़र आते हैं. एक तो यही कि मुख्य विरोधी दल के रूप में कांग्रेस इन
बड़े मुद्दों को मोदी सरकार के खिलाफ धारदार हथियारों में नहीं बदल सकी. दूसरे यह
कि जनता में मोदी की ऐसी साफ-सुथरी, कर्मठ नेता
की छवि बनी या जतन से बनाई गई है कि जनता देश की इन समस्याओं के लिए उनको उत्तरदाई
नहीं मानती. आम चुनाव में यह खूब दिखाई दिया था कि मतदाता कई भाजपा उम्मीदवारों से
तो नाराज़ थे लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें चाहिए मोदी ही थे.
सम्भवत:
इसीलिए राहुल गांधी के मोदी पर सीधे और व्यक्तिगत हमलों का जनता पर कोई असर नहीं
हुआ या उलटा हुआ. आज कई कांग्रेसी ‘अच्छे कामों’ के
लिए मोदी सरकार की तारीफ करना चाहते हैं तो उसके पीछे यही विचार लगता है. सवाल है
कि क्या कांग्रेस नेतृत्त्व इन कांग्रेसियों की सुन रहा है? इस
बारे में विचार करने को तैयार है? या उनकी ‘व्यक्तिगत
राय’ कहकर चुप ही रहना चाहता है या फिर, उन्हें
अनुशासनहीन मानेगा,
जैसा कि मोइली और
केरल इकाई कह रहे हैं?
कांग्रेस
नेतृत्त्व मौन है. कोई संकेत नहीं मिल रहा कि नरेंद्र मोदी के मुकाबिल खड़ा होने के
लिए वह क्या रास्ता अपनाना चाहता है? उसका मौन
पार्टी के नेताओं को आपस ही में लड़ा रहा है. यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या राहुल
ने मोदी के खिलाफ राफेल सौदे में ‘भ्रष्टाचार’
का अपना सबसे बड़ा मुद्दा छोड़ दिया है? चुनावों के
बाद उन्होंने इसकी कोई चर्चा ही नहीं की, हालांकि
रिजर्व बैंक से भारी भरकम रकम सरकार को दिए जाने पर राहुल ने सरकार पर तीखा हमला
बोला है.
मोदी सरकार
के विरुद्ध मुद्दों की कमी न चुनावों से पहले थी न आज है. कमी कांग्रेस में ही
दिखती है. मुख्य विरोधी दल के रूप में मोदी सरकार से दो-दो हाथ करने और आवश्यक
मुद्दों की लड़ाई जनता के बीच ले जाने को वह तैयार ही नहीं दिखती. आखिर वह खड़ी कैसे
होगी?
(नभाटा, मुम्बई, 1 सितम्बर, 2019)