Friday, January 26, 2024

नदीष्ट - नदी से इश्क और जीवन से संवाद

नदीष्टउपन्यास के बारे में मैंने फेसबुक पर किसी की चंद पंक्तियों की पोस्ट देखी थी। नदीष्टमराठी शब्द है जिसका अर्थ है नदी से लगाव। यह हाल-हाल में मराठी का चर्चित उपन्यास है, मनोज बोरगावकर का लिखा, जिसे गोरख थोरात ने हिंदी में अनुवाद किया है। प्रकाशित किया है सेतु प्रकाशन (2022) ने इसी नाम से क्योंकि अनुवादक के अनुसार इसका कोई सटीक हिंदी शब्द उन्हें नहीं मिला।

नदी से लगाव के बारे में उपन्यास! मैं सुखद आश्चर्य से भर गया था और उसी समय ऑनलाइन मंगा लिया। नदियों के बारे में कई यात्रा संस्मरण हैं। नर्मदा पर अमृतलाल वेगड़ जी की एक से अधिक पुस्तकें हैं, जिनमें नर्मदा से उनकी बेपनाह मुहब्बत बोलती है। राहुल सांकृत्यायन और कृष्णनाथ जी के यात्रा संस्मरणों में हिमालयी नदियों के बारे में अद्भुत प्रसंग आते हैं। हाल के वर्षों में भी कुछ यात्रा संस्मरण आए हैं, जिनमें नदी एक जीवंत पात्र की तरह है। कविताएं भी खूब हैं नदियों के बारे में। नदी के बारे में नरेश सक्सेना जी की एक कविता का लम्बा शीर्षक ही बहुत कुछ कह जाता है- “पहाड़ों के माथे पर बर्फ बनकर जमा हुआ यह कौन से समुद्र का जल है जो पत्थर बनकर पहाड़ों के साथ रहना चाहता है!” केदारनाथ अग्रवाल का केन से लगाव उनकी कविताओं में मुखर होता है- “नदी किनारे/ पालथी मारे/ पत्थर पानी चाट रहा है!” लेकिन नदी से लगाव के बारे में पूरा एक उपन्यास?

नदीष्टका नायक अपने शहर से दूर पालियों वाली नौकरी करता है। ट्रेन से आता-जाता है और जब भी मौका मिले गोदावरी के पास चला आता है- सुबह मुंह अंधेरे, भरी दोपहर, शाम को या अंधेरा हो चुकने के बाद भी। वह नदी को देखता रहता है, तट पर बैठा उससे बातें करता है, उसमें खड़ा होकर पैदल चलता है और एक-दो बार आर-पार तैर आता है। नदी के पास आए बिना उसे चैन नहीं मिलता। गर्मियों में सूखी, क्षीण धार बनी, बदबू मारती नदी हो या बरसात में उफनाकर तटों का अतिक्रमण करती हो, नायक को उसके पास आना ही आना है और जब तक सम्भव हो तैरना है। वह उसमें गोते लगता है, सबसे गहरी जगह पर, कई बार प्रयत्न करके उस गहरे तल से अंजुरी में रेत भर लाता है। नदी होती है और वह होता है। उसे नदी के साथ एकान्त पसंद है, इसलिए वह बिल्कुल अलग, दूर के तट पर जाता है। नदी के परिवेश से भी उसे मुहब्बत हो जाती है- रेत, कंकड़-पत्थर, इमली का पेड़, उस पर ऊधम काटने वाले बंदर, मोरों का झुण्ड और झाड़-झंखाड़- “ये झाड़-झंखाड़ अब इतने परिचित हो गए हैं कि उन्हें देखते ही किसी आत्मीय से मुलाकात हो जाने का अनुभव होता है। सहारा भी महसूस होता है।” नदी से रागात्मक सम्बंध रखने वाले कुछ मानव चरित्र भी हैं, जो समाज के हाशिए पर हैं, जिनसे नदी के कारण नायक का अपनापा होता जाता है। भिखारिन सकिनाबी है, एक भयानक पारिवारिक प्रसंग के बाद नौकरी छोड़कर भिखारी का जीवन जी रहा भिकाजी है, अति-संवेदनशील हिजड़ा सगुना है, मछेरा बामनवाड़ है, नदी तट पर भैंस चराने वाला कालूभैया है और नायक को कभी तैराकी के गुर सिखाने वाले उसके गुरु दादाराव हैं। इन सबके अंतर्सम्बंधों में गोदावरी अनिवार्य रूप से उपस्थित है और विभिन्न भूमिकाओं में। नदी इन सबको जोड़ती है, अलग-अलग भी रखती है और नदी के बहाने ही उनकी अपनी त्रासद कथाएं खुलती हैं। नायक अकारण ही नहीं सोचता- “अगर ये लोग नदी के अलावा कहीं और मिले होते तो क्या उनके आंतरिक जीवन की परतें मेरे सामने खुल पातीं?” बाहर से कठोर लेकिन भीतर से अति संवेदनशील सगुना की कथा पाठक को झकझोर जाती है। भिकाजी की कथा भी कम त्रासद नहीं। उधर, कालूभैया, उनकी भैंसें और प्रेयसी की उपस्थिति अनेक दुखांत कथाओं के बीच एक उल्लास की तरह है।

नदी का बहना जैसे जीवन का बहना है। अपने उद्गम से निकली धारा फिर कभी वापस नहीं लौट सकती। वैसे ही जीवन है। जो बीत गया, वह लौटता नहीं, समय हो, मनुष्य या रिश्ते। नदी की अपनी गति है, वैभव है, विपन्नता है, खुशी और दर्द हैं। जीवन के भी। भिन्न पृष्ठभूमि और भिन्न स्थितियों वाले मनुष्यों के बीच भी दर्द और सहकार के रिश्तों की नदी बहती है। कभी वह हरर-हरर बहती है, कभी सूखती है और कभी किनारे तोड़कर कहर ढाती है। हर हाल में वह संवाद करती है- “कितनी सहजता और कितनी कुशलता से नदी तट अपनी प्रकृति का एक-एक रहस्य हमारे सामने खोलता जाता है। ठीक वैसे, जैसे दादी अपने पोते के सामने अपने बटुवे की चीजें खोलकर रख देती है.... इसके लिए एकमात्र शर्त है, आपके कान सुनने के लिए बेताब होने चाहिए। इससे भी आगे बढ़कर, आपकी पूरी देह इसे सुनने के लिए बेताब होनी चाहिए। तभी वे स्वर किंचित ही सही, आपकी झोली में आ गिरते हैं।”

“तुझी को नदी से इतना लगाव क्यों है?” दोस्तों ने एक बार नायक से पूछा। वह ठीक जवाब नहीं दे पाया लेकिन सोचता रहा- “एक दर्शन है मेरा अपना। जन्म से पहले हम सभी मां के गर्भ में पानी में ही रहते हैं। मां के गर्भ में यानी एक कुंड में ही तैर रहे होते हैं। न समय-असमय की फिक्र, न किसी बात का डर। एक ही सतह पर तैरते रहते हैं। इधर से उधर, इस तट से उस तट पर, बिल्कुल नदी की तरह। कुछ-कुछ निचली सतह का ठौर न मिलना, सब कुछ अपना महसूस होना। सांस से जुड़ा। तरबतर करता!” मां के गर्भ से बाहर आना ही होता है और बाहर बहुत कुछ बदलता-नष्ट होता मालूम देता है- “बामनवाड़, तुम कहते हो कि अब पानी साफ नहीं रहा, लेकिन लोग भी कहां साफ रह गए हैं अब पहले जैसे? पानी खराब होने की वजह से लोग खराब हो गए हैं या लोग खराब होने की वजह से पानी खराब हो गया है?”

उपन्यास पढ़्ते हुए नदी पाठक के साथ बहती है। उसके भीतर गूंजती है। “नदी में सालों से पड़े पत्थरों में भी नदी के कुछ गुण समा जाते हैं। इतने सालों से मैं नदी में तैर रहा हूं, मुझमें भी तो कुछ गुण उतरे होंगे नदी के?” जैसे, पाठक में भी नदी के कुछ गुण समाने लगते हैं।

इतने सुंदर उपन्यास के लिए बधाई देने के वास्ते मैंने किताब में छपे नम्बर पर फोन मिला दिया। फोन मनोज बोरगावकर जी ने ही उठाया। फिर देर तक बातें हुईं। उन्होंने बताया कि नदीष्टमेरी आठ सालों की मेहनत है जो गोदावरी के सानिध्य-स्नेह का ही परिणाम है। वे नांदेड़ में गोदावरी के पास रहते हैं और बरसों से उसके इश्क में हैं। इस इश्क के बिना यह उपन्यास सम्भव नहीं होता। मनोज जी मूलत: कवि हैं। नदीष्टउपन्यास को एकाधिक पुरस्कार भी मराठी में मिल चुके हैं।

-    न जो, 26 जनवरी, 2024                      

Monday, January 22, 2024

पहाड़ों पर क्यों नहीं गिर रही बर्फ़?

पिछले सप्ताह अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि इस 'चिल्ला जाड़ा' में भी अभी तक कश्मीर में बर्फ नहीं गिरी है। खबर के साथ छपी फोटो में गुलमर्ग जैसी खूबसूरत जगह, जहां बरफ की मोटी पर्तों के बीच इन दिनों खूब स्कीइंग होती थी और पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता था, वहां मुरझाई-सूखी घास दिखाई दे रही है। पर्यटकों से रोजी-रोटी चलाने वाले कश्मीरी अपना दुखड़ा सुना रहे थे कि हिमपात न होने से सन्नाटा छाया है और वे अब नाउम्मीद हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के मित्र बता रहे हैं कि इन सर्दियों में अब तक न बारिश हुई है, न बर्फ गिरी है। ऊंचाई वाले कुछ इलाकों में छिट-पुट हिमपात अवश्य हुआ है लेकिन वह बहुत कम  है। यह प्रवृत्ति पिछले कुछ वर्षों से बढ़ती आई है।

दो दिन पहले The Third Pole (@third_pole) पर Nidhi Jamwal का लेख( https://www.thethirdpole.net/en/climate/scientists-say-worse-to-come-as-himalayan-snow-ceases/ )पढ़ने को मिला जो पूरी हिमालयी पट्टी में बर्फबारी न होने की गम्भीर समस्या पर केंद्रित है। निधि लिखती हैं कि हिमपात में साल-दर-साल कमी होने से हिमालयी क्षेत्र में स्थानीय जनता ही नहीं विज्ञानी भी बहुत चिंतित हैं क्योंकि पानी के भण्डार के लिए हिमपात होना जरूरी है। बर्फबारी को जल-सुरक्षा के रूप में देखा जाता है। हिमपात होता रहेगा तो भविष्य में पानी का संकट नहीं होगा। इसका सीधा अर्थ है कि सर्दियों के इस मौसम में भी कश्मीर में गुलमर्ग, उत्तराखण्ड में औली और हिमाचल में कुफरी जैसी जगहों का बर्फ के बिना होना  भावी जल-संकट का संकेत है। यह बहुत चिंताजनक बात है। 

हिमालयी क्षेत्र में हिमपात में कमी होते जाने के कारण क्या हैं? निधि के उपर्युक्त लेख में इस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश की गई है। मौसम का रवैया बदल रहा है। विज्ञानी जिसे पश्चिमी विक्षोभ कहते हैं, और जिसके बार-बार होने से मौसम में उतार-चढ़ाव आते हैं,  उसकी दर कम होती जा रही है। भूमध्य सागर से उठने वाली शीतोष्ण यानी ठण्डी और गर्म आंधियों को पश्चिमी विक्षोभ कहा जाता है जो पूर्व की दिशा में बारिश लाती हैं। इसी पश्चिमी विक्षोभ के कारण पाकिस्तान समेत उत्तर भारत में वर्षा होती है और बर्फ गिरती है। ग्लेशियरों (हिमगलों) को बनाए रखने के लिए हिम्पात होते रहना आवश्यक है क्योंकि गर्मियों में ग्लेशियर लगातार पिघलते रहते हैं। ये ग्लेशियर जल का महत्त्वपूर्ण भण्डार हैं। 

इस वर्ष पश्चिमी विक्षोभ बहुत हल्का हुआ अर्थात भूमध्यसागर से उठी ठंडी-गर्म हवाओं के झोंके बहुत कमजोर रहे। इसी कारण यहां न पर्याप्त बारिश हुई और न बर्फ गिरी। भविष्य के लिए भी चिंताजनक संकेत मिले हैं। एक विशेषज्ञ ने कहा कि भविष्य के लिए पश्चिमी विक्षोभ के जो अनुमान हैं वे भी निराशाजनक हैं। सन 2050 तक पश्चिमी विक्षोभ की दर में 10 से 15 फीसदी की गिरावट की आशंका है। यह चिंताजनक है।

लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखण्ड में, जहां खूब बर्फ गिरा करती थी, अब तक काफ़ी कम हिमपात होने की खबरें मिली हैं। लाहौल-स्पीति में तो इस समय चार-पांच फुट बर्फ पड़ी रहती थी। मौसम विभाग के अनुसार अगले एक हफ्ते तक भी इन क्षेत्रों में हिमपात का पूर्वानुमान नहीं है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। कश्मीर और लद्दाख में सर्दियां अब पहले की अपेक्षा गर्म होने लगी हैं। लेह में तो यह सबसे गर्म सर्दियां हैं। इससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ी है और हिमपात न होने से ग्लेशियरों पर नई बर्फ नहीं जमा हो पा रही। दिसम्बर 2023 के पूरे महीने उत्तर भारत में हिमपात लगभग नहीं हुआ।

दूसरी ओर, मई, जून व जुलाई महीनों में पश्चिमी विक्षोभ में तेजी आ रही है जिससे मानसून में अत्यधिक वर्षा और तदजनित दुर्घटनाएं अर्थात बाढ़, भूस्खलन, आदि बढ़ रहे हैं। 

मौसम के मिजाज में यह बदलाव अचानक या अपने आप नहीं हो रहा। इसके भी मानव जनित कारण हैं। यह मनुष्य की गलत विकास नीतियों के कारण समूची प्रकृति पर पड़ रहे दुष्प्रभावों का परिणाम ही है।

- न जो, 23 जनवरी, 2024 (फोटो -बर्फ बिन सूखा गुलमर्ग, साभार - Indian Express)


Sunday, January 21, 2024

‘उत्तर प्रदेश’ का नया जब्तशुदा साहित्य विशेषांक

प्रदेश के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की पत्रिका उत्तर प्रदेशके जब्तशुदा साहित्य विशेषांक (जनवरी-अप्रैल 2023) की एक-एक कर चार प्रतियां (तीन पिछले वर्ष और एक चंद रोज पहले) मेरे पते पर पहुंची लेकिन एक पुस्तक को पूरा करने की व्यस्तता में उस पर ध्यान नहीं दे पाया था। अब अंक हाथ में लिया तो आवरण पृष्ठ देखकर स्मृति में कुछ कौंधा। बहुत देखा-देखा, पहचाना-सा लगा यह आवरण। उत्तर प्रदेशके चुनिंदा विशेषांकों का अपना संकलन खंगाला तो अगस्त, 1997 में स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित जब्तशुदा साहित्य विशेषांक’ (वर्ष 26 अंक 4) की प्रति मिल गई। उस पर भी ठीक यही आवरण पृष्ठ प्रकाशित है। फिर, 2023 में प्रकाशित विशेषांक के अतिथि सम्पादक विजय राय का सम्पादकीय पढ़ा तो स्पष्ट हुआ कि यह पच्चीस साल पहले प्रकाशित विशेषांक का ही पुनर्प्रकाशन है।1997 में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण और संग्रहणीय विशेषांक का सम्पादन भी विजय राय ने ही किया था।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश सरकार ने बहुत सारा साहित्य, पर्चे-बैनरों से लेकर पत्र-पत्रिकाएं, कविताएं, कहानियां, नाटक, लेख, उपन्यास, व्यंग्य, आदि बड़ी संख्या में जब्त किए थे। ब्रिटिश सरकार की नीतियों और उसके दमन के विरोध और आजादी की लड़ाई के लिए खुली या दबी-ढकी ललकार लगाने वाले इस जब्तशुदा साहित्य का हमारे लिए, विशेष रूप से आने वाली पीढ़ियों के लिए, ऐतिहासिक तथा दस्तावेजी महत्त्व है। उस साहित्य को तलाशने का काम एक अभियान के रूप में या सम्पूर्णता में नहीं हुआ। स्वतंत्रता के बाद सक्रिय सेनानियों-सम्पादकों-लेखकों की स्मृतियों से (जैसे यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त, रामकृश्ण खत्री, आदि) कुछ जब्त साहित्य प्रकाशित होता रहा तो कुछ शकील सिद्दीकी और सुधीर विद्यार्थी जैसे कुछ अन्य लेखकों के शोध-प्रयत्नों से समय-समय पर सामने आया। अब तक काफी जब्तशुदा सामग्री सामने आ चुकी है लेकिन ऐसा समस्त साहित्य हमारे सामने आ चुका है, ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। 1997 में, जब देश स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ मना रहा था, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, उत्तर प्रदेश की पत्रिका उत्तर प्रदेशने विभिन्न विधाओं में जब्त साहित्य का एक संकलन विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया था, जिसका खूब स्वागत हुआ था। उस विशेषांक में क्रांतिकारी भगवानदास माहौर की पत्नी यमुनादेवी माहौर, क्रांतिकारी दुर्गा भाभी (दुर्गा देवी वोहरा) आज़ाद हिंद फौज के सेनानी-संगीतकार कैप्टन रामसिंह, लक्ष्मी शंकर व्यास, शिवदान सिंह चौहान के लेख, भगत सिंह के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज; फांसी की कोठरी से रामप्रसाद बिस्मिल के उद्गार; ‘न्यू इंडियन लिटरेचरकी जब्ती पर वीरेंद्र यादव का लेख; रवींद्रनाथ टैगोर, इकबाल, सागर निजामी, जां निसार अख्तर, अशफाक उल्ला खां, अली सरदार जाफरी, रामप्रसाद बिस्मिल, सोहनलाल द्विवेदी, समेत कुछ अज्ञात कवियों की जब्त हुई कविताएं; प्रेमचंद, ‘कौशिक’, ‘उग्र’, सज्जाद जहीर, चतुरसेन शास्त्री और अहमद अली की जब्त कहानियां; शरत चंद्र के जब्त उपन्यास पथेर दाबीपर विष्णु प्रभाकर का लेख; शचींद्रनाथ सान्याल की जब्त पुस्तक बंदी जीवन’, ‘नील दर्पण नाटक के रोचक मुकदमे के विवरण के साथ और भी ऐतिहासिक, महत्त्वपूर्ण और पठनीय-संग्रहणीय सामग्री शामिल थी।

पुनर्प्रकाशित विषेषांक में वह सारी सामग्री तो है ही, काफी कुछ नया भी जोड़ा गया है। विनायक दामोदर सावरकर का लेख स्वाधीनता का पहला संघर्ष’ (कालापानी की कैद में पहुंचने के बाद सावरकार द्वारा अंग्रेजों से बार-बार माफी मांगने के बहुत पहले लिखी गई उनकी उल्लेखनीय किताब का अंश) जो 1997 के विशेषांक में भीतर के पन्नों पर प्रकाशित हुआ था, इस बार पहला लेख वर्तमान राजनैतिक स्थितियों के कारण ही बनाया गया होगा। पुनर्प्रकाशित विशेषांक में जो नई सामग्री जोड़ी गई है उसमें चांदके फांसी अंक पर सुधीर विद्यार्थी, सुंदरलाल जी की जब्त हुई दस्तावेजी पुस्तक भारत में अंग्रेजी राजपर कुमार वीरेंद्र और राजगोपाल सिंह वर्मा, रवींद्र नाथ टैगोर की रूस की चिट्ठीपर अवधेश प्रधान, कहानी संग्रह अंगारेपर शकील सिद्दीकी, प्रेमचंद के सोजे वतनपर डॉ ए एन अग्निहोत्री और आशुतोष पार्थेश्वर, एवं जब्त नज्मों पर सुहेल वहीद के लेखों के अलावा जब्तशुदा कुछ और कहानियां एवं कविताएं शामिल किए गए हैं। इस तरह 338 पृष्ठों का यह वृहदाकार विशेषांक और भी समृद्ध हुआ है।             

स्वतंत्रता के अमृत वर्ष में इस संवर्धित विशेषांक के पुनर्प्रकाशन का इसलिए भी स्वागत किया जाना चाहिए कि न केवल पिछली पीढ़ी उस दौर की बेचैनी और संघर्ष को बार-बार याद करे, बल्कि इधर पली-बढ़ी पीढ़ियां समझ सकें कि देश की आज़ादी सिर्फ खोखले नारों और दावों से नहीं मिली थी। इस संग्राम में सभी धर्मों-वर्गों, जातियों-जनजातियों का योगदान था। यह जब्तशुदा साहित्य विशेषांक गवाह है कि यह देश सभी धर्मों-सम्प्र्दायों के बलिदान से बना है। इसे याद रखने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। उसके लिए कई पीढ़ियों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। साहित्यकार-पत्रकार बिरादरी भी इसमें पूरे जोश से शामिल थी। इसलिए इस आज़ादी और विविधताओं वाले देश के बहुरंगी समाज एवं संस्कृति की हर कीमत रक्षा की जानी चाहिए।

- न जो, 22 जनवरी 2023

 

  

Wednesday, January 17, 2024

जरा देखो तो शिक्षा का हाल

देश में स्कूली बच्चों की पढ़ाई का हाल जानने के लिए हर साल सर्वेक्षण करने वाली संस्था 'प्रथम' की 2023 की रिपोर्ट, जो 'असर' (एनुअल स्टेटस ऑफ एज्युकेशन रिपोर्ट) के नाम से जानी जाती है, 14 से 18 वर्ष के उम्र के किशोरों पर केंद्रित है। कल, 17 जनवरी 2024 को यह रिपोर्ट जारी की गई। हमेशा की तरह इस बार की कुछ चौंकाने वाले लेकिन कुछ आशा जगाने वाले तथ्य उभरे हैं। सबसे अधिक चौंकाने वाली जानकारी, हालांकि 'असर' रिपोर्टों को साल-दर-साल देखते रहने के बाद अब यह उतना चौंकाती नहीं, यह है कि ग्रामीण भारत में 14 से 18 साल के आधे से अधिक बच्चे तीन अंकों वाला भाग (गुणा-भाग वाला 'भाग') नहीं कर सकते जो कि कक्षा 3-4 में सिखा दिया जाता है। ये बच्चे समय का हिसाब लगाने से लेकर सामान्य गणित के सवाल हल करने में भी अटकते हैं। रिपोर्ट बताती है कि इन किशोर वय बच्चों में, जो चंद वर्षों में नौकारी की तलाश में निकलने वाले हैं, पढ़ाई सम्बंधी सामान्य क्षमताओं की भी कमी है।

नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार किशोरावस्था वाले ये अधिकसंख्य बच्चे 10वीं या उससे भी ऊपर की कक्षाओं में पहुंच जाने के बाद भी सामान्य पाठ पढ़ने-लिखने और गुणा-भाग-जोड़-घटाना करने में अटकते और परेशान होते हैं। 14-18 वय वर्ग के इन बच्चों में से 26.5% अपनी क्षेत्रीय भाषा की दर्जा दो की पाठ्य पुस्तक नहीं पढ़ पाते। 42.7 फीसदी किशोर-किशोरियां अंग्रेजी वाक्य नहीं पढ़ पाते और जो पढ़ लेते हैं उनमें से 26.5 % उसका अर्थ नहीं समझ सकते।  सामान्य गणित अब भी इनकी सबसे बड़ी समस्या है। जितने बच्चे सर्वेक्षण में शामिल किए गए उनमें से आधे से अधिक, बल्कि 56.7% तीन अंकों की संख्या को एक अंक से भाग देने का प्रश्न हल नहीं कर पाए। 

सर्वेक्षण में यह भी जांचा गया कि ये बच्चे दैनंदिन जीवन में उपयोग में आने वाली पढ़ाई, जैसे कि सामान्य हिसाब लगाने और आवश्यक लिखित निर्देश पढ़ सकने में कैसे हैं। चिंताजनक तथ्य यह सामने आया कि सिर्फ 45 प्रतिशत बच्चे यह हिसाब लगा सके कि एक शिशु रात में इतने बजे सोया और सुबह इतने बजे जागा तो वह कुल कितने घंटे सोया। पटरी (स्केल) से किसी वस्तु की लम्बाई नापने में 85 % बच्चे सफल रहे लेकिन तभी जब उन्हें पटरी पर शून्य से नापने को कहा गया। उसी वस्तु को आगे खिसका कर नापने को कहने पर केवल 40% बच्चे सही नाप कर सके। 'ओआरएस' (दस्त लगने पर दिया जाने वाला) घोल के पैकेट पर लिखे निर्देश पढ़ने में केवल 65.1% बच्चे सफल रहे। 

सामान्य गणित में लड़के, लड़कियों  से कुछ ही आगे पाए गए। सामान्य घटाने का सवाल 45% लड़कों ने सही हल किया जबकि 41.8% लड़कियां उसी सवाल को सही कर सकीं। किसी विशेष परिस्थिति में समय का सही हिसाब लगा पाने में 50.5% लड़के और 41.1% लड़कियां सफल रहीं। 

पढ़ाई-लिखाई का यह हाल तब है जबकि अब पहले की तुलना में बच्चे अधिक समय तक अपने स्कूल में रहने लगे हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि अब किसी विद्यालय में 14 से 18 आयु वर्ग के 86.5% बच्चे  भर्ती हैं। कोरोना महामारी के दौर से यह चिंता बनी हुई थी कि परिवारों में रोजी-रोटी के बढ़े संकट के करण बड़ी उम्र के बच्चे स्कूल छोड़ देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। लड़कियों में स्कूल जाने और आगे तक पढ़ने की ललक बढ़ी है। उनकी उपस्थिति भी अब स्कूलों में अधिक संख्या मेंऔर अधिक समय तक रहने लगी है। गणित के सवाल हल करने और अंग्रेजी पढ़ पाने में लड़के ही आगे पाए गए। 

सर्वे में शामिल लड़कों में आधे के पास अपने ईमेल आई डी हैं जबकि लड़्कियों में यह प्रतिशत मात्र 30 है। घर से बाहर निकलने यानी यात्रा करने के मामले में लड़कियां अब भी अपने घरवालों पर अधिक निर्भर हैं।

रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में शामिल 89% बच्चों के घर में स्मार्ट फोन है और उनमें से 92 फीसदी कहते हैं उन्हें उसका उपयोग करना आता है। मोबाइल इस्तेमाल के बारे में और भी कई तथ्य सामने आए हैं। अपना स्मार्ट फोन रखने के मामले में लड़के आगे हैं। स्वाभाविक ही, उसके उपयोग की जानकारी भी लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक है। मोबाइल से ऑनलाइन सेवाओं का उपयोग करने वालों में लड़के 38 % हैं तो लड़कियां उसकी आधी यानी मात्र 19 प्रतिशत।

'असर' की केंद्र निदेशक विलिमा वाधवा कहती हैं कि आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए ही नहीं, रोजमर्रा के जीवन में भी सामान्य पढ़ाई-लिखाई आना बहुत जरूरी है। अगर भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना है तो हमारी कामगार आबादी को विकास के मूलभूत पैमानों पर खरा रहना होगा।

'असर' का यह सर्वेक्षण देश के 26 प्रदेशों के 28 जिलों में 14-18 आयु वर्ग के 34,745 बच्चों में किया गया । उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में दो-दो और बाकी में एक-एक ग्रामीण जिला शामिल किया गया। 

2005 से नियमित 'असर' रिपोर्ट जारी करने वाली संस्था 'प्रथम' की मुखिया रुक्मिणी बनर्जी कहती हैं सामान्यत: हम 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के बीच यह सर्वे किया करते थे लेकिन इसबार 14-18 आयु वर्ग को चुना गया। पूरी रिपोर्ट को इस साइट पर देखा-पढ़ा जा सकता है-

https://asercentre.org/wp-content/uploads/2022/12/ASER-2023-Report-1.pdf

- न जो, 18 जनवरी 2024

 


Monday, January 15, 2024

धरती की मौत की घण्टी बज रही

उत्तर भारत शीतलहर की चपेट में है। घने कोहरे की चादर में सूरज दोपहर बारह-एक बजे तक ढका रहता है। उसके बाद भी इतनी मरियल धूप निकलती है कि धूप का भ्रम भर होता है। किसी-किसी दिन तो सूरज के दर्शन ही नहीं होते। विमान, रेलगाड़ियां सब अस्त-व्यस्त हैं। यह सब उस कोहरे के कारण है जो वास्तव में प्रदूषित हवाओं के ऊपर न जा पाने के कारण हमारे वातावरण में जमा हो गया है। उधर पहाड़ों पर सुबह से शाम तक निर्मल धूप खिली हुई है। सर्दियों में पहले भी शहरों का तापमान दो-तीन डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता था लेकिन दिन की अच्छी धूप कड़कड़ाते जाड़े की मुकाबला करने में सहायक होती थी। अब शहरी आबादी जाड़ों में धूप के लिए तरसती है। यह सब शहरों में निरंतर बढ़ते प्रदूषण के कारण है जिसे बढ़ाती ही जा रही हैं हमारी हरकतें। जिसे हम विकास कहते हैं या जो हमारे लिए विकास के पैमाने बना दिए गए हैं, उन्हीं सब का परिणाम है यह प्रदूषण।

विज्ञानी मानते हैं कि यद्यपि इस धरती पर मानव दो लाख साल से रह रहा है लेकिन खेती से जीवन यापन में स्थायित्व और बसासत की स्थिरता को आए हुए मात्र 12000 साल हुए हैं। इन 12000 वर्षों में पृथ्वी के पर्यावरण में बहुत अच्छी स्थिरता रही। इस दौरान वातावरण के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि नहीं हुई। पिछले 200 वर्ष ऐसे रहे हैं जिसमें औद्योगिक क्रांति हुई जिसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में लोगों की आय बढ़ी, बिजली और पानी की खपत खूब बढ़ी, कागज का उत्पादन, यातायात, दूरसंचार, पर्यटन, आदि में बेतहाशा वृद्धि हुई, उर्वरकों का उपयोग बढ़ता गया।और भी कई गतिविधियां बढती गईं। जनसंख्या में भी तेजी से बढ़त हुई। विकास ये सामाजिक-आर्थिक पैमाने सुपरिचित हैं और इन्हीं से आधुनिकता और विकास की पैमाइश होती है। 

बीती दस जनवरी को कोलकाता से प्रकाशित 'द टेलीग्राफ' के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अनूप सिन्हा का लेख 'अंतिम समय' (The Final Hour) पढ़ रहा था जो पृथ्वी पर मानव सभ्यता जनित पर्यावरण असंतुलन के बारे में हैं और गम्भीर चिंता के साथ चेतावनी भी देता है। लेखक का स्प्ष्ट कहना है कि धरती की मौत की घंटी बज रही है लेकिन हमारे राजनेताओं ने कान में अंगुली ठूंस रखी है। 

उनके अनुसार, यह साबित हो चुका है कि तथाकथित मानव विकास के पिछले दो सौ वर्षों में  'ग्रीनहाउस गैसों' का उत्सर्जन, समुद्रों का अम्लीकरण, वनों का विनाश, रिहायशी क्षेत्र की वृद्धि, जैव विविधता का विनाश, धातुओं-खनिजों का खनन और पृथ्वी का तापमान तेजी से बढ़े। इस अवधि को 'द ग्रेट एक्सलरेशन' के नाम से जाना जाता है यानी इस अवधि में जीवन-स्तर और सुख-सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई और प्राकृतिक संसाधनों पर अतुलनीय हमला हुआ। मानव आबादी का अस्तित्व बहुत बड़ी सीमा तक मशीनों और विद्युत उर्जा पर निर्भर हो गया जो सीधे-सीधे प्राकृतिक (फॉसिल) ईंधन से ली जा रही है। इन दो सौ वर्षों में मानव आबादी, जो एक अरब से कुछ ही कम थी, सात अरब से ऊपर पहुंच गई और अब भी लगातार बढ़ती जा रही है। यह विशाल आबादी अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए पृथ्वी के हर कोने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही है। ये आवश्यकताएं जितनी अधिक होती हैं, उतने ही विकसित और शक्तिशाली हम माने जाते हैं। 

प्राकृतिक संसाधनों का बढ़ता दोहन और वस्तुओं एवं सेवाओं की हमारी बढ़ती खपत के कारण बेशुमार कचड़ा पैदा हो रहा है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन केवल एक है। हमने धरती पर मिट्टी, नदियों व समुद्रों का पानी और वातावरण में हवा को भी नहीं बख्शा है। मनुष्य ऐसी भूभौतिक शक्ति बन गया है जिसके पास पृथ्वी के पर्यावरण  को बदल डालने और उसके भविष्य की दिशा निर्धारित कर सकने की ताकत आ गई है। यही असल में मानव विकास की कहानी है जिसमें इस सृष्टि की मात्र एक प्राणि-जाति (यानी मनुष्य) निरंतर शक्तिशाली होती आई है जो पूरी प्रकृति को अपने हित में नियंत्रित करने का दुस्साहस कर रही है। इस प्रवृत्ति के कारण प्रकृति को बचाए-बनाए रखना बहुत कठिन हो गया है क्योंकि हमारे पास केवल एक ही ग्रह है जिस पर जीवन निर्भर है। हम पहले ही इसका जरूरत से ज़्यादा दोहन कर चुके हैं। 

इसके बाद लेखक हमें ‘स्टॉकहोम रेजिलेंस सेंटर' के विज्ञानियों के उस दल के बारे में बताता है जिन्होंने 'प्लेनेटरी बाउंड्रीज फ्रेमवर्क' नाम से एक अध्ययन विधि तैयार की है जो पृथ्वी के उन नौ अत्यावश्यक क्षेत्रों/देनों के बारे में बताती है जिनका एक सुरक्षित सीमा से अधिक दोहन आपात मौसमी परिवर्तन ला सकता है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल और संसाधनों का भारी नुकसान हो सकता है। ये नौ क्षेत्र हैं-  मौसम परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण, फॉसफोरस और नाइट्रोजन चक्र, रासायनिक प्रदूषण, समुद्र का अम्लीकरण, ओजोन पर्त का क्षरण, भूमि उपयोग चक्र, पेयजल का दोहन और वातावरण में वायु-छत्र। लेखक चेतावनी देता है कि इनमें से लगभग सभी क्षेत्रों का हम हद से अधिक दोहन कर चुके हैं। अब विनाश की घंटी हमारे सिर के ऊपर बज रही है और सुनने वाला कोई नहीं है।

(पूरा लेख इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है-

https://www.telegraphindia.com/opinion/the-final-hour-politicians-are-deaf-to-earths-death-knell/cid/1992731

-न जो, 16 जनवरी 2024

Tuesday, January 09, 2024

जल सहेलियां: पानी, समानता और अधिकार की लड़ाई

 सोलहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब गढ़वाल (उत्तराखण्ड) के जाबांज सिपाही माधौ सिंह भण्डारी ने वर्षों की मेहनत से एक बड़ा पहाड़ काटकर अपने गांव मलेथा तक पानी की नहर पहुंचाई तो उसकी कहानी मलेथा की गूलके नाम से गीतों, नृत्य नाटिकाओं और कथाओं में आज तक कही-सुनी जाती है। पिछली सदी में बिहार के दशरथ मांझी ने अकेले दम पहाड़ काटकर अपने गांव तक सुलभ रास्ता बनाया तो उसकी ख्याति चहुं ओर पहुंची। उसके संकल्प और साहस पर फिल्म बनी लेकिन जब 2019 में जिला छतरपुर के गांव अगरौठा की युवती बबिता पंद्रह फुट ऊंचा पहाड़ काटकर अपने गांव तक 107 फुट लम्बी नहर बनाकर पानी लाई, या जब ललितपुर जिले के विजयपुरा गांव की शारदा ने पांच हजार बोरियों में बालू भरकर बरुआ नदी में बांध बना डाला और उसके सहारे गांव में पानी ले आईं या ऐसी ही अन्य जल सहेलियांअपने जीवट, संकल्प और साहस से सूखे से त्रस्त गांवों में पानी ले आईं तो जीवन भले कुछ सहज हो गया हो, उनकी कहानियां एक-दो अपवादों को छोड़कर लगभग अनजानी ही रही आईं।

वे सब महिलाएं हैं जिन्होंने जन्म लेने के साथ ही पानी के लिए जीवन खपा देने वाली अपनी मांओं, चाचियों, बुआओं आदि को देखा, बाली उम्र से स्वयं भी दूर-दूर भटककर पानी लाने के संग्राम में शामिल हुईं, पानी के लिए गालियां और मार खाई। फिर एक दिन परमार्थनाम की संस्था की पहल पर इन्होंने संकल्प ठाना कि अपनी परती धरती पर पानी का इंतज़ाम किए बिना चारा नहीं है। संस्था ने इन्हें जल सहेलियांनाम दिया लेकिन वास्तव में काम इन्होंने कर दिखाया जल-योद्धाका। ये न माधौ सिंह भण्डारी हैं न दशरथ मांझी इसलिए सीधी-सादी, ठेठ ग्रामीण और परिवार के लिए समर्पित इन महिलाओं की कहानी फिल्म या नृत्य-नाटिकाओं की सुर्खियां नहीं बनी लेकिन उनके अथक प्रयत्नों का परिणाम यह है कि आज बुंदेलखण्ड के कई गांवों में सिंचाई से खेती हो रही है, सब्जियां उगाई-बेची जा रही हैं, और पानी की उपलब्धता ने जीवन में कुछ हरियाली ला दी है, जिसकी कुछ वर्ष पहले तक कल्पना करना भी कठिन था।

लगभग अविश्वसनीय लगने वाली इन प्रेरक व रोमांचक कथाओं पर रोचक शैली में लिखी गई शिखा एस (हम उन्हें पत्रकार शिखा श्रीवास्तव के नाम से जानते रहे हैं) की पुस्तक जल सहेलियांका जब बीते रविवार को लखनऊ में कोई दो दर्जन जल सहेलियों की उपस्थिति में लोकार्पण हुआ तो सभागार में उपस्थित व्यक्तियों ने न केवल उनकी संकल्प-कथा सुनकर रोमांच अनुभव किया बल्कि एक सम्पूर्ण, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर एवं साहसी व्यक्ति के रूप में इन ग्रामीण स्त्रियों के रूपांतरण का प्रत्यक्ष अनुभव भी किया। इन महिलाओं ने, जो पहले मीलों दूर जाकर पानी ढोया करती थीं, अपने गांवों तक नहर या बांध या कुओं य अन्य उपायों से पानी सुलभ कराने से पहले उससे भी बड़ी लड़ाई लड़ी जो अक्सर देखी-दिखाई नहीं जाती। वह लड़ाई है बुंदेलखंड जैसे घोर पितृसत्तात्मक समाज से लड़ते हुए अपने संकल्प को पूरा करने के वास्ते एक राह बनाना। पानी लाने के प्रयासों की पहल तो बाद में शुरू हुई, घूंघट में रहने वाली इन महिलाओं के लिए पहले शुरू हुआ अपने पति और गांव के पुरुषों की घोर निषेधात्मक चट्टान से टकराना। उसके बिना उनके लिए पानी ढोने और चूल्हा-चौका करने के अलावा कुछ भी करना बेहद कठिन था।

इसलिए इन जल सहेलियों की ये सफलता-कथाएं सबसे पहले स्त्री-स्वतंत्रता, समान अधिकार और निर्णय में भागीदार बनने की ओजपूर्ण कथाएं हैं। यह सही अर्थों में नारी स्वतंत्रता और समानता हासिल करना है जो शहरों के सेमिनारों और मंचीय घोषणाओं से नहीं पाया जा सकता। इन जल सहेलियों ने समानता और स्वतंत्रता लड़कर, छीनकर हासिल की है। पुस्तक लोकार्पण समारोह में विभिन्न वय की इन महिलाओं को निस्संकोच अपनी बोली में ललकारते और अपनी कथा सुनाते देख-सुनकर इसे अनुभव किया जा सकता था। वे अपने घर-परिवार, गांव और ब्लॉक, क्षेत्र पंचायत में ही नहीं कभी-कभार सभा करने आने वाले नेताओं के सामने भी डटकर वह सच कहना सीख गई हैं जो राजनैतिक भाषणों के झूठे परदे में अक्सर ढका रह जाता है।

जल के रंग वाली आसमानी साड़ियां पहनने वाली जल सहेलियोंकी सफलता के पीछे परमार्थसंस्था के संजय सिंह की प्रेरणा है, जिन्होंने बुंदेलखंड के गांवों में पानी बचाने और जुटाने का सपना देखने के बाद इन महिलाओं को आगे आने के लिए प्रेरित किया। ललितपुर के तालबेहट गांव की सिरकुंवर वह महिला है, जिसने सबसे पहले पानी की लड़ाई लड़ने की हामी भरी और घर के पुरुषों के गुस्से की परवाह न कर मोर्चा बांधा। आज वे अपने इलाके में नेताजीके नाम से सम्मानित हैं।

शिखा ने यह किताब लिखकर सराहनीय काम किया है। जल सहेलियों की ये सच्ची कथाएं खूब पढ़ी-पढ़ाई जानी चाहिए ताकि इस विशाल देश के ग्रामीण समाज की जमीनी हकीकत बदलने की यह लड़ाई फैले और समाज जाने कि सीधी-भोली-शर्मीली कही जाने वाली स्त्रियां जब कुछ ठान लेती हैं तो कैसे बदलाव आता है। पुस्तक को ग्रे पैरट पब्लिशर्स’ (हमारे इनोवेटिव अविनाश चंद्र का उद्यम) ने बड़ी सादगी लेकिन सुरुचि से प्रकाशित किया है।

जल सहेलियांनाम से किताब अमेजन पर उपल्बध है। इसकी विक्री और रॉयल्टी का धन जल सहेलियों के आंदोलन के विस्तार हेतु ही खर्च किया जाएगा, ऐसी घोषणा भी किताब की विक्री को बढ़ाने में सहायक होनी चाहिए।

- नवीन जोशी, 09 जनवरी, 2024

 

Thursday, January 04, 2024

पहाड़ की बरबादी की खोज-खबर- देवभूमि डेवलपर्स

 (कथाकार और शोधधर्मी लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा जी ने मेरा उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' पढ़कर निम्नांकित  टिप्पणी लिखी है)


नशा नहीं, रोजगार दो, काम का अधिकार दो, यह नारा हमने 1984 के आसपास सुना था। तब गढ़वाल और कुमाऊं मण्डल, उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्से थे। गर्मियों में नेताओं की सैरगाह थे। नैनीताल ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। इस सैरगाह को ऐशगाह में बदलने वाली सत्ता ने नशाखोरी को बढ़ाया। पहाड़ों के प्राकृतिक विकास पर कभी गंभीरता से सोचा नहीं । उद्योगपतियों की निगाहें चूना पत्थर के खनन तक सीमित थीं। पर्वतों की रानी मसूरी उजाड़ हो रही थी और चूना पत्थर खदानों के धुंए से देहरादून की आबोहवा बर्बाद हो रही थी। लीची के बाग उजड़ने शुरू हुए थे। प्राकृतिक संसाधनों की लूट, झूठ और गांवों को नशाखोरी में लिप्त कर, पांच बजे ही सुला देने वाले निजाम के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन जंगलों को बचाने का चला, चिपको आंदोलन। बाद में नशाखोरी से बर्बाद होते गांवों को बचाने का एक मजबूत आंदोलन चला, नशा नहीं, रोजगार दो। इस आंदोलन की बागडोर महिलाओं के हाथों में थी। शराब के ठेकों की नीलामी रोकने के लिए महिलाओं ने लाठियां खाईं। शासन, प्रशासन के दोगले चरित्र से टकराईं और पहाड़ों का चक्का जाम कराया। इसी पृष्ठभूमि से उत्तराखण्ड का आंदोलन शुरू हुआ जो 2000 तक जाते, जाते अलग प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आया। मगर अलग अस्तित्व मात्र से पहाड़ का दर्द खत्म नहीं हुआ। पहाड़ की चोटियों ने खुद को प्राकृतिक रूप से भी लुटा- पिटा पाया तो, रोजगार की तलाश में जारी विस्थापन ने इन्हें भुतहा भी बनाया। गांव के गांव उजड़ गए। विकास का माडल कार्पोरेट हितैषी था तो बड़े- बड़े बांध बनाने के खेल में प्राकृतिक नुकसान तो हुआ ही, विस्थापन की नई त्रासदी सामने आई। टिहरी बांध से डूबी पुरानी टिहरी का दर्द, आंदोलन, विस्थापन, पहाड़ों को छलनी कर गया। नए निजाम का चेहरा, पहले से कम विकृत न था। उत्तराखंड का दर्द कम न हुआ। मुझे इस दर्द को करीब से देखने का अवसर मिला है। लगभग 12 सालों तक देहरादून में रहा हूं। कुमाऊँ और गढ़वाल के सभी स्थलों को देखा हूं। पुरानी टिहरी को और नई टिहरी, दोनों को देखा है। प्राकृतिक आपदाओं को भी विकास के नए माडल ने बढ़ाया है । इधर बादल फटने से जो पहाड़ों पर तबाही आई उसकी कहानी अलग है। देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड के प्रति सभी सरकारों का नजरिया मात्र व्यवसायिक रहा है। 
वरिष्ठ कथाकार और उपन्यासकार, नवीन जोशी ने अपने उपन्यास" देवभूमि डेवलपर्स" में पहाड़ के इन्हीं मुद्दों को, जनसरोकार के नजरिए से उठाया है। इस उपन्यास में सिर्फ कथारस चाहने की ललक के बजाय, विगत चार दशकों की राजनीति, पहाड़ों की बरबादी, विस्थापन, विकास के दोगले तरीकों को जानने में नवीन जोशी का यह उपन्यास हमारी मदद करता है। यह विस्थापन कई तरह का है। एक उनका भी है, जो हैं तो वहीं, मगर पहाड़ पर उनका हक नहीं बचा है। बूढ़ी भागा देवी को तभी तो कहना पड़ता है कि, "इन खबीसों ने हमारी जमीन घेर ली है। बिजली का करंट दौड़ा रखा है बल तार में। नहीं तो मैं दातुला लेकर चली जाती भीतर। हम घास कहां से काटेंगी? जानवर कहां चरायेंगी?" बैजंती काकी जा चुकी हैं। उत्तराखंड की राजधानी का प्रश्न अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। अब गैरसैंण राजधानी बनने से रही मगर गांव की जमीनों पर कब्जा कर डेवलपर्स अपना धंधा जारी रखे हुए हैं। 
इस उपन्यास में एक साथ कई जनांदोलनों और विडंबनाओं की श्रृंखला से गुजरते हुए, हम शोषकों के वर्गचरित्र से रूबरू होते हैं और कल के भारत को बर्बाद करने वालों की भी पहचान कर सकते हैं। (प्रकाशक- हिंदयुग्म, नोएडा)

Tuesday, January 02, 2024

कहानी/ मुहब्बत जिंदाबाद

नवीन जोशी

हमारा यह पेड़ पता नहीं कब इत्ता बड़ा हो गया! कुछ समय पहले तक तो छोटा-सा दिखता था। बच्चे उस पर आसानी से लटकतेचढ़ते और कूदते थे। उसकी डालें पकड़ कर झूलते थे। बच्चों के खेल में शामिल होकर अक्सर वह खुशी से दोहरा हो रहता। थक-हारकर बच्चे घर चले जाते तो वह भी आराम करता और सुबह फिर सीधा खड़ा नजर आता था। कॉलोनी आबाद ही हो रही थी। जब हम यहां अपने मकान में रहने आए तो पार्क उजाड़ था। बाद में नगर निगम ने चारदीवारी बनवा दी। बहुत दिन तक पार्क उजाड़ ही पड़ा रहा तो कॉलोनी वालों ने अपनी सोसायटी बनाई और एक माली रखकर उसकी देखभाल शुरू की। चारों तरफ सजावटी पौधे और फूल वाली झाड़ियां लगवाईं। बीच में क्यारियां बनवाकर गुलाब लगाए। मौसमी फूलों की जगह बनाई। कोने वाला यह पौधा अपनी तरह का अकेला ही था। पार्क के कोने में शायद अपने आप उग आया होगा। माली ने ही इसे पाल लिया। कहता था- पीपल है। शुभ होता है। रहने दीजिए वह भी बेशर्मी से बढ़ता रहा। बच्चों से उसकी खूब दोस्ती हो गई। क्यारियां कुचलने के लिए जब वे माली और बड़ों से डांट खाते तो कोने में पीपल के साथ खेलने चले आते। उसकी पतली-पतली डालों में बाहें डालतेउसके पत्तों को एक-दूसरे के गालों में छुते और उसके चारों तरफ नाचते। बच्चों के साथ वह भी बड़ा होता रहा। उसकी बढ़वार अच्छी और तेज रही। बच्चों के कद को पीछे छोड़कर उसकी शाखें ऊंची उठती गईं। बच्चों के गालों से अधिक उसके पत्ते चमकीले हुए। उसने धरती के दिल में जगह बनाई और मिट्टी का कसकर आलिंगन किया। जवाबी मुहब्बत ने उसे खुशमिजाज बनाया तो उसने किलक कर बच्चों को अपने कांधों पर बैठाना शुरू किया। बच्चों को उसकी सवारी खूब भाई।खिलखिलाते हुए वे उस पर चढ़ते और कूदने की प्रतियोगिता करते। पीपल अपनी शाखाएं झुका-झुका कर बच्चों के खेल में शामिल होता। कुछ ने उसके पत्ते की नकल अपनी आर्ट कॉपी पर उतारी और उसमें वैसे ही रंग भरे। कुछ ने उसका पत्ता तोड़कर स्क्रैप बुक में चिपकाया और लिखा- हमारा दोस्त पीपल।

फिर गिलहरियां आई और पेड़ से बच्चों की तरह मुहब्बत कर बैठीं। वे उस पर चढ़ती-उतरती और शाखों के बीच अचानक उचककर अगले पंजों से मुंह पोंछती। फिर किलकारी मारते हुए एक-दूसरे का पीछा करते-करते पास की झाड़ियों में छुप जातीं। गिलहरियों की मस्ती की देख कौवे चले आए और हमारी सुबह की उबासियों में कां-कां-कां की ताजगी भरने लगी। बासी रोटीके टुकड़े के लिए वे दरवाजे की तरफ गरदन तिरछी करके देखा करते। कौओं के बाद फाख्ता आए या हो सकता है वे चुपचाप उनसे पहले आ गए हों। जिस दिन उनकी घू-घुघ्घू-घू सुनी उस दिन पत्नी मायके की याद में भावुक हो गई। हलके भूरे-बादामी रंग वाला चित्तीदार शॉल ओढ़े हुए फाख्ते पेड़ की फुनगियों से लहरदार उड़ान भरते हुए छत की मुंडेर पर बैठने लगे। पेड़ अपनीबिरादरी बढ़ाते गया। कभी कोई लम्बी पूंछ वाला रिश्तेदार उससे भेंट करने चला आता। कोई चोंच में लाल रंग दाबे और कोई गले में नीला दुपट्टा ओढ़ेउसकी शाखों पर मेहमान बना अकड़ा फिरता रह-रहकर तीखी सीटी बजाने वाली बित्ते भर की रंग-बिरंगी चिड़ियां तो जैसे पेड़ ने खुद ही पैदा कर दी थीं। 

 

पेड़ के दोस्त बच्चे भी बड़े हुए तो उनके सपनों में तितलियां आने लगीं। उनका पीछा करने वे दूर-दूर उड़ गए। पेड़ उनकी मुहब्बत सहेजे आस-पास के मकानों की छतों से ऊपर निकल आया, जैसे अपनी ऊंची लहराती शाखों से उनकी परवाज पर खुशी मनाता हो। उसकी कुछ भुजाओं ने चौतरफा झुककर एक खूबसूरत आशियाना भी चुपके-चुपके बना लिया जिसके घेरे में उसनेसबके बचपन की मधुर स्मृतियों को पनाह दी। या क्या पताउसके रेशों में भी हार्मोन के हरकारे सनसनी उत्पन्न करने लगे हों। जमीन क झुक आई उसकी बाहों का घेरा मुहब्बतों की पनाहगार बन गया।

वह भूल गया होगा कि मुहब्बत करने वाले और उनके शरणदाता गुनाहगार घोषित होते आए हैं। याउसने इसकी परवाह ही नहीं की होगी। 

 

*  * *

 

“त्यागी जीबाहर आइए तो जरा, घण्टी के लगातार बजने के साथ ही गर्जना सुनाई दी। चाय का कप लेकर सुबह का अखबार खोलकर बैठा ही था। सुबह आराम से पढ़ना हो नहीं पाता। जरूरी खबरें सरसरी तौर पर देखीं और पन्ने पलट लिए। जाड़े में वैसे ही नींद देर से खुलती है या यूं कह लीजिए कि रजाई छोड़ने का मन नहीं होता। ऑफिस टाइम से पहुंचने के लिए साढ़े आठ तक घर छोड़ देना पड़ता है। कब कहां जाम मिल जाएकब किस वीवीआईपी का मूवमेण्ट हो रहा हो और सीटियां बजाते सिपाही पंद्रह-बीस मिनट तक ट्रैफिक रोक देंकुछ कहा नहीं जा सकता। अधीनस्थ कर्मचारियों को समय से न आने के लिए टोकना हो तो खुद समय से पहुंचना जरूरी है। सोचुनिंदा खबरें विस्तार से या कोई लेख आराम से पढ़ने के लिए शाम को ही इतमीनान मिलता है।

 

त्यागी जी! इस बार जोर से पुकारने के साथ गेट की कुण्डी भी खड़खड़ाने लगी।

देखिए तो कौन है, किचन से पत्नी ने चिढ़कर पुकारा। 

मैं गुस्से से लगभग फनफनाते हुए बाहर दौड़ा- “कौन है भाईएक बार घण्टी बजाने से नहीं होता?

अरेशुक्ला जी! कुमार साबक्या हो गया? आवाज में गुस्सा न झलके इसके लिए बहुत यत्न करना पड़ा। गेट पर चार-पांच पड़ोसी खड़े थे। पता नहीं क्या समस्या आन पड़ी है

क्या सचिव जीआपके रहते पार्क में यह सब क्या हो रहा?” शुक्ला जी के तेवर पड़ोसी वाले नहीं थे।

और ठीक आपके घर के सामने! यह कुमार साब थेजिनकी आवाज में तंज भरपूर था।

“अरे यारप लोग तो सीधे हमलावर हो गए। उन्हें बताइए तो, मित्तल जी ने साथ वालों को टोका। मैं सचमुच सदमे में था। पड़ोसियों ने इस तरह पहले कभी बात नहीं की थी।

“आप ही बता दीजिए न, शुक्ला जी की भौंहें तनी हुई थीं।

“क्या हुआमित्तल जी? मैंने उन्हीं की ओर देखा।

पीपल के नीचे देखिए। बेंच पर।

देखिए-देखिएकैसी बेशर्मी से चिपके बैठे हैं।

“टोका भी जा चुका है लेकिन कोई असर नहीं। रोजाना का किस्सा हो गया।

“किसी-किसी शाम तो दो-तीन जोड़े बैठे रहते हैं।”

अजीदिन में भी ने लगे है। वाइफ बता रही थी।”

“सुन रहे होंगे लेकिन हिल नहीं रहे। कैसा बेशर्म जमाना आ गया!”

 

अपने गेट पर खड़े-खड़े मैं देख सकता था। ठीक सामने कोने में हमारे पीपलके पेड़ की नीचे तक झुक आई घनी शाखाओं की आड़ मेंजहां पार्क के बीचों बीच लगे हाई मास्ट एलईडी लाइट की रोशनी के बावजूद अंधेरा रहता हैबेंच पर लड़के-लड़की का जोड़ा एक दूसरे से सटकर बैठा था। यहां सब आक्रोश में जोर-जोर से बोल रहे थे। उन तक ये आवाजें जरूर पहुंच रही होंगी। या तो वे जान-बूझकर अनसुना कर रहे थे या अपने में ही इतना खोए हुए थे कि और कुछ देख-सुन नहीं पा रहे थे। लड़के का एक हाथ लड़की के कंधे पर था। लड़की रह-रहकर खिलखिला रही थी और लड़के के सिर में चपत लगा रही थी। यह कोई अजूबा दृश्य नहीं था। पार्कों मेंसड़क किनारे और ढाबों-रेस्त्राओं में आजकल यह आम बात है

 “कॉलोनी के सचिव का यही काम रह गया कि वह प्रेमी जोड़ों को हाँका करे? मैं अपनी आवाज में मजाकिया पुट देते हुए मुस्कराया भी। जिस तरह घण्टी और गेट की कुण्डी खड़खड़ाई गई थी, उसका गुस्सा मेरे भीतर अब भी लहरा रहा था।

त्यागी जीबात मजाक की नहीं है। बहू-बेटियों वाला मुहल्ला है।”

“एक दिन की बात हो तो इग्नोर भी करें। हमारी वाइफ ने तो शर्म के मारे पार्क में घूमना छोड़ दिया है।”

“चलिए भगाते हैं इनको, शुक्ला जी ने ललकारा।

“चलिए सचिव महोदयआगे-आगे चलिए, मित्तल जी ने मेरा हाथ खींचा। मुझे साथ जाना पड़ा। एकाएक हमें सामने खड़ा देखकर दोनों सकपका गए लेकिन अपनी जगह बैठे रहे। शरम-ओ लिहाजमर्यादापरिवार की इज्जतसच्चरित्रताआदि-आदि के रटे-रटाए प्रवचन उन्होंने चुपचाप सुन लिए और जीअंकल जी कहकर चलते बने प्रवचनों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा था। जाते हुए भी वे एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे।

बेशर्मी देखी! शुक्ला जी पीछे से गरजे। 

 

कॉलोनी की सोसायटी के सचिव पद से इस्तीफा देने का फैसला लेते हुए मैं घर लौट आया। मैंने चुनाव के समय ही मना किया था लेकिन मुझ पर फैसला लाद दिया गया कि बारी-बारी सबको बनना ही है। पार्क की देख-रेख के लिए माली है। एक चौकीदार है। हिसाब-किताब के लिए कोषाध्यक्ष है। करना ही क्या है? चल भी ठीक ही रहा था लेकिन अब यह! इस जमाने में ड़के-लड़कियों को मिलने-बैठने से कोई रोक सकता है क्या! यहां नहीं बैठेंगे तो कोई और कोना तलाश लेंगे। इस शुक्ला का लड़का नहीं ले आया एक कायस्थन! बिना मिले-जुलेपार्क या रेस्त्रां या मल्टीप्लेक्स में गए ही हो ग लव मैरिज! बड़ा मॉरल पुलिसिंग करता फिर रहा! नहीं करनी ऐसी सचिवगीरी। यहां अपने ही काम के लिए टाइम कम पड़ जाता है।

 

* * *   

पार्क के चारों गेटों पर ताले लगा दिए गए। एक चाबी माली को और बाकी आस-पास के घरों में दे दी गईं। समिति की मीटिंग में तय हुआ कि सुबह छह बजे ताले खोले जाएंगे और शाम को आठ बजे बंद कर दिए जाएंगे। दिन में माली रहता है तो भी एक ही गेट खोला जाए। बाहरी आवाराबदतमीजलड़के-लड़कियों का आना रुक जाएगा तो फिर ढील दी जा सकेगी। मेरा इस्तीफा हवा में उड़ा दिया गया थाआप तो दिल में ले लेते हैंत्यागी जी। समस्या का समाधान चाहिएमैदान छोड़ने से क्या होगा।

गेट पर लगे ताले समस्या का समाधान नहीं कर पाए। पार्क की चारदीवारी इतनी ऊंची नहीं थी कि लड़के-लड़कियों की पेंगें रोक पाती। कुछ ही दिन में पता चल गया कि शाम को ताला लगने के बाद भी दीवारें फलांगी जानें लगी हैं। दीवार के सहारे चार ईंटों का रद्दा काफी था। कई बार तो लड़के-लड़कियों के स्कूली या पिट्ठू बैग़ या दो-चार किताबें मदद कर देते। कॉलोनी की महिलाओं की खोजी नजरों ने जो देखा या पुरुषों ने सरे शाम पायावह फिर एक अनौपचारिक मीटिंग का मुद्दा बना। माली को ऐसे वारा-बेशर्म लड़के-लड़कियों को पार्क से भगाने के निर्देश दिए गए। चंद रोज में ही माली ने हाथ खड़े कर दिए- “साहबकौनू-कौनू तौ मान जावत हैकौनू लड़ै लागत है मुला करत कछु नाहीं साहबबस बइठ रहत हैं देर तलकबतियात हैफूलौ नाहीं तोड़त।”      

फूल तोड़ते तो 

उतनी खतरनाक बात नहीं थी। पार्क में चिपटा-चिपटी करने वाले लड़के-लड़कियां जाने क्या-क्या तोड़े दे रहे थे। इसे चलने नहीं दिया जा सकता था। कॉलोनी के बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़नेविशेष रूप से बहू-बेटियों के बिगड़ने का खतरा तो था ही। बूढ़े माली को निहायत नासमझ और बेवकूफ घोषित करते हुए नए उपायों पर विचार किया जाने लगा।   

“पेड़ के नीचे अंधेरे कोनों वाली बेंचें हटा दी जाएं।”

“नहीं-नहीं। बेंच हमें नहीं चाहिए क्याउन बेशर्मों का क्या हैनीचे घास या मिट्टी में ही बैठ जाएंगे।”

अंतत: दोष उ पीपल का पाया गया जो बढ़ते-बढ़ते इतना छनार हो गया था कि बिल्कुल नीचे आ गई शाखाओं से अच्छी-खासी आड़ हो गई थी। इसी कारण पार्क के बीच में लगी तेज एलईडी लाइट की रोशनी भी वहां नहीं पहुंचती। पेड़ को छंटवाना होगा। इसी आड़ और अंधेरे में अड्डा बना लिया है मजनुओं ने

माली ने पीपल के पेड़ पर बांका लगाने से साफ मना कर दिया- “पीपल पर हथियार न चलाव साहब। पाप लागी। कौनू मुसलमान बुलाया जाई।” कोई मुसलमान ढूंढ लिया जाता लेकिन पाया गया कि कुछ डालें छांटने से ही बात नहीं बनने वाली। 

“नगर निगम से बात की जाए कि वह पेड़ को छंटवा दे।”

वन विभाग से कहना पड़ेगा।”

“वन विभाग से परमिशन लेना नगर निगम का काम है।”

 

इलाके के भासद ने सलाह दी कि बड़े पेड़ों से आस-पास के मकानों और बिजली के तारों को खतरा होने की अर्जी लिखी जाए। इसी आधार पर नगर निगम वन विभाग से पेड़ों की छंटाई की अनुमति ले पाएगा। सचिव के नाते आवेदन पत्र पर मुझे हस्ताक्षर करने पड़े। मैं आनाकानी कर रहा था लेकिन पत्नी ने कहा कि इस पेड़ ने धूप भी रोक रखी है, छंटाई हो जाएगी तो जाड़ों में नीचे बरामदे तक अच्छी धूप आएगी। 

 

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जाड़ों के छोटे दिनों में दफ्तर से आते-आते अंधेरा हो जाता है। तो भी घर के सामने कार से उतरते ही लगा कि जैसे आज रोशनी फूटी पड़ रही है। कॉलोनी का आकाश जैसे हट गया हो! इतना खुला-खुला लगा कि जैसे कहीं और पहुंच गया होऊं। गेट बंद करते हुए ध्यान गया कि पार्क का पीपल ही नहींकॉलोनी की सड़कों के किनारे लगे गुलमोहरअमलतासबॉटल ब्रश के पेड़ भी मुण्डे हो गए हैं। पीपल की जगह तो सिर्फ ठूंठ खड़ा था। शायद ही किसी डाली पर पत्ते बचे हों। आठ-दस फुट के ने से निकली कुछ मोटी शाखाओं के ठूंठ कबंध की तरह वीभत्स दिख रहे थे। मेरा मुंह देखते ही पत्नी बताने लगी‌- “सारे मकानों से लोग निकल आए थे। किसी ने इधर की डाल कटवाईकिसी ने उधर की। सभी को अचानक याद आ गया कि बड़े पेड़ों से धूप रुक रही है। किसी को अपने बरामदे में पत्ते गिरने की शिकायत हो गई। किसी को लगा कि आंधी में कोई डाल टूटकर उनके मकान पर न गिर जाय। पूरी दो डाला लकड़ी लाद ले गए ठेकेदार के लोग।”

देखा त्यागी जी,” प्रफुल्लित शुक्ला जीकुमार साब और मित्तल जी पार्क का मुआयना करके आ पहुंचे- न रहा बांसन बजेगी बांसुरी! अब नहीं दिखेंगे कोई रोमियो-फोमियो।

रोज की तरह सुबह हुई लेकिन वह इतनी उदास पहले कभी नहीं लगी थीकां-कां-कां करके पीपल को गुलजार रखने वाले कौवे लाइन से बिजली के तारों पर मातमपुरसी में बैठे थे। फाख्ता के तीन-चार जोड़े घू-घुघ्घू-घूबोलना भूलकर पास के मकानों की मुडेरों पर हैरान-परेशान चारों तरफ गरदनें घुमा रहे थे। गौरैयों का झुण्ड उजाड़ दी गई बस्ती के बाशिदों की तरह पार्क की चारदीवारी पर सदमे में बैठा था। झाड़ियों में बसने वाली नन्हीं-नन्हीं चिड़ियां भी फुदक-फुदक कर माजरा समझने की कोशिश कर रही थी। सतबहिनी का गिरोह रुदालियों की तरह विलाप करते नहीं थक रहा था। गिलहरियां पेड़ के ठूंठ से ऊपर का रास्ता न पाकर पूंछ खड़ी करके हैरान थीं। सुबह की हवा में स्तब्धता थी। सब कुछ बेसुरा और बेताला लग रहा था।

 

देस बिराना हो गया था। सोधूप आते-आते चिड़ियों ने पंख फड़फड़ाए और किसी दूसरी दिशा में निकल गए। गिलहरियों ने झाड़ियों से ही संतोष कर लिया। शायद ही किसी ने इस ओर ध्यान दिया हो। बड़े संतोष से यह अवश्यनोट किया गया कि पार्क बहू-बेटियों और मान-मर्यादा के लिए सुरक्षित हो गया है।         

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कॉलोनी का जीवन अपनी रफ्तार चलता रहा। याद रह जाने या ध्यान देनेलायक विशेष घटनाएं नहीं घटीं। हांकॉलोनी में लव जिहाद का एक सनसनीखेज मामला होते-होते बच गया। मित्तल साब की लड़की और उसका पुराना क्लास फैलो अकरम शादी की ज़िद ठान बैठे थेजिन्हें दोनों परिवारों ने अखबारों से मय सबूत दर्जनों उदाहरण दे-दे कर किसी तरह समझाया-मनाया। अब तो मित्तल साब सजातीय विवाह सकुशल निपटा कर हनुमान जी के घनघोर भक्त बन चुके हैं। कुमार साब का लड़का आईआईटी में चुन लिया गया तो उन्होंने बढ़िया दावत दी थी। पत्नी ने दिन में ही फोन करके कोटा में कोचिंग कर रहे हमारे बेटे को यह खबर जिस अंदाज में सुनाईउससे बेटा भड़क गया था और उसने हफ्तों उसका फोन नहीं उठाया। शुक्ला जी की बहू रागिनी ने बहुत समझाए जाने के बाद भी विवाह पंजीकरण के समय न केवल अपने नाम के आगे श्रीवास्तव’ ही दर्ज़ करवायाबल्कि मजिस्ट्रेट के सामने अपने पति से पूछ लिया कि तुम लिखोगे अपने नाम के आगे श्रीवास्तव?’ उसके इस तेवर पर कई दिन तक बाप रे! से शुरू करके घर-घर टीका-टिप्पणियां और लम्बी पंचायतें होती रहीं बसऐसे ही कॉलोनी का जीवन चल रहा था और मौसम आ-जा रहे थे

 

वह अप्रैल के एक इतवार की सुहानी सुबह थी जब बहुत पहचानी घू-घुघ्घू-घूघू-घुघ्घू-घू ने ध्यान खींचा। बहुत दिनों बाद फाख्ते का एक जोड़ा घर के सामने बिजली के तारों पर अगल-बगल बैठा दिखा

आज यहां कहां भटक आएयार?’ नसे उलाहना-सा करते हुए मैंने पार्क में खड़े पीपल के ठूंठ की ओर देखा। अरेवाह! ये कब हो गया! आश्चर्य और आनंद से मन पुलकित हो आया। ठूंठ बना दी गई शाखाओं पर सैकड़ों कल्ले उग आए थे। काटी गई मोटी शाखाओं के इर्द-गिर्द खूबसूरत घने गुलदस्ते-सेसजे हुए थे कुछ नई टहनियों की बढ़वार अच्छी थी। वे झुरमुट से सिर ऊपर निकाले आसमान की तरफ लपके पड़ रहे थे। हजारों की संख्या में ताजेहरे-धानी, चमकदार कोमल पत्ते हवा में खुशी से नाच रहे थे। एक फाख्ता तार पर से उड़ा और पेड़ के ऊपर गोल चक्कर काट कर नए पत्तों के बीच जा बैठा। उसने दो बार घू-घुघ्घू-घू’ की आतुर पुकार लगाई तो उसका साथी भी उड़कर उसके पास जा पहुंचा। पीपल के ताजे कोमल पत्तों के बीच बैठा फाख्ते का जोड़ा गरदन फुला कर चोंचें लड़ाने लगा। उनके मटमैले-भूरे चित्तीदार पंख धानी गुलदस्ते के बीच क्या ही खूब फब रहे थे। तभी झाड़ियों में छुपी गिलहरी ने किलकारी मारी फाख्ता पत्तों के बीच और भी दुबक गए। 

 

पेड़ ने ठूंठ बने रहने से इनकार करते हुए बगावत कर दी थी। यही नहींउसने अपनी मुहब्बतों को भी आवाज दे दी थी।    

 

(NBT, Mumbai के दीपावली विशेषांक, 2023 में प्रकाशित)     

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