नवीन जोशी
हमारा यह पेड़ पता नहीं कब इत्ता बड़ा हो गया! कुछ समय पहले तक तो छोटा-सा दिखता था। बच्चे उस पर आसानी से लटकते, चढ़ते और कूदते थे। उसकी डालें पकड़ कर झूलते थे। बच्चों के खेल में शामिल होकर अक्सर वह खुशी से दोहरा हो रहता। थक-हारकर बच्चे घर चले जाते तो वह भी आराम करता और सुबह फिर सीधा खड़ा नजर आता था। कॉलोनी आबाद ही हो रही थी। जब हम यहां अपने मकान में रहने आए तो पार्क उजाड़ था। बाद में नगर निगम ने चारदीवारी बनवा दी। बहुत दिन तक पार्क उजाड़ ही पड़ा रहा तो कॉलोनी वालों ने अपनी सोसायटी बनाई और एक माली रखकर उसकी देखभाल शुरू की। चारों तरफ सजावटी पौधे और फूल वाली झाड़ियां लगवाईं। बीच में क्यारियां बनवाकर गुलाब लगाए। मौसमी फूलों की जगह बनाई। कोने वाला यह पौधा अपनी तरह का अकेला ही था। पार्क के कोने में शायद अपने आप उग आया होगा। माली ने ही इसे पाल लिया। कहता था- ‘पीपल है। शुभ होता है। रहने दीजिए।’ वह भी बेशर्मी से बढ़ता रहा। बच्चों से उसकी खूब दोस्ती हो गई। क्यारियां कुचलने के लिए जब वे माली और बड़ों से डांट खाते तो कोने में पीपल के साथ खेलने चले आते। उसकी पतली-पतली डालों में बाहें डालते, उसके पत्तों को एक-दूसरे के गालों में छुआते और उसके चारों तरफ नाचते। बच्चों के साथ वह भी बड़ा होता रहा। उसकी बढ़वार अच्छी और तेज रही। बच्चों के कद को पीछे छोड़कर उसकी शाखें ऊंची उठती गईं। बच्चों के गालों से अधिक उसके पत्ते चमकीले हुए। उसने धरती के दिल में जगह बनाई और मिट्टी का कसकर आलिंगन किया। जवाबी मुहब्बत ने उसे खुशमिजाज बनाया तो उसने किलक कर बच्चों को अपने कांधों पर बैठाना शुरू किया। बच्चों को उसकी सवारी खूब भाई।खिलखिलाते हुए वे उस पर चढ़ते और कूदने की प्रतियोगिता करते। पीपल अपनी शाखाएं झुका-झुका कर बच्चों के खेल में शामिल होता। कुछ ने उसके पत्ते की नकल अपनी आर्ट कॉपी पर उतारी और उसमें वैसे ही रंग भरे। कुछ ने उसका पत्ता तोड़कर स्क्रैप बुक में चिपकाया और लिखा- हमारा दोस्त पीपल।फिर गिलहरियां आई और पेड़ से बच्चों की तरह मुहब्बत कर बैठीं। वे उस पर चढ़ती-उतरती और शाखों के बीच अचानक उचककर अगले पंजों से मुंह पोंछती। फिर किलकारी मारते हुए एक-दूसरे का पीछा करते-करते पास की झाड़ियों में छुप जातीं। गिलहरियों की मस्ती की देख कौवे चले आए और हमारी सुबह की उबासियों में कां-कां-कां की ताजगी भरने लगी। बासी रोटीके टुकड़े के लिए वे दरवाजे की तरफ गरदन तिरछी करके देखा करते। कौओं के बाद फाख्ता आए या हो सकता है वे चुपचाप उनसे पहले आ गए हों। जिस दिन उनकी ‘घू-घुघ्घू-घू’ सुनी उस दिन पत्नी मायके की याद में भावुक हो गई। हलके भूरे-बादामी रंग वाला चित्तीदार शॉल ओढ़े हुए फाख्ते पेड़ की फुनगियों से लहरदार उड़ान भरते हुए छत की मुंडेर पर बैठने लगे। पेड़ अपनीबिरादरी बढ़ाते गया। कभी कोई लम्बी पूंछ वाला रिश्तेदार उससे भेंट करने चला आता। कोई चोंच में लाल रंग दाबे और कोई गले में नीला दुपट्टा ओढ़ेउसकी शाखों पर मेहमान बना अकड़ा फिरता। रह-रहकर तीखी सीटी बजाने वाली बित्ते भर की रंग-बिरंगी चिड़ियां तो जैसे पेड़ ने खुद ही पैदा कर दी थीं।
पेड़ के दोस्त बच्चे भी बड़े हुए तो उनके सपनों में तितलियां आने लगीं। उनका पीछा करने वे दूर-दूर उड़ गए। पेड़ उनकी मुहब्बत सहेजे आस-पास के मकानों की छतों से ऊपर निकल आया, जैसे अपनी ऊंची लहराती शाखों से उनकी परवाज पर खुशी मनाता हो। उसकी कुछ भुजाओं ने चौतरफा झुककर एक खूबसूरत आशियाना भी चुपके-चुपके बना लिया जिसके घेरे में उसनेसबके बचपन की मधुर स्मृतियों को पनाह दी। या क्या पता, उसके रेशों में भी हार्मोन के हरकारे सनसनी उत्पन्न करने लगे हों। जमीन तक झुक आई उसकी बाहों का घेरा मुहब्बतों की पनाहगार बन गया।
वह भूल गया होगा कि मुहब्बत करने वाले और उनके शरणदाता गुनाहगार घोषित होते आए हैं। या, उसने इसकी परवाह ही नहीं की होगी।
* * *
“त्यागी जी, बाहर आइए तो जरा,” घण्टी के लगातार बजने के साथ ही गर्जना सुनाई दी। चाय का कप लेकर सुबह का अखबार खोलकर बैठा ही था। सुबह आराम से पढ़ना हो नहीं पाता। जरूरी खबरें सरसरी तौर पर देखीं और पन्ने पलट लिए। जाड़े में वैसे ही नींद देर से खुलती है या यूं कह लीजिए कि रजाई छोड़ने का मन नहीं होता। ऑफिस टाइम से पहुंचने के लिए साढ़े आठ तक घर छोड़ देना पड़ता है। कब कहां जाम मिल जाए, कब किस वीवीआईपी का मूवमेण्ट हो रहा हो और सीटियां बजाते सिपाही पंद्रह-बीस मिनट तक ट्रैफिक रोक दें, कुछ कहा नहीं जा सकता। अधीनस्थ कर्मचारियों को समय से न आने के लिए टोकना हो तो खुद समय से पहुंचना जरूरी है। सो, चुनिंदा खबरें विस्तार से या कोई लेख आराम से पढ़ने के लिए शाम को ही इतमीनान मिलता है।
‘त्यागी जी!’ इस बार जोर से पुकारने के साथ गेट की कुण्डी भी खड़खड़ाने लगी।
‘देखिए तो कौन है,’ किचन से पत्नी ने चिढ़कर पुकारा।
मैं गुस्से से लगभग फनफनाते हुए बाहर दौड़ा- “कौन है भाई, एक बार घण्टी बजाने से नहीं होता?”
“अरे, शुक्ला जी! कुमार साब! क्या हो गया?” आवाज में गुस्सा न झलके इसके लिए बहुत यत्न करना पड़ा। गेट पर चार-पांच पड़ोसी खड़े थे। पता नहीं क्या समस्या आन पड़ी है।
‘क्या सचिव जी, आपके रहते पार्क में यह सब क्या हो रहा?” शुक्ला जी के तेवर पड़ोसी वाले नहीं थे।
“और ठीक आपके घर के सामने!” यह कुमार साब थे, जिनकी आवाज में तंज भरपूर था।
“अरे यार, आप लोग तो सीधे हमलावर हो गए। उन्हें बताइए तो,” मित्तल जी ने साथ वालों को टोका। मैं सचमुच सदमे में था। पड़ोसियों ने इस तरह पहले कभी बात नहीं की थी।
“आप ही बता दीजिए न,” शुक्ला जी की भौंहें तनी हुई थीं।
“क्या हुआ, मित्तल जी?’ मैंने उन्हीं की ओर देखा।
“पीपल के नीचे देखिए। बेंच पर।”
“देखिए-देखिए, कैसी बेशर्मी से चिपके बैठे हैं।”
“टोका भी जा चुका है लेकिन कोई असर नहीं। रोजाना का किस्सा हो गया।”
“किसी-किसी शाम तो दो-तीन जोड़े बैठे रहते हैं।”
“अजी, दिन में भी आने लगे हैं। वाइफ बता रही थी।”
“सुन रहे होंगे लेकिन हिल नहीं रहे। कैसा बेशर्म जमाना आ गया!”
अपने गेट पर खड़े-खड़े मैं देख सकता था। ठीक सामने कोने में हमारे पीपलके पेड़ की नीचे तक झुक आई घनी शाखाओं की आड़ में, जहां पार्क के बीचों बीच लगे हाई मास्ट एलईडी लाइट की रोशनी के बावजूद अंधेरा रहता है, बेंच पर लड़के-लड़की का जोड़ा एक दूसरे से सटकर बैठा था। यहां सब आक्रोश में जोर-जोर से बोल रहे थे। उन तक ये आवाजें जरूर पहुंच रही होंगी। या तो वे जान-बूझकर अनसुना कर रहे थे या अपने में ही इतना खोए हुए थे कि और कुछ देख-सुन नहीं पा रहे थे। लड़के का एक हाथ लड़की के कंधे पर था। लड़की रह-रहकर खिलखिला रही थी और लड़के के सिर में चपत लगा रही थी। यह कोई अजूबा दृश्य नहीं था। पार्कों में, सड़क किनारे और ढाबों-रेस्त्राओं में आजकल यह आम बात है।
“कॉलोनी के सचिव का यही काम रह गया कि वह प्रेमी जोड़ों को हाँका करे?” मैं अपनी आवाज में मजाकिया पुट देते हुए मुस्कराया भी। जिस तरह घण्टी और गेट की कुण्डी खड़खड़ाई गई थी, उसका गुस्सा मेरे भीतर अब भी लहरा रहा था।
“त्यागी जी, बात मजाक की नहीं है। बहू-बेटियों वाला मुहल्ला है।”
“एक दिन की बात हो तो इग्नोर भी करें। हमारी वाइफ ने तो शर्म के मारे पार्क में घूमना छोड़ दिया है।”
“चलिए भगाते हैं इनको,” शुक्ला जी ने ललकारा।
“चलिए सचिव महोदय, आगे-आगे चलिए,” मित्तल जी ने मेरा हाथ खींचा। मुझे साथ जाना पड़ा। एकाएक हमें सामने खड़ा देखकर दोनों सकपका गए लेकिन अपनी जगह बैठे रहे। शरम-ओ लिहाज, मर्यादा, परिवार की इज्जत, सच्चरित्रता, आदि-आदि के रटे-रटाए प्रवचन उन्होंने चुपचाप सुन लिए और ‘जी, अंकल जी’ कहकर चलते बने। प्रवचनों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा था। जाते हुए भी वे एक-दूसरे का हाथ थामे हुए थे।
‘बेशर्मी देखी!’ शुक्ला जी पीछे से गरजे।
कॉलोनी की सोसायटी के सचिव पद से इस्तीफा देने का फैसला लेते हुए मैं घर लौट आया। मैंने चुनाव के समय ही मना किया था लेकिन मुझ पर फैसला लाद दिया गया कि बारी-बारी सबको बनना ही है। पार्क की देख-रेख के लिए माली है। एक चौकीदार है। हिसाब-किताब के लिए कोषाध्यक्ष है। करना ही क्या है? चल भी ठीक ही रहा था लेकिन अब यह! इस जमाने में लड़के-लड़कियों को मिलने-बैठने से कोई रोक सकता है क्या! यहां नहीं बैठेंगे तो कोई और कोना तलाश लेंगे। इस शुक्ला का लड़का नहीं ले आया एक कायस्थन! बिना मिले-जुले, पार्क या रेस्त्रां या मल्टीप्लेक्स में गए ही हो गई लव मैरिज! बड़ा मॉरल पुलिसिंग करता फिर रहा! नहीं करनी ऐसी सचिवगीरी। यहां अपने ही काम के लिए टाइम कम पड़ जाता है।
* * *
पार्क के चारों गेटों पर ताले लगा दिए गए। एक चाबी माली को और बाकी आस-पास के घरों में दे दी गईं। समिति की मीटिंग में तय हुआ कि सुबह छह बजे ताले खोले जाएंगे और शाम को आठ बजे बंद कर दिए जाएंगे। दिन में माली रहता है तो भी एक ही गेट खोला जाए। बाहरी ‘आवारा, बदतमीज’लड़के-लड़कियों का आना रुक जाएगा तो फिर ढील दी जा सकेगी। मेरा इस्तीफा हवा में उड़ा दिया गया था- “आप तो दिल में ले लेते हैं, त्यागी जी। समस्या का समाधान चाहिए, मैदान छोड़ने से क्या होगा।”
गेट पर लगे ताले समस्या का समाधान नहीं कर पाए। पार्क की चारदीवारी इतनी ऊंची नहीं थी कि लड़के-लड़कियों की पेंगें रोक पाती। कुछ ही दिन में पता चल गया कि शाम को ताला लगने के बाद भी दीवारें फलांगी जानें लगी हैं। दीवार के सहारे चार ईंटों का रद्दा काफी था। कई बार तो लड़के-लड़कियों के स्कूली या पिट्ठू बैग़ या दो-चार किताबें मदद कर देते। कॉलोनी की महिलाओं की खोजी नजरों ने जो देखा या पुरुषों ने सरे शाम पाया, वह फिर एक अनौपचारिक मीटिंग का मुद्दा बना। माली को ऐसे आवारा-बेशर्म लड़के-लड़कियों को पार्क से भगाने के निर्देश दिए गए। चंद रोज में ही माली ने हाथ खड़े कर दिए- “साहब, कौनू-कौनू तौ मान जावत है, कौनू लड़ै लागत है। मुला करत कछु नाहीं साहब, बस बइठ रहत हैं देर तलक, बतियात है।फूलौ नाहीं तोड़त।”
फूल तोड़ते तो
उतनी खतरनाक बात नहीं थी। पार्क में चिपटा-चिपटी करने वाले लड़के-लड़कियां जाने क्या-क्या तोड़े दे रहे थे। इसे चलने नहीं दिया जा सकता था। कॉलोनी के बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ने, विशेष रूप से बहू-बेटियों के बिगड़ने का खतरा तो था ही। बूढ़े माली को निहायत नासमझ और बेवकूफ घोषित करते हुए नए उपायों पर विचार किया जाने लगा।
“पेड़ के नीचे अंधेरे कोनों वाली बेंचें हटा दी जाएं।”
“नहीं-नहीं। बेंच हमें नहीं चाहिए क्या? उन बेशर्मों का क्या है, नीचे घास या मिट्टी में ही बैठ जाएंगे।”
अंतत: दोष उस पीपल का पाया गया जो बढ़ते-बढ़ते इतना छतनार हो गया था कि बिल्कुल नीचे आ गई शाखाओं से अच्छी-खासी आड़ हो गई थी। इसी कारण पार्क के बीच में लगी तेज एलईडी लाइट की रोशनी भी वहां नहीं पहुंचती। पेड़ को छंटवाना होगा। इसी आड़ और अंधेरे में अड्डा बना लिया है मजनुओं ने।
माली ने पीपल के पेड़ पर बांका लगाने से साफ मना कर दिया- “पीपल पर हथियार न चलाव साहब। पाप लागी। कौनू मुसलमान बुलाया जाई।” कोई मुसलमान ढूंढ लिया जाता लेकिन पाया गया कि कुछ डालें छांटने से ही बात नहीं बनने वाली।
“नगर निगम से बात की जाए कि वह पेड़ को छंटवा दे।”
“वन विभाग से कहना पड़ेगा।”
“वन विभाग से परमिशन लेना नगर निगम का काम है।”
इलाके के सभासद ने सलाह दी कि बड़े पेड़ों से आस-पास के मकानों और बिजली के तारों को खतरा होने की अर्जी लिखी जाए। इसी आधार पर नगर निगम वन विभाग से पेड़ों की छंटाई की अनुमति ले पाएगा। सचिव के नाते आवेदन पत्र पर मुझे हस्ताक्षर करने पड़े। मैं आनाकानी कर रहा था लेकिन पत्नी ने कहा कि इस पेड़ ने धूप भी रोक रखी है, छंटाई हो जाएगी तो जाड़ों में नीचे बरामदे तक अच्छी धूप आएगी।
* * *
जाड़ों के छोटे दिनों में दफ्तर से आते-आते अंधेरा हो जाता है। तो भी घर के सामने कार से उतरते ही लगा कि जैसे आज रोशनी फूटी पड़ रही है। कॉलोनी का आकाश जैसे हट गया हो! इतना खुला-खुला लगा कि जैसे कहीं और पहुंच गया होऊं। गेट बंद करते हुए ध्यान गया कि पार्क का पीपल ही नहीं, कॉलोनी की सड़कों के किनारे लगे गुलमोहर, अमलतास, बॉटल ब्रश के पेड़ भी मुण्डे हो गए हैं। पीपल की जगह तो सिर्फ ठूंठ खड़ा था। शायद ही किसी डाली पर पत्ते बचे हों। आठ-दस फुट के तने से निकली कुछ मोटी शाखाओं के ठूंठ कबंध की तरह वीभत्स दिख रहे थे। मेरा मुंह देखते ही पत्नी बताने लगी- “सारे मकानों से लोग निकल आए थे। किसी ने इधर की डाल कटवाई, किसी ने उधर की। सभी को अचानक याद आ गया कि बड़े पेड़ों से धूप रुक रही है। किसी को अपने बरामदे में पत्ते गिरने की शिकायत हो गई। किसी को लगा कि आंधी में कोई डाल टूटकर उनके मकान पर न गिर जाय। पूरी दो डाला लकड़ी लाद ले गए ठेकेदार के लोग।”
“देखा त्यागी जी,” प्रफुल्लित शुक्ला जी, कुमार साब और मित्तल जी पार्क का मुआयना करके आ पहुंचे- “न रहा बांस, न बजेगी बांसुरी! अब नहीं दिखेंगे कोई रोमियो-फोमियो।”
रोज की तरह सुबह हुई लेकिन वह इतनी उदास पहले कभी नहीं लगी थी।कां-कां-कां करके पीपल को गुलजार रखने वाले कौवे लाइन से बिजली के तारों पर मातमपुरसी में बैठे थे। फाख्ता के तीन-चार जोड़े ‘घू-घुघ्घू-घू’बोलना भूलकर पास के मकानों की मुडेरों पर हैरान-परेशान चारों तरफ गरदनें घुमा रहे थे। गौरैयों का झुण्ड उजाड़ दी गई बस्ती के बाशिदों की तरह पार्क की चारदीवारी पर सदमे में बैठा था। झाड़ियों में बसने वाली नन्हीं-नन्हीं चिड़ियां भी फुदक-फुदक कर माजरा समझने की कोशिश कर रही थीं। सतबहिनी का गिरोह रुदालियों की तरह विलाप करते नहीं थक रहा था। गिलहरियां पेड़ के ठूंठ से ऊपर का रास्ता न पाकर पूंछ खड़ी करके हैरान थीं। सुबह की हवा में स्तब्धता थी। सब कुछ बेसुरा और बेताला लग रहा था।
देस बिराना हो गया था। सो, धूप आते-आते चिड़ियों ने पंख फड़फड़ाए और किसी दूसरी दिशा में निकल गए। गिलहरियों ने झाड़ियों से ही संतोष कर लिया। शायद ही किसी ने इस ओर ध्यान दिया हो। बड़े संतोष से यह अवश्यनोट किया गया कि पार्क बहू-बेटियों और मान-मर्यादा के लिए सुरक्षित हो गया है।
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कॉलोनी का जीवन अपनी रफ्तार चलता रहा। याद रह जाने या ध्यान देनेलायक विशेष घटनाएं नहीं घटीं। हां, कॉलोनी में ‘लव जिहाद’ का एक सनसनीखेज मामला होते-होते बच गया। मित्तल साब की लड़की और उसका पुराना क्लास फैलो अकरम शादी की ज़िद ठान बैठे थे, जिन्हें दोनों परिवारों ने अखबारों से मय सबूत दर्जनों उदाहरण दे-दे कर किसी तरह समझाया-मनाया। अब तो मित्तल साब सजातीय विवाह सकुशल निपटा कर हनुमान जी के घनघोर भक्त बन चुके हैं। कुमार साब का लड़का आईआईटी में चुन लिया गया तो उन्होंने बढ़िया दावत दी थी। पत्नी ने दिन में ही फोन करके कोटा में कोचिंग कर रहे हमारे बेटे को यह खबर जिस अंदाज में सुनाई, उससे बेटा भड़क गया था और उसने हफ्तों उसका फोन नहीं उठाया। शुक्ला जी की बहू रागिनी ने बहुत समझाए जाने के बाद भी विवाह पंजीकरण के समय न केवल अपने नाम के आगे ‘श्रीवास्तव’ ही दर्ज़ करवाया, बल्कि मजिस्ट्रेट के सामने अपने पति से पूछ लिया कि ‘तुम लिखोगे अपने नाम के आगे श्रीवास्तव?’ उसके इस तेवर पर कई दिन तक ‘बाप रे!’ से शुरू करके घर-घर टीका-टिप्पणियां और लम्बी पंचायतें होती रहीं। बस, ऐसे ही कॉलोनी का जीवन चल रहा था और मौसम आ-जा रहे थे।
वह अप्रैल के एक इतवार की सुहानी सुबह थी जब बहुत पहचानी ‘घू-घुघ्घू-घू, घू-घुघ्घू-घू’ ने ध्यान खींचा। बहुत दिनों बाद फाख्ते का एक जोड़ा घर के सामने बिजली के तारों पर अगल-बगल बैठा दिखा।
‘आज यहां कहां भटक आए, यार?’ उनसे उलाहना-सा करते हुए मैंने पार्क में खड़े पीपल के ठूंठ की ओर देखा। अरे, वाह! ये कब हो गया! आश्चर्य और आनंद से मन पुलकित हो आया। ठूंठ बना दी गई शाखाओं पर सैकड़ों कल्ले उग आए थे। काटी गई मोटी शाखाओं के इर्द-गिर्द खूबसूरत घने गुलदस्ते-सेसजे हुए थे। कुछ नई टहनियों की बढ़वार अच्छी थी। वे झुरमुट से सिर ऊपर निकाले आसमान की तरफ लपके पड़ रहे थे। हजारों की संख्या में ताजे, हरे-धानी, चमकदार कोमल पत्ते हवा में खुशी से नाच रहे थे। एक फाख्ता तार पर से उड़ा और पेड़ के ऊपर गोल चक्कर काट कर नए पत्तों के बीच जा बैठा। उसने दो बार ‘घू-घुघ्घू-घू’ की आतुर पुकार लगाई तो उसका साथी भी उड़कर उसके पास जा पहुंचा। पीपल के ताजे कोमल पत्तों के बीच बैठा फाख्ते का जोड़ा गरदन फुला कर चोंचें लड़ाने लगा। उनके मटमैले-भूरे चित्तीदार पंख धानी गुलदस्ते के बीच क्या ही खूब फब रहे थे। तभी झाड़ियों में छुपी गिलहरी ने किलकारी मारी। फाख्ता पत्तों के बीच और भी दुबक गए।
पेड़ ने ठूंठ बने रहने से इनकार करते हुए बगावत कर दी थी। यही नहीं, उसने अपनी मुहब्बतों को भी आवाज दे दी थी।
(NBT, Mumbai के दीपावली विशेषांक, 2023 में प्रकाशित)
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