“मैं आज भी कहानीकार कम, किस्सागो ज़्यादा हूं।” यह सुभाष पंत का बयान है जो उन्होंने ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ शीर्षक अपने कहानी संग्रह की भूमिका में दर्ज़ किया है। एक दौर था जब कहानी या उपन्यास के लिए किस्सागोई आवश्यक तत्व माना जाता था। कालांतर में जब हिंदी कहानी विभिन्न ‘आंदोलनों’ के खांचों में बांटी गई, तब कहानी में यथार्थ के नाम पर घटनाओं के लम्बे विवरण, दृश्यात्मकता, विचार, शिल्प की बाजीगरी, आदि-आदि महत्वपूर्ण एवं आधुनिक तत्व माने जाने लगे। किस्सागोई नेपथ्य में चली गई। बिना किस्सागोई के कहानी कैसे कही जा सकती है, यह अब कोई नहीं कहता या पूछता।
सुभाष पंत बेहतरीन किस्सागो हैं और उनकी कहानियां गवाह हैं
कि अपने समय का यथार्थ, वैचारिक प्रतिबद्धता, ज्वलंत मुद्दों और हाशिए के लोगों के साथ खड़ा होना किस्सागोई में भी खूबसूरती से दर्ज़ किया जा सकता है। कहा जाना चाहिए कि किस्सागोई के कारण
ही सुभाष पंत बड़े और सशक्त कथाकार हैं। उनकी यह किस्सागोई हालात पर करारे व्यंग्य
से लेकर ‘जादुई यथार्थ’ तक जाती है। इस प्रक्रिया में भाषा बरतने का उनका कौशल चमत्कृत करता है और कहानी पाठक को विचलित कर जाती है।
इस संग्रह में ‘कमीज’ कहानी पढ़िए या ‘मामूली बात’ या ‘बूढ़े रिक्शाचालक
का चित्र’ या ‘सड़क पार खड़ा बूढ़ा’,
पंत जी का भाषाई कौशल चमत्कृत करता है लेकिन एक पल को भी हम यह नहीं
भूलते कि कहानीकार, बल्कि किस्सागो,
किसके साथ खड़ा है, वह कहां चोट कर रहा है या हमारे समय का
कौन सा सत्य खोलकर रख दे रहा है। ‘कमीज़’ कहानी में जन्मदिन पर पिता को बेटी द्वारा भेंट की गई एक ब्राण्डेड कमीज
के माध्यम से बहुत खूबसूरती और गहरी संलग्नता के साथ मुहल्ले के उस सामान्य दर्जी
के अप्रासंगिक होते जाने की कथा कही गई है। अपने वृहद संदर्भों में कहानी बाजार के
सुरसा मुंह में समाते आम लोगों की कथा बन जाती है। अपने समय के इस कटु यथार्थ को
बयां करने में पंत जी की किस्सागोई देखिए- “… ढीली फिटिंग के
बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी। शोख, गुस्सैल पर मोहक
लड़की की तरह। उनके साथ समझौता करना होता है। मैंने भी किया और कमीज़ पहन ली। उसे
पहनते ही मैंने महसूस किया कि मैं बदल गया हूं। मैं ज़्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया हूं। बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गई। सीना
गदबदाने लगा और आंखों की झिल्लियां फैल गईं। मेरे पीछे ताकतें थीं। आला दिमाग,
श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे। मैं सतह से ऊपर उठ चुका था।”
‘बूढ़े रिक्शा चालक का चित्र’ में एक कलाकार राजभवन के सामने सूर्योदय का चित्र बनाने के लिए जिस
रिक्शाचालक को जल्दी-जल्दी चलने के लिए कह रहा है, वह कई दिन
से भूखा है और राजभवन तक पहुंचते-पहुंचते भूख के मारे लुढ़क जाता है। कलाकार की
संवेदना जागती है और वह सूर्योदय का दृश्य भूलकर उस रिक्शाचालक का चित्र बनाने
लगता है। उसे यह चित्र बनाते देखकर “सम्भ्रांत घर की दो कोमल और सुंदर महिलाएं,
जो बहुत रोमानी मूड में शैंपेन, ब्रिज और
पुरुष मित्रों की बातें करते हुए क्लब जा रही थीं” डर गईं और “पीपल के पत्ते की
तरह थर-थर कांपीं, चीखकर सड़क पर गिर पड़ी और बेहोश हो गईं।”
कलाकार गिरफ्तार कर लिया गया, उसे आतंकवादी ठहराया गया और
अदालत में मामला सुनते हुए न्यायमूर्ति ने भी माना कि उसका अपराध बहुत गम्भीर है
क्योंकि- “मैंने अभी देखा कि भूख से दम तोड़ते आदमी की बात सुनते ही न्यायालय में
उपस्थित एक भद्र महिला के सिर की टोपी जमीन पर गिर पड़ी।” जाहिर है कलाकार ने जघन्य
अपराध किया था। हमारे समूचे तंत्र की अमानवीयता और न्यायविमुखता पर करारी टिप्पणी
है यह कहानी लेकिन उसका ढांचा पंत जी इतनी भाषाई जादूगरी से रचते हैं कि आप ‘आह’ भी ‘वाह’ के साथ कह पाते हैं। कहानी पढ़ते हुए लग सकता है कि कथाकार अपने विषय से
असम्पृक्त है, दूर खड़ा होकर केवल देख रहा है, तटस्थ ही नहीं, मौज लेते हुए भी, लेकिन वास्तव में वह अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ गहरे संलग्न है और इस
व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रहा है। ऐसा ही ‘सड़क पार खड़ा बूढ़ा’
में है। बूढ़ा इस देश का एक सामान्य आदमी है, गरीब
और निरीह जो एक राजधानी की सड़क अनेक कोशिशों के बाद भी पार नहीं कर पा रहा। सड़क पर
किसी भी राजधानी की तरह का दृश्य उपस्थित है। एक सुन्दरी अवतरित होती है और ‘कैट वॉक’ के अंदाज़ में सड़क पार कर जाती है। बूढ़ा भी
उसकी देखादेखी सड़क पार करने लगता है लेकिन कहां उस सुंदरी का लचकदार हाथ और कहां
बूढ़े का झुर्रियों भरा याचक हाथ! अंत में एक शवयात्रा उधर से निकलती है और बूढ़े की
बांछें खिल जाती हैं। अब कोई बाधा नहीं है, वह सोचता है
लेकिन कथाकार या कि स्थितियां बहुत बेरहम हैं। कथा का समापन इस तरह होता है – “महोदय, यहां रुककर गम्भीरता से सोचना होगा। दरअसल, यह शवयात्रा का मामला बहुत पेचीदा है। क्या ऐसी शवयात्रा सचमुच निकली?
या बूढ़े ने ऐसा कोई सपना देखा? या थकान के
कारण विभ्रमित मन ने उसे ऐसा दिखाया? या फिर यह आने वक्त की
एक झलक है। इसमें कौन सी बात सत्य है, इस बाबत फिलहाल कुछ भी
कहा जाना बहुत मुश्किल है।”
संग्रह की अन्य कहानियों- ‘रल्दूराम
के जीवन का अंतिम दिन’, ‘चक्र’, ‘एक का
पहड़ा’, ‘छगन भाई का हाथी’, ‘इक्कीसवीं सदी
की ईके दिलचस्प दौड़’, ‘जिन्न’, ‘कथानायक’,
‘मक्का के पौधे’, ‘रुक्मा की कहानी’, और ’सीमांत’, में भी उनकी
किस्सागोई का यह नायाब कौशल देखा जा सकता है। अपने विषय और पात्रों के चयन के साथ यह
शैली उन्हें विशिष्ट एवं निरंतर प्रासंगिक कथाकार बनाती है।
('इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़', कहानीकार- सुभाष पंत, काव्यांश प्रकाशन। सम्पर्क- 9412054115, 7300554115)
- न जो, 01 जून, 2023