Friday, August 28, 2020

चिकित्सा क्षेत्र, टेक्नॉलजी और प्राथमिकता का प्रश्न


पेट की पुरानी व्याधि ने फिर तंग करना शुरू किया तो अपने चिकित्सक से सम्पर्क किया. कोरोना काल में अस्पताल जाना उचित नहीं. उन्होंने एक वेबसाइट पर जाकर समय लेने को कहा. वेबसाइट ने चिकित्सक से परामर्श के लिए एक दिन और समय निश्चित कर दिया. तय समय पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से समस्या पर चर्चा हुई. वेबसाइट पर ही कुछ दवाएं और परीक्षण सुझाए गए. नुस्खा डाउनलोड किया और इलाज शुरू.

टेली-मेडिसिन कोई नई बात नहीं. टेक्नॉलजी ने बहुत सारी नई राहें खोली हैं. जटिल प्रक्रिया को आसान और सुलभ बनाया है. काफी समय हुआ, अमेरिका-यूरोप के कई चिकित्सा संस्थान दूसरे देशों में और भारत के विशेषज्ञ चिकित्सक दूर-दूर के शहरों में ही नहीं खाड़ी के देशों तक टेली-मेडिसिन से परामर्श दे रहे हैं. वीडियो कांफ्रेंसिंग से कई जटिल शल्य क्रियाएं भी निर्देशित की गई हैं. इस सुविधा का विस्तार हो रहा है. इस कोरोना-काल में टेली-मेडिसिन बहुत फायदेमंद साबित हो रहा है.

देश के बड़े शहरों में चिकित्सा-तंत्र जितना आधुनिक और सक्षम है, उतना ही पिछड़ा और अक्षम भी. शहरों से लगे गांवों में भी सरकारी अस्पतालों का बुरा हाल है. सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय है. डॉक्टर-नर्स की कमी ही नहीं, जरूरी उपकरणों का घोर अभाव है. क्या शहरों के बड़े अस्पतालों और विशेषज्ञ चिकित्सकों का लाभ टेली-मेडिसिन के माध्यम से सुदूर इलाकों तक नहीं पहुंचाया जा सकता?

स्वास्थ्य पर हमारी सरकारें बहुत ही कम खर्च करती हैं. वर्षों से स्वास्थ्य का बजट जीडीपी के एक फीसदी से कुछ ही ऊपर है. कोई सरकार इसे नहीं बढ़ा रही. कुछ पड़ोसी देश जन स्वास्थ्य पर हमसे अधिक खर्च करते हैं. अगर थोड़ा-सा बजट बढ़ाकर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों और छोटे अस्पतालों में आवश्यक संसाधन जुटा दिए जाएं और उन्हें टेली-मेडिसिन से बड़े अस्पतालों से जोड़ दिया जाए तो स्थानीय स्तर पर आसानी से बेहतर चिकित्सा उपलब्ध कराई जा सकती है. एक बार बड़े अस्पतालों में इलाज करा चुके मरीजों को बाद का परामर्श भी अपने इलाके में मिल जाएगा. छोटी-छोटी व्याधियों को लेकर शहरी अस्पतालों की दौड़ बचेगी.

टेक्नॉलजी के बेहतर उपयोग में निजी संस्थान बहुत आगे हैं. कोरोना-काल में शायद ही कोई सरकारी कार्यालय हो जहां वर्क फ्रॉम होमकी सुविधा होगी. निजी कम्पनियां और उसके कर्मचारी इसका लाभ उठा रहे हैं और खतरे से बचे हैं. टेक्नॉलजी से सरकारी व्यवस्था को परहेज जैसा है. वास्तव में यह परहेज पारदर्शिता से है, जो टेक्नॉलजी की विशेषता है. हमारी सरकारें पारदर्शी होना ही नहीं चाहतीं. बातें खूब होती रहती हैं.

ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों को टेली-मेडिसिन के माध्यम से बड़े अस्पतालों से जोड़ना हमारे स्वास्थ्य तंत्र की कई खामियों को भर सकता है. गांव-गांव बड़े अस्पताल खोलना अत्यधिक व्यय और समय मांगते हैं. टेक्नॉलजी इस दोनों की आसानी से भरपाई कर सकती है. अब तो एक अच्छा मोबाइल फोन और अच्छी कनेक्टिविटी चमत्कार कर देती है.

छोटे-छोटे बच्चों को मोबाइल से स्कूली पाठ पढ़ाने पर आजकल बड़ा जोर है. इसकी उपयोगिता पर विवाद भी हैं. मोबाइल से चिकित्सा परामर्श का तो स्वागत ही होगा. गांवों के स्वास्थ्य केंद्रों का सामान्य चिकित्सक एक फोन से किसी जरूरतमंद को तत्काल विशेषज्ञ सलाह दिला सकता है. निजी क्षेत्र में ऐसा हो रहा है तो सरकार क्यों नहीं कर सकती.

प्रश्न इच्छा शक्ति और प्राथमिकताओं का है. बड़े परिवर्तन के दावे बहुत होते हैं. मूल प्रश्न यह है कि क्या गांव-गिराम के सामान्य जन तक आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना शीर्ष प्राथमिकताओं में शामिल है?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 29 अगस्त, 2020)              
   

Friday, August 21, 2020

हंसते-लड़ते जीने वाले और छुपते-डरते मरने वाले

पिछले सप्ताह बहुत प्यारे इनसान, लेखक, आंदोलनकारी और नवोन्मेषी दोस्त त्रेपन सिंह चौहान की मृत्यु की खबर सुनने के बाद लगातार उसके बारे में सोचता रहा हूं. मात्र 48 साल की उम्र में वह चला गया. पिछले करीब दस-बारह साल से वह मौत को छकाता आया. पहले कैंसर से लड़ा और जीता. फिर उस पर लाइलाज मोटर न्यूरॉन रोग ने हमला कर दिया, वही बीमारी जो विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग को थी.

त्रेपन टिहरी की उस बाल गंगा घाटी के एक गांव में जन्मा था जो आंदोलनों की उर्वरा भूमि है. बाल्यावस्था से ही वह आंदोलनकारी बना और लेखक भी. चिपको से लेकर उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और उसके बाद के कई जन-संघर्षों में वह शामिल रहा. उसने बड़े बांधों के विरुद्ध संघर्ष किया और बाल गंगा घाटी में ग्रामीणों की कम्पनी बनाकर एक मेगावाट का बिजलीघर बनाने का सपना देखा. इस परियोजना का प्रस्ताव आज भी भारत सरकार में कहीं धूल खा रहा होगा. उसने ग्रामीणों के सशक्तीकरण के लिए चेतना आंदोलन चलाया. उसके नवोन्मेषी जन-अभियान घसियारी प्रतियोगिताको बहुत सराहा गया जिसमें उत्तराखण्ड की ग्रामीण महिलाओं के लिए हर साल घास काटने की प्रतियोगिता होती थी. इन महिलाओं को बड़े पर्यावरणवादियों के मुकाबले वह रीयल इकोलॉजिस्टकहता था.

इसी दौरान उसने तीन उपन्यास, दो कहानी संग्रह, डूबती टिहरी पर किताब और कई लेख लिखे. यमुनाऔर हे ब्वारीउपन्यास राज्य बनने से पहले और बाद के उत्तराखण्ड के जीवंत दस्तावेज हैं. अपनी बीमारी के बावजूद वह बहुत दौड़ता-भागता था. पिछले कुछ बरस से वह बिस्तर तक सीमित हो गया. जब उसके हाथों ने काम करना बंद कर दिया तो वह कम्प्यूटर पर बोल कर लिखने लगा. फिर उसकी जुबान ने साथ छोड़ दिया तो उसने एक अमेरिकी मित्र की सहायता से ऐसा सॉफ्टवेयर प्राप्त किया जो आंख की पुतलियों के इशारे से लिख सकता है. अपने अंतिम दिनों तक वह कम्प्यूटर के पर्दे पर पलकें झपका कर एक और उपन्यास लिख रहा था.

हमने उसकी बीमारी के बारे में सुन रखा था लेकिन उस सॉफ्टवेयर के बारे में सुना तक नहीं था जिसके सहारे वह लिखने में जुटा था. पुतलियों के इशारे से लिखे उपन्यास-अंश प्रकाशित हुए तो उन्हें पढ़ते हुए उसकी प्रतिभा के अलावा उसकी अदम्य जीजीविषा से मन भर गया. वह हर साल मुझे घसियारी प्रतियोगिता के लिए गांवों में आमंत्रित करता था. मैं हर बार अपने रोग का हवाला दे देता. वह कहता थाअपना ख्याल रखिएऔर जानलेवा बीमारी के बावजूद जब तक शरीर ने साथ दिया ग्रामीणों के बीच दौड़ता रहा. आंदोलनकारी के रूप में उसके पास जनता के लिए सपने थे और लेखक के रूप में सघन जीवनानुभव.

वह जीवन को सार्थक कर हंसते-लड़ते चला गया. हम सम्भावित रोग की आशंका से मरे-मरे जी रहे हैं. उन अधिसंख्य लोगों की तरह, जिनके सिर पर छत है और खाने को रोटी, मुझे भी अक्सर कोरोना का डर सताता है. कभी छींक आ गई तो लगता है कि बस, हो गया. स्वाभाविक रूप से गला साफ करना या खंखारना आतंकित कर देता है. जब कोरोना नहीं था, तो छोटी-सी शारीरिक व्याधि में भयानक रोग हो जाने की आशंका से डरते रहे. अब सबसे बड़ा डर कोरोना है.

ऐसे में त्रेपन की याद ताकत देती है और सवाल पूछती है- ऐसे जीना भी कोई जीना है? क्या वह अलग ही मिट्टी के बने होते हैं जो डरते नहीं, हर हालात में लड़ते हैं और सामने खड़ी मृत्यु के मुंह पर ठहाका लगाते रहते हैं?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 22 अगस्त, 2020)

Thursday, August 20, 2020

प्रियंका की बात पर अमल का सवाल

 दो अमेरिकी लेखकों को कोई साल भर पहले एक किताब के लिए दिए गए साक्षात्कार में प्रियंका गांधी की जिस बात ने कांग्रेस और देश की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है, वह न तो सर्वथा नई है, न चौंकाने वाली. तो भी, चूंकि बात नेहरू-गांधी परिवार की इंदिरा-जैसीबेटी की है और कांग्रेस के नए अध्यक्ष के बारे में हैं, इसलिए कांग्रेस और परिवारफिर जेरे-बहस है.

प्रियंका का कथन है कि मैं राहुल की इस राय से सहमत हूं कि किसी गैर-गांधी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष होना चाहिए.इतना और जोड़ा है कि कांग्रेस को अपना रास्ता तलाशना होगा.भारतीय मूल के दो अमेरिकी लेखकों प्रदीप छिब्बर और हर्ष शाह की पुस्तक टुमारोज इण्डिया: कंवरसेशंस विद नेक्स्ट जनरेशन ऑफ पॉलिटिकल लीडर्समें प्रियंका का यह कथन प्रकाशित हुआ है.

2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेते हुए पद से इस्तीफा दे दिया था. उसी बैठक में उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं पर कुछ आरोप भी लगाए थे, जैसे कि वे अपने निजी हितों को, अपने बेटों को चुनाव लड़ाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं और उन्हें जिता भी नहीं पाते हैं.इसी बैठक में राहुल ने कहा था कि कांग्रेस का नया अध्यक्ष हमारे परिवार से बाहर का चुना जाना चाहिए.

मई 2019 की इसी बैठक में प्रियंका गांधी भी उपस्थित थीं. अपने भाई के बचाव में तब उन्होंने कहा था कि पार्टी की पराजय के लिए किसी एक व्यक्ति को ही उत्तरदाई नहीं ठहराना चाहिए, वैसे, मैं भी राहुल की बात से सहमत हूं कि पार्टी का नया अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का हो.प्रियंका ने यही बात उक्त पुस्तक के लेखक-द्वय से कही.  

ऐसे समय में जबकि सोनिया गांधी का कार्यवाहक अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और राहुल गांधी के पुन: कांग्रेस अध्यक्ष बनने की सम्भावनाओं पर बार-बार चर्चा हो रही है, प्रियंका का यह पुराना कथन प्रासंगिक हो जाता है. इसीलिए बड़ी खबर और बहस का मुद्दा बन गया है. पहले राहुल की जगह प्रियंका के नए अध्यक्ष बनने की अटकलें लगती रहती थीं. वह सदा इनकार करती रही. इस बयान के बाद और साफ हो गया कि वे कमान नहीं सम्भालेंगी. कांग्रेस के भीतर इस पद की महत्वाकांक्षा पाले नेताओं की कमी नहीं है लेकिन आज तक किसी ने सामने आने का साहस नहीं किया.  

प्रियंका के इस कथन के बहाने कांग्रेस के वर्तमान हालात और पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव का मुद्दा सतह पर आ गया है. सोनिया गांधी को एक बार फिर कार्यवाहकबनाया जाएगा? या, स्वतंत्रता के पश्चात जो असम्भव-सा माना जाता रहा है, क्या कोई गैर-गांधी सचमुच कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर बैठेगा? यही सबसे बड़ा सवाल है.

पिछले साल राहुल गांधी को कई बार मनाया गया. उनका इस्तीफा लम्बे समय तक स्वीकार नहीं किया गया था लेकिन राहुल अपने निर्णय पर अडिग रहे थे. तब कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव पर चर्चा हुई लेकिन कुछ नामों की नेपथ्य में सुगबुगाहट के सिवाय किसी गैर-गांधी के नाम पर विचार ही नहीं किया जा सका. अंतत: पार्टी की सर्वोच्च समिति ने सोनिया को यह उत्तरदायित्व कार्यवाहक रूप में दे दिया गया. कार्यवाहक यानी जब तक कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष न चुन लिया जाए. इधर फिर चर्चा चल पड़ी थी कि राहुल के सिर फिर यह कांटों भरा ताज रखा जाएगा लेकिन अब इन अटकलों पर फिलहाल विराम लग जाएगा. तो, होगा क्या?

उन्नीस सौ साठ के दशक से ही कांग्रेसियों की समस्या यह रही कि वे पूरी तरह नेहरू-गांधी वंश पर आश्रित हो गए. इंदिरा गांधी के बाद तो यह सम्भावना ही नहीं रही कि इस परिवार के बाहर का कोई कांग्रेस अध्यक्ष बनने की सोच सकता है. राजनीति में आने के लिए सर्वथा अनिच्छुक राजीव गांधी को लाया जाना और उनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद कांग्रेसियों की आतुर सोनिया-सोनियापुकार में यह लाचारी प्रकट होती रही. सोनिया ने 2004 में प्रधानमंत्री पद का त्याग किया लेकिन कांग्रेस और यूपीए की चेयरपर्सन वे बनी रहीं. राहुल के इस्तीफे के बाद कार्यवाहक अध्यक्ष भी बिना किसी आनाकानी के बन गईं.

यह बात गौर करने वाली है कि राहुल और प्रियंका की इस सहमति के बाद भी, कि पार्टी का अध्यक्ष कोई गैर-गांधी बने, सोनिया ने इस बारे में कभी मुंह नहीं खोला. लगता नहीं कि वे इस राय से सहमत हैं. मान लिया कि अब सोनिया भी परिवार से बाहर के अध्यक्षकी बात कह दें, तो क्या पार्टी को एक रखते हुए कांग्रेसी अपने बीच से नेता चुनने का साहस दिखा पाएंगे?

कांग्रेस आज जहां पहुंच गई है, उसके संकेत राजीव गांधी की चमत्कारिक विजय और मिस्टर क्लीनछवि के बावजूद 1985 से ही दिखने लगे थे. उन्होंने स्वयं बम्बई (मुम्बई) में हुए पार्टी के शताब्दी अधिवेशन में कहा था कि कांग्रेस दलालों की पार्टी बन गई है. उनका वादा था कि वे उसे दलालों के चंगुल से मुक्त करके जनता से जोड़ेंगे. विडम्बना ही है कि राजीव सर्वथा असफल रहे, बल्कि उसी परम्परा के वाहक बने. यह निरंतर खोखली होती कांग्रेस का सौभाग्य ही था कि तब से लेकर 2014 तक उसे किसी अखिल भारतीय प्रतिद्वंद्वी की चुनौती नहीं मिली. बेमेल गठबंधनों के प्रयोगों की असफलता के बाद वह बार-बार सत्ता में लौट आती रही, जब तक कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मजबूत भाजपा ने उसे जमीन नहीं चटा दी.

आज उसे खड़ा होने के लिए ऐसे नेता की आवश्यकता है जो उसमें प्राण फूंक सके, कांग्रेसी-मूल्यों की पुनर्स्थापना करके जनता को बेहतर विकल्प के प्रति आश्वस्त कर सके और नरेंद्र मोदी के टक्कर में खड़ा हो सके. नेतृत्व कौशल के धनी कई कांग्रेसी होंगे लेकिन क्या यह पार्टी गांधी परिवार की तरफ टकटकी लगाना छोड़ेगी? सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण ही कई प्रतिभाशाली युवा कांग्रेस की डगर-मगर नाव से छलांग लगा चुके हैं.

कांग्रेस के विरुद्ध भाजपा का सबसे बड़ा आरोप परिवारवाद ही है. इंदिरा गांधी की तरह नेतृत्व की चमत्कारिक क्षमता हो तो इस आरोप की धार कुंद हो जाती लेकिन राहुल यह साबित नहीं कर सके. परिवार से बाहर नेतृत्व तलाशने में कांग्रेसियों को सबसे बड़ी आशंका पार्टी के बिखर जाने की है. इस भय से उबरने का यही सबसे उचित समय है. कांग्रेस को अपने अस्तित्व के लिए और देश को सशक्त विपक्ष के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है.    

लाख टके का प्रश्न फिर यही कि राहुल और प्रियंका की राय पर अमल कैसे होगा?  

(प्रभात खबर, 21 अगस्त, 2020)    

   

             

     

    

Friday, August 14, 2020

यह सरकार और प्रशासन की परीक्षा का समय है

 कोरोना संक्रमण अब विस्फोटक रूप में है. उत्तर प्रदेश के बड़े शहरों में मामले लगातार बढ़ रहे हैं. बेड बढ़ाए जा रहे हैं लेकिन डॉक्टर एवं अन्य कर्मचारी? स्थानीय प्रशासन ने भी जैसे हाथ खड़े कर दिए हैं. जुलाई मध्य तक जहां संक्रमण के नए मामले आ रहे थे, वहां कंटेनमेण्ट जोनबनाए जा रहे थे. बल्लियां लगाकर रास्ते बंद किए जा रहे थे. वहां सिपाही तैनात हो रहे थे ताकि कोई आए-जाए नहीं. जो लोग आवश्यक सावधानियां बरत रहे हैं, वे रास्ता बंद देख सावधान हो जाते थे.

अब कहीं कंटेनमेंट जोन बन रहे न मीडिया के माध्यम से जानकारी दी जा रही है कि कौन से इलाके अधिक संक्रमित हुए हैं. यह प्रशासन की संसाधन-सीमा भी हो सकती है और करीब पांच महीने से चली आ रही कवायद से उपजी थकान एवं उदासीनता भी. क्या यह माना जाए कि शहर के सभी इलाकों में संक्रमण फैल गया है जिसके कारण कंटेनमेण्ट जोन बनाना निरर्थक हो गया है? कम्युनिटी स्प्रेडकहते हैं जिसे, सरकार अब भी यह नहीं मान रही.

शुक्रवार रात से सोमवार सुबह तक की बंदी क्या संक्रमण को रोक या सीमित कर पा रही है? इस पर विशेषज्ञों में ही विवाद है. कुछ कह रहे हैं कि इसका कुछ तो लाभ हो रहा है, लेकिन दूसरे आंकड़े देकर बता रहे हैं कि कोई फायदा नहीं. जो भी हो, संक्रमण बढ़ने की रफ्तार बढ़ी है. अब काफी जांचें हो रही हैं लेकिन उसे गिनने का तरीका क्या है? एक ही व्यक्ति की जांच तीन बार करने की आवश्यकता पड़ी तो वह तीन जांचें हुईं या एक? यह स्पष्ट नहीं है. जांचें भी अलग-अलग तरह की हैं. क्या जो आंकड़े दिए जा रहे हैं, वे पुष्टिकारक आरटी-पीसीआरजांच के हैं या उनमें अन्य अपेक्षाकृत अविश्वसनीय परीक्षण भी शामिल हैं? हमारे सरकारी विभाग आंकड़ों के मामले में विश्वसनीय कभी नहीं रहे.

संक्रमण से ठीक होने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. यह आशाजनक बात है लेकिन बहुत सारे लोग, जो अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं, आशंकित हैं. एक गलत धारणा शुरू से प्रचलित हो गई कि कम उम्र के लोगों को खतरा कम है और वे संक्रमित हो जाएं तो अपने आप ठीक हो जाएंगे. यह भ्रम अब भी बना हुआ है. यूरोप-अमेरिका ने इस भ्रांति की बड़ी कीमत चुकाई और हम भी चुका रहे हैं.

दो तथ्य बहुत अच्छी तरह जन मानस को समझाने में हमारा तंत्र सफल नहीं रहा है. एक यह कि युवा खतरे से बाहर नहीं हैं. उनका कोरोना से सकुशल बाहर निकल आना निश्चित नहीं है. दूसरे, संक्रमण से युवा भले बच आएं लेकिन परिवार और समुदाय में उनके कारण संक्रमण अधिक फैल रहा है.

मास्क पहनने और शारीरिक दूरी बनाए रखने की सावधानियां सड़कों-बाजारों में तो बिल्कुल ही नहीं बरती जा रहीं. दिहाड़ी वालों को कोसा रहा है कि वे ही महामारी फैला रहे हैं. इस तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा कि अशिक्षा और नासमझी से बड़ी समस्या रोजी-रोटी है. लोगों को पेट पालने के लिए निकलना ही है. 

विफलता इस तंत्र की है जो सबसे कमजोर तबके को स्वास्थ्य सम्बंधी सतर्कताएं और सुविधाएं कभी नहीं दे पाया. गंदगी और रोगों के बीच जीने-मरने को जो विवश हैं, उनसे कोरोना-काल में हम मास्क पहनने और दूरी बरतने की अपेक्षा का क्या करें? यहां तो पढ़ा-लिखा बड़ा वर्ग भी पुलिस के डर से मास्क लगा लेता है अन्यथा वह गर्दन में लटका रहता है. मास्क न हुआ हेल्मेट हो गया!

दिनचर्या में शामिल हमारी लापरवाहियां ही इस दौर में सबसे बड़ी मुसीबत हैं.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 15 अगस्त, 2020)        

Friday, August 07, 2020

महामारी को भी अयोध्या-सी चुस्त-चौकस व्यवस्था चाहिए


अयोध्या में राम मंदिर के भूमि पूजन का कार्यक्रम अत्यंत भव्य और व्यवस्थित था. पता नहीं बहुत सारे अन्य वीआईपी और आम जनता की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती तो आयोजन कैसा निपट पातालेकिन जैसा कार्यक्रम हुआउसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार और अयोध्या समेत पूरे प्रशासन को अपनी पीठ ठोकने का अधिकार है. राम मंदिर निर्माण की शुरुआत के लिए इतने ताम-झाम और बहु-प्रचारित कार्यक्रम को कोई अनावश्यक माने या पांच सौ साल के अन्याय का सर्वथा उचित प्रतिकारकिसी को इसमें संदेह नहीं कि आयोजन सफलता के सभी मानकों पर खरा उतरा.

इससे एक बात पुन: प्रमाणित होती है कि सरकार और प्रशासन अगर मन से चाह लें और जुट जाएं तो किसी भी कार्यक्रम या अभियान की सफलता असंदिग्ध हो जाती है. प्रश्न यहां यही है कि यह मन से चाहना और जुट जाना अन्य अति महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को निभाने में क्यों नहीं दिखाई देता? जैसे, देश-प्रदेश इस समय कोरोना महामारी के विकराल दौर से गुजर रहा है. वैक्सीन पर भारत समेत दुनिया भर में परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अभी इस बीमारी पर अभी मनुष्य नियंत्रण नहीं कर पाया है. जो अब तक समझा गया है, वह यह कि कुछ सावधानियों और कुछ चिकित्सा व्यवस्थाओं के साथ कोरोना को नियंत्रित कर उससे क्रमश: मुक्ति पाई जा सकती है.


अप्रैल मध्य से राष्ट्रीय स्तर पर बंदी तेजी से इसे फैलने न देने के लिए आवश्यक समझी गई. बंदी का दूसरा और भी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था कि बंदी के दौरान वे सभी आवश्यक चिकित्सा व्यवस्थाएं जुटा ली जाएंगी जो हमारे देश में पर्याप्त नहीं थीं. यह तय था कि जनसंख्या बहुत एवं सघन इस देश में बंदी खुलने के बाद कोरोना तेजी से पैर फैलाएगा. बीमारी का एक चरम-स्तर आएगा. उस समय हमें अधिक से अधिक अस्पताल, एम्बुलेंस, बिस्तर, वेण्टीलेटर, दवाइयां, आदि चाहिए होंगी.

क्या हमने युद्ध स्तर पर वैसी तैयारी की? क्या इस महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व के प्रति हमारा समर्पण पूरा रहा? इसे अब सरकारी स्तर पर भी दबे स्वर में स्वीकार किया जा रहा है कि बंदी के दौरान कामगारों की रोजी-रोटी और आवास की व्यवस्था या उनकी घर-वापसी की व्यवस्था में चूक हुई. बंदी-पश्चात की आवश्यक व्यवस्था करने में हम कितने सफल रहे? यह सवाल कोरोना का विस्तार निरंतर हमसे पूछ रहा है.

ऐसा क्यों हुआ कि लेवल-दो और लेवल-तीन के यानी अत्यावश्यक चिकित्सा सुविधाओं वाले अस्पताल अभी से कम पड़ गए हैं जबकि बीमारी का चरम आने में अभी देर है? एम्बुलेंस समय पर मिल नहीं पा रहीं. जिम्मेदार अधिकारियों को सूचना दिए जाने के बाद भी जांच के लिए दो-तीन दिन तक प्रतीक्षा करना, हेल्पलाइन से सहायता न मिलना, किसी अपार्टमेण्ट या कॉलोनी को कई-कई दिन सैनीटाइज नहीं करना, भर्ती करने में अत्यधिक विलम्ब जैसी शिकायतें अब रोजाना बढ़ रही हैं. कई जगह कोरोना योद्धाओं में ही असंतोष फैला, क्योंकि उन्हें स्वयं संक्रमित होने पर तत्काल भर्ती नहीं किया जा सका या वेतन, आदि के लिए परेशान होना पड़ा.

अयोध्या का आयोजन हमारी क्षमता, कुशलता और भरोसे का प्रतीक है तो वह महामारी से निपटने में क्यों नहीं दिखाई दे रहा? यह महामारी गरीब-अमीर या आम एवं वीआईपी में अंतर नहीं कर रही. कई वीआईपी संक्रमित हुए हैं लेकिन पर्याप्त तैयारी नहीं होने की मार सदा की तरह आम और गरीब पर ही पड़ रही है. क्या महामारी से निपटने की व्यवस्था राम मंदिर के भूमि पूजन की भांति चुस्त और चौकस नहीं हो सकती थी?    

(सिटी तमाशा, नभाटा, 08 अगस्त, 2020)