Saturday, March 27, 2021

चलो, अब स्कूल बंद करें हम!

 हमारी सरकारों की शिक्षा नीतियों के अलावा और किसका असर हो सकता है कि उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में सरकारी प्राथमिक स्कूल या तो बंद होते जा रहे हैं या आस-पास के उच्च प्राथमिक विद्यालयों में उनका विलय करना पड़ रहा है। कई जिलों में सैकड़ों की संख्या में परिषदीय स्कूल बंद कर दिए गए हैं। सरकारें चलो स्कूलका नारा देती हैं। बच्चों को स्कूलों की तरफ खींचने के लिएतरह-तरह के अभियान चलाती हैं लेकिन वे यह देख पाने में असमर्थ हैं या देखना ही नहीं चाहतीं कि जो प्राथमिक विद्यालय पहले सैकड़ों विद्यार्थियों से गुलजार रहते थे, उनमें अब बीस-पच्चीस बच्चे मुश्किल से क्यों आ रहे हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात कई दशकों तक राजनीति, प्रशासन, विज्ञान, टेक्नॉलजी, आदि विभिन्न क्षेत्रों में छाई रही प्रतिभाएं सरकारी स्कूलों की देन थीं। आज भी उच्च सरकारी पदों से लेकर विभिन्न शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों में सरकारी स्कूलों का नाम रोशन करने वाले मिल जाते हैं। वहां न केवल ऐसे अध्यापक होते थे जो अपने विद्यार्थियों की प्रतिभा को तराशते-निखारते थे, बल्कि जीवन के कई मूल्यवान मूल्य भी उनमें भर देते थे। अपने समाज और समय को देखने की खरी दृष्टि उनमें विकसित होती थी।

पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में सरकारी स्कूलों ने अपनी चमक खोनी शुरू की और निजीकरण का दौर आते-आते वे बुरी तरह पिछड़ने लगे। न वहां समर्पित अध्यापकों की कमी थी (उनकी संख्या अवश्य कम होती जा रही थी) और न उनकी खण्डहर इमारत की प्रतिभा-चमक धूमिल पड़ी थी लेकिन मध्य वर्ग के आर्थिक उन्नयन और बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव ने उनके विद्यार्थियों-अभिभावकों में हीनता बोध भरना शुरू कर दिया था। यह वही समय था जब अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ रही थी और गली मुहल्लों में भी कांवेण्टएवं मॉण्टेसरीस्कूल खुलते जा रहे थे। उनकी टाईवाली भौंडी ड्रेस सरकारी स्कूलों के साधन विहीन छात्रों में कुण्ठा भर रही थी। सरकारी स्कूलों में पढ़ना अपराध-बोध बन रहा था। सरकार की शिक्षा नीति सिर्फ कागजों में करामात कर रही थी। नए हालात के लिए उसे तैयार नहीं किया गया।

अब वह ऐसा वक्त आ गया है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को विद्यार्थी मिल नहीं रहे। मिड डे मीलयोजना गरीबी के कारण स्कूलों से वंचित रहे बच्चों को स्कूल लाने के लिए बनी थी लेकिन ग्रामीण इलाकों के अधिकसंख्य स्कूलों में जो कुछेक बच्चे अब भी आ रहे हैं, उसका बड़ा कारण दोपहर के इसी भोजन का आकर्षण है। दो जून रोटी के लिए जूझ रहे परिवारों के लिए वह पढ़ाई से बड़ा है।

यह मानते हुए कि अंग्रेजी पढ़ने के लिए ही बच्चे निजी विद्यालयों का रुख कर रहे हैं, सरकार ने कुछ वर्ष पहले अपने कई प्राथमिक विद्यालयों को इंगलिश मीडियमघोषित कर दिया। फिर भी बच्चे नहीं बढ़े तो उन्हें बंद करने का निर्णय किया गया। दूसरी तरफ निजी विद्यालयों में प्रवेश के लिए मारामारी मची है। ऐसा नहीं है कि निजी विद्यालय बहुत अच्छी शिक्षा देते हैं। उन्हें शिक्षा की महंगी दुकानें कहना उपयुक्त होगा लेकिन दौड़ उसी तरफ मची हुई है। सरकारें बेहतर विकल्प दे नहीं पाईं।  

कोई दस वर्ष पहले एक कानून बनाकर हमें शिक्षा का अधिकार दिया गया था। यह अच्छा फैसला था लेकिन इस पर सरकारों ने विचार ही नहीं किया कि वह कैसी शिक्षा होगी और किस तरह दी जाएगी। वह शिक्षा कैसा नागरिक गढ़ेगी और क्या अमीर-गरीब विद्यार्थी के लिए अलग-अलग होगी? ‘से अमीर और से गरीब जिस शिक्षा-व्यवस्था की आत्मा बन गया हो, वहां नव-उदारीकरण के इस दौर में सरकारों का रहा-बचा जन-कल्याणकारी स्वरूप भी बिला ही जाना है। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 मार्च, 2021)            

Saturday, March 13, 2021

लड़कियों का पहनावा और समाज का दिमाग

इन दिनों मेरठ-मुज़फ्फरनगर की किसान पंचायतें चर्चा में हैं। किसानों की गर्जना खबरों में सुनाई देती है। तीन नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर शुरू हुआ आंदोलन अब भी जोर-शोर से जारी है। किसान संगठन ही नहीं,  विपक्षी राजनैतिक दल भी किसान पंचायतें लगा रहे हैं। केंद्र सरकार के विरुद्ध हाल के वर्षों का यह सबसे बड़ा और लम्बा आंदोलन है।

ऐसे में मुज़फ्फरनगर से आई एक खबर चौंकाती कम और अफसोस से ज़्यादा भर देती है। जिले के चरथावल थाने के तहत आने वाले पीपलशाह गांव के राजपूत समाज की पंचायत ने फरमान जारी किया है कि गांव के लड़के हाफ पैण्ट और लड़कियां जींस नहीं पहनेंगी। खबर के अनुसार पंचायत में कहा गया कि गांव में लड़के हाफ पैण्ट पहन कर घूमते हैं जो आम लोगों को अच्छा नहीं लगता। इसलिए उस पर रोक लगा दी गई। फिर लड़कियों का जींस पहनना क्यों अच्छा लगता! इसलिए उन्हें खबरदार कर दिया गया। साथ ही उन स्कूलों का बहिष्कार करने का फैसला भी किया गया है जहां भारतीय परिधान पहनने की व्यवस्था नहीं है। भारतीय परिधानकी परिभाषा क्या है, यह समाचार में नहीं बताया गया है, लेकिन समझना मुश्किल नहीं है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही नहीं, देश के विभिन्न कोनों से ऐसे समाचार अक्सर आते रहे हैं। कभी खाप पंचायतें और कभी कॉलेज ऐसे फरमान सुनाते हैं। वक्त तेज़ी से बदला है लेकिन समाज का दिमाग नहीं बदल रहा। गांवों से निकल कर लड़के-लड़कियां दिल्ली-बंगलूर-मुम्बई तक जाकर पढ़ रहे हैं। गांवों में भी अब सभी मां-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे उच्च शिक्षा हासिल करें। कई माता-पिता खेत बेचकर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए शहरों की तरफ भेजते हैं। बड़े शहरों में कई कॉलेज और उनके आस-पास के आवासीय परिसर ऐसे बच्चों से भरे पड़े हैं। वे हॉस्टल या किराए के मकानों में रहते हैं। उनके लिए हाफ-पैण्ट और जींस पहनना आम बात है।

गांव भी अब वैसे कहां रहे। गांवों के बाजार नए जमाने के पहनावों से भरे पड़े हैं। शहरों की हवा गांव पहुंचने में अब अधिक समय नहीं लेती। गांवों का पहनावा ही नहीं, खान-पान तक बहुत तेजी से बदला है। हाट-बाजार में चाऊमिन-मोमो-बर्गर के ठेले खूब भीड़ खींचते हैं। बच्चों के बर्डेया शादी-बारात चायनीज के बिना अधूरे माने जाते हैं। यह बदलाव बहुत सहज ढंग से आया है।

लड़कों के हाफ-पैण्ट पहनने पर रोक आश्चर्यजनक है। आम तौर पर लड़कों पर ऐसी रोक नहीं लगती। लड़कों को पूरी आज़ादी रहती है। रोक-टोक लड़कियों के साथ ही अधिक होती है। उनके जींस पहनने पर आपत्तियां गांवों ही नहीं, शहरों में भी होती रही हैं। कई खाप पंचायतें ऐसे फरमान सुना चुकी हैं। कुछ वर्ष पहले मुजफ्फरनगर की गुर्जर पंचायत ने लड़कियों के मोबाइल रखने पर भी रोक लगा दी थी। पिछले साल पंजाब के एक कॉलेज ने लड़के-लड़कियों, दोनों के जींस पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उनसे सलवार-कुर्ता पहनने को कहा गया था।

जींस आज बहुत सुविधाजनक पहनावा है और दशकों से खूब चलन में है। कोई भी काम करने, दौड़-भाग करने, उठने-बैठने, सायकल-कार-बाइक चलाने में जींस इतनी आराम दायक है कि पुरानी पीढ़ी के महिला-पुरुषों ने भी उसे अपना लिया है। युवा पीढ़ी का तो वह पसंदीदा पहनावा है ही। उस पर रोक लगाने की मानसिकता बीमार ही कही जाएगी। हमारे समाज में वैसे भी वैज्ञानिक सोच का अभाव है। हाल के वर्षों में दकियानूसी सोच को और बढ़ावा मिला है। अवैज्ञानिक-अतार्किक बातों और अंधविश्वास को महान भारतीय ज्ञानबताया जा रहा है। दु:ख तब बढ़ जाता है जब ऐसे विचारों और फैसलों के विरुद्ध आवाज नहीं उठती।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 मार्च 2021)          

     

Tuesday, March 09, 2021

पत्रकारिता तब और अब, संदर्भ ‘नैनीताल समाचार’

सन 1977 में जब हमने लखनऊ के स्वतंत्र भारत से पत्रकारिता की शुरुआत की तब सम्वाददाताओं को दफ्तर की तरफ से छोटी-सी नोट बुक और कलम मिला करते थे. इसी नोट बुक में वे प्रेस कॉन्फ्रेस और अन्य खबरें नोट किया करते थे. एक दिन हमारे एक वरिष्ठ सम्वाददाता किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से बढ़िया नोट बुक और कलम लेकर आए जो सम्बद्ध पार्टी ने पत्रकारों को बांटे थे. स्वतंत्र भारत के हम युवा पत्रकारों की टीम ने उस दिन इस पर आपत्ति जताई थी. हमने बहस की थी कि किसी भी रिपोर्टर के लिए प्रेस वार्ता करने वाले पक्ष से नोट बुक और पेन लेना नैतिक रूप से गलत है. अखबार इसके लिए अपनी नोट बुक और पेन देता है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में चाय-नाश्ता, सिगरेट, वगैरह पेश करना आम बात थी लेकिन कई पत्रकार इसे ठीक नहीं समझते थे और ग्रहण नहीं करते थे. सिगरेट की डिब्बी और काजू जेब में रख ले जाने वाले रिपोर्टर भी होते ही थे जिनका मजाक बनाया जाता था.

आपातकाल के बाद का वह दौर अखबारों (तब भारत में न्यूज चैनल, इंटरनेट नहीं थे) के विस्तार का भी था. मालिकों-सम्पादकों-पत्रकारों की पुरानी पीढ़ी के जाने और नई के उभरने का भी यही समय था. इसी तरह राजनीति और प्रशासन में नई पीढ़ी कब्जा जमा रही थी (याद कीजिए, संजय गांधी और उनकी टीम के तेवर) आजादी के समय से चले आ रहे जीवन मूल्य, नैतिकता, ईमानदारी, सामाजिक सरोकार, वगैरह बदल रहे थे. उनकी नई परिभाषा गढ़ी जा रही थी. प्रेस वार्ता में पेन-पैड ही नहीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाने लगे थे और पत्रकारों में उन्हें लपकने की होड़ मचनी शुरू हो गई थी. रात को दारू-मुर्गा पार्टियां आम हो गई थीं. विधान सभा सत्र के दौरान अपने भाषण छपवाने के लिए मंत्री-विधायक चुनिंदा पत्रकारों को खाने-पीने की दावतें देने लगे थे. मुझे याद है सन 1983 में लखनऊ के सस्ते गल्ले के (कण्ट्रोल) दुकानदारों ने अपनी समस्याओं के बारे में प्रेस वार्ता की तो दो-दो किलो चीनी के थैले पत्रकारों को बांटे थे (उन दिनों खुले बाजार में चीनी ज्यादा महंगी थी) तब प्रसिद्ध फोटो-पत्रकार सत्यपाल प्रेमी रिपोर्टरों से तंज में कहा करते थे कि कल सुअर पालकों की प्रेस वार्ता है, गिफ्ट में चार-चार पिल्ले दिए जाएंगे. जरूर आना!

मतलब यह कि 1980 के दशक से पत्रकारिता में शुचिता और नैतिकता के मूल्य तेजी से गायब होने लगे थे. धोती-कुर्ता धारी बूढ़े सम्पादकों का स्थान लेने वाले टाई-सूट में सुसज्जित युवा सम्पादकों में कई सरकार और निजी क्षेत्र से मालिकों के हित साधने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे. पहले इस काम के लिए संस्थानों में कुछ खास रिपोर्टर रखे जाते थे. सम्पादकों का काम मुख्यत: लेखन-सम्पादन और अखबार का स्तर बनाए रखना होता था. मगर अब भूमिकाएं बदल रही थीं.

लेकिन जो शोचनीय स्थितियां आज यानी 2016 में हैं उनकी तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक भी हालात बहुत अच्छे थे. पत्रकारिता के मूल्यों और प्रतिबद्ध सम्पादकों-पत्रकारों की जगह भी बनी हुई थी. संस्थान से लेकर सरकार तक वे सम्मान की नजर से देखे जाते थे. अखबारों को भी अच्छा लिखने, और अच्छी छवि वाले पत्रकारों की जरूरत रहती थी. उनके लिए कहा जाता था- अरे, वे उस तरह के सम्पादक नहीं हैं.आज जो उस तरह के नहीं हैं उनका मीडिया में टिक पाना मुश्किल हो गया है. अपवाद अवश्य हैं लेकिन वे भारी दवाब में रहते हैं. खरी-खरी और बेबाक लिखने वाले पत्रकार-सम्पादक संस्थान विरोधी माने जाते हैं. उनसे सबसे पहली अपेक्षा यह की जाती है कि वह संस्थान के मुनाफे की चिंता करेंगे. सत्य को उद्घाटित करने या कोई भण्डाफोड़ करने की बजाय उसे संस्थान हित में भुनाएंगे और उसे पत्रकारिता का खूबसूरत मुखौटा पहनाएंगे. सम्पादकों को आज मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/ वरिष्ठ अफसरों का करीबी होना पड़ता है. उनकी योग्यता इससे आंकी जाती है कि उनके कितने नेताओं से कैसे सम्बंध हैं, मुख्यमंत्री से सीधे और तुरन्त मिल सकते हैं या नहीं, उनसे संस्थान का कोई प्रस्ताव तुरंत स्वीकृत करवा सकते हैं या नहीं. महंगे गिफ्ट, पंचतारा होटलों की दावतें, विदेश यात्राएं, जैसे प्रलोभन पत्रकारों के लिए अब आम हैं और इसे कोई नैतिकता से जोड़ता भी नहीं. परिभाषाएं पूरी तरह बदल गई हैं.

बहरहाल, 1977 में हम युवा थे. उत्साह, जोश और सपनों से भरे हुए. दूसरी आजादी के नारे हवा में थे और जे पी (जय प्रकाश नारायण) का नेतृत्व बहुत उम्मीदें जगा रहा था जिन्होंने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार को गांधीजी की समाधि पर खड़ा कर के राजनीति और प्रशासन में सार्थक बदलाव लाने की शपथ दिलवाई थी. देश में जगह-जगह अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आंदोलन चल रहे थे और उनमें युवाओं की जबर्दस्त भागीदारी थी. पत्रकारिता हमें इस बदलाव को देखने, जांचने और उसकी समीक्षा करते हुए उसमें शामिल होने का बेहतरीन माध्यम लगती थी. इसीलिए मैं एम ए करके पहाड़ में मास्टरी करने का सपना भूल कर पूरी तरह पत्रकारिता में रम गया था. उम्मीदें बहुत जल्दी-जल्दी टूट भी रही थीं, इसलिए पत्रकारिता और भी जरूरी लगती थी.

उत्तराखण्ड में चिपको (वन ) आंदोलन पूरे जोर पर था. जिस जोश और गुस्से के साथ महिलाएं और युवा विशेष रूप से उस आंदोलन में शामिल थे, उसमें हम पूरे पहाड़ की व्यवस्था के बदल जाने की उम्मीदें देखते थे और अखबारों में इसी आशय के लेख लिखा करते थे. अगस्त, 1977 से “नैनीताल समाचारका प्रकाशन हमें लखनऊ में भी नए उत्साह और ऊर्जा से भर गया था. मैंने नै स के दूसरे अंक से ही प्रवासी पहाड़ी की डायरी लिखना शुरू किया. समाचार के अंकों का बेसब्री से इंतजार रहता था और अंक मिलते ही सुझावों और तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता था.

स्वतंत्र भारत में हम नौकरी करते थे. सम्पादक के रूप में अशोक जी इतने प्रभावशाली थे कि हमें उनके अलावा और किसी से कोई मतलब नहीं होता था. तो भी, यह अहसास रहता था कि हमारा एक मालिक है. नै स के हम खुद मालिकनुमा थे और मालिक-सम्पादक नामधारी राजीव से कुछ भी कह-सुन सकते थे, और झगड़ा कर सकते थे. स्वतंत्र भारत में हमें सिखाया जाता था कि चिकोटी काटो, बकोटा नहीं लेकिन नै स में शब्दों की तलवारें भांज सकते थे, किसी की भी चीर-फाड़ ही नहीं, ऐसी-तैसी करने को भी आजाद महसूस करते थे. प्रदेश में तब जनता पार्टी की सरकार थी और उसके वन मंत्री श्री चंद को श्री चंठ बना कर क्या कुछ नहीं लिखा! कुछेक बार जोश और गुस्से में नादानियां भी कीं. अपुष्ट और आधी-अधूरी जानकारियों के आधार कुछ भी लिख डाला. समाचार की जागरूक टीम से पलट कर डांट भी पड़ी.

नै स के दफ्तर में, जो तब बहुत जीवंत और खुला वैचारिक अड्डा था, हर खबर, टिप्पणी और घटनाक्रम पर लम्बी बहस चला करती थी. हर चीज की चीर-फाड़ होती थी. अपने निराले ही अंदाज में मेरी भी सुन ली जाए, भले मानी न जाए कहने वाले गिर्दा, आम तौर शांत लेकिन कभी-कभी भड़क जाने वाले व्यावहारिक भगत दा, अध्ययन और घुमक्कड़ी से सदा अद्यतन शेखर दा, सबकी सुनने को मजबूर-जैसे सम्पादक राजीव, बीच-बीच में गर्म छौंक लगा जाने वाले हरीश दाढ़ी, (इस केंन्द्रीय टीम में लोग जुड़ते और जाते भी रहे) और भी नैनीताल आवत-जावत संगी साथियों की मण्डली एक-एक अंक की प्लानिंग में इतना डूबी रहती कि अंक ही संकट में पड़ जाता. अथक विचार-मंथन से किसी तरह अंक पास हुआ भी तो ट्रेडिल मशीन की छपाई में असम्भव को सम्भव बनाने में अक्षर जुड़ान-छपान वाली टीम के पसीने छूट जाते. मगर जब अखबार छप कर आता तो लगता कि कुछ ऐसा काम हुआ है जो शायद और कहीं नहीं हो पा रहा, कि हां, पत्रकारिता का यही तो दायित्व है. एक संतोष-सा भर जाता. फिर भी एक असंतोष बना रहता और वह बेचैनी अगले अंक की प्रसव पीड़ा जैसी होती.

आज 39 साल पीछे मुड कर देखने पर भी लगता है कि हां, नै स ने जिम्मेदार पत्रकारिता की भूमिका बखूबी निभाई. प्रारम्भिक वर्षों में तो उसके तेवर कई बार दुस्साहस की हद तक और रोंगटे खड़े करने वाले रहे. तवाघाट और कर्मीं जैसे भूस्खलन हों, या उत्तरकाशी से ऊपर अलकनंदा में झील बनने और फिर उसके टूटने से मची तबाही हो, पंतनगर का गोली काण्ड हो या अल्मोड़ा मैग्नेसाइट की हड़ताल, शैले हॉल में वनों की नीलामी रोकने का आंदोलन रहा हो या उसके बाद लगभग पूरे उत्तराखण्ड में पुलिसिया दमन, ‘नशा नहीं रोजगार दोआंदोलन की पहाड़ व्यापी कवरेज हो अथवा तराई के विस्थापितों के दुख-दर्दों की रपटें, नै स की टीम ने जान खतरे में डाल कर, यथासम्भव शीघ्र घटना स्थल पर पहुंच कर जो आंखों देखी रिपोर्टिंग की और जिस अंदाज में उन्हें पेश किया, वैसा हमारे समय की पत्रकारिता में दुर्लभ ही कहा जाएगा. इन रपटों को पत्रकारों की नई पीढ़ी को अवश्य देखना चाहिए. जनमुखी पत्रकारिता का अगर कोई पाठ्यक्रम बने तो इन्हें उसका हिस्सा भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए. उन रपटों में पत्रकारिता के स्थापित मानकों का उल्लंघन भी कई बार हुआ होगा लेकिन यह विश्लेषण का विषय होगा कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा होने से रिपोर्ट को जो तेवर मिले, जनहित में वे कितने जरूरी थे. नै स की इस तेवरदार पत्रकारिता का बीच के वर्षों में भले लोप हो गया हो, लेकिन वह धारा मौजूद थी और उत्तराखण्ड आंदोलन में वह सर्वथा नए रूप और साहस के साथ प्रकट हुई. उस दौर का उत्तराखण्ड बुलेटिन और गिर्दा का उत्तराखण्ड काव्य सहमी-डरी जनता को सूचना, समाचार विश्लेषण और हिम्मत देने वाली वाचिक पत्रकारिता के नायाब नमूने हैं.

नै स ने पहली बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को एक समाचार-इकाई के रूप में देखा. जब तथाकथित बड़े अखबार हर जिले के अलग-अलग संस्करण निकाल कर एक जिले के पाठकों को दूसरे इलाके की खबरों से वंचित कर रहे थे तब नै स ने पूरे उत्तराखण्ड की खबरें एक साथ परोसने का जरूरी काम किया और दूसरे अखबारों को भी राह दिखाई. वह रूढ़ अर्थों में समाचार पत्र कभी नहीं रहा. जरूरी खबरों तथा घटनाओं के अंदरूनी, गोपनीय पक्ष को उजागर करने के साथ नै स उत्तराखण्ड के इतिहास, पुरातत्व, जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट, पलायन और प्रवास, विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ के विनाश, राजनीतिकों के दोहरे चरित्र, प्रशासनिक तंत्र का अमानवीय चेहरा उजागर करने का काम करता रहा है. जरूरत पड़ने पर न्यायालय को भी कटघरे में खड़ा करने का अत्यंत साहसिक काम उसने किया है, जिसकी भूमिका पर, चंद अपवादों को छोड़कर, मीडिया चुप ही रहता आया है.

ऐसे अनेक कारण हैं कि नै स अपनी सीमित प्रसार संख्या के बावजूद प्रभावशाली माना जाता है और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करता है. इसीलिए जब-जब मुख्यत: आर्थिक संकट के कारण उसके बंद होने की नौबत आई या कुछ समय के लिए उसे स्थगित किया गया, हर तरफ से उसे चलाए रखने की अपीलें हुईं और मदद भी पहुंची. जिसने भी नै स पढ़ा है, अंधेरे में एक रोशनी की वह उसे तरह जरूरी लगता है, क्योंकि आज की पत्रकारिता कतई भरोसेमंद नहीं रह गई. सच का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका है और आज पत्रकारिता सच का अन्वेषण भूल कर स्वर्ण पात्र की दीवानी हो गई है.

इस सच के बावजूद कि नै स हमारे समय का रांख (छिलुकों का मुट्ठा, जिसे जलाकर पहाड़ के लोग घने अंधेरे में भी रास्ता पार करते आए हैं) या मशाल है, उसे इसी तरह बनाए और चलाए रखना बहुत दिनों तक व्यावहारिक नहीं होगा जब तक कि उसे नई संकल्पवान टीम नहीं मिले. संसाधन तो जैसे-तैसे जुट जाएंगे लेकिन विचार, तेवर और समर्पण वाली टीम कहां से आएगी? पुरानी टीम के उम्र से भी चुकने का समय आ रहा है. यह संकट सिर्फ नैनीताल समाचार का नहीं पहाड़ और दूसरी ऐसी संस्थाओं/संगठनों के सामने भी है. उन्हें नए संवाहक चाहिए. तभी विचार, तेवर और जनमुखी पत्रकारिता की यह धारा प्रवहमान रह पाएगी.

(नैनीताल समाचार के 40वें जनमबार अंक के लिए लिखा गया लेख)

Monday, March 08, 2021

प्रवासियों की नई पीढ़ी में लोप होता लोक

इन दिनों लखनऊ के सांस्कृतिक जगत में उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति की धूम मची रहती है. दो दर्ज़न से ज़्यादा पर्वतीय संस्थाओं में से कोई न कोई आए दिन सांस्कृतिक प्रस्तुतियां करती रहती है. साल में दस-दस दिनी दो बड़े मेले भी लगते हैं- 'उत्तरायणी कौतिक' और 'उत्तराखण्ड महोत्सव', जहां लखनऊ ही के नहीं, 'उत्तराखण्ड के सुदूर इलाकों से आए लोक-नर्तक-गायक' भी अपनी प्रस्तुतियां देते हैं। यह अलग बात है कि इनमें लोक के नाम पर घालमेल ही ज़्यादा रहता है. लोक को वास्तविकता में समझने और सीखने की ललक कम ही दिखाई देती है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारी नई पीढ़ी की जड़ें उत्तराखण्ड में हैं ही नहीं. यहां की दो-तीन बड़ी उत्तराखण्डी संस्थाएं अल्मोड़ा-पिथौरागढ़-देहरादून-पौड़ी, आदि से भी सांस्कृतिक दल बुलाकर प्रवासियों को अपने लोक नृत्य-गीतों से रू-ब-रू कराने का प्रयास करती हैं. इन प्रस्तुतियों देख कर अफसोस ज़्यादा होता है कि पहाड़ में भी सांस्कृतिक प्रदूषण बहुत तेज़ी से फैला है और लोक-संस्कृति को सिर्फ भुनाया ही जा रहा है. लेकिन एक दौर था जब प्रवासियों में अपनी लोक-संस्कृति के प्रति ज़बर्दस्त लगाव था और लोक को उसकी सम्पूर्णता में जानने-समझने और सहेजने की कोशिश होती थी.

सन 1952-53 से आकाशवाणी, लखनऊ ने अपने सांस्कृतिक समारोहों में उत्तराखण्डी संस्कृति की कुछ महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां लखनऊवासियों के समक्ष प्रदर्शित करना शुरू किया था. आकाशवाणी के तत्वावधान में 1952 में अल्मोड़ा की संस्था यूनाइटेड आर्टिस्ट्‍स ने एक खुले मंच पर कुमाऊं का बहुप्रसिद्ध नृत्य-गीत 'बेड़ू पाको बारा मासा....' लखनऊ में पहली बार प्रस्तुत किया था जिसमें प्रख्यात लोक संस्कृतिकर्मी मोहन उप्रेती ने पद्मा तिवारी के साथ नृत्य किया था. इस लोकगीत का पुनर्लेखन बृजेन्द्र लाल साह ने किया और धुन बनार्इ थी स्वयं मोहन उप्रेती ने. यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यद्यपि उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक इतिहास में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाली संस्था लोक कलाकार संघ का तब तक जन्म नहीं हुआ था लेकिन सांस्कृतिक राजधानी कहलाने वाले अल्मोड़ा में गहन सांस्कृतिक मंथन और आलोड़न-विलोड़न चल रहा था. प्रख्यात नर्तक उदय शंकर के बड़े भार्इ देवेन्द्र शंकर से नृत्य की शिक्षा लेकर अल्मोड़ा में स्कूल आफ माडर्न इंडियन डांसिंग खोलने वाले तारादत्त सती ने एक नए 'घसियारी नृत्य की रचना करके (उदय शंकर का रचा घसियारी नृत्य अलग था) हलचल मचा रखी थी, गीत-संगीत के क्षेत्र में मोहन उप्रेती और बृजेन्द्र लाल साह की जोड़ी चर्चित हो रही थी और अलख नाथ उप्रेती एवं बांके लाल साह जैसे मंच निर्देशकों का सहयोग इनके साथ था. नतीजतन,  वहां यूनाइटेड आर्टिस्ट्स और अल्मोड़ा कल्चर सेण्टर जैसी संस्थाएं जन्मी जो अंतत: 1955 में 'लोक कलाकार संघ के उदय का आधार बनीं.

बहरहाल, 1952 में यूनाइटेड आर्टिस्ट्स की बेडू‌ पाको...प्रस्तुति के बाद 7-8 फरवरी, 1953 को तारादत्त सती के प्रयासों से तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत के संरक्षण में लखनऊ में अल्मोड़ा कल्चर सेण्टर का बड़ा कार्यक्रम हुआ. इसके लिए 13 महिलाओं समेत 50 कलाकारों का दल लखनऊ आया था जिसमें स्वयं तारादत्त सती, बांके लाल साह, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह, मोहन उप्रेती और नर्इमा खान भी थे. मोहन उप्रेती ने अपने संस्मरणों में इस कार्यक्रम को मजेदार ढंग से याद किया है- हमें लखनऊ आने पर पता चला कि कार्यक्रम कैपिटल सिनेमाघर में पेश करना है और वह हमें सिनेमा का मैटिनी शो छूटने के बाद 6 बजे मिलेगा जबकि कार्यक्रम का समय शाम 6.30 बजे था. नतीजा यह हुआ कि जब 6.15 पर मुख्यमंत्री आए तो हमारे मंच निर्देशक बांके लाल साह मंच पर सफेद पर्दा अटकाने में लगे थे और ग्रीन रूम में कोर्इ कलाकार तैयार नहीं था. 6.30 पर राज्यपाल महोदय भी आ गए थे. 6.45 पर राज्यपाल ने कहला भेजा कि अब भी कार्यक्रम शुरू नहीं हुआ तो वे चले जाएंगे. खैर, जैसे-तैसे कार्यक्रम पेश किया गया. हम सभी लोग खिसियाए हुए थे कि क्यों बिना मंच रिहर्सल के कार्यक्रम देने को तैयार हो गए. दूसरे दिन कार्यक्रम बढि़या रहा. अल्मोड़ा लौटने से पहले मुख्यमंत्री जी ने चाय पिलार्इ मगर यह कहना नहीं भूले कि मणी और रिहर्सल करि बेर ऊना. (कुछ मीठी यादें कुछ तीती--मोहन उप्रेती, पृष्ठ 66-67) लोक कलाकार संघ के गठन के बाद उसे भी समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए लखनऊ बुलाया जाता रहा।

देश पर चीनी हमले के बाद सीमांत क्षेत्रों को भावनात्मक रूप से देश की मुख्य धारा में और सघनता से जोड़ने के लिए अक्टूबर, 1962 में आकाशवाणी, लखनऊ से सुदूर सीमांत तक सुना जाने वाला  उत्तरायण कार्यक्रम कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में शुरू हुआ. इसके साथ ही लखनऊ के पर्वतीयों को एक नया साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच मिला. कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में कहानी-कविता-गीत-वार्ता लिखने-बोलने और लोकगीत गाने वालों की तलाश शुरू हुर्इ. वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु और जीत जरधारी (अब स्व.) की जोड़ी सुदूर पहाड़ों में लगने वाले प्रसिद्ध मेलों, जैसे- बागेश्वर का उत्तरायणी मेला, द्वाराहाट का स्याल्दे-बिखौती मेला, जौलजीवी का मेला, आदि से पारम्परिक लोक गीतों की रिकॉर्डिंग करके लाते थे. उत्तरायणके संग्रह में कभी उत्तराखण्ड के लगभग सभी प्रसिद्ध लोक गायकों की रिकॉर्डिंग मौज़ूद थी. इससे यहां कई सारे गायक-गायिकाओं ने लोक गीतों की मूल धुनें सीखीं. इस तरह लखनऊ में पर्वतीय रामलीलाओं के समानान्तर पर्वतीय नृत्य-गीतों के मंचीय कार्यक्रमों की शुरुआत भी हो गर्इ। मुरलीनगर, महानगर, गणेशगंज, नरही, डालीगंज, आदि के रामलीला मंचों के अलावा भी रवीन्द्रालय, बंगाली क्लब, नाट्य कला केन्द्र, आदि मंचों पर पर्वतीय लोक गीत-संगीत और नृत्य प्रमुखता से गूंजने लगे. सांस्कृतिक संस्थाओं का पृथक अस्तित्व भी धीरे-धीरे उभरने लगा. 'उत्तरायण के तत्वावधान में यदा-कदा होने वाली लोक भाषा कवि गोष्ठियों ने लखनऊ में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोलियों के साहित्य को प्रेरित किया. सामान्य नृत्य-गीतों की परम्परा से हटकर लखनऊ में उत्तराखण्डियों की सबसे पुरानी संस्था कुमाऊँ परिषद ने पहला महत्वपूर्ण कार्यक्रम मालूशाही नृत्य नाटिका के रूप में सन 1968 में प्रस्तुत किया. कुमाऊं के लोक संगीत पर आधारित इस नृत्य नाटिका का आलेख और संगीत रचना प्रद्युम्न सिंह के थे और नृत्य निर्देशन था पूर्णिमा जोशी का जो कालांतर में कथक नर्तकी पूर्णिमा पाण्डे के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब डीम्ड विश्वविद्यालय) की प्राचार्य बनीं.

एक और उल्लेखनीय दौर 1974 से शुरू हुआ जब शिखर-संगम का गठन हुआ और कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में नाटकों के मंचन का पहला प्रयास लखनऊ में किया गया. श्री जिज्ञासु, जीत जरधारी, पीताम्बर डंडरियाल, मोहन लाल नवानी, घनश्याम जोशी, आदि ने इस संस्था का गठन किया था. 23 नवंबर 1975 को बंगाली क्लब के मंच पर गढ़वाली नाटक 'एकीकरण (लेखक-ललित मोहन थपलियाल, निर्देशक-जीत जरधारी) और कुमाऊँनी नाटक 'मी यो गयूं, मी यो सटक्यूं (लेखक-निर्देशक-नंद कुमार उप्रेती) का मंचन हुआ. इसी अवसर पर श्री जिज्ञासु के सम्पादन में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में हस्तलिखित साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका 'त्वीले धारो बोला भी प्रकाशित की गर्इ जिसका विमोचन मशहूर लेखिका शिवानी ने किया था. अपनी तरह का पहला कार्यक्रम होने के कारण इस आयोजन की बहुत तारीफ हुर्इ थी. शिवानी ने तब 'स्वतंत्र भारत अखबार के अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'वातायन में इस कार्यक्रम की खूब सराहना की थी. उन्होंने लिखा था- संभवत: पहली ही बार लखनऊ के प्रवासी पर्वत निवासियों ने अपनी मातृभाषा में इन को नाटकों का प्रदर्शन किया. उससे भी सुखद अनुभूति हुर्इ, गढ़वाली और कुमाउंनी बंधुओं के इस अपूर्व सांस्कृतिक संगम को देख कर." (स्वतंत्र भारत, लखनऊ, 30 नवंबर, 1975) 'शिखर संगम ने अपनी दूसरी प्रस्तुति में ललित मोहन थपलियाल का ही लिखा गढ़वाली नाटक 'खाडू लापता जीत जरधारी के निर्देशन में और कुमाऊंनी के महत्वपूर्ण कवि चारु चन्द्र पाण्डे की लम्बी हास्य कविता 'पुन्तुरि का नाट्य रूपान्तर शशांक बहुगुणा के निर्देशन में मंचित किया था.

शिखर संगम संस्था जल्दी ही टूट गर्इ. तत्पश्चात जिज्ञासु जी ने 1978 में शिखर संगम के कुछ कलाकारों को लेकर 'आँखर की स्थापना की जिसने कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में नाटक खेलने और अपनी बोली में पत्रिका प्रकाशन के काम को आगे बढ़ाया. अगले सात-आठ सालों में 'आँखर ने मशहूर नाट्य निर्देशक देवेन्द्र राज 'अंकुर’, शशांक बहुगुणा और पियूष पाण्डे के निर्देशन में लखनऊ के अलावा भोपाल, कानपुर, मुरादाबाद, अल्मोड़ा और नैनीताल तक जाकर अपनी बोली में नाटकों के प्रदर्शन किए. प्रसिद्ध उपन्यासकार-नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत की कहानी 'मोटर रोड (नाट्य रूपान्तरण-जिज्ञासु), चारु चन्द्र पाण्डे का 'पुन्तुरि’, दीवान सिंह डोलिया का नाटक 'ब्या है गो, गोविन्द बल्लभ पंत (नाटककार नहीं, दूसरे) का प्रहसन 'ह्यूँना पौंण, शेखर जोशी की चार कहानियों 'दाज्यू’, 'व्यतीत’, 'बोऔर 'कोसी का घटवार (सितम्बर 1981) शिवानी की कहानी 'चन्दन(सितम्बर 1979) और हिमांशु जोशी के उपन्यास 'कगार की आग (कुमाऊंनी नाट्य रूपान्तरण-नवीन जोशी) के कुमाऊँनी मंचन काफी सराहे गए और इनके कर्इ प्रदर्शन हुए. इन नाटकों में भी उत्तराखण्ड के लोक संगीत का प्रचुर प्रयोग होता था. 7-8 साल की सक्रियता के बाद 'आँखर भी विखर गई. बोली में नाट्य मंचन का सिलसिला ठप हो गया लेकिन कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में आँखर पत्रिका का प्रकाशन जारी रहा। वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु और इन पक्तियों के लेखक के सम्पादन में आँखर पत्रिका एक वर्ष तक हर मास छपती रही और फिर कुछ समय त्रैमासिक रूप से भी निकली लेकिन अफसोस कि विशाल पर्वतीय आबादी वाले लखनऊ में इसके सौ नियमित ग्राहक भी नहीं बन पाए और 1995 के अंत में पत्रिका बंद ही हो गर्इ. सिर्फ संसाधनों की कमी को दोष देना ठीक नहीं, टीम की ऊर्जा और संकल्प शकित का चुक जाना बड़े कारण रहे.

सन 1978 में महानगर क्षेत्र में प्रो. मुरली धर जोशी की अध्यक्षता में 'कुमाऊंनी कला केन्द्र (कुकके) का गठन किया गया. घनानंद पाण्डे, घनानन्द उपाध्याय, डा. सुशीला तिवारी, ब्रिगेडियर उमेश चन्द्र पंत, डा. एम डी उपाध्याय और साहित्यकार गोपाल उपाध्याय, जैसे वरिष्ठ लोग उससे जुड़े. 'कुकके ने कुछ सुन्दर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां कीं जिनमें प्रद्युम्‍न सिंह लिखित-निर्देशित नृत्य नाटिका 'मालूशाही के 1978 और 1980 में रवीन्द्रालय में हुए दो प्रदर्शन और 1983 में मंचित कुमाऊंनी नाटक 'गोपियै हरुलि (लेखक-ललित मोहन जोशी) उल्लेखनीय हैं। 'कुकके ने 'कूर्मांचल नाम से कुछ पत्रिकाएं भी प्रकाशित की थीं जिनका सम्पादन साहित्यकार गोपाल उपाध्याय ने किया था। 'कुकके के लिए प्रद्युम्न सिंह एक और संगीत-नाटिका 'हरु-हीत का भी मंचन करना चाहते थे। आलेख भी तैयार था लेकिन फिर उन्हीं के शब्दों में 'द्याप्त घरी गया अर्थात जोश ठंडा पड़ गया।

उसी दौरान (1978-79) में प्रसिद्ध रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल ने अपने दादा भवानी दत्त थपलियाल द्वारा लिखित प्रथम गढ़वाली नाटक 'प्रहलाद का गढ़वाली में ही सशक्त मंचन करके लखनऊ के पर्वतीयों को ही नहीं, सभी नाट्य प्रेमियों को भी रोमांचित किया। तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य और उसके पिट्ठुओं पर तीखे कटाक्ष करने वाला यह नाटक भवानी दत्त जी ने सन 1910 में लिखा था। (भवानी दत्त जी ने 'जय विजय नाम से दूसरा गढ़वाली नाटक सन 1911 में लिखा जिसका पहला मंचन उर्मिल जी ने 1994 में देहरादून में किया था) प्रहलाद नाटक का मंचन पूरी तरह उत्तराखण्ड के लोक संगीत पर आधारित था.

लखनऊ में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोलियों के नाटकों के मंचनों के सिलसिले पर यहीं विराम लग गया लेकिन लोक नृत्य-गीत-संगीत के बेहतरीन कार्यक्रम होते रहे. सन 1969 में देहरादून से लखनऊ आ बसे सोहन लाल थपलियाल 'उर्मिल’ (जो कालान्तर में उर्मिल थपलियाल के नाम से रंग जगत में विख्यात हुए) ने 1970-73 के बीच लखनऊ में गढ़वाली लोक संगीत और लोक नाट्‍य आधारित कुछ लोकप्रिय प्रस्तुतियाँ दी. 'फ्यूंली और रामी’, 'मोती ढांगा’ और 'संग्राम बुढ्या रम-छम’ जैसी नई प्रस्तुतियाँ प्रवासी पहाडि़यों के लिए सांस्कृतिक प्रेरक बनीं जिनमें मनु ढौंढियाल और बीना तिवारी ने सुरीले लोक गीत गाए थे।

वह सीखने–सिखाने का दौर था और प्रवासियों में अपनी जड़ों से जुड़े रहने का जुनून मौज़ूद था. 1980 के आस-पास ब्रजेंद्र लाल साह गीत एवं नाट्य प्रभाग के उप-निदेशक बनकर लखनऊ आए तो उनसे लोक-धुनें सीखने के लिए प्रवासियों की नई पीढ़ी के कलाकार लालायित रहते थे. इससे उत्साहित होकर साह जी ने शाम को नि:शुल्क लोक-संगीत कक्षा लगाना शुरू किया. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित विज्ञानी डा दीवान सिंह भाकूनी ने इसके लिए अपना ड्राइंग रूम सहर्ष दे दिया था. साह जी जब तक लखनऊ तैनात रहे यह सिलसिला चलता रहा.

लेकिन प्रवासियों की नई पीढ़ी में इस तरह का लगाव और समर्पण नहीं रहा. आज के लोक गायक-गायिकाओं को मूल धुनों या लोक संगीत से वैसा सरोकार नहीं है. दरसल, वे अपनी बोली के शब्दों का उच्चारण भी ठीक से नहीं कर पाते. आज के लखनऊ में उत्तराखण्डियों की संस्थाओं के पास सारे साधन हैं, धन की कोई कमी नहीं है, सरकारों-नेताओं से अनुदान लेने में वे माहिर हैं. उनके पास सब कुछ है लेकिन अपना लोक ही नहीं है. मई 2015 में निसर्ग सृजन संस्थान ने प्रसिद्ध लोक गायिका कबूतरी देवी को लखनऊ में गिर्दा स्मृति सम्मान दिया. इस मौके पर बुजुर्ग कबूतरी जी ने चंद पुराने लोक गीत सुनाए तो लखनऊ की गर्मी में कुमाऊंनी लोक संगीत की शीतल बयार का झोंका-सा महसूस हुआ था. ऐसे आयोजन लेकिन अब दुर्लभ ही हैं.

 

 

 

 

Saturday, March 06, 2021

इज स्वीण्यां देखींछ आब, पुछैं- घर कब हिटलै?

बेई रात इज फिर स्वीण्यां देखीणी। पुछणैछी- आब घर कब हिटलै?’

घर मल्लब हमर गौं, पहाड़क हमर घर। अढ़तीस साल बटी इज म्यार दगाड़ यां लखनऊ रूंछी। फिर ले वी तें घर पहाड़ै छी। बाबूलि घर-परिवार सैतणैं तें लखनऊ में नौकरी करी। लखनऊ में ड्यरभ्यो। घरपहाड़ै रय जै कें इजालि सैंतौ, पौर्या। आब उ घर ले हमनै तें स्वीण है ग्यो।

बाबू लखनऊ रूंछी। इज पहाड़ में। साल में एक-डेढ़ म्हैणै छुट्टी ल्ही बेर बाबू घरजांछी। असौजा म्हैण बुति-धाणि में इजाक दगड़ करणैं तें। तबै उं दगाड़ रूंछी। बाकि पुर साल बाबू लखनऊ और इज पहाड़। उनरि भेट, कुशव-बात, दुख-तकलीफ, रीस-झगड़, लाड़, एक-दुसरै फिकर सब चिट्ठिन में हुंछी। उछ्याटन चिट्ठी ऊंण-जाण में पनर-बीसेक दिन या म्हैण-डेढ़ म्हैण ले लागि जानेर भाय। चिट्ठी पुजण जाणै बाबू लखनऊ में और इज गौं में फुराड़ी रूंनेर भाय।

मी इज-बाबुक फुरड़्याट देखन-देखनै ठुल भयूं। स्कूला किताबन दगै मील यो फुरड़्याट ले घोगौ। बाबू कम बलांछी। मनै मन लागि रूंछी उनर दुशंत्याट। चुपचाप दिवार उज्यांण चै रौल। पें उनार मुख में छपि जांछी उनरि फिकर। जब भौतै फिकर है गई तब सज्योलि कूंछी- भौत दिन है ग्यान, तेरि इजै चिट्ठी नि ऐ। मी समझि जानेर भयूं कि आज बाबू भौत फुराड़ी रईं। फिर उं ह्वाक भरि बेर बैठि जांछी। ह्वाकै गुड़-गुड़ में लुकै दिछीं आपणि फिकर।

इज भौत बलानेर भे। उ आपण मन में के धरनेर नि भे। जब मी जेठा म्हैण स्कूलै छुट्टी में घर जांछ्यूं, तब सब कै दिनेर भे आपणि मनै बात, फिकर, दुशंत्याट, उड़भाट, जि ले भ्यो। बाबूकि चिट्ठी नि आई त उ रात-रात भरि बिज रूनेर भे। उड़भाट हुनेर भ्यो उकें। आदु रात में उठि बेर पाणी गिलास में तेलाक त्वाप खितनेर भे। तेला त्वाप पाणि में डुबनेर नि भ्या। तब उ कूनेर भे- त्यार बाबू कुशलै छन।यसीकै मनौ संताप मिटै बेर उ दिसाण में खिती जानेर भे। नीन फिर ले उनेर नि भे। दिसाण में वल्टी-पल्टी बेर रात काटि दिनेर भे। रात ब्याई बटी कामै-काम। बुति-धाणि में फिकर ले दबि जानेर भ्या। रात में चुपचाप ऐ बेर फिर दबूनेर भ्या।

परदेस में बाबूक और पहाड़ में इजाक यो फुरड़्याट म्यार मन में किलै चारि गैंठी रौ। जब म्यर ब्या भ्यो, यें लखनौ में, तब मील इज थें कय- आब तु लखनौ ऐ जा। सब दगाड़ै रूंल।

घरक कि होल? कसी होल?’ पैल फिकर योई भे। बड़ि मुश्किललि उ मानि गे। बाबू रिटायर है बेर घरजूंल, वैं रूंल कूनेर भ्या। तब उनरि नौकरी छनै छी। रिटायर हुंण तक उं ले राजि है ग्या। त, सन 1982 बटी इज हमार दगाड़ लखनौ ऐ गे। साल में एक-द्वि फ्यार, या जब ले मन में ऐ, पहाड़ जानेरै भे। रिटायर हुण है द्वि साल पैली बाबू कें दिलै बीमारी है पड़ी। हार्ट अटैक भ्यो। उ बखत बचि गाय मगर वापस पहाड़ जाण लैक नि रै। यसि कै पहाड़ छुटि ग्यो। इज-बाबू हमार दगाड़ लखनौ रै गाय। द्विय्यै बैठीं-बैठी घरैबात करनेर भ्या। हमर घर-गौं, स्वार-बिरादर, गाड़-भिड़, हाव-पाणि… ‘दिगौ-दिगौ कूनेर भ्या। खूब चिट्ठी-पत्री करनेर भ्या।

फिर 1994 में एक रात बाबू सितियै रै ग्यान। नीनै में हार्ट फेल। हमार दागड़ इज इकली रै गे। भे उ खूब छालि। लखनौ में इकलै सब जाग घुमि ऊनेर भे। जब मन ऐ पहाड़ न्है जानेर भे। हल्द्वाणि-नैनताल सतीशा यां, चेलिना यां, आपण मैत, बैणीना यां। घरजै बेर आपण बोटा नारीड., च्यूड़, खजी खाज, चूख लखनौ ल्ही ऊनेर भे। क्वे दगड़ चैनेर नि भ्यो उंकें। जां जालि वें दगड़ू बणै ल्हिनेर भे। रूनेर लखनौ भे मगर हल्द्वाणिक दगड़ून थें बात करि बेर तीर्थ यात्रा पोग्राम बणि जानेर भय। च्यालना मुख चै रूंण नि भ्यो कि तीर्थ करै द्याल। बस में बैठि बेर गंगा सागर, प्रयाग-नासिक कुम्भ, सबै तीर्थ करीं वील। नेपाल जाणै गे। खजुर-गुड़ पापड़ि बादि बेर द्वि-द्वि म्हैणै तें न्हें जानेर भे। सब काम आपण हातलि। खुश है बेर बतूनेर भे- सब घुमि हालो मील, देखि राखौ मील। मोबाइल चलूण ले फौरन सिखौ। फिर त रतै-ब्याव हैलो-हैलोभे। सब जाग बात, सबनाक हाल-चाल ल्हिनेर भे। दुन्नि भरी खबर रूनेर भ्या वी पास।

पै बखत कै कें छाड़ौ? इजकि ले उमर हुनी गे। अठासी पुर करीं पछारि कभतै हिटन-हिटनै धाक लागण बैठीं। कमजोर ले है गे। फाम गजबजीण लागी। बैंक में दस्तखत ट्याड़-म्याड़ हुंण बैठी। बैंक मैनेजरलि एक दैन कौ- माता जी, अब आप अंगूठा लगाना शुरू कर दो। दस्तखत नहीं हो पाते।

कब्बी नहीं लगाया मील अंगूठा,’ इजालि ट्यड़ मूख बणा। मील समझा तब बुरुंट्ठी टेकण पड़ौ। उ दिन भौत उदास भे। कय तो के नि वील मगर मील देख हाछी वीक मुख में। वील चितै हाछी कि आब उमर है गे। बुरुंट्ठी में लागी स्याई मिटण में टैम लागौ। उ स्याई वीक मन में बैठि गेछी शैद।

नब्बे बरस हुनी आब तुकें,’ मील वीथें कौ- कब तक नि हुनी बुड़ी?’

आंचवक टुक मुख में दबै बेर वील कौछी- आजि नब्बे त है रईं!वीकि हंसि मी कें आजि ले याद छ। उ योई सोचछीं कि नब्बे क्वे खास उमर न्हांति। दुसारन थें बुड़-बुड़ीकूनेर भे- जरा, खिमान्दै बुड़ी कें देखि ऊं।हम हंसनेर भ्या-उ बुड़ी न्हाति, तेरि ब्वारी लागैं।

एक दिन क्याप्प जस भ्यो। इज सब भुलि गे। हमन कें ले नि पछ्याण। भ्यार भाजनेर भे। एक्कै रट भे- घर हिटो, घर हिटो। एक चद्दर में आपण द्वि लुकुड़ बादि बेर बाटि लागीं भे- हिटो घर, हिटो घर।

योई त छ हमर घर।

न्ना, यो न्हांति हमर घर,’ डाड़ मारण बैठी- म्यार गोर-बाछ भुख छन। नानतिन दूध बिना टणटणी रईं। हिटो घर।कतु धान्‍ करीं। समझा–बोत्या मगर ना, उई रट। भाजण में कतु बखत पतेड़ी पड़ी। खैर, डॉक्टरलि जांच कराईं। सोडियम-पोटेशियम कम है गोछी। एक हफ्त में इलाजलि ठीक है गे मगर घरमल्लब पहाड़ै फाम सोडियमै कमी ले नि भुलै सकि। आखिर तक वीक लिजि घर मल्लब पहाड़ भ्यो।

परार साल घर भितेरै धांक लागि बेर द्वि-तीन बखत लफाई पड़ी। हांट-भांटन लागी, घुन में पीड़ भे। मी एक भली भलि स्टिक ल्ही बेर आयूं- ले, यो जांठ थामि बेर हिटिए।जांठ थामण में ले वील नखारै करीं। जांठ थामण मल्लब बुड़ीण। यो वीकें मंजूर नि छी। हफ्त में द्वि दिन सत्संग जानेर भे। के है जावो, सत्संग छोड़नेर नि भे। क्वे भेट करण हुं आयो होलो त वीथें ले कै देलि- म्यर सतसंगक टैम है गो। तुम बैठो।नजीकै भ्यो, माठू-माठ न्है जानेर भे। कभतै मील पुजै दी। सतसंग जाणै तें जाठ थामण बैठी मगर घर भितेर नि थामि। लोटीनी रै, लागनी रै। मेरि ब्वारि थें कूनेर भे- मील पहाड़ौ पाणि पी राखौ, घरै धिनाई खै राखी। तबै मेरि हड्डी मजबूत छन।

बात ठीकै कूंछि मगर उमर है गई त पहाड़ौ हाव-पाणि-धिनाइ कि करछी! 14 अगस्ता दिन अपणै कम्र में यसी लफाई पड़ी कि ठाड़ि नि है सकि। ढ्यांग में लागी। हड्डीक चार टुकुड़। ऑपरेशन करण पड़ौ। डॉक्टरलि रॉड-पेच लगै बेर हड्डी जोड़ि दे। कोरोनालि अलग आफत करि राखछी। खैर-खैर कै बेर घर ऐ। ठीक हुणैछी मगर दिसाण में पड़ी-पड़ी खाण-पिण छोड़ि दे। पनर दिन बाद पांच सितम्बरा रत्तै ब्याण प्राण छाड़ि देईं। घरया ड्यरजि ले छि सब यें रै गो। घर-घर करन-करनै इज न्है गे भगवाना घर। यसै कूनी क्याप!

घर सुनसान है गो। इज छि त घर में औरी हकाहाक हुंछी। रत्तै ब्याण, चार बाजी बटी घर बिजि जांछी। नाण-ध्वीण, पुज-पाठ, रस्या में खन-मन। हमार बिजण जाणै वीक आदु दिन है जांछी।

इज छी त घर में क्वे नड़क्यूणी-बतूणी छि। आज हर्याव ब्वीण छ। आज बिरुड़ हालण छन। झट्ट नै बेर आ, यो जौं तिनाण ख्वार में धरि द्यूंल। बामण दसौरा कागज दी जै रौछी, द्वार लै लगै दे। आज त्यर जनमबार हुंछ, बग्वावक हई छै तु। मुन्नी कें भिटौइ भेजी त्वील? फोन करि दिनै, मिली नि मिलि?’

आज अभीख होलि। भोल त्यार बाबू शराद हुंछ,’ पातड़ इजाक सिरानै रूनेर भ्यो। भास्करानंद लोहनि ज्यू पातड़ भेजंछी। सतीश हल्द्वाणि बटी रामदत्त ज्यूक पातड़ लूंछी। पातड़ टैम पर नि आयो त सतीशै आफत। द्विय्यै पातड़न में के फरक भयो त बतै दिनेर भे- सातूं नौर्त गलि रौ। होलि पछी गे ऐला साल। फोन उनेर भ्या- आमा से पूछ कर बता दीजिए, पुन्यू का व्रत कब करना है?’

किलै, तै कें एकादशि-पुन्यू ले याद नि रूंनी? है गे पै, पुरी पाड़लि,’ इज सबन कें नड़क्यै दिनेर भे। अस्सी सालक भतिज पूरन कें ले- काखी मुख लै कतु म्हैण बाद ऊणौछै?’

इज गिदारि ले छी। घर में मल्लब गौं में त ब्या-काजन में वीक बिना कामै चलनेर नि भ्यो। शकुनाखर,  कर्माक सब गीत गैनेर भे। स्वर जस ले भ्यो, पुर गैनेर भे। लखनौ आई बाद यां ले बामणन कें टोकि दिनेर भे- पैली यो करो, तुमलि यस त करै नै। हमार यां यस करनी, यस नै!होलिन में सबन है पैली पुजि जालि। घर में ढोलुक ल्ही बेर गैण लागलि। रामलिल देखणौक औरै शौक। हमन थें कजि ले करलि- तुम चुपचाप रात में रामलिल देखण ग्या हुनेला, मी कें नि ल्ही गया। 

इज छी त हमि आपण बोलि में बलाछियां। देसि फुकन-फुकनै वीक सामणि जिबड़ लटपटै जांछी। वीक मुख तिर पहाड़ि में आफी-आफी बलाई जांछी। उ सबन थें कुमाऊंनी बलानेर भे। घर में काम करणी नानतिन हो या फाटक लै आई क्वे मांगणी, के पुछणी, के बेचणी। छंजरा दिन एक पण्डितऊंछी, तेल और डबलक दान मांगणी। क्वे छंजर नि ऐ सको त दुसार छंजर सवाल हुनेर भ्यो- पैल छंजर कां रैये ला तू? मी डबल ल्ही बेर चै रैछ्यू। उ कौल- माता जी, गांव गया था।

म्यार दगड़ू आला तो पैली पहाड़ि में बलालि, फिर देसि में। म्यार नानतिन पहाड़ि भली कै समझनी। बाबू उनन थें हिंदी बलांछी मगर इजालि कबै हिंदी में बात नि करि। तीन-चार नानतिन घरौ काम-काज करणै तें हमार यां सालों साल रईं। उनन थें ले पहाड़ि में बलांछी। सब इजाकि बोलि समझि जांछी। द्वि-चार शब्द ले बलाण भै ग्याछी। कै थें रिसै जाली त गाइ-मैकि ले करि दिनेर भे‌- नि खै जालै तु, कयूं मानण छाड़ि हालौ त्वील म्यर।उ हंसल, फिर इज कैं मनाल- माता जी, गुस्सा मत हो, अभी आपका काम करता हूं।डाक में क्वे कुमाऊंनी पत्रिका आली त पुरि पढ़लि। फिर बतालि यसि कविता लेखि राखी, यह कहानि लेखि राखी। भल लेखि राखौ।

इज छी त हमरि एक खास पछ्याण छी। वी दगाड़ हमरि उ पछ्याण ले न्है गे।

आब इज स्वीण्यां देखींछ। स्वीण में उ हमार गौंक कुड़ में देखीं। कभतै चाख लिपण देखीं, कभतै छां फानण, कभतै घा गढ्यव ल्ही बेर ग्वैटून ऊंण देखीं। लखनौ वाल घर में कमै देखीं और जब देखी गई तो योई पुछैं- आब घर कब हिटला ला, ढील नि हुणई?’

उ घर ले, जै थें इज आपण घर कूंछी, हमार लिजी स्वीण है गो।

('कुमगढ़,' जनवरी-फरवरी 2021 में प्रकाशित)