बेई रात इज फिर स्वीण्यां
देखीणी। पुछणैछी- ‘आब घर कब हिटलै?’
‘घर’ मल्लब हमर गौं, पहाड़क हमर घर। अढ़तीस साल बटी इज म्यार दगाड़
यां लखनऊ रूंछी। फिर ले वी तें ‘घर’
पहाड़ै छी। बाबूलि घर-परिवार सैतणैं तें लखनऊ में नौकरी करी। लखनऊ में ‘ड्यर’ भ्यो। ‘घर’ पहाड़ै रय जै कें इजालि सैंतौ, पौर्या। आब उ घर ले
हमनै तें स्वीण है ग्यो।
बाबू लखनऊ रूंछी। इज पहाड़ में। साल में एक-डेढ़ म्हैणै
छुट्टी ल्ही बेर बाबू ‘घर’ जांछी। असौजा
म्हैण बुति-धाणि में इजाक दगड़ करणैं तें। तबै उं दगाड़ रूंछी। बाकि पुर साल बाबू
लखनऊ और इज पहाड़। उनरि भेट, कुशव-बात, दुख-तकलीफ,
रीस-झगड़, लाड़, एक-दुसरै
फिकर सब चिट्ठिन में हुंछी। उछ्याटन चिट्ठी ऊंण-जाण में पनर-बीसेक दिन या
म्हैण-डेढ़ म्हैण ले लागि जानेर भाय। चिट्ठी पुजण जाणै बाबू लखनऊ में और इज गौं में
फुराड़ी रूंनेर भाय।
मी इज-बाबुक फुरड़्याट देखन-देखनै ठुल भयूं। स्कूला किताबन
दगै मील यो फुरड़्याट ले घोगौ। बाबू कम बलांछी। मनै मन लागि रूंछी उनर दुशंत्याट।
चुपचाप दिवार उज्यांण चै रौल। पें उनार मुख में छपि जांछी उनरि फिकर। जब भौतै फिकर
है गई तब सज्योलि कूंछी- ‘भौत दिन है ग्यान, तेरि
इजै चिट्ठी नि ऐ।’ मी समझि जानेर भयूं कि आज बाबू भौत फुराड़ी
रईं। फिर उं ह्वाक भरि बेर बैठि जांछी। ह्वाकै गुड़-गुड़ में लुकै दिछीं आपणि फिकर।
इज भौत बलानेर भे। उ आपण मन में के धरनेर नि भे। जब मी जेठा
म्हैण स्कूलै छुट्टी में घर जांछ्यूं, तब सब कै दिनेर भे आपणि मनै बात, फिकर, दुशंत्याट, उड़भाट,
जि ले भ्यो। बाबूकि चिट्ठी नि आई त उ रात-रात भरि बिज रूनेर भे। उड़भाट
हुनेर भ्यो उकें। आदु रात में उठि बेर पाणी गिलास में तेलाक त्वाप खितनेर भे। तेला
त्वाप पाणि में डुबनेर नि भ्या। तब उ कूनेर भे- ‘त्यार बाबू
कुशलै छन।’ यसीकै मनौ संताप मिटै बेर उ दिसाण में खिती जानेर
भे। नीन फिर ले उनेर नि भे। दिसाण में वल्टी-पल्टी बेर रात काटि दिनेर भे। रात
ब्याई बटी कामै-काम। बुति-धाणि में फिकर ले दबि जानेर भ्या। रात में चुपचाप ऐ बेर फिर
दबूनेर भ्या।
परदेस में बाबूक और पहाड़ में इजाक यो फुरड़्याट म्यार मन में
किलै चारि गैंठी रौ। जब म्यर ब्या भ्यो, यें लखनौ में, तब मील
इज थें कय- ‘आब तु लखनौ ऐ जा। सब दगाड़ै रूंल।’
‘घरक कि होल? कसी होल?’ पैल फिकर योई भे। बड़ि मुश्किललि उ मानि गे। बाबू रिटायर है बेर ‘घर’ जूंल, वैं रूंल कूनेर
भ्या। तब उनरि नौकरी छनै छी। रिटायर हुंण तक उं ले राजि है ग्या। त, सन 1982 बटी इज हमार दगाड़ लखनौ ऐ गे। साल में एक-द्वि फ्यार, या जब ले मन में ऐ, पहाड़ जानेरै भे। रिटायर हुण है
द्वि साल पैली बाबू कें दिलै बीमारी है पड़ी। हार्ट अटैक भ्यो। उ बखत बचि गाय मगर
वापस पहाड़ जाण लैक नि रै। यसि कै पहाड़ छुटि ग्यो। इज-बाबू हमार दगाड़ लखनौ रै गाय।
द्विय्यै बैठीं-बैठी ‘घरै’ बात करनेर
भ्या। हमर घर-गौं, स्वार-बिरादर, गाड़-भिड़,
हाव-पाणि… ‘दिगौ-दिगौ’
कूनेर भ्या। खूब चिट्ठी-पत्री करनेर भ्या।
फिर 1994 में एक रात बाबू सितियै रै ग्यान। नीनै में हार्ट
फेल। हमार दागड़ इज इकली रै गे। भे उ खूब छालि। लखनौ में इकलै सब जाग घुमि ऊनेर भे।
जब मन ऐ पहाड़ न्है जानेर भे। हल्द्वाणि-नैनताल सतीशा यां, चेलिना
यां, आपण मैत, बैणीना यां। ‘घर’ जै बेर आपण बोटा नारीड., च्यूड़,
खजी खाज, चूख लखनौ ल्ही ऊनेर भे। क्वे दगड़
चैनेर नि भ्यो उंकें। जां जालि वें दगड़ू बणै ल्हिनेर भे। रूनेर लखनौ भे मगर
हल्द्वाणिक दगड़ून थें बात करि बेर तीर्थ यात्रा पोग्राम बणि जानेर भय। च्यालना मुख
चै रूंण नि भ्यो कि तीर्थ करै द्याल। बस में बैठि बेर गंगा सागर, प्रयाग-नासिक कुम्भ, सबै तीर्थ करीं वील। नेपाल
जाणै गे। खजुर-गुड़ पापड़ि बादि बेर द्वि-द्वि म्हैणै तें न्हें जानेर भे। सब काम
आपण हातलि। खुश है बेर बतूनेर भे- ‘सब घुमि हालो मील,
देखि राखौ मील।’ मोबाइल चलूण ले फौरन सिखौ।
फिर त रतै-ब्याव ‘हैलो-हैलो’ भे। सब
जाग बात, सबनाक हाल-चाल ल्हिनेर भे। दुन्नि भरी खबर रूनेर
भ्या वी पास।
पै बखत कै कें छाड़ौ? इजकि ले उमर हुनी गे। अठासी पुर करीं पछारि
कभतै हिटन-हिटनै धाक लागण बैठीं। कमजोर ले है गे। फाम गजबजीण लागी। बैंक में
दस्तखत ट्याड़-म्याड़ हुंण बैठी। बैंक मैनेजरलि एक दैन कौ- ‘माता
जी, अब आप अंगूठा लगाना शुरू कर दो। दस्तखत नहीं हो पाते।’
‘कब्बी नहीं लगाया मील अंगूठा,’ इजालि ट्यड़
मूख बणा। मील समझा तब बुरुंट्ठी टेकण पड़ौ। उ दिन भौत उदास भे। कय तो के नि वील मगर
मील देख हाछी वीक मुख में। वील चितै हाछी कि आब उमर है गे। बुरुंट्ठी में लागी
स्याई मिटण में टैम लागौ। उ स्याई वीक मन में बैठि गेछी शैद।
‘नब्बे बरस हुनी आब तुकें,’ मील वीथें कौ-
‘कब तक नि हुनी बुड़ी?’
आंचवक टुक मुख में दबै बेर वील कौछी- ‘आजि नब्बे
त है रईं!’ वीकि हंसि मी कें आजि ले याद छ। उ योई सोचछीं कि
नब्बे क्वे खास उमर न्हांति। दुसारन थें ‘बुड़-बुड़ी’ कूनेर भे- ‘जरा, खिमान्दै बुड़ी
कें देखि ऊं।’ हम हंसनेर भ्या- ‘उ बुड़ी
न्हाति, तेरि ब्वारी लागैं।’
एक दिन क्याप्प जस भ्यो। इज सब भुलि गे। हमन कें ले नि
पछ्याण। भ्यार भाजनेर भे। एक्कै रट भे- ‘घर हिटो, घर हिटो।’ एक चद्दर में आपण द्वि लुकुड़ बादि बेर बाटि लागीं भे- ‘हिटो घर, हिटो घर।’
‘योई त छ हमर घर।’
‘न्ना, यो न्हांति हमर घर,’ डाड़ मारण बैठी- ‘म्यार गोर-बाछ भुख छन। नानतिन दूध
बिना टणटणी रईं। हिटो घर।’ कतु धान् करीं। समझा–बोत्या मगर
ना, उई रट। भाजण में कतु बखत पतेड़ी पड़ी। खैर, डॉक्टरलि जांच कराईं। सोडियम-पोटेशियम कम है गोछी। एक हफ्त में इलाजलि ठीक
है गे मगर ‘घर’ मल्लब पहाड़ै फाम
सोडियमै कमी ले नि भुलै सकि। आखिर तक वीक लिजि घर मल्लब पहाड़ भ्यो।
परार साल घर भितेरै धांक लागि बेर द्वि-तीन बखत लफाई पड़ी।
हांट-भांटन लागी, घुन में पीड़ भे। मी एक भली भलि स्टिक ल्ही बेर आयूं- ‘ले, यो जांठ थामि बेर हिटिए।’ जांठ
थामण में ले वील नखारै करीं। जांठ थामण मल्लब बुड़ीण। यो वीकें मंजूर नि छी। हफ्त
में द्वि दिन सत्संग जानेर भे। के है जावो, सत्संग छोड़नेर नि
भे। क्वे भेट करण हुं आयो होलो त वीथें ले कै देलि- ‘म्यर
सतसंग’क टैम है गो। तुम बैठो।’ नजीकै
भ्यो, माठू-माठ न्है जानेर भे। कभतै मील पुजै दी। सतसंग जाणै
तें जाठ थामण बैठी मगर घर भितेर नि थामि। लोटीनी रै, लागनी
रै। मेरि ब्वारि थें कूनेर भे- ‘मील पहाड़ौ पाणि पी राखौ,
घरै धिनाई खै राखी। तबै मेरि हड्डी मजबूत छन।’
बात ठीकै कूंछि मगर उमर है गई त पहाड़ौ हाव-पाणि-धिनाइ कि करछी!
14 अगस्ता दिन अपणै कम्र में यसी लफाई पड़ी कि ठाड़ि नि है सकि। ढ्यांग में लागी।
हड्डीक चार टुकुड़। ऑपरेशन करण पड़ौ। डॉक्टरलि रॉड-पेच लगै बेर हड्डी जोड़ि दे।
कोरोनालि अलग आफत करि राखछी। खैर-खैर कै बेर घर ऐ। ठीक हुणैछी मगर दिसाण में
पड़ी-पड़ी खाण-पिण छोड़ि दे। पनर दिन बाद पांच सितम्बरा रत्तै ब्याण प्राण छाड़ि देईं।
‘घर’ या ‘ड्यर’ जि ले छि सब यें रै गो। घर-घर करन-करनै इज न्है गे ‘भगवाना
घर’। यसै कूनी क्याप!
घर सुनसान है गो। इज छि त घर में औरी हकाहाक हुंछी। रत्तै
ब्याण, चार बाजी बटी घर बिजि जांछी। नाण-ध्वीण, पुज-पाठ,
रस्या में खन-मन। हमार बिजण जाणै वीक आदु दिन है जांछी।
इज छी त घर में क्वे नड़क्यूणी-बतूणी छि। ‘आज हर्याव
ब्वीण छ। आज बिरुड़ हालण छन। झट्ट नै बेर आ, यो जौं तिनाण
ख्वार में धरि द्यूंल। बामण दसौरा कागज दी जै रौछी, द्वार लै
लगै दे। आज त्यर जनमबार हुंछ, बग्वावक हई छै तु। मुन्नी कें
भिटौइ भेजी त्वील? फोन करि दिनै, मिली
नि मिलि?’
‘आज अभीख होलि। भोल त्यार बाबू शराद हुंछ,’ पातड़ इजाक सिरानै रूनेर भ्यो। भास्करानंद लोहनि ज्यू पातड़ भेजंछी। सतीश
हल्द्वाणि बटी रामदत्त ज्यूक पातड़ लूंछी। पातड़ टैम पर नि आयो त सतीशै आफत।
द्विय्यै पातड़न में के फरक भयो त बतै दिनेर भे- ‘सातूं नौर्त
गलि रौ। होलि पछी गे ऐला साल।’ फोन उनेर भ्या- ‘आमा से पूछ कर बता दीजिए, पुन्यू का व्रत कब करना है?’
‘किलै, तै कें एकादशि-पुन्यू ले याद नि रूंनी?
है गे पै, पुरी पाड़लि,’ इज
सबन कें नड़क्यै दिनेर भे। अस्सी सालक भतिज पूरन कें ले- ‘काखी
मुख लै कतु म्हैण बाद ऊणौछै?’
इज गिदारि ले छी। घर में मल्लब गौं में त ब्या-काजन में वीक
बिना कामै चलनेर नि भ्यो। शकुनाखर, कर्माक सब गीत गैनेर भे। स्वर जस ले भ्यो,
पुर गैनेर भे। लखनौ आई बाद यां ले बामणन कें टोकि दिनेर भे- ‘पैली यो करो, तुमलि यस त करै नै। हमार यां यस करनी,
यस नै!’ होलिन में सबन है पैली पुजि जालि। घर
में ढोलुक ल्ही बेर गैण लागलि। रामलिल देखणौक औरै शौक। हमन थें कजि ले करलि- ‘तुम चुपचाप रात में रामलिल देखण ग्या हुनेला, मी कें
नि ल्ही गया।’
इज छी त हमि आपण बोलि में बलाछियां। देसि फुकन-फुकनै वीक
सामणि जिबड़ लटपटै जांछी। वीक मुख तिर पहाड़ि में आफी-आफी बलाई जांछी। उ सबन थें
कुमाऊंनी बलानेर भे। घर में काम करणी नानतिन हो या फाटक लै आई क्वे मांगणी, के
पुछणी, के बेचणी। छंजरा दिन एक ‘पण्डित’
ऊंछी, तेल और डबलक दान मांगणी। क्वे छंजर नि ऐ
सको त दुसार छंजर सवाल हुनेर भ्यो- ‘पैल छंजर कां रैये ला तू?
मी डबल ल्ही बेर चै रैछ्यू।’ उ कौल- ‘माता जी, गांव गया था।’
म्यार दगड़ू आला तो पैली पहाड़ि में बलालि, फिर
देसि में। म्यार नानतिन पहाड़ि भली कै समझनी। बाबू उनन थें हिंदी बलांछी मगर इजालि
कबै हिंदी में बात नि करि। तीन-चार नानतिन घरौ काम-काज करणै तें हमार यां सालों
साल रईं। उनन थें ले पहाड़ि में बलांछी। सब इजाकि बोलि समझि जांछी। द्वि-चार शब्द
ले बलाण भै ग्याछी। कै थें रिसै जाली त गाइ-मैकि ले करि दिनेर भे- ‘नि खै जालै तु, कयूं मानण छाड़ि हालौ त्वील म्यर।’
उ हंसल, फिर इज कैं मनाल- ‘माता जी, गुस्सा मत हो, अभी
आपका काम करता हूं।’ डाक में क्वे कुमाऊंनी पत्रिका आली त
पुरि पढ़लि। फिर बतालि यसि कविता लेखि राखी, यह कहानि लेखि
राखी। भल लेखि राखौ।
इज छी त हमरि एक खास पछ्याण छी। वी दगाड़ हमरि उ पछ्याण ले
न्है गे।
आब इज स्वीण्यां देखींछ। स्वीण में उ हमार गौंक कुड़ में
देखीं। कभतै चाख लिपण देखीं, कभतै छां फानण, कभतै
घा गढ्यव ल्ही बेर ग्वैटून ऊंण देखीं। लखनौ वाल घर में कमै देखीं और जब देखी गई तो
योई पुछैं- ‘आब घर कब हिटला ला, ढील नि
हुणई?’
उ घर ले, जै थें इज ‘आपण घर’ कूंछी, हमार लिजी स्वीण है गो।
('कुमगढ़,' जनवरी-फरवरी 2021 में प्रकाशित)