Tuesday, May 29, 2018

ईवीएम नहीं, चुनाव आयोग की साख का सवाल



सोमवार को देश के दस राज्यों में चार लोक सभा और दस विधान सभा सीटों के उप-चुनाव के लिए मतदान समाप्त होते-होते ट्विटर पर दिग्गज राजनैतिक विश्लेषकों से लेकर नामी लेखकों-पत्रकारों की तीखी टिप्पणियां चुनाव आयोग पर बरसने लगीं.  किसी ने इस संवैधानिक संस्था का मजाक बनाया तो कोई उसे ज्यादा जिम्मेदार और जवाबदेह होने की सलाह देने लगा. विपक्षी राजनैतिक दल तो दिन भर साजिश के आरोप लगाते ही रहे.

हुआ यह कि लगभग सभी राज्यों में कई मतदान केंद्रों से दिन भर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के गड़बड़ होने की शिकायतें आती रही थीं. कहीं ईवीएम ने काम नहीं किया तो कहीं ईवीएम के साथ लगी वह मशीन (वीवीपीएटी) ठप हो गयी जिसमें छपी पर्ची से मतदाता अपना वोट सही जगह पड़ने की पुष्टि करता है. कहीं-कहीं इन मशीनों को बदलने में डेढ़-दो घण्टे भी लगे. मतदाता लाइन लगाये इंतजार करते रहे. विपक्षी दलों से लेकर सत्तारूढ़ भाजपा तक ने चुनाव आयोग से शिकायत की.

शाम को आयोग की ओर से बयान आया कि राजनैतिक दल शिकायत को बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं. कहीं-कहीं ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनें खराब हुई जिन्हें बदल दिया गया. पर्याप्त संख्या में वैकल्पिक मशीनें रखी रहती हैं. भीषण गर्मी, मतदान कर्मियों की अनुभवहीनता और लापरवाही को आयोग ने मशीनें खराब होने का कारण बताया. ट्विटर पर आयोग को इसी बयान के कारण हमले झेलने पड़े.

यह सचमुच हास्यास्पद बयान था. हमारे देश में अब तक ज्यादार चुनाव मार्च से जून तक होते रहे हैं, जो भीषण गर्मी के महीने होते हैं. 2019 का आम चुनाव भी, समय से पहले नहीं हुआ तो अप्रैल-मई में ही होगा. क्या गर्मी वास्तव में मशीनों के खराब होने का कारण है? मतदान कर्मियों की अनुभवहीनता के लिए भी स्वयं आयोग ही जिम्मेदार ठहरता है. ईवीएम से चुनाव कराते काफी समय बीत चुका और वीवीपीएटी मशीनें भी नयी नहीं रहीं. बहरहाल, 2019 के आम चुनाव से पहले के ये महत्त्वपूर्ण उप-चुनाव विपक्षी एकता बनाम भाजपा की चर्चा की बजाय चुनाव आयोग तथा ईवीएम का विवाद बन कर रह गये.

हारे हुए प्रत्याशी और दल अक्सर ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायत करते हैं. 2009 के आम चुनाव में पराजय के बाद भाजपा ने ईवीएम की बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की थी. कई और दलों ने भी उसके स्वर में स्वर मिलाया था. 2014 में भाजपा के भारी बहुमत से जीतने के बाद से कांग्रेस समेत कई क्षेत्रीय दल भाजपा और आयोग पर ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप लगाते रहे हैं. यहां तक कहा गया कि ईवीएम को इस तरह तैयार किया गया है कि कोई भी बटन दबाने पर वोट भाजपा के ही खाते में जाता है. इस पर चुनाव आयोग ने राजनैतिक दलों को चुनौती दी थी कि वे ईवीएम से छेड़-छाड़ करके दिखाएं. 

ईवीएम से किसी तरह की छेड़-छाड़ के कोई सबूत आज तक नहीं मिले हैं. आखिर है तो टेक्नॉलॉजी ही, इसलिए माना जाता है कि कहीं दो-एक मशीनों में छेड़छाड़ सम्भव हो सकती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि बड़े पैमाने पर ऐसा कर पाना लगभग असम्भव है. चूंकि मशीनें हैं, इसलिए वे कभी अचानक काम करना बंद कर सकती हैं. उन्हें संचालित करने वाले इंसान हैं, इसलिए कहीं-कहीं उनसे भी गड़बड़ी  हो जा सकती है. इसके लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाती है. ज्यादा गड़बड़ी होने पर पुनर्मतदान की व्यवस्था है ही. इसलिए कोई कारण नहीं होना चाहिए कि ईवीएम और आयोग को निशाने पर रखा जाए.

निर्वाचन आयोग की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष और स्वतंत्र मतदान सुनिश्चित कराये. मतदान केंद्रों पर कब्जे, मतपेटियों की लूट तथा फर्जी एवं खून-खराबे वाले मतदान के दौर से हम बहुत आगे निकल आये हैं. टी एन शेषन ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहते आम मतदाता के बीच आयोग की जो साख स्थापित की और जिसे उनके बाद के कई आयुक्तों ने बरकरार रखा, उसे बनाने-बढ़ाने में ईवीएम का योगदान निर्विवाद रहा है. हमारे जैसे विशाल देश में बैलेट पेपर की ओर वापस जाना कतई बुद्धिमानी नहीं होगी. ईवीएम की विश्वसनीयता के लिए उनकी तकनीकी श्रेष्ठता और मतदान कर्मियों के बेहतर प्रशिक्षण पर ध्यान देना होगा.

निर्वाचन तंत्र की साख बनी रहे, यह सुनिश्चित करना वर्तमान निर्वाचन आयुक्तों की जिम्मेदारी है. उन्हें सतर्क रहना चाहिए कि उनके किसी बयान या निर्णय से इस संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता पर आंच न आये. दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय में ऐसे वाकये हुए हैं जिनसे आयोग की तरफ उंगलियां उठी हैं. बाढ़-राहत के नाम पर गुजरात विधान सभा चुनावों की तारीख की घोषणा को टालना, कर्नाटक विधान सभा चुनाव की तारीख का लीक हो जाना, जैसे कुछ प्रकरण आयोग की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं रहे.

विपक्षी दलों की इस प्रवृत्ति की भी निंदा की जानी चाहिए कि वे बिना सोचे-समझे फौरन सत्तापक्ष के लाभार्थ ईवीएम से छेड़-छाड़ का आरोप लगाने लगते हैं. ऐसा करके न केवल वे चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को धूमिल करते हैं, वरन्‍ जनता के मन में ईवीएम के प्रति अनावश्यक संदेह पैदा करते हैं. ईवीएम के साथ वीवीपीएटी मशीनें इसी सन्देह को दूर करने के लिए लगायी जा रही हैं. 2013 में एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने इन मशीनों को लगाने का निर्देश दिया था ताकि मतदाता आश्वस्त हो सके कि उसका वोट उसी के पक्ष में गया है जिसे उसने चुना है.

आने वाला आम चुनाव इस दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण है कि भारी बहुमत से केंद्र में और बीस से ज्यादा राज्यों की सत्ता में विराजमान भाजपा के खिलाफ विपक्ष एकजुट होने की कोशिशों में लगा है. उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों के बाद कर्नाटक के नाटक ने विपक्षी एकता की सम्भावना बढ़ा दी है. मुकाबले के लिए भाजपा और भी जोर-शोर से तैयार हो रही है. जाहिर है कि संग्राम घनघोर होगा. आरोप-प्रत्यारोपों में निजी और अनपेक्षित हमले अभी से शुरू हो चुके हैं. चुनावी युद्ध में मर्यादा का सीमोल्लंघन हमारे यहां होता रहता है. पूरी आशंका है कि इस बार कुछ और सीमाएं ध्वस्त होंगी. पहले से ही घायल हमारे लोकतंत्र की कड़ी परीक्षा तय है.

ऐसे में अत्यावश्यक है कि संवैधानिक प्रक्रियाओं की विश्वसनीयता यथा सम्भव बनी रहे. कर्नाटक के ताजा मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश हमारे विश्वास की रक्षा करने वाला साबित हुआ. चुनाव आयोग से भी ऐसे ही राहत के झौंकों की प्रत्याशा है. मतदान तंत्र की चुस्ती, चौकसी और आश्वस्ति दायक भूमिका अनिवार्य है. ईवीएम की गड़बड़ियां न्यूनतम हों, शिकायतों पर त्वरित विश्वास बहाली वाली कार्रवाई हो , न्याय हो ही नहीं, होता हुआ 
भी दिखे, यह चुनाव आयोग ही को सुनिश्चित करना होगा.
(प्रभात खबर, 30 मई, 2018)
 
      

Friday, May 25, 2018

सरकारी स्कूलों का इंग्लिश मीडियम होना



बेसिक शिक्षा विभाग बहुत खुश है कि कई प्राथमिक पाठशालाओं में अंग्रेजी में पढ़ाई शुरू करने के बाद उनकी हालत सुधरने लगी है. खस्ताहाल कहे जाने वाले सरकारी स्कूलों के इंग्लिश मीडियमहोते ही उनमें ज्यादा बच्चे भर्ती हो रहे हैं. दावा तो यहां तक है कि निजी इंगलिश मीडियमस्कूलों से नाम कटा कर मां-बाप, सॉरी पेरेण्ट्स, बच्चों को सरकारी इंग्लिश मीडियमस्कूलों में भर्ती कर रहे हैं. ऐसे स्कूलों के प्रिंसिपल पूरी बत्तीसी दिखा कर उल्लास से बताते हैं कि बच्चे अब सिट डाउन, स्टैण्ड-अपऔर कम इनसमझने-बोलने लगे हैं. जब किसी को प्यास लगती है तो वह बोलता/बोलती है- मे आई गो टु ड्रिंक वॉटर’. यही नहीं वहां पेरेण्ट-टीचर मीटिंगभी होने लगी है  और अब प्रार्थनानहीं प्रेयरहोती है.

स्वतंत्रता के 70 साल बाद सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं को सुधारनेका तरीका उन्हें इंगलिश मीडियमबना देना ही समझ में आया है तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था ही नहीं, सरकारों और समाज के मानसिक दीवालियेपन का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है. किसी ने यह नहीं सोचा कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर क्या है, अध्यापक कैसे हैं, पूरे अध्यापक तैनात हैं या नहीं, वे अध्यापक होने लायक हैं भी, बच्चे वहां सीखते क्या हैं और गरीब से गरीब मां-बाप भी अपने बच्चे इन स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते तो उसका कारण इंग्लिश मीडियमन होना है या कुछ और?

आज भी देश में विभिन्न क्षेत्रों के शीर्ष पर तैनात लोगों में बहुतेरे ऐसे मिल जाएंगे जो सरकारी विद्यालयों में पढ़ कर निकले. ये विद्यालय इंग्लिश मीडियमनहीं थे, इससे उनके काबिल बनने में कोई कसर नहीं रही. उन्हें अच्छे, समर्पित अध्यापक मिले जो शिक्षा को सर्वोत्तम सेवा और दान मानते थे. एक-एक बच्चे को उसकी खूबियों और कमजोरियों के साथ समझ कर वे उसे कुम्हार के घड़े की तरह गढ़ते थे. वे समझते थे कि उनके हाथों तैयार हो रही पीढ़ी देश का भविष्य है. वे देश से सचमुच प्यार करते थे.

निजी स्कूल इसलिए लोकप्रिय नहीं हुए कि वे इंग्लिश मीडियमहैं. सरकारी स्कूलों की नाकामी ने उन्हें पनपने का मौका दिया. उन्होंने बेहतर शिक्षक रखे, एक अनुशासन अपनाया, पढ़ाई पर जोर दिया और इसे एक व्यवसाय की तरह विकसित किया. वहां से पास होने और ज्यादा से ज्यादा नम्बर लाने वाले बच्चों की फौज निकलने लगी तो यह साबित नहीं होता कि वे वास्तव में शिक्षितपीढ़ियां हैं और अपने देश व समाज को जानती-समझती हैं.

अंग्रेजी में प्रार्थना गाने और राइम’ (शिशु गीत) सीखने से बच्चे पढ़े-लिखेबेहतर नागरिक बन रहे हैं, यह समझ  मानसिक गुलामी का प्रतीक है. पढ़ाई का माध्यम क्या है, यह कतई महत्त्वपूर्ण नहीं है. महत्त्वपूर्ण है बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है और कैसे. सरकार का ध्यान इस पर क्यों नहीं जाता? ‘हिंदी मीडियममें पढ़ रहे बच्चे हिंदी नहीं सीख पा रहे थे तो इंग्लिश मीडियममें बच्चे इंग्लिशकैसे सीख लेंगे? (हिंदी का तो खैर पूछना ही क्या) और क्या इंग्लिश सीखना ही पढ़ाई है?

सरकारी स्कूलों की ओर बच्चों और माता-पिताओं का रुझान बढ़ाना है तो उन्हें पहले अच्छा स्कूल बनाइए. पढ़ाई का माध्यम हिन्दी होने में दोष नहीं. वहां अंग्रेजी समेत सभी विषय ऐसे पढ़ाइए कि बच्चे वास्तव में सीखें और गुनें. पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होने में भी दोष नहीं, बशर्ते कि उसमें अच्छी शिक्षा दी जा सके. और, सबसे पहले तो शिक्षा विभाग और शिक्षा मंत्रियों को अच्छी शिक्षा का अर्थ जानना चाहिए. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 26 मई, 2018)

 


Friday, May 18, 2018

ताकि किसी कीमत पर सरकारी बंगला न छूटे



अंतत: सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवन भर के लिए आवण्टित सराकारी बंगले खाली करने का आदेश दे दिया. उम्मीद की जानी चाहिए कि समानता के सिद्धांत का उल्लंघनअब बंद होगा. आलांकि आशंकाएं अब भी बनी हुई हैं. सपा के संरक्षक और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह मुख्यमंत्री आदित्य नाथ योगी से मिलकर एक चोर दरवाजासुझाया था, वह हैरत ही नहीं करता, बल्कि आशंका भी पैदा करता है.

खबरों के मुताबिक मुलायम सिंह ने योगी जी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बचने का रास्ता यह सुझाया कि उनकी और अखिलेश की कोठियां राम गोविंद चौधरी और अहमद हसन के नाम कर दी जाएं जो क्रमश: विधान सभा में नेता-प्रतिपक्ष और विधान परिषद में विपक्ष के नेता हैं. कागज में आवण्टी का नाम बदल जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन हो जाएगा और कोठियों में दोनों पूर्व मुख्यमंत्री काबिज रह जाएंगे. सांप मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी.

ऐसा हुआ तो कागजी खानापूरी हो जाएगी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश की प्रकारांतर से अवहेलना ही होगी. उत्तर प्रदेश में कई पूर्व मुख्यमंत्रियों के पास भव्य सरकारी बंगले हैं, जिनका किराया बहुत मामूली है जबकि उनके रख-रखाव पर जनता की गाड़ी कमाई खर्च की जाती है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम रूप से फैसला दिया है कि राज्य में पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी बंगले के हकदार नहीं हैं. यह समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है.

क्या यह हैरत की बात नहीं है कि मुलायम जैसे बड़े कद के नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को धता बताने की राह सुझाने के लिए मुख्यमंत्री से मिलते हैं? ऐसा क्यों नहीं हुआ कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सम्मान में खुद ही सरकारी कोठी खाले कर देने का ऐलान किया? क्या उन्हें कोठियों और किसी दूसरी चीज की कमी है? यह बात सिर्फ मुलायम पर ही नहीं लागू होती. भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल कल्याण सिंह ही क्यों नहीं सरकारी कोठी खाली कर देते? वे संवैधानिक पद पर हैं. उन्हें अवश्य ही शीर्ष अदालत का सम्मान करना चाहिए.

राजनीति में मर्यादा और नैतिकता की बातें अब बेमानी लगती हैं लेकिन क्या यह पीड़ादायक नहीं है कि इतने बड़े नेता इस तरह के अनैतिक रास्ते सुझाएं? जब कोई सरकारी कर्मचारी रिटायर होता है तो राज्य सम्पत्ति विभाग उसे आवण्टित मकान खाली जल्दी कराने के लिए पीछे पड़ जाता है. किसी मजबूर कर्मचारी को कुछ दिन की मोहलत भी नहीं दी जाती. पूर्व मुख्यमंत्रियों को किस हैसियत से जीवन भर के लिए विशाल कोठी दी जाती  है? कोर्ट ने इसीलिए कहा कि इससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है.

सन 2016 में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही फैसला दिया था तो इससे बचने के लिए तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार ने नियमों में इस तरह परिवर्तन कर दिया था कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली न करने पड़ें. लोक प्रहरीसंगठन ने इस नियम परिवर्तन को चुनौती दी और इस बार सर्वोच्च अदालत ने कह दिया कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले खाली करने ही होंगे.

1997 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी अपने आदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को आजीवन सरकारी बंगले आवण्टित करने को अवैध ठहराया था. तब मायावती की सरकार थी. उन्होंने भी उच्च न्यायालय के आदेश से बचने का रास्ता निकाल दिया था. यानी इस मामले में सभी दल और उनके नेता परस्पर सहमत और मिले हुए हैं. 
सरकारी कोठियां जनता की सम्पत्ति हैं. उनका उपयोग कुछ नेता जीवन भर जनता के खर्च से शान से रहने के लिए कैसे कर सकते हैं?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 19 मई, 2018)

Tuesday, May 15, 2018

राजनैतिक बिसात पर एमबीसी



दलित और पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ वास्तव में कितना मिला और किसे-किसे, यह शुरू से विवाद का विषय रहा है. कालांतर में यह तथ्य सामने आते गये कि दलितों और पिछड़ों में कुछ गिनी-चुनी, करीब एक तिहाई जातियों ही को आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला. आरक्षित श्रेणी की बाकी दो तिहाई जातियों के लोग इस लाभ से वंचित ही रहे या बहुत कम लाभ पा सके. इस असंतुलन ने दलितों में भी दलित यानी महादलितऔर पिछड़ों में अत्यधिक पिछड़ी जातियों (एमबीसी) का नया वर्ग बना दिया. चूंकि जाति हमारे देश में राजनीति के केंद्र में रही और सायास बनाये रखी गयी, इसलिए आरक्षण के असंतुलित लाभ ने पिछड़ों और दलितों के भीतर नयी राजनीतिक हलचल को जन्म दिया. यह हलचल बढ़ते-बढ़ते आज देश की चुनावी राजनीति पर पूरी तरह छा गयी है.

मुद्दे के दो पहलू हैं. एक तो यह मांग कि आरक्षण की व्यवस्था का सम्यक विवेचन और संशोधन होना चाहिए ताकि अब तक वंचित रहे आये वर्गों को सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ने का मौका मिले. सिर्फ कुछ शहरी पढ़े लिखे वर्ग तथा गांवों में आर्थिक-सामाजिक रूप से ताकतवर जातियां ही लाभ उठाती रहेंगी तो आरक्षण देने का उद्देश्य अधूरा रह जाता है. इससे पैदा हुआ वंचित वर्ग का आक्रोश समझ में आता है लेकिन जब गुजरात के पाटीदार, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के जाट और महाराष्ट्र के मराठा जैसे अपेक्षाकृत समर्थ और सम्पन्न वर्ग भी आरक्षण के लिए आंदोलित होते हैं तो आरक्षण के अपने मूल ध्येय से भटक जाने के कटु सत्य से हमारा सामना होता है.

दूसरा पहलू चुनावी लाभ के लिए आरक्षण को राजनीतिक चाल की तरह इस्तेमाल करना है. दुर्भाग्य से यही पहलू सर्वोपरि हो गया है. इसी कारण आरक्षण व्यवस्था की ईमानदारी से समीक्षा की बजाय अलग-अलग ढंग से पार्टियों ने इसे अपने हित में भुनाना जारी रखा.

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का ही उदाहरण लें. मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद 27 फीसदी आरक्षण का सर्वाधिक लाभ लेने वाले उत्तर-प्रदेश तथा बिहार में यादव व कुर्मी या कर्नाटक में वोक्कालिंगा हैं, जो पहले ही शेष पिछड़ी जातियों से कहीं बेहतर स्थिति में थे. मण्डल-बाद की समय में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एस) जैसे जिन दलों की राजनीति चमकी उन्होंने भी मुख्यत: इन्हीं समर्थ जातियों का प्रतिनिधित्व किया. अपने-अपने राज्यों में ये दल ताकतवर बने. सत्ता पर उनकी पकड़ मजबूत रही. स्वाभाविक ही, ओबीसी आरक्षण का लाभ लेने में पिछड़ गयी दूसरी पिछड़ी जातियों में रोष उत्पन्न हुआ. उनके नेतृत्त्व ने या तो इन दलों पर दवाब बना कर आशिंक लाभ लेने की रणनीति अपनायी या ओबीसी-दलों से विमुख होकर अन्य दलों का दामन थामा.

सीएसडीएस (सेण्टर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) के एक अध्ययन के अनुसार मण्डल रिपोर्ट लागू होने के बाद जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल नहीं उभरे यानी जहां कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर होती आयी, यथा मध्य प्रदेश, राजस्थान, आदि वहां 2009 तक आरक्षण-लाभ-वंचित पिछड़ी जातियों ने 2009 के चुनावों तक कांग्रेस को तरजीह दी.  2014 के आम चुनाव में यह समीकरण बदल गया. कारण नरेंद्र मोदी का स्वयं पिछड़ी जाति का दांव चलना हो या कांग्रेस से मोहभंग, उपेक्षित पिछड़ी जातियों के मतदाताओं ने भारी संख्या में भाजपा को चुना. बिहार विधान सभा चुनाव में लालू और नीतीश के एक हो जाने से इस प्रवृत्ति पर विराम लगा लेकिन 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा एक बार फिर उपेक्षित पिछड़ी एवं दलित जातियों का बड़े पैमाने में समर्थन हासिल करने में कामयाब हुई. बसपा और सपा की भारी पराजय के कारण इसी तथ्य में निहित थे.

2019 के आम चुनाव में भाजपा यही करिश्मा बनाये रखना चाहती है. उसने एमबीसी तथा उपेक्षित दलित जातियों का समर्थन पाने की हर जुगत बैठाने की कोशिश जारी रखी. नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले वर्ष ओबीसी आरक्षण में श्रेणी विभाजन पर विचार करने के लिए जो समिति बनायी थी, वह इसी का हिस्सा थी. इस प्रयास में बड़ा व्यवधान उत्तर प्रदेश से आया. पिछले दिनों सम्पन्न गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उप-चुनाव में सपा-बसपा एक हो गये. इस अप्रत्याशित गठबंधन ने भाजपा को हरा दिया. पिछड़ी और दलित जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले इन क्षेत्रीय दलों को इस दोस्ती में भाजपा के दलित-पिछड़ा दांव की काट दिखायी दी. इसलिए इसे वे 2019 तक चलाने को राजी हो गये. भाजपा को इस जातीय गठबंधन का मुकाबला करने के लिए किसी बड़े दांव की जरूरत थी.

सो, उतर प्रदेश की योगी सरकार ने एक पुराना फॉर्मूला सरकारी फाइलों से बाहर निकाल दिया. इसमें एमबीसी की 17 उप-जातियों को अनुसूचित जाति की सुविधाएं देने का प्रस्ताव है. मजे की बात यह है कि यही प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के चार पूर्व मुख्यमंत्री पांच बार ला चुके हैं. 1995 और 2004 में सपा के मुलायम सिंह, 2008 में बसपा की मायावती और 2013 में सपा के अखिलेश यादव ने यही प्रस्ताव मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भेजा था. सन 2001 में  भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी थोड़ा बदल कर इसे केंद्र को भेजा था. ऐसा चुनावों के मौके पर एमबीसी जातियों का समर्थन हासिल करने के लिए किया गया था. सभी को मालूम था कि केंद्र में सत्तारूढ़ दूसरे दलों की सरकार इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं देगी. ऐसे में एमबीसी जातियां उनके पक्ष में और केंद्र में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हो जाएंगी. इस बार योगी सरकार की यह चाल उनके खिलाफ भी जा सकती है क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार है. प्रस्ताव मंजूर न हुआ तो पांसा उलटा भी पड़ सकता है.

आशय यह कि चुनाव के समय ही राजनैतिक दलों को एमबीसी की याद आती है. दुर्भाग्य यह कि ओबीसी आरक्षण पिछड़ी जातियों के वास्तविक उत्थान की बजाय राजनीतिक दांव ही बनता आया है. 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करके ओबीसी आरक्षण का रास्ता खोला था तब भी वह उनका राजनैतिक ब्रह्मास्त्रथा. बाहरी समर्थन पर टिकी उनकी अल्पमत वाली सरकार अधर में थी और अयोध्या में राम मंदिर बनाने के अभियान से भाजपा हिंदू-ध्रुवीकरण में लगी हुई थी. उनकी इस चाल को कमण्डलके जवाब में मण्डलका जबर्दस्त दांव कहा गया था. आरक्षण-विरोध की आग में देश उबला था. आज तक वह राजनैतिक दांव ही बना हुआ है. स्थितियां इतनी बदली हुई हैं कि आरक्षण का विरोध कोई पार्टी नहीं कर रही. कभी मण्डलका भारी विरोध करने वाली भाजपा आज कमण्डलके साथ मण्डलको भी चतुराई से साध रही है.   

(प्रभात खबर, 16 मई, 2018)




Saturday, May 12, 2018

बोर्ड परीक्षा परिणामों का त्रासद पक्ष



यूपी बोर्ड के हाईस्कूल-इण्टर के परिणामों ने एक बार फिर साबित किया कि समाज के वंचित तबके की नई पीढ़ी में पढ़ने और आगे बढ़ने की ललक हिलोरें मार रही है, कि प्रतिभा का रिश्ता गरीबी-अमीरी से नहीं है. अभावों में जी रहे और किसी भी तरह परिवार को पाल रहे माता-पिताओं में अपने बच्चों को पढ़ाने की आकांक्षा तीव्र हुई है. घर-घर चौका-बर्तन करके, रिक्शा चला कर और मेहनत मजदूरी करके वे बच्चों को पढ़ा रहे हैं. इनमें से बहुत सारे बच्चे अव्वल नम्बरों से पास हो रहे हैं.

यह तथ्य मन में खुशी और उत्साह का संचार करता है लेकिन उससे दोगुनी तकलीफ यह जान कर होती है कि सरकारें दूर-दराज के गांवों-कस्बों तक शिक्षा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करा पाने में असमर्थ रही हैं. बहुत से सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल-कॉलेजों का बहुत बुरा हाल है. बोर्ड के परिणामों का उपर्युक्त सुखद पहलू तो प्रचारित होता है लेकिन इसके दुखद हिस्से पर कम ही रोशनी पड़ती है.

इस बार के यूपी बोर्ड के नतीजे यह भी बताते हैं कि प्रदेश के 150 स्कूल-कॉलेजों में एक भी विद्यार्थी पास नहीं हुआ. इनमें से 98 स्कूलों में हाईस्कूल के सारे विद्यार्थी फेल हो गये. इण्टर के सभी छात्र-छात्राओं के फेल होने के निराशाजनक नतीजे 52 कॉलेजों के हिस्से आये. इसके अलावा 167 स्कूल ऐसे हैं जहां 80 फीसदी बच्चे फेल हुए. इनमें सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त दोनों तरह के विद्यालय हैं.

समझा जा सकता है कि इन विद्यालयों में कैसी पढ़ाई होती होगी. यह आंकड़े उपलब्ध नहीं है कि इन स्कूलों में कितने अध्यापक हैं, हैं भी कि नहीं. ऐसे में पास होने की तमन्ना लेकर विद्यार्थी या उनके मां-बाप नकल-माफिया की शरण में जाते हैं तो क्या आश्चर्य? सभी सरकारें नकल रोकने के जतन करती हैं. वर्तमान भाजपा सरकार ने दावा किया कि उसने नकल-माफिया की रीढ़ तोड़ दी है. नकल न कर पाने के डर से कई लाख विद्यार्थी परीक्षा में नहीं बैठे. इन दावों में कुछ सच्चाई भी होगी लेकिन सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थी नकल के भरोसे क्यों रहते हैं? नकल कराने वाला पात-पात तंत्र क्यों विकसित हुआ? क्या इसके पीछे ऐसे ही विद्यालय नहीं है जहां न काबिल शिक्षक हैं, न पढ़ाई होती है और न उन पर कोई नियंत्रण है? कई विद्यालयों का नाम नकल करा कर पास कराने के लिए जाना जाता है. वे खोले ही इसलिए जाते हैं

शिक्षा और चिकित्सा हमारी सरकारों की प्राथमिकता में अब भी नहीं हैं. इसी कारण दोनों क्षेत्रों में दलालों और माफिया का बोलबाला है या साधन-सम्पन्न वर्ग के लिए महंगे स्कूल और अस्पताल बन गये. अमीरों-गरीबों के बीच सम्पत्ति की खाई ही चौड़ी नहीं है, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का अंतर भी उतना ही बड़ा है.

शिक्षा का अधिकार अब संविधान-प्रदत्त है. जिंदा रहने का अधिकार हर तरह से मौलिक है. हमारे यहां इसे वास्तविकता में प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकारों की है और वे इसमें विफल रही हैं. चुनाव के मुद्दे ये कभी नहीं बनते. सरकारों का प्रदर्शन भी इनसे नहीं आंका जाता. हर चुनाव में धर्म-जाति के मुद्दे उछाले जाते हैं. भावनाएं भड़काने वाले बयान दिये जाते हैं. जीवन के जो मूल मुदे हैं, जिन क्षेत्रों से देश वास्तव में तरक्की करता है, जिनसे जनता का जीवन सुंदर बनता है, वे भुला दिये गये हैं.

संविधान की मूल भावना और लोकतंत्र के साथ यह सबसे भद्दा खिलवाड़ है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 5 मई, 2018)



कुत्तों को गोली से उड़ाने वाला प्रशासन



सीतापुर जिले में खैराबाद के अस-पास गांव वालों को लगा कि दिशा- मैदान जाते बच्चों पर हमला करने वाला कुत्तों का कोई झुण्ड है. तेरह बच्चों की जान जाना अत्यधिक गम्भीर मामला है. ग्रामीणों की आशंका और चिंता स्वाभाविक है. उनका डण्डे लेकर कुत्तों को मार डालना भी समझा जा सकता है  लेकिन जिला प्रशासन के अधिकारियों को क्या हो गया जो वे बंदूकें लेकर गांव के कुत्तों के शिकार पर निकल पड़े? कुछ मित्रों ने गोली से मारे गये कुत्तों की तस्वीरें भेजीं तो देख कर प्रशासनिक अधिकारियों की बुद्धि पर तरस और क्रोध आया. आखिर वे इतने क्रूर और नासमझ कैसे हो सकते हैं? क्या उन्होंने अपनी बुद्धि को ताक पर रख दिया? ऊपरी दवाब में जनाक्रोश को शांत करने के लिए वे कुत्ते जैसे निरीह जानवरों को गोलियों से भून उतर पड़े?

कोई बारह साल पुरानी घटना याद आ गयी. उन्नाव के एक गांव में सत्रह वर्ष की किशोरी अचानक लापता हो गयी थी. किसी ने अफवाह उड़ा दी कि एक अजगर ने लड़की को निगल लिया है. गांव वाले अजगर की आशंका से आतंकित हो गये. उन्होंने लखनऊ-कानपुर मार्ग जाम करके मांग की कि प्रशासन अजगर को पकड़े, क्योंकि उससे और लोगों को भी खतरा है. अखबारों में भी यही छप रहा था कि लड़की को अजगर निगल गया. अखबार वाले कहीं से यह भी पता कर लाये थे कि लड़की को पलक-झपकते निगल जाने वाला अजगर एनाकोण्डाहोगा.

गांव वालों की मांग पर जिला प्रशासन अजगर को खोजने निकला. उन दिनों लखनऊ-कानपुर मार्ग चौड़ा किया जा रहा था. कई खुदाई मशीनें तैनात थीं. प्रशासन जेसीबी लेकर गांव की जमीन खुदवाने में जुट गया. एक-दो अजगर मिले तो उन्हें मार डाला गया. कोई चार दिन की मेहनत के बाद उस समय के हमारे सम्वाददाता ने यह खोज निकाला था कि सत्रह साल की उस लड़की को किसी अजगर ने नहीं निगला था, बल्कि ट्यूबवेल के चौकीदार ने उसे अपनी कोठरी में कैद कर रखा था. लड़की सकुशल बरामद कर ली गयी थी.

प्रशासन को न तब शर्म आयी थी न आज आयेगी. तब उन्नाव के अधिकारियों ने यह सोचने की जहमत नहीं उठायी थी कि सत्रह साल की लड़की को कोई अजगर कैसे पलक-झपकते निगल सकता है! आज सीतापुर के अधिकारियों ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर कुत्ते अचानक इतने खूंखार कैसे हो गये? क्या बच्चों को मार डालने वाले वास्तव में कुत्ते ही हैं? और अगर कुत्ते ही ऐसा कर रहे हैं तो क्या वे गांव में पलने वाले कुत्ते हैं? बिना किसी तर्क और खोज-बीन के करीब एक सौ कुत्ते मार डाले गये.

कई प्रत्यक्षदर्शियों का बयान सामने आया है कि बच्चों पर हमला करने वाला झुण्ड कुत्ते जैसा दिखने वाले जानवरों का है. पशु-विज्ञानियों की टीम ने भी इस दिशा में जांच की है. कई लोगों ने गांव में पले कुत्तों को मारने का विरोध किया. कुछ ने उन्हें बचाने के लिए उनके गले में पट्टे बांधे. जाहिर है, गांव वाले भी एकमत नहीं थे कि हमलावर कुत्ते ही हैं.  

बच्चों पर हमला कर उन्हें मार डालने वाले जानवरों की पड़ताल अवश्य होनी चाहिए. प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह तुरंत प्रभावी कार्रवाई करे. अगर प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी भी अफवाहों पर कान देकर हर किसी कुत्ते  को गोली से उड़ाने लगे तो क्या कहा जाए?

इस घटना ने खुले में शौच-मुक्त गांवों के दावे की भी असलियत सामने रखी है. मारे गये ज्यादातर बच्चे खुले में शौच के लिए गये थे. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 मई, 2018)