Friday, June 26, 2020

गांव वापस लौटे लोग और रोजगार


लाखों की संख्या में जब दूर-दूर शहरों से कामगारों का रेला अपने गांवों को लौट आया है तो विचार आता है कि क्या इन श्रमिकों को अपने ही घर-देहात के आस-पास ऐसा सम्मानजनक काम नहीं मिल सकता कि वे ठीक-ठाक जीवन जी सकें और बच्चों को भी पढ़ा-लिखा सकें. बड़े-बड़े कारखानों-मिलों को श्रमिकों की आवश्यकता पड़ेगी ही लेकिन क्या जरूरी है कि गांव के गांव खाली होकर दूर-दूर शहरों की झुग्गियों में समा जाएं?

पिछले दो मास के सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि मनरेगामें काम की इतनी अधिक मांग पहले नहीं हुई. स्वाभाविक ही गांव लौटे मजदूर रोजी-रोटी के लिए मनरेगा के सहारे हैं. इसके अलावा क्या है? कुछेक और सरकारी योजनाएं गिनाई जा सकती हैं. तब? गांवों से पलायन को इस व्यवस्था ने ही मजबूर किया है. ऐसी कोशिशें सरकारी स्तर पर कभी नहीं दिखाई दीं कि गांवों से पलायन न हो या एक सीमा तक ही हो. नव-उदारवादी व्यवस्था में तो इस पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता.
पिछले दिनों इस अखबार ने चंद खबरें ऐसी प्रकाशित की जिनसे ग्रामीणों की रचनात्मक और स्वरोजगार सम्भावनाओं की झलक मिलती है. गोँडा के हलधरमऊ ब्लॉक के कमलापुर गांव की महिलाओं ने डेढ़ लाख पौधों की नर्सरी तैयार कर दी. इस पौध को करीब 22 लाख रु में प्रशासन ने खरीद लिया, जिसे पौधारोपण अभियान में रोपा जाएगा. यह एक उदाहरण है.

बांदा के ग्रामीणों ने भांवरपुर में एक लुतप्राय नदी का जीवन लौटा दिया. यह उन श्रमिकों ने खाली समय बिताने के लिए किया जो दूर देश से लौटे थे. उन्हें इससे आय तो नहीं हुई लेकिन पुनर्जीवित नदी कई तरह के रोजगार की सम्भावनाएं बना सकती है. प्रशासन ने स्वयं श्रेय लेने के लिए इसे मनरेगामें दर्ज़ कर लिया लेकिन यदि शासन-प्रशासन में विचारशीलता और दूरदर्शिता हो वह ऐसे कई अवसर प्रदान कर सकता है, जिससे रोजगार पनपें और सामाजिक बेहतरी हो.

ये उदाहरण तो श्रमिकों की अपनी सूझ-बूझ के परिणाम हैं. यदि विकास का हमारा ढांचा ग्राम केंद्रित होता तो अनेक बेहतर सम्भावनाएं हमारी परम्परागत शिल्प-कलाओं में मिल जाती हैं. पिछले दिनों प्रदेश सरकार ने एक जिला-एक उत्पादका खूब शोर किया लेकिन इसे वास्तव में रोजगारपरक बनाया जाए तो न केवल पुराने शिल्प-समाज रोजगार पाएंगे, बल्कि लुप्तप्राय कलाओं को बड़ा बाजार मिलेगा. प्रदेश में ऐसे परम्परागत कला-उद्योगों की अपार सम्भावना है. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अधिकसंख्य शिल्प-कलाएं आज भी हमारे श्रमिक वर्ग के पास हैं. प्रोत्साहन न मिलने और अच्छा बाजार नहीं होने के कारण वे इसे छोड़ते गए और नौकरी ढूढने जाते रहे.

गांवों को गांधी जी के सुझावों के अनुसार आत्मनिर्भर बनाने की सम्भावना तो अब दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती लेकिन क्या कुछ लघुतर उद्योग भी वहीं नहीं लगाए जा सकते? लघु उद्यमियों को अनुदान और प्रोत्साहन की शर्तों में उनका ग्राम-केंद्रित होना शामिल नहीं किया जा सकता? गांवों में 10 लोगों को रोजगार देने वाली इकाइयां भी कहां हैं?

विचारणीय यह भी है कि श्रमिकों का ही नहीं, कुछ बेहतर आर्थिक स्थितियों वाला वर्ग भी गांवों से भागता है कि क्योंकि उसे बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं मिलतीं. शहरों की मलिन बस्तियों में रहते हुए भी उसे स्कूल और अस्पताल मिल जाने का भरोसा रहता है. इसलिए गांवों से पलायन रोकने के लिए आवश्यक है कि वहां मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं.

लाख टके का सवाल यह कि इसे सुन कौन रहा है? किसकी चिंता में ये मुद्दे शामिल हैं?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 जून, 2020)   
       

Friday, June 19, 2020

खतरा बढ़ा है या जीवनयापन के अवसर खुले हैं?



यह लगातार पंद्रहवां सप्ताह है जब यह स्तम्भ कोरोना पर लिखा जा रहा है. मन-मस्तिष्क पर यह विषय ही छाया हुआ है. पूरी दुनिया के मीडिया का यही हाल है. शुरू के दो-तीन महीने दुनिया इस महामारी से लड़ने में लगी रही. अब भी लड़ रही है लेकिन उबरने की कोशिश भी साथ-साथ चल रही है. जो सांसारिक गतिविधियां ठप थी वे शुरू हो रही हैं. लोग घरों से निकल रहे हैं, दफ्तर जा रहे हैं, बाजारों में सीमित मगर चहल-पहल दिख रही है.
कुछ लोगों के लिए यह खतरे का बढ़ जाना है तो कुछ के लिए जीवन यापन के अवसरों का खुलना. सवाल है कि आप कहां खड़े हैं. पिछले हफ्ते एक दोपहर फालसे बेचता एक ठेले वाला मिला. मास्क नहीं लगाते’, हमने पूछा. उसने जवाब में गले में पड़ा गमछा नाक-मुंह में लपेट लिया. पचास रुपए में एक पाव फालसे तोलते हुए हमारे पूछने पर उसने बताया- सुबह चार बजे दुबग्गा मण्डी गए थे. फालसे और किसी मण्डी में नहीं मिलते.
दुबग्गा मण्डी में दैहिक दूरी और साफ-सफाई की सतर्कता के बारे में पूछने पर उसने हंसते हुए कहा- उहां कउन देखत है. मार पिला रहता है आदमी.
इसमें तो खतरा है,’ हमने कहा. उसका सारा ध्यान तराजू पर था. बोला- खतरा-हतरा कछु नाहीं.फिर कागज की पुड़िया लपेटते हुए कहा- पेट देखे मनई के रोग देखे?’
हमने बड़ी सावधानी से दूर से पुड़िया पकड़ी, इस तरह कि उसका हाथ न छू जाए. फौरन उन्हें नमक पानी में सैनीटाइजकिया. इसके बाद भी खाते समय डर लग रहा था. एक ठेले वाले का नज़रिया है, एक हमारा. वह भीड़ भरी मण्डी में पेट के लिए चार बजे सुबह पिल पड़ता है. न मास्क, न सैनिटाइजर. हमें मास्क, सैनिटाइजर और आवश्यकता से अधिक दैहिक दूरी रखने के बावजूद भय लगता है.
हम दोनों अलग-अलग जमीन पर खड़े हैं. हमें लगता है, लॉकडाउन ही चलता रहता तो ठीक था. संक्रमण नियंत्रण में था. लोग बहुत ज़्यादा सतर्क थे. जब से बंदी खुली है, लोग निकल पड़े हैं. ऐसा लग रहा है कि कोरोना भाग गया. तभी तो संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है. लोग दफ्तर जा रहे हैं, बाजार जा रहे हैं, मण्डी जा रहे हैं, कबाड़ी वाला भी फेरी लगाने लगा है. हमारा भय बढ़ गया है. हम आपस में कह रहे हैं, दोस्तों-परिचितों को समझा रहे हैं कि अब बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है. जो भी सामने दिखे, समझो वही संक्रमित है. बाहर बिल्कुल न निकलो.
फालसे वाला लॉकडाउन में बहुत चिंतित था. बाहर निकलना मना था. मण्डी बंद थी. ठेला खड़ा रहा और दिहाड़ी नहीं मिली. रोटी के लाले पड़ गए. कुछ भले लोग मदद नहीं करते तो बच्चे भूखे रह जाते. बहुत अच्छा हुआ कि मण्डी खुल गई. अब दिन भर फेरी लगाने के बाद शाम को घर में चूल्हा जल जाता है. वह अपने साथियों को बता रहा है- मण्डी चले चलो, खूब भीड़ है. सब मिले लाग है.
उसका डर भूख थी. हमारा डर कोरोना है. उसे राहत मिल गई है. हमारी चिन्ता बढ़ गई है. हम अलग-अलग जमीन पर खड़े हैं. खतरे को देखने की हमारी नज़र फर्क है. जो जिस जमीन पर खड़ा होता है, वह वहीं से चीजों को देखता है. हमारे लिए खतरा बढ़ रहा है, उसके लिए अवसर खुल रहे हैं.
इस महामारी ने जीवन के विविध रंग दिखाए. इनसान के भीतर के कई अनजान कोने खोले, कई परदे उठाए. लोगों की निगाह भी शायद कुछ बदली. जीवन के प्रति नज़रिया उलट गया है, ऐसा भी लोग कह रहे हैं. पता नहीं, लेकिन पांवों के नीचे तो सबकी अपनी वही जमीन है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 20जून, 2020)

Friday, June 12, 2020

यह दारुण दु:ख और वह निश्छल हंसी


'आज हर उम्मीद को तोड़ती खबर आई. हम लखनऊ भागे... अंतिम विदाई... पूरा परिवार था, पर बॉडी बैग में सील्ड देह थी... अंतिम दर्शन, मुख देखना भी न हो सका... विद्युत शवदाह गृह के कर्मचारी अपने विशेष वस्त्र पहनने लगे. हमें भी अपने पांव, सर, हाथ, मुंह सब ढकना था.. वहां सबकी पहचान खो गई... बेटी ने रोते हुए मुझसे कहा- बहुत बिजी रखा आप लोगों ने, पिता की सेहत खराब होती रही. मैंने हाथ जोड़े... क्या कहता?’
यह अम्बेडकर नगर के जिलाधिकारी राकेश मिश्र की फेसबुक पोस्ट के अंश हैं जो उन्होंने जिले के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ एस पी गौतम की कोरोना संक्रमण से हुई मौत पर चंद दिन पहले लिखी थी. पोस्ट में डॉ गौतम की अथक सेवा और कोरोना-मरीजों के प्रति समर्पण की दिल खोलकर प्रशंशा की गई है. यह सिर्फ किसी की मृत्यु पर कहे जाने वाले तारीफों के शब्द भर नहीं हैं. इनमें पीड़ा है, असहायता का बोध है और शायद अपराध-बोध भी.
कुछ दिन पहले एक तस्वीर देखी थी. युवा बेटे की संक्रमण से मौत हो गई है. दूर रहने वाले माता पिता बेटे का अंतिम संस्कार करने आए हैं लेकिन उसे देख भी नहीं सकते. अस्पताल कक्ष के खुले दरवाजे के बाहर खड़े होकर जिसे वे देख पा रहे हैं वह सिर्फ प्लास्टिक का पूरी तरह बंद लम्बा बंडल है. वहां न किसी का चेहरा है, न हाथ-पांव. एक प्रतीति भर है कि उसमें उनके जाये बेटे की ठंडी देह है. यह अहसास भी अस्पताल के कर्मचारियों के बताने से हुआ है.
चेहरा भी न देख पाने की यह कसक कोरोना-काल की ही दारुण कथा नहीं है. कितने ही ऐसे हादसे पहले भी होते रहे हैं जिनमें परिवार को अपनों का चेहरा देखना भी नसीब नहीं होता. इस अभिनव संकट-काल ने स्थितियों को कुछ अधिक ही दारुण बना दिया है. मीडिया का फोकस भी इसी पर बना हुआ है. शायद इसलिए.
मानव की जीजिविषा के अद्भुत उदाहरण भी इस काल में सामने आ रहे हैं. दो दिन पहले अखबार के पहले पन्ने पर 76 साल की नाजुकजहां का मुस्कराता चेहरा दिखा था, जिन्होंने दिल की गम्भीर बीमारियों के बावजूद कोरोना को मात दी. ऐसी और भी तस्वीरें हैं जो आशा की किरण जगाती हैं. वह तस्वीर तो शायद ही कोई भूल पाएगा जिसमें एक लड़की अपने बूढ़े पिता को सायकिल पर बैठाकर 1200 किमी दूर अपने घर सकुशल ले गई. मीडिया ने उसके छोटा-से घर का पीपली लाइवजैसा हाल कर दिया था.
एक और तस्वीर है जो दिल-दिमाग में चिपक गई है. पैदल गांव लौटती एक श्रमिक मां की गोद में उसका नन्हा बच्चा बड़ा-सा कजरौटा लगाए इतनी उन्मुक्त हंसी में मगन है कि उसकी आंखें बंद हो गई हैं और पूरे खुले मुंह में टूटे दूध के दांतों के पार मुझे जैसे कृष्ण का जैसा जीवन का विराट रूप दिखने लगा है. बच्चे को खिलखिलाता देखती मां के दुबले-पतले चेहरे पर जो हास्य खिला है, उसका वर्णन कर पाना मुश्किल है. घनघोर विपरीत स्थितियों के बीच किसी प्रसंग से सहसा उपजा यह दृश्य जीवन के संघर्ष में सौंदर्य का सुंदर और शाश्वत प्रतीक है.
सृष्टि का नियम है कि मृत्यु अंतिम सत्य है. फिर भी विजय उसकी नहीं होती. जीवन हर हाल में नईं कोपलें लेकर आता है. रोग–दोष से जानें जाती रहती हैं. कोरोना ने भी कई कीमती जानें ले ली हैं. पता नहीं वह और किस-किस की इस दुनिया से विदाई का बहाना बनेगा. उनका शोक विह्वल करेगा लेकिन जीवन अपनी रफ्तार चलता चला जाएगा.
रह जाएगा तो वह निर्मल हास्य जो उस अभावग्रस्त मां के चेहरे पर अपने खिलखिलाते शिशु को देखकर नाच रहा है. 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 जून 2020)    

Tuesday, June 09, 2020

अमित शाह को क्या जवाब देगा विपक्ष?



भारतीय जनता पार्टी के नेता आम तौर पर यह नहीं कहते कि उनसे या उनकी सरकार से भी कोई चूक हो सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह तो कतई नहीं. पिछले दिनों दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा होने पर भी पहले की तरह उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियां ही खूब गिनाईं. एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर उन्होंने स्वाभाविक ही उसे पहले कार्यकाल के पांच वर्षों से जोड़ा और कहा कि उपल्बधियां तो पूरे छह साल की देखिए. अमित शाह ने अपने एक लेख में यह भी दावा किया था कि भाजपा सरकार ने छह साल साल में (कांग्रेस की) साठ साल की गड़बड़ियों को दुरस्त कर डाला है. शुरू से ही यह मोदी और शाह की आक्रामक राजनीति का हिस्सा रहा है.
बीते सोमवार को अमित शाह ने पहली बार कोरोना महामारी से निपटने के संदर्भ में यह कहकर कि “हमसे गलती हुई होगी, हम कहीं कम पड़ गए होंगे, कुछ नहीं कर पाए होंगे...” अपनी आक्रामक राजनीति को नया आयाम दे दिया. यह वास्तव में अपनी सरकार की कमियां मानने से अधिक विपक्ष पर और हमलावर होना है क्योंकि इसके आगे उन्होंने विपक्ष के सामने चुनौती फेंकी- “मगर आपने क्या किया?  कोई स्वीडन में बात करता है, अंग्रेजी में, देश की कोरोना की लड़ाई लड़ने के लिए, कोई अमेरिका में बात करता है.. आपने क्या किया, यह हिसाब तो जनता को दो जरा...”
स्पष्टत: अमित शाह का हमला कांग्रेस और मुख्य रूप से राहुल गांधी पर है, जिन्होंने इस बीच कुछ विशेषज्ञों से ऑनलाइन बात की और उसे प्रचारित किया. विशेषज्ञों से राहुल की इन वार्ताओं में मोदी सरकार के कतिपय कदमों की, विशेष रूप से आर्थिक पैकेज में नकद राशि की बजाय ऋण देने का ऐलान करने और कामगारों की घर वापसी के कुप्रबन्धन की आलोचना हुई थी. शाह का इशारा उसी तरफ था. विपक्ष की तरफ यह सवाल उछाल कर कि आपने क्या किया?’ शाह ने पूरे विपक्ष को खूब घेरा है.
भारतीय राजनैतिक मंच पर पिछले कुछ वर्षों से केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ भाजपा के सामने मुख्य विरोधी दल कांग्रेस समेत भारतीय सम्पूर्ण विपक्ष की जो स्थिति है उसमें आशा कम ही है कि इस सवाल का कोई सटीक जवाब आएगा. वैसे तो कोरोना महामारी का संकट काल हो या सामान्य स्थितियां, कुछ करने का मूल दायित्व सरकार का ही होता है. सवाल भी उसी से किया जाना चाहिए लेकिन विपक्ष अपने उत्तरदायित्व से कैसे बच सकता है?     
कोरोना के कारण लम्बी बंदी से लाचार कामगार जिन हालात में वापस लौटने को मजबूर हुए, उस पर बहुत सारे सवाल उठने स्वाभाविक हैं. सरकार अगर इस स्थिति के आकलन और फिर उसे सम्भालने में चूक कर गई तो क्या विपक्ष ने बंदी घोषित होते ही सरकार को आगाह किया था कि कैसी विषम स्थिति आ सकती है? अगर सरकार यह भांप नहीं सकी थी तो क्या विपक्ष को पता था कि देश में कितनी बड़ी संख्या में कामगार दूसरे-दूसरे राज्यों में मजदूरी करने जाते हैं और कामबंदी में बिना दिहाड़ी के उनके सामने कैसी विकट स्थिति आ सकती है? सच यह है कि कामगारों का यह विशाल भारत पूरी भारतीय राजनीति के लिए अदृश्य था. यह वर्तमान राजनीति पर एक तीखी टिप्पणी है जो बताती है कि आज के राजनैतिक दल और नेता आम जन और उनके हालात से कितना कट गए हैं.
आपातकाल दलगत राजनीति के लिए नहीं होता. कोरोना महामारी ऐसा ही कठिन समय है. ऐसे में आशा की जाती है कि सभी राजनैतिक दल मिलकर एक तय दिशा में काम करेंगे, जैसा कि युद्ध काल में होता है. मान लिया कि सरकार ने इस आपदा से निपटने की रणनीति बनाने में विपक्ष को आमंत्रित नहीं किया लेकिन क्या विपक्ष ने ऐसी पेशकश की? कोई रणनीति सुझाई?
प्रधानमंत्री मोदी ने एक बड़े आर्थिक पैकेज का ऐलान किया. उसकी खूबियों या कमियों की बात अलग, लेकिन जिस कांग्रेस पार्टी के पास मनमोहन सिंह और चिदम्बरम जैसे अर्थशास्त्री-राजनेता हैं, क्या उसने कोई वैकल्पिक आर्थिक उपाय देश के सामने पेश किए? सरकार उसे मानती या नहीं मानती लेकिन मुख्य विरोधी दल का कोई दायित्व बनता था? अमित शाह विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करके स्वाभाविक ही राजनीति कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक चाल के रूप में ही सही, कांग्रेस या बाकी विपक्ष ने क्या किया? विपक्ष किस ठोस आधार पर जनता के सामने जाएगा?
कोरोना काल ने बहुत असामान्य स्थितियां खड़ी कर दी हैं. आर्थिक चुनौतियां सबसे बड़ी हैं. देशबंदी बहुत लम्बी नहीं खींची जा सकती थी, इसलिए आर्थिक गतिविधियों को क्रमश: खोला जा रहा है. इसे कैसे बेहतर और सुरक्षित ढंग से खोला जाए? खुलते उद्योगों को कामगारों का संकट होने वाला है, उसका क्या उपाय होगा? क्या घर लौटे कामगारों के लिए वहीं कुछ लघु-उद्योग-धंधे शुरू किए जा सकते हैं जो गांव-कस्बों को धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनाएं? स्कूलों, शिक्षा संस्थानों की परीक्षाओं का क्या हो कि प्रतियोगी परीक्षाओं में विद्यार्थियों को राष्ट्रीय स्तर पर एक समान धरातल मिले? ऐसे कई महत्त्वपूर्ण सवाल उपस्थित हैं. क्या विपक्ष इस बारे में कुछ ठोस सुझाव पेश नहीं कर सकता?
भाजपा ने कोरोना संक्रमण बढ़ने के दौर में भी बिहार, उड़ीसा और बंगाल के लिए अपना चुनावी अभियान शुरू कर दिया है. अमित शाह इन राज्यों की जनता को वर्चुअल रैली से सम्बोधित कर रहे हैं. विपक्ष से सवाल करते हुए ऊपर उनके जिस भाषण का उल्लेख है, वह दिल्ली से उड़ीसा के लिए वर्चुअल रैली में ही दिया गया. राजनैतिक चालों की ही बात करें तो भी विपक्ष भाजपा से मुकाबले के लिए क्या तैयारियां कर रहा है?
पिछले कुछ साल से विपक्ष की मुख्य समस्या ही यह है कि वह भाजपा के पीछे-पीछे चल रहा है, और दूर-दूर. ऐसा एक भी मुद्दा देखने में नहीं आया जिसमें विपक्ष ने मोदी-शाह की जोड़ी को पीछे छोड़ा हो. सरकार की गलतियों को भी वे बड़ा मुद्दा नहीं बना पाते. सच तो यह है कि भाजपा की अपार सफलता के पीछे विपक्ष के बिखराव और उसकी रणनीतिक असफलता का भी बड़ा हाथ है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही है जो उसका मुकाबला कर सकती है लेकिन वह अपना ही घर दुरुस्त नहीं कर पा रही. राज्य सभा के चुनाव होने वाले हैं और गुजरात में उसके विधायक भाजपा में जा रहे. मध्य प्रदेश की अपनी सरकार वह बचा नहीं पाई. भगदड़ का यह सिलसिला उससे रुक नहीं रहा. लम्बे समय से उसके पास पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं है.
ऐसे में क्या कांग्रेस अथवा विपक्ष अमित शाह को कोई जवाब दे पाएगा
(प्रभात खबर, 10 जून, 2020)        
    
    

   

Friday, June 05, 2020

बंदी खुलने के खतरे और कुछ आवश्यक प्रश्न

कोरोना संक्रमण के बढ़ते जाने के बावजूद लगभग सब कुछ खुल गया है. तरीकों और प्राथमिकताओं पर विवाद हो सकता है लेकिन आर्थिक गतिविधियों को शुरू किए बिना चारा नहीं था. बहुत बड़ी आबादी के सामने भुखमरी की नौबत आ पड़ी थी. काम-काज शुरू होने से उम्मीद बनती है. कोरोना का डर बना रहेगा,  बढ़ेगा और बहुत सावधानियां बरतनी होंगी- यह निश्चित है. क्या हम सबने ये सावधानियां बरतना शुरू कर दिया है? खतरे से बचना है तो जीवन शैली ऐसी बनानी होगी कि कोरोना के साथ जिया जा सके. यह समझ कितनी विकसित और प्रसारित हो सकी है? यह परीक्षा भी अभी होनी है कि बंदी के दौरान चिकित्सा एवं और स्वास्थ्य तंत्र को जो क्षमताएं और सुविधाएं जुटानी-बढ़ानी थीं, वे भरसक कर ली गई हैं या नहीं. कोरोना संक्रमण अपने चरम पर नहीं पहुंचा है. वह चरम आएगा और तभी इस व्यवस्था की परीक्षा होगी.

यह जानना आश्चर्यजनक और दुखद है कि प्रदेश में मीट-मुर्गा-मछली कारोबार को खोलने की अनुमति नहीं मिली है. अगर इससे सम्बद्ध लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है तो यह बड़ी समस्या है. पता चल रहा है कि तीन साल से मीट-मुर्गा बेचने के लिए लाइसेंस ही जारी नहीं हुए थे. यानी बंदी से पहले जो कारोबार चल रह था वह अवैधथा और प्रशासन की अनुमति से यह अवैधव्यवसाय चल रहा था? तो बंदी खुलने के बाद वही व्यवस्था क्यों नहीं चल सकती जो पहले चल रही थी?
2017 में योगी सरकार आने के बाद बिना लाइसेंस चल रहे बूचड़खानों पर रोक लगी थी. ये बूचड़खाने बड़ी गंदगी में चल रहे थे. गली मुहल्ले मीट-मुर्गा बेचने वाली छोटी-छोटी दुकानें भी साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखती थीं. सब्जी मण्डियों या खुले में कहीं भी बकरे-मुर्गे काटे जा रहे थे. बीमारियां फैलाने का कारण भी वे बन रहे थे. फिर प्रशासन ने एक व्यवस्था बनाई. दुकानों में साफ-सफाई के कुछ नियम तय किए. उसके बाद कुछ बेहतर व्यवस्था में मीट-मुर्गा बिकने लगा था. बंदी से पहले तक यही व्य(वस्था चल रही थी.
उसी व्यवस्था को, बल्कि कुछ और बेहतर बनाकर फिर से चलाने में क्या दिक्कत है जबकि सिर्फ राजधानी लखनऊ में ही पचीस हजार से ज्यादा परिवारों की रोजी-रोटी इस व्यवसाय से जुड़ी है? प्रशासन अनुमति नहीं दे रहा लेकिन ऐसा नहीं कि चोरी-छुपे मुर्गे-बकरे नहीं कट रहे. खाने वाले बता रहे हैं कि मीट की कालाबाजारी हो रही. आठ सौ रु किलो तक बिक रहा है जबकि बंदी से पहले पांच सौ रु किलो मिल रहा था. मुर्गा-मछली भी बहुत महंगे दामों पर चोरी-छुपे मिल रहा है. इस चोरी-छुपेमें पुलिस शामिल नहीं है, ऐसा कौन कह सकता है?
जहां तक नियमों के पालन का सवाल है, क्या प्रशासन यह दावा करता है कि डेरियों से लेकर खान-पान की तमाम छोटी-बड़ी दुकानें या नामी खोंचे-ठेले लाइसेंस से चलते हैं या आवश्यक नियमों का पालन कर रहे हैं? पाश्चराइज्ड दूध के नाम पर कच्चा और अशुद्ध दूध क्यों मिल रहा है? अगर हमारे पास एक भी लाइसेंस प्राप्त मानक-आधारित बूचड़खाना नहीं है तो इसका जिम्मेदार कौन है? मांसाहार आवश्यक खाद्य सामग्री की सूची में सरकार ने ही शामिल किया है. वह यथासम्भव नियमानुसार मिले यह देखना सरकार का काम है और जो कमियां हैं, उन्हें दूर करना भी उसी का दायित्व है. जो व्यवसाय बंदी से पहले प्रशासन की अनुमति से चल रहा था, उसे अचानक बंदी खुलने पर भी बंद ही रहने देना भ्रष्टाचार और चोर-बाजारी को बढ़ावा देना नहीं तो क्या है? 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 6 जून, 2020)