Wednesday, October 30, 2019

अगले चुनावी मोर्चे से पहले



लगभग निरंतर चुनावी मोड में रहने वाला अपना देश शीघ्र ही झारखण्ड और दिल्ली के विधान सभा चुनाव देखेगा. बिहार और बंगाल जैसे बड़े और राजनैतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण राज्यों की बारी भी बहुत दूर नहीं है. अभी-अभी सम्पन्न चुनावों के बाद हरियाणा में तो सरकार बन गई लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा-शिव सेना के बीच रस्साकसी जारी है.

देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली वैसे ही राजनीति के केंद्र में रही है लेकिन आपके रूप में राजनीति के नए प्रयोग की सफलता-विफलता का मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से होने के कारण इस आधे-अधूरेराज्य की चुनावी राजनीति बहुत मायने रखती है. झारखण्ड भी राजनैतिक दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. राज्य गठन के बाद 19 वर्षों में आदिवासी-सपनों और महत्वाकांक्षाओं की राजनीति के क्रमश: हाशिए पर जाने और भाजपाई वर्चस्व स्थापित होने के कारण झारखण्ड का चुनाव देश की नज़र में रहेगा ही.

यहां हम झारखण्ड की चर्चा छोड़कर दिल्ली की चुनावी राजनीति की विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं. उसके कुछ उल्लेखनीय कारण हैं. एक तो यही कि दिल्ली देश की राजधानी है और पूर्ण राज्य का दर्ज़ा नहीं मिलने के बावज़ूद उसकी राजनीति पर देश भर की निगाहें लगी रहती हैं. यह वही दिल्ली राज्य है जहां कांग्रेस की बुज़ुर्ग नेता शीला दीक्षित ने लगातार तीन बार चुनाव जीतकर सरकार बनाई और चर्चा बटोरी. यह अलग बात है कि उसी के बाद दिली की राजनीति से कांग्रेस के पांव उखड़े.

इस चर्चा का दूसरा और बड़ा कारण यह है कि आम आदमी पार्टी’ (आप) ने दिल्ली में वैकल्पिक राजनीति का शुरुआती डंका बजाया. पहली बार अल्पमत में होने के बाद सरकार गिरी तो दूसरे चुनाव में विशाल बहुमत पाया. सरकार बनाई और खूब विवाद खड़े किए. यह सब तब किया जब देश में नरेंद्र मोदी की भाजपा को अजेय समझा जा रहा था. आपने ही साबित किया कि आम जनता के मुद्दों की राजनीति करके मज़बूत भाजपा को पराजित किया जा सकता है.

भारी बहुमत होने के बावज़ूद केजरीवाल सरकार का पांच साल का कार्यकाल आसान नहीं रहा. पार्टी में बड़े तीखे वैचारिक मतभेदों के बाद विभाजन हुआ. केजरीवाल पर पार्टी के रास्ते से भटकने के आरोप लगे. भ्रष्टाचार के आरोपों में भी पार्टी नेताओं की फजीहत हुई. केजरीवाल के तौर-तरीके विवाद का कारण बने. वास्तव में,  आपका विवादों से घनिष्ठ नाता बना रहा.  उप-राज्यपाल से टकराव की आड़ में केजरीवाल सरकार केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार से भिड़ती रही. केजरीवाल देश केअकेले मुख्यमंत्री हैं जो समय-समय पर मोदी सरकार को निशाने में रखकर सड़क पर धरना-प्रदर्शन और अनशन करते रहे.   

इसके बाद भी केजरीवाल दिल्ली ही नहीं, देश के कई हिस्सों में सराहे जाते हैं. दिल्ली के मध्य-निम्न मध्य और गरीब वर्ग में वे काफी लोकप्रिय हैं. दिल्ली के सरकारी स्कूलों के कायाकल्प की चर्चा  देश भर में होती है. दिल्ली में चल रहे मुहल्ला क्लीनिक सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा की व्यापक व्याधि के बीच बड़ी राहत माने जाते हैं. दिल्ली में बिजली सबसे सस्ती है. नगर बस और मेट्रो में महिलाएं नि:शुल्क यात्रा करती हैं. भ्रष्टाचार मिटाने और पारदर्शिता लाने का उनका वादा भले खरा न उतरा हो लेकिन कई निर्माण कार्य तय समय और आकलन से कम मूल्य पर पूरे किए जाने की प्रशंशा उनके खाते में गई.

दिल्ली की अवैध बस्तियों को नियमित करने के मोदी सरकार के ऐलान से यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा केजरीवाल की लोकप्रियता को उनकी राजनैतिक ताकत के रूप में स्वीकार करती है और उनसे स्थानीय मुद्दों मज़बूती से लड़ने को तैयार हो रही है. शायद उसे लगता है कि दिल्ली सरकार के कुछ चर्चित काम भाजपा के भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ सकते हैं. इसीलिए दिल्ली का मोर्चा बहुत दिलचस्प होगा.

यह सत्य है कि वैकल्पिक राजनीति, मूलभूत बदलाव और पारदर्शिता की नई हवा लेकर दिल्ली की राजनीति में छा जाने वाली आपवह शुरुआती पार्टी नहीं रह गई है जिसने देश भर के लिए बड़ी उम्मीदें जगाईथीं. उसके कई महत्त्वपूर्ण साथी आज अलग राह पर हैं. आपका अन्य राज्यों में विस्तार विफल ही रहा. पंजाब में शुरुआती कुछ सफलाएं टिक नहीं सकीं. मगर दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपने कुछ जमीनी कामों के बूते मैदान में डटी है.

हाल में सम्पन्न लोक सभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सात सीटें जीतीं लेकिन इसे विधान सभा चुनाव में सफलता की गारण्टी नहीं माना जा सकता.  एक तो  विधान सभा चुनाव के मुद्दे कुछ फर्क होते हैं. सत्ता विरोधी रुझान भी उनमें कुछ हद तक दिखाई देता है. हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने इसकी पुष्टि की है. केजरीवाल सरकार के कुछ उल्लेखनीय काम निश्चय ही उसके पक्ष में जाते हैं, जैसे शीला कौल को उनके कामों का फायदा मिला था. इसलिए भाजपा की कोशिश है कि राष्ट्रीय मुद्दों केअलावा उसके पास दिल्ली के स्थानीय मुद्दों पर लड़ने के प्रभावी  हथियार भी रहें.

पड़ोसी हरियाणा के परिणाम से उत्साहित कांग्रेस भी पूरी जोर आजमाइश करेगी. लोक सभा चुनाव में आपसे उसका समझौता चाहकर भी नहीं हो सका था. अंतिम समय तक हां-ना चलती रही थी. दिल्ली में आप और कांग्रेस, भाजपा के विरुद्ध बड़ी ताकत बन सकते हैं  लेकिन विधान सभा चुनाव में वे शायद वे एक-दूसरे का साथ नहीं लेना चाहेंगे. आपने वैसे भी कांग्रेस का जनाधार ज़्यादा छीना है. कांग्रेस वहां खुद की जमीन पाने के लिए हाथ-पैर मारेगी. इसलिए लड़ाई त्रिपक्षीय होगी किंतु यह भाजपा के पक्ष में ही जाएगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता.

भाजपा भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दे निश्चय ही उठाएगी. कश्मीर नया और बड़ा भावनात्मक मुद्दा है जिसे मोदी सरकार अपनी शानदार कामयाबी के रूप में प्रस्तुत करके लगातार चर्चा में बनाए रखना चाहती है. स्पष्ट भी है कि कश्मीर के बाहर जनता का बड़ा वर्ग, यहां तक कि भाजपा-विरोधी भी, अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले के साथ है. कश्मीर और काश्मीरियों की चिंता किए बगैर इसे  मोदी सरकार का साहसी कदम माना जा रहा है. विपक्षी नेताओं की दुविधा यह है कि वे चुनाव सभाओं में इस फैसले का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते. उनके पास आर्थिक मंदी में बंद होते कारखाने, बढ़ती बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दे हैं जिन्हें अब तक भाजपा भावनात्मक मुद्दों से दबाए रखने में कामयाब रही है.

इसके बावज़ूद दिल्ली का रण अलग ही होगा और केजरीवाल की आपउसमें महारथी की तरह उतरेगी, हालांकि अभी चुनावी मुकाबलों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहने का समय नहीं आया है.   
(प्रभात खबर, 31 अक्टूबर, 2019)

 
 
    

Sunday, October 27, 2019

टिमटिमाते दीये से धूम-धड़ाका प्रदूषण तक


पिछले कुछ वर्षों से दीवाली में पटाखे और आतिशबाजी से होने वाले वायु एवं ध्वनि प्रदूषणों की समस्या बहुत गम्भीर हो गई है. पर्यावरणविदों  की तरफ से ही नहीं समाज के एक तबके से भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाने या कम से कम इस्तेमाल की अपीलें होती हैं. पटाख़ों पर रोक लगाने की गुहार सुप्रीम कोर्ट तक गई. देश की सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखे बेचने पर रोक तो लगाई लेकिन उन पर व्यापक प्रतिबंध का आदेश नहीं दिया. कतिपय हिंदू संगठनों ने पटाखों पर रोक को हिंदू-धर्म के विरुद्ध मानते हुए हंगामा भी खड़ा किया.

बहरहाल, इन बहसों-अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने  परम्परागत पटाखों की जगह हरित पटाखोंकी वकालत की. हरित-पटाखे यानी कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे. सीएसआईआर और नीरी जैसे संगठन ऐसे पटाखों की खोज में लग गए. कहा गया कि अगर पटाखों में बेरियम नाइट्रेट की मात्रा कम करके दूसरे रसायन इस्तेमाल किए जाएं तो उनसे होने वाला प्रदूषण काफी कम हो जाएगा. इन संस्थाओं ने हरित-पटखों के प्रयोग भी किए. बताया गया कि इनसे वायु प्रदूषण 30 फीसदी कम होगा और ध्वनि-प्रदूषण 160 से 125 डेसिबल तक आ जाएगा.

दो साल से चल रही इस मशक्कत का नतीजा सिर्फ इतना निकला है कि देश में पटाखों के सबसे बड़े बाजार, शिवकासी की 1070 उत्पादन-इकाइयों मे से सिर्फ छह इकाइयों को ग्रीन पटाखा बनाने का लाइसेंस मिल पाया है. बाज़ार में हरित-पटाखे मिल नहीं रहे. पटाखा उत्पादक सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार और पर्यावरण संगठनों के बीच भ्रम में फंसा हुआ है. सालाना करीब आठ हजार करोड़ रु मूल्य के पटाखा बनाने वाले शिवकाशी उद्योग के जानकार इस वर्ष एक हज़ार करोड़ रु का नुकसान होने की बात कह रहे हैं.

यानी अकेले शिवकाशी में बने सात हज़ार करोड़ रु के पटाखे फिर भी इस दिवाली में धूम-धड़ाका मचाएंगे. इसके अलावा विभिन्न राज्यों का वैध-अवैध पटाखा बाज़ार भी इस धमाके में अपना योगदान देगा.

शरद ऋतु बीतते बीतते वैसे ही हमारे महानगरों का वायु गुणवत्ता सूचकांक ( एयर क्वालिटी इण्डेक्स) खतरनाक सीमा तक पहुंच जाता है. यही समय खेतों में पराली जलाने का होता है जिसका धुआं शहरों के आकाश में मोटी पर्त बनकर छा जाता है. आसमान से गिरने वाली ओस उसे ऊपर नहीं उठने देती. ऐसी खतरनाक हवा को दीवाली का धूम-धड़ाका इतना जहरीला बना देता है कि दमा और सांस रोगियों की हालत खराब हो जाती है. हर साल फेफड़ों की बीमारियों के रोगी बढ़ रहे हैं. सरकार और डॉक्टर जनता से अपील करते हैं कि अनावश्यक घरों से बाहर न निकलें. जो सक्षम हैं वे घरों में एयर प्यूरीफायरलगाकर बेहतर हवा में सांस लेने का भ्रम पाल रहे हैं.

यह साल 2019 की दीपावली का परिदृश्य है. डरावना परिदृश्य.  हर साल और भी भयानक होता हुआ. क्या विडम्बना है कि दीपावली को हम खुशियों का सबसे बड़ा त्योहार कहते हैं. यह निश्चय ही खुशियों का त्योहार है लेकिन इस खुशी को मनाने के हमारे आधुनिक तरीकों और भदेस वैभव-प्रदर्शन ने इसे हमारे सबसे बड़े संकट में बदल दिया है.

याद आती है बचपन की गांव की दीवाली. अनगढ़ किंतु खूबसूरत अल्पनाओं से सजी घरों की देहरियों, आलों, छज्जों और मुंडेरों पर टिमटिमाते दीयों की कांपती रोशनी में पूरा गांव दिपदिपाता था. रोशनी के हजारों नन्हे द्वीप अमावस की घनी काली रात से लड़ते रहते थे. दीवाली हमारे लिए अंधेरे में जगमगाती यही रोशनी थी. दीवाली हमारे लिए गोशाला के पशुओं की पीठ पर रंग-बिरंगे छाप थी. दीवाली हमारे लिए अम्मा की निकल-भुय्यां, निकल- भुय्यांथी जो सूप से घर के हर कोने से दलिद्दर भगाती थी. दीवाली की हमारी खुशी कुम्हार के सुगढ़ हाथों से गढ़ी गई गुजरिया में थी, खील-बताशों-चीनी के खिलौनों और गट्टों में थी. दीपावली हमें सिर में धरे गए भाई-दूज के पूजित चिवड़ों से अशीषती थी. अपनी दीवाली को हम पतंगों के लम्बे-लम्बे पेचों के जमघट से विदा करते थे.

उन सुदूर गांवों में हमारे पास एक फुलझड़ी भी नहीं होती थी लेकिन फेफड़ों में  शरद-शिशिर की सुवासित प्राण-वायु हमें भीतर-बाहर खुशियों से भर देती थी. अब हमारे पास बिजली के लट्टुओं की चकाचौंधी लड़ियां है.  विशालकाय फुलझड़ियों, चकरघिन्नियों, अनारों से लेकर दस हजारी लड़ियों वाले बमों, रॉकेटों और न जाने कैसे-कैसे धमाके कर आसमान में युद्ध-सा नज़ारा पेश करने वाली आतिशबाजियां हैं. अब हमारे पास पटाखे फोड़ने की आपसी प्रतिद्वद्विताएं है. रह-रह कर देर रात तक धमाकों के साथ पड़ोसी को नीचा दिखाने वाली डाह है. अब दीपावली खुशियों का त्योहार कम वैभव और औकात दिखाने की होड़ ज़्यादा है.

1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्य वर्ग की जेब में पैसा आने लगा, हालांकि इसी बीच एक बड़ी आबादी गरीब भी होती गई. नव-धनाढ्य और मध्य वर्ग के वैभव का यह भदेस प्रदर्शन हमारी सुख-शांति हरने लगा. सिर्फ दीपावली ही नहीं, भूजल के अंधाधुंध दोहन से लेकर हरियाली के विनाश एवं  उपभोक्ता-कचरे के असीमित फैलाव तक यह ओछा प्रदर्शन दिखता है.

सरकारों एवं न्यायालय के निर्देशों और पर्यावरणविदों की प्रेरणा से स्कूली बच्चों की मार्मिक अपीलों के बावज़ूद पटाखों से वायुमण्डल का जहरीला होना जारी है. किसी को चिंता नहीं कि इसी अमघोटू हवा में हमारी अगली पीढ़ियां भी सांस लेने को अभिशप्त हैं. हमारे मुहल्ले का एक डॉक्टर अपने और अपने बच्चों के मुंह पर मास्क लगाकर देर रात तक दस-हजारी लड़ियां फोड़कर कानफाड़ू शोर से इलाका गुंजा देता है. उसे पूरे मुहल्ले पर अपनी कमाई का दबदबा दिखाने की तमन्ना है. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें इस मिथ्या गुरूर की कीमत का अंदाज़ा नहीं या जानबूझकर  अनदेखी किए हैं. शायद उन्हें भ्रम हो कि यह दुनिया उन्हीं के जीवनकाल तक रहनी है.

उग्र हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के इस अविवेकी दौर में एक और बड़ा तबका है जिसने पटाखों को हिंदू-संस्कृति से जोड़ दिया है. पटाखों पर प्रतिबंध के निर्देशों-सुझावों को वे हिंदू आस्था पर प्रहार के रूप में पेश करने लगे हैं. 2017 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर में शोर वाले पटाखे बेचने-फोड़ने पर रोक लगाई थी तो तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने अपने एक ट्वीट में इस पर प्रसन्नता व्यक्त की थी. भाजपा के पुराने नेता होने के बावज़ूद डॉ हर्षवर्धन को ट्रोलिंग का निशाना बनना पड़ा था. पटाखों पर रोक का समर्थन करने के लिए उन्हें इतना गरियाया गया कि उन्हें अपना वह ट्वीट मिटाना पड़ा. तब हिंदू संस्कृति के तथाकथित झण्डाबरदार ट्रोल आर्मी ने इसे अपनी विजय के रूप में पेश किया.

दु:ख होता है कि सूचना-समृद्ध युग में भी पटाखे फोड़ने को हिंदू-संस्कृति के साथ जोड़ा जा रहा है. हम तो यही सुनते रहे कि लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी की खुशी में घर-घर घी के दीप जलाए गए थे. पटाखों का चलन तो बारूद के आविष्कार के बाद हुआ होगा. उसे कैसे हिंदू धर्म और संस्कृति से जोड़ा जा सकता है? फिर, यदि कोई परम्परा कालांतर में किसी धर्म-संस्कृति से जुड़ भी गई तो क्या उसके दुष्प्रभावों को देखते हुए उसका चलन बदलने या बंद करके मानव-जाति का कल्याण नहीं देखा जाना चाहिए?  संस्कृति और परम्पराएं जड़ नहीं होती. समय, समाज और स्थितियों के हिसाब से उनमें परिवर्तन होते या किए जाते रहे हैं.

त्योहारों की खुशी मनाने का ढंग अगर भविष्य का भीषण संकट बन रहा है तो गम्भीरता से सोचना होगा कि दीवाली मनाने का हमारा खुशनुमा तरीका क्या हो. असत्य पर सत्य और विनम्रता की विजय का उल्लास रावणी-अट्टहास तो नहीं ही होना चाहिए. 
  
(नभाटा, मुम्बई, 27 अक्टूबर, 2019)

खुशी के त्योहार में भविष्य के संकट!


सरकारी फरमान है कि सिर्फ दो घण्टे पटाखे फोड़ें. शाम आठ से दस बजे तक. इसमें भी कई तरह के पटाखों पर रोक लगा दी गई है. दूसरा फरमान है कि हरित पटाखेछुड़ाएं. दो साल से सुप्रीम कोर्ट लगा है कि हरित पटाखों यानी कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों की विक्री बढ़े. इस सुझाव पर सरकारी अमल का हाल देखकर आश्चर्य होता है. देश में पटाखों के सबसे बड़े निर्माता शिवकासी में 1070 इकाइयां पटाखे, आतिशबाजियां, वगैरह बनाती हैं. ताज़ा खबर यह है कि इनमें से मात्र छह इकाइयों को हरित पटाखे बनाने का लाइसेंस मिल पाया है. लखनऊ की बात जाने दीजिए, दिल्ली-एनसीआर में जहां, पटाखों की विक्री पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी है, वहां भी बाज़ार में हरित पटाखे उपलब्ध नहीं हैं.

पिछले कुछ सालों से प्रशासनिक निर्देश जारी होते हैं कि रात दस बजे बाद पटाखे नहीं दागे जाएं. कोई सुनता है? इस बार राज्य सरकार ने सिर्फ दो घण्टे की समय-सीमा निर्धारित की है.आठ से दस बजे के बीच ही पटाखे दागे जा सकते हैं. उसमें भी तेज वाले पटाखों पर रोक है. रोक का पालन करने की ज़िम्मेदारी थानाध्यक्षों को दी गई है जो कोई भी ज़िम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभाते. उसमें वे अपने लिए वसूली का अवसर ढूंढते हैं. अतिक्रमण न हो इसकी ज़िम्मेदारी  भी थानाध्यक्षों की है लेकिन पूरा शहर अतिक्रमण से पटा पड़ा है. सिर्फ वसूली के लिए.

सरकारें और उसके विभिन्न विभाग कागजी आदेश जारी करके मान लेते हैं कि उनका दायित्व पूरा हो गया. पर्यावरण विभाग की सचिव ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार एक आदेश-पत्र जारी कर दिया. उसका पालन हो, यह कौन सुनिश्चित करेगा? बाज़ार में दस-हजारी लड़ियां बिक रही हैं जबकि पटाखे की लड़ियों पर रोक है. भयानक आवाज़ वाले बम खूब मिल रहे हैं. सब पर ग्रीन-क्रैकरका लेबल लगा है. थानेदार जांच करेगा कि त्योहारी वसूली?

अक्टूबर-मध्य से ही लखनऊ और प्रदेश के कई शहरों की हवा की गुणवत्ता देश में सबसे अधिक खराब होने लगी. वायुमण्डल में स्मॉगयानी प्रदूषित हवा की मोटी पर्त जमा है. रातों को गिरती ओस उसे ऊपर नहीं जाने देती. हमारे फेफड़े ऑक्सीजन कम, जहरीली गैसें ज़्यादा भर रहे हैं. खेतों में पराली भी जल रही है. स्मॉगकम करने के नाम पर सरकार निर्माण कार्यों पर रोक लगाएगी. कुछ उद्योगों को बंद करेगी. पर्यावरण इससे सुधरेगा क्या?

उग्र-हिंदुत्त्व के इस दौर में एक बड़ा वर्ग दीवाली मनाने की हिंदू संस्कृति और परम्परा से जोड़ कर पटाखों पर रोक का विरोध करता है. वह अधिक से अधिक धूम-धड़ाका मचाकर हिंदू-धर्म का झण्डा ऊंचा करके खुश होता है. कुछ मुहल्ले धूम-धड़ाके की होड़ में लगे रहते हैं. कई परिवार बहुत सारे पटाखे फोड़ कर अपनी सम्पत्ति और शान का प्रदर्शन करते हैं.  

1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्य-वर्ग के पास धन आना शुरु हुआ. धनिकों की सम्पत्ति कई गुना बढ़ती गई. वे सब नव-अर्जित सम्पदा का ओछा प्रदर्शन करने पर उतारू हैं. शर्मिंदा होने की बजाय वह अपने वैभव-प्रदर्शन में गर्व अनुभव करते हैं. दीवाली के पटाखे ही नहीं, धरती से पानी के अंधाधुंध दोहन, हरियाली के विनाश, अतिशय उपभोग और असीमित कचरा उगलने  पर उन्हें कतई ग्लानि नहीं होती. उन्हें इस धरती और अपनी अगली पीढ़ियों की चिन्ता नहीं होती.

हर्ष और उल्लास के पर्वों को भी हमने भविष्य के भीषण संकटों की पैदाइश बना दिया. आखिर पर्व-त्योहारों पर हम एक-ऊदूरे को किस बात की बधाई देते हैं?     
     
(सिटी तमाशा, नभाटा, 26 अक्टूबर, 2019)  

Friday, October 18, 2019

प्रशासन भी क्यों न गाए यह प्रार्थना



पीलीभीत के प्रशासन ने पैंतरा बदल लिया है. अब जिलाधिकारी का कहना है कि अल्लामा इकबाल के गीत के बोल बहुत अच्छे हैं. भला उसे गवाने पर प्रिंसिपल को निलम्बित क्यों किया जाएगा. निलम्बन का कारण यह है कि प्रिंसिपल ने साम्प्रदायिक आधार पर प्रार्थना का चयन किया. काफी लानत-मलामत हो चुकने के बाद प्रशासन को अपनी एकतरफा कार्रवाई के बचाव में कोई बहाना चाहिए था. इसलिए यह आड़ खोजी गई है.

अत्यंत आश्चर्य और क्षोभ इस बात पर होने लगा है कि प्रशासन साजिशन की गई ऐसी शिकायतों पर आंख मूंद कर कार्रवाई करने लगा है. वह यह देखने की ज़हमत भी नहीं उठाता कि शिकायत किसने की है, उसका इरादा क्या है, और ऐसी शिकायतों पर निलम्बन जैसी सजा देने का समाज में क्या संदेश जाएगा.

प्रिंसिपल के निलम्बन के बाद जो जांच की जा रही है, क्या वह कार्रवाई से पहले नहीं की जा सकती थी? क्या शिकायत करने वाले हिंदू संगठनों के इरादों की पड़ताल नहीं की जानी चाहिए थी? स्कूल का प्रिंसिपल मुसलमान है और उर्दूकी प्रार्थना गवा रहा है. आज के माहौल में हिंदू संगठनों के उत्तेजित होने के लिए इतना काफी है. उन्हें इससे मतलब नहीं कि उस प्रार्थना से बच्चे क्या सीख रहे हैं. 

परेशान करने वाली बात यह है कि प्रशासन हिंदू संगठनों के दवाब में क्यों काम करने लगा. पीलीभीत के वीसलपुर स्कूल का मामला इसका नया उदाहरण नहीं है. यह नई रवायत चल पड़ी है. हमारा समाज ऐसा नहीं था. आज भी बहुतायत में ऐसा नहीं है लेकिन धीरे-धीरे बनाया जा रहा है. झूठी और नफरत फैलाने वाली शिकायतें की जा रही हैं, अफवाहें फैलाई जा रही हैं. प्रशासन भी रंग बदल रहा है या भारी दवाब में है.

चंद दिन पहले साझी दुनियाऔर कुछ दूसरे सामाजिक संगठनों ने प्रदेश में हो रहे महिला-अत्याचारों और लचर पुलिस कार्रवाई पर आक्रोश व्यक्त करने के लिए जीपीओ पर धरना दिया. पुलिस प्रशासन ने इसे रोकने की कोशिश की, वहां पहुंची महिलाओं से दुर्व्यवहार किया. लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति, बुज़ुर्ग प्रो रूपरेखा वर्मा को देशद्रोह में गिरफ्तार करने की धमकी दी. उससे कुछ समय पहले ही उसी जगह हिंदू संगठन ममता बनर्जी का पुतला फूंक रहे थे. उस पर पुलिस को कोई आपत्ति नहीं हुई.

कुछ सप्ताह पहले मेगसायसाय पुरस्कार विजेता, सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डे को जीपीओ पर धरना देने के लिए घर से बाहर ही नहीं निकलने दिया. उनके कुछ और साथियों के घर पर पुलिस तैनात कर दी गई. सामाजिक संगठन विभिन्न मुद्दों पर सरकार और प्रशासन के खिलाफ जीपीओ पर शांतिपूर्ण धरना देते रहे हैं. अनेक बार मौन रहकर या मोमबत्ती जलाकर या चेन बनाकर. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान नागरिकों को इसका अधिकार देते हैं.

प्रशासन की ज़िम्मेदारी कानून-व्यवस्था बनाए रखना है. इसलिए उसे विरोध-प्रदर्शनों पर नज़र तो रखनी चाहिए लेकिन उन्हें रोकना या धमकाना उसका काम हरगिज नहीं है. जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना भी उसका फर्ज़ है. हमारी पुलिस यह फर्ज़ कबके भूल चुकी है. कोई भी पार्टी सत्ता में हो, वह उसके इशारे पर चलती रही है. इन दिनों यह अपने चरम पर दिखता है.

कुछ मुद्दों पर सरकार या प्रशासनिक कार्रवाई का विरोध करना, धरना देना या प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री को असहमति का पत्र लिखना अपराध नहीं है. लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह अच्छी खुराक है. 

मैं समझता हूं, यह प्रार्थना आजकल प्रशासनिक अफसरों एवं पुलिस वालों से ज़रूर गवानी चाहिए- मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको.’ ‘अल्लाहकी जगह ईश्वरकह लीजिए लेकिन गाइए.

(सिटी तमाशा, 19 अक्टूबर, 2019)
    

Wednesday, October 16, 2019

हारी हुई लड़ाई लड़ता विपक्ष



लोक सभा चुनावों में मिली बड़ी पराजय को पीछे छोड़कर विपक्ष के पास अजेयनरेन्द्र मोदी यानी भाजपा को घेरने का एक अच्छा अवसर हरियाणा और महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव थे. चंद महीनों बाद उसे झारखण्ड, बिहार और दिल्ली में इस अवसर को और बड़ा बनाने का मौका मिलने वाला था. 'था' इसलिए कि हालात बता रहे हैं कि विपक्ष यह अवसर खो बैठा है. वह अपने में ही घिर कर रह गया है. यही हाल उत्तर प्रदेश का है जहां ग्यारह विधान सीटों के उप-चुनाव में भाजपा की मोर्चेबंदी के सामने बिखरा हुआ विपक्ष टिक नहीं पा रहा.

बीते लोक सभा चुनाव की तरह विपक्ष के पास भाजपा के खिलाफ मुद्दों की कमी नहीं है. आर्थिक मंदी तेज़ी से पांव पसार रही है और देश-दुनिया के अर्थशास्त्री चिंताजनक बयान दे रहे हैं. पहले से जारी बेरोज़गारी को बंद होते कारखाने भयावह बना रहे हैं. कृषि और किसान का हाल सुधरा नहीं है. महंगाई बढ़ रही है. सामाजिक वैमनस्य और नफरती हिंसा का दौर थम नहीं रहा. आलोचना और विरोध का दमन बढ़ा है. इस सबके बावज़ूद विपक्ष भाजपा सरकार को जनता के सामने कटघरे में खड़ा करना तो दूर इन्हें बहस का मुद्दा भी नहीं बना पा रहा. भाजपा के नेता एक ही हथियार से विपक्ष की बोलती बंद कर दे रहे हैं.

आश्चर्य हो सकता था लेकिन अब नहीं होता कि महाराष्ट्र, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में कश्मीर सबसे बड़ा मुद्दा क्यों है. भाजपा के स्टार प्रचारकों के चुनाव भाषण यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि चुनाव कश्मीर में हो रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी मंच से ललकार रहे है कि हिम्मत है तो विपक्ष कहे कि कश्मीर का विशेष राज्य का दर्ज़ा वापस दिलाएंगे, अनुच्छेद 370 बहाल कर देंगे. अमित शाह, राजनाथ सिंह, आदित्यनाथ योगी, सभी मोदी सरकार के कश्मीर फैसलों को सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं. कांग्रेस पर लांछन लगा रहे हैं कि वह कश्मीर और सीमा पर हमारे सैनिकों को शहीद होते देखते रही और एक फैसला नहीं ले सकी.

विपक्ष इसका कोई ज़वाब नहीं दे पा रहा. जो ज़वाब वह दे सकता है, उसका उल्लेख करने का साहस नहीं बचा. हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि जनता का बहुमत सरकार के फैसलों के साथ है. उग्र हिंदू-राष्ट्रवाद पर कश्मीर का ऐसा तड़का लगा दिया गया है कि सारा देश एक तरफ और कश्मीर एक तरफ हो गया है. कई विपक्षी नेता भी पार्टी लाइन से हटकर कश्मीर पर सरकार के साथ हो गए थे. ऐसे में कश्मीर की तरफदारी करने का मतलब विपक्ष के लिए रहे-बचे जनाधार को भी खो देना है.

किसी भी चुनाव में विरोधी दलों की सबसे बड़ी सफलता सरकार-विरोधी मुद्दों को जनता का मुद्दा बना देना होती है लेकिन आज के विपक्षी नेता न आर्थिक बदहाली को मुख्य मुद्दा बनाने में सफल हो रहे हैं, न बेरोजगारी को. कुछ दिन दृश्य से लापता रहने के बाद राहुल गांधी ने फिर से मोदी के खिलाफ मोर्चा सम्भाला है. वे कह रहे हैं कश्मीर और पाकिस्तान को मुद्दा बनाकर मोदी जनता की बड़ी समस्याओं पर पर्दा डाल रहे हैं किंतु जैसे उनकी यह बात कोई सुन नहीं रहा. इसलिए वे फिर राफेल विमान सौदे में गड़बड़ी का आरोप लगाकर 'चौकीदार चोर है' पर उतर आए हैं. लोक सभा चुनाव में यह नारा पूरी तरह पिट गया था. रक्षा मंत्री बड़े प्रचार के बीच स्वयं फ्रांस जाकर पहला राफेल विमान ले भी आए हैं. ऐसे में राफेल मुद्दा राहुल की कितनी मदद कर सकता है?

इस परिदृश्य के अलावा हरियाणा और महाराष्ट्र में विपक्षी खेमा आपसी कलह और दल-बदल से त्रस्त है. पिछले विधान सभा चुनाव में दूसरे नम्बर पर रहने वाली चौटाला-पार्टी अब विभाजित है. 'इंडियन नेशनल लोक दल' के दो धड़े हो गए. ओमप्रकाश चौटाला के महत्त्वाकांक्षी पोते दुष्यंत चौटाला ने जननायक जनता पार्टी' नाम से नया दल बना लिया.

कांग्रेस इसका कुछ लाभ उठा पाने की स्थिति में शायद हो सकती थी लेकिन अनिर्णय के शिकार उसके शीर्ष नेतृत्व ने ही इस अवसर को गंवा दिया. हरियाणा कांग्रेस के नेतृत्त्व में बदलाव का फैसला बहुत समय तक लम्बित रखने के बाद ऐन चुनावों के पहले किया गया. कुमारी शैलजा को नया अध्यक्ष बनाने का फैसला समय रहते किया गया होता तो उन्हें पार्टी को एकजुट करने का मौका मिलता. पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने नाराज़गी में पार्टी ही छोड़ दी और सोनिया गांधी के घर के बाहर विरोध-प्रदर्शन भी किया. टिकट बंटवारे पर भी रार मची रही. चुनावी मंचों पर एकता-प्रदर्शन करके कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने की कोशिश दिख रही है लेकिन जमीन गुटबाजी जोरों पर है. असंतोष भाजपा में भी है लेकिन उसके बड़े नेता इसे चुनावी नुकसान में बदलने से रोकना जानते हैं. वे 'अबकी बार 75 पार' का नारा लगाकर कार्यकर्ताओं का जोश बनाए रखने में सफल हैं. इसी कारण उन्होंने राज्य में अकाली दल से अपना गठबंधन भी तोड़ लिया.

महाराष्ट्र में भाजपा और शिव सेना का पुराना झगड़ा खत्म हो जाने के बाद उनकी 'महा-युति' बहुत मज़बूत स्थिति में है. शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का 'महा-अगाड़ी' उसके मुकाबले में बहुत कमजोर नज़र आ रहा है. नरेंद्र मोदी ने वहां अपनी पहली चुनावी रैली 19 सितम्बर को कर ली थी जबकि राहुल की पहली सभा 13 अक्टूबर को हुई. इससे दोनों की तैयारियों का पता चलता है.

सत्ता में वापसी करने की पूरी आशा लगाए मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने यूं ही तंज नहीं कसा कि इस बार चुनाव में मज़ा नहीं आ रहा क्योंकि विपक्ष ने पहले ही हार मान ली है. महाराष्ट्र में कांग्रेस काफी पहले जनाधार खो चुकी है. रहे-बचे नेता असंतुष्ट हो आपस में लड़ रहे हैं. संजय निरुपम ने तो सीधे शीर्ष नेतृत्व पर ही अंगुली उठाते हुए कह दिया कि कांग्रेस बुरी तरह हारेगी. गठबंधन का दारोमदार शरद पवार पर रहता है लेकिन अब वे भी उम्र, बीमारी और साथ छोड़कर जाने वाले नेताओं के कारण वैसे ताकतवर क्षत्रप नहीं रहे, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. हाल में शरद पवार के दशकों पुराने साथी भाजपा और शिव सेना में चले गए.

उत्तर प्रदेश के ग्यारह उप-चुनावों में चतुष्कोणीय मुकाबला है. सपा, बसपा, कांग्रेस सब आपस में लड़ते हुए भाजपा का मुकाबला कर रहे हैं. उनमें जीतने से ज़्यादा दूसरे नम्बर पर रहने की होड़ मची है. भाजपा उत्साहित है. स्वयं मुख्यमंत्री योगी प्रचार में उतरे हैं.

जो परिदृश्य सामने है उसमें तो यही कहा जा सकता है कि विपक्ष एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है. 

(प्रभात खबर, 17 अक्टूबर, 2019)  
    
 


Friday, October 11, 2019

अपने सपने भूल गई युवाओं की वह टोली


विजयादशमी की दोपहर धड़धड़ाती मोटरसायकलों के शोर के साथ लगते नारों से मुहल्ला एक बार फिर गूंज उठा. विजयादशमी मनाने का यह कोई नया तरीका नहीं था, न ही रामलीला के मंच की वानर सेना रावण-वध के बाद सड़कों पर उतर आई थी. अब लोगों ने दौड़कर दरवाजों, खिड़कियों, बालकनियों से झांकना बंद कर दिया है. एक ही नारा एक ही काम, जय श्रीराम, जय श्रीरामके नारे लगाती युवकों की टोली कॉलोनी का चक्कर लगाकर दूसरी तरफ चली गई.

वे किसी भी दिन और कभी भी आ जाते हैं. कोई 18 वर्ष से लेकर 20-25 साल के दर्ज़नों युवक मोटरसायकलों पर केसरिया झण्डा बांधे, नारे लगाते. कुछ दिनों के अंतराल पर वे अचानक उड़नदस्ते की तरह आते और गायब हो जाते हैं. पर्व-त्योहारों पर तो ज़रूर दिखते हैं. पिछले चुनाव के दौरान हमने इसे प्रचार का हिस्सा माना था लेकिन बाद में भी वे आते रहे.

ये नवयुवक कौन हैं? इन्हें इतनी फुर्सत कैसे है? इस उम्र के युवकों को तो अपने सपनों की तितली के पीछे भागते होना था. करिअर की सीढ़ी फटाफट चढ़ने और जीवन में कुछ नया, कुछ रोमांचक, कुछ सार्थक करने की लगन में डूबे होना था. इनके सपने, इनका करिअर, इनके संघर्ष कहां रह गए?

नारे ही लगाने थे तो बहुत सारे संग्राम पड़े हैं. प्रत्येक समाज में लगभग हर दौर में बेचैन युवा पीढ़ी का एक हिस्सा बदलाव के लिए लड़ते हुए जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपनी जवानी लगाता रहा है. एक और हिस्सा नई खोजों, नई रचनाओं और पुराने को पलट कर नया फलक सामने लाने में लगा रहा है. युवा पीढ़ी की बेचैनी ने कई महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की हैं. इस दौर में जय श्रीरामके नारों वाले जुलूस किस बेचैनी की अभिव्यक्ति हैं?

क्या यह नई पीढ़ी के पुरानी पीढ़ी से अधिक धार्मिक होने के संकेत हैं? मन में यह सवाल उठते ही याद आया कि कुछ समय पहले एक बड़े सर्वेक्षण के बारे में पढ़ा था जिसका निष्कर्ष है कि दुनिया के लगभग सभी देशों में युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कम धार्मिक होती जा रही है. विकसित देशों के युवकों और प्रौढ़ों-बूढ़ों के बीच यह अंतर अधिक और पिछड़े देशों में कम है. इसका कारण भी सर्वेक्षण बताता है कि चूंकि नई पीढ़ी बेहतर आर्थिक स्थितियों में पली है, उसके सामने आर्थिक चुनौतियाँ कम हैं और वे भविष्य के प्रति बहुत चिंतित नहीं है, इसलिए वे धर्म को ज़्यादा महत्त्व नहीं देते. उम्र बढ़ने के साथ असुरक्षा बढ़ती है और व्यक्ति का धार्मिक झुकाव बढ़ता जाता है.

नारे लगाती भीड़ बने इन युवकों का आचरण धार्मिक तो नहीं ही है. धर्म विनम्र और सहिष्णु बनाता है, उन्मत नहीं. तो, कहीं हमारे ये युवक जो नारे लगाते, धर्म के नाम पर उन्मत हो रहे हैं, भविष्य के प्रति असुरक्षित, बेरोजगार, स्वप्नविहीन और दिग्भ्रमित तो नहीं? आर्थिक रूप से कमजोर, बेरोजगारी से त्रस्त, धार्मिक कट्टरता वाले समाजों में युवाओं को धर्म के नाम पर बहकाना बहुत आसान होता है. वे आसानी से अपराध-वृत्ति की ओर भी चले जाते हैं.

कोई तो होगा जो इनकी बाइकों में तेल भराता होगा और  नारे सिखाता होगा? घर वाले तो इसके लिए बार-बार पैसा नहीं देते होंगे. क्या कोई इनकी बेरोजगारी का दुरुपयोग कर रहा है? अच्छे-खासे ये युवक क्या कभी नहीं सोचते होंगे कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों? क्या कोई उनकी सोचने-समझने की शक्ति भी कुंद नहीं कर रहा?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 अक्टूबर, 2019)


Saturday, October 05, 2019

गांधी की मूर्ति पर फूल और विचारों पर धूल


जमाना हुआ, गांधी-स्मरण एक रश्म अदायगी से ज़्यादा कुछ नहीं रह गया. सच्चाई, सादगी, क्षमा, अहिंसा एवं प्रेम को जीवन में उतार लेने वाले महात्मा की स्मृति का भव्य तमाशा करने वालों का आचरण सर्वथा उनके मूल्यों के विपरीत है. उनके वास्तविक अनुयायी तो अब शायद ही कहीं हों. प्रत्येक राजनैतिक दल उनके असली वारिस होने का दावा कर रहा है लेकिन सभी ने गांधी के मूल्य और विचार बिल्कुल ही त्याग दिए.

गांधी कहते थे, विशेष रूप से सत्ता में बैठे लोगों के लिए कि जब कभी यह असमंजस हो कि क्या फैसला लें, तो सबसे पिछड़े और गरीब इनसान का ध्यान करो और उसके हित के लिए फैसला करो. होता इसके ठीक विपरीत है. यहाँ नाम गरीब और असहाय का लिया जाता है लेकिन अधिसंख्य फैसले लाभ उन्हें पहुंचाते हैं जो कतार में काफी आगे पहुंच चुके हैं. गरीब और निस्सहाय को न्याय मिलने की उम्मीद दिन पर दिन कम होती जा रही है.

देश के गरीबों-अधनंगों को देखकर गांधी ने अपने आधे वस्त्र त्याग दिए थे. आज गांधी के तथाकथित भक्त गरीबों-असहायों का रहा-बचा भी लूट ले रहे हैं. गांधी दूसरे की गलती से व्यथित होकर और दंगा शांत कराने के लिए अपने को सजा देते थे. आज अपने तमाम दोषों को छुपा कर, पीड़ित को ही दोषी साबित करने और सजा दिलाने की साजिश होती है.  

अन्याय करने वाला जितना बड़ा है कानून के हाथ उस तक पहुंचने में उतनी ही टाल-मटोल करते हैं या पहुंचते ही नहीं. चिन्मयानंद पर संगीन आरोप होने के बावजूद उसकी गिरफ्तारी बहुत देर में और बड़ी मुश्किल में हुई. उत्पीड़ित लड़की फौरन जेल भेज दी गई. हो सकता है कि लड़की के खिलाफ कुछ मामला बनता हो लेकिन क्या चिन्मयानंद के खिलाफ उससे कहीं अधिक गम्भीर मामला शुरू से ही नहीं बनता था? गिरफ्तार करने के बाद भी उन्हें कई दिन अस्पताल की सुविधाओं में रखा गया. लड़की तुरंत जेल की कोठरी में बंद कर दी गई.
कितने ही मामले हैं जिनमें कमजोर और उत्पीड़ित का पक्ष सुना नहीं जाता या इतनी देर कर दी जाती है कि ताकतवर अभियुक्त के खिलाफ प्रमाण नहीं मिल पाएं. 

विधायक कुलदीप सेंगर का मामला देख लीजिए. शिकायत दर्ज़ करवाने के बाद उत्पीड़ित लड़की और उसके परिवार पर कितने अत्याचार होते रहे. विधायक की गिरफ्तारी में यथासम्भव देर की गई. वह लड़की, उसके परिवार और गवाहों को तोड़ने व रास्ते से हटाने की साजिश रचता रहा. जो उत्पीड़क है, प्रभावशाली अपराधी है, वह निश्चिंत है. भय ही नहीं उसे. भागा-भागा वह फिर रहा है जो सताया गया है. यह अपवाद नहीं, आम है.
झाड़ू लगाकर और शौचालय बनवाकर गांधी का अनुयायी बना जा सकता है क्या

गांधी भौतिक नहीं आत्मिक शुचिता को जीवन में उतारने की बात करते थे. सत्य की दृढ़ता से गांधी ने जग जीत लिया. आज कोई नेता सच का सामना करना ही नहीं चाहता. निर्दोषों की मॉब लिंचिंग जैसे भयानक अपराध को सत्तापक्ष सुनने-समझने को तैयार नहीं है. एक चौरी-चौरा काण्ड के कारण गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया था. यहां मॉब लिंचिंग के साथ-साथ गांधी की मूर्ति के चरणॉं में शीश नवाया जा रहा है..

गांधी से बड़ा हिंदू और राम-भक्त कौन है? हिंदू गांधी गाय से भी प्रेम करते थे और राम से भी लेकिन गाय या राम के नाम पर किसी की हत्या उन्हें हरगिज मंजूर न थी. उनके लिए हिंदू होने का अर्थ उतना ही मुसलमान, सिख और ईसाई होना भी था. 

अज़ब विडम्बना है कि गांधी को पूजने वाले जान-बूझकर गांधी को समझना नहीं चाहते. 30 जनवरी 1948 के बाद से लगातार गांधी की हत्या जारी है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 5 सितम्बर, 2019)  



Wednesday, October 02, 2019

तो, पूना समझौते से पहले लंदन में गांधी और आम्बेडकर में सहमति हो गई थी!

मराठी चिंतक और आम्बेडकर अध्ययेता डॉ कसबे के अनुसार गांधी का अनशन सवर्णों की मानसिक क्रांति के लिए था.

नवीन जोशी

महात्मा गांधी के जीवन, विचार, विवाद और उनके अभिनव प्रयोगों को केंद्र में रखकर कई पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले हैं. गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी-मार्गके विशेषांक की काफी चर्चा हो रही है. हिंदी के चर्चित साहित्यकार प्रियंवद, जिनकी इतिहास में भी अच्छी पैठ है, के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अकारका गांधी अंक अभी-अभी आया है. इसमें  प्रकाशित एक महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार गांधी और आम्बेडकर के रिश्तों से लेकर पूना-समझौते तक के बारे में नई जानकारियां देता है. बल्कि, इससे पूना-समझौते  के संदर्भ में गांधी और आम्बेडकर की भूमिका के बारे में प्रचलित धारणा ही उलट जाती है.

अकार में प्रकाशित यह साक्षात्कार प्रसिद्ध मराठी विद्वान डॉ बाबूराव कसबे का है. डॉ कसबे महाराष्ट्र के प्रमुख राजनैतिक विश्लेषक, आम्बेडकरवादी विचारक और मार्क्सवादी चिंतक के रूप में जाने जाते हैं. उनकी चर्चित पुस्तकों में बाबा साहब आम्बेडकर और भारतीय संविधान’, आम्बेडकर और मार्क्स’, ‘मनुष्य और धर्म चिंतनतथा हिंदू-मुस्लिम प्रश्न और सावरकार का हिंदू राष्ट्रवादहैं. पिछले कोई छह साल से वे गांधी पर अध्ययन करते रहे हैं और इन दिनों गांधी-पराभूत राजकीय नेता और पराजित महात्माशीर्षक से पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं.
इण्टरव्यू की शुरुआत में ही डॉ कसबे पूना-समझौते के बारे में अब तक स्थापित यह धारणा तोड़ते हैं कि गांधी ने आम्बेडकर पर दवाब बनाने के लिए अनशन किया था और आम्बेडकर ने मज़बूरी में अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल की मांग छोड़कर आरक्षित सीटों का प्रस्ताव स्वीकार किया था.

सन 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन से पहले गांधी जी और वायसरॉय लॉर्ड इर्विन के बीच बातचीत हुई. उसमें बनी कुछ सहमतियों के बाद कांग्रेसी नेता और गांधी जी लंदन की बैठक में शामिल हुए. दूसरा गोलमेज सम्मेलन भी विशेष परिणाम नहीं दे सका. तब ब्रिटिश सरकार ने 1932 में भारत के लिए एक कम्युनल अवार्डघोषित किया, जिसमें भारत के विभिन्न समुदायों-सम्प्रदायों का टकराव हल करने के नाम पर चुनावों में उनके लिए अलग-अलग मतदाता वर्ग बनाने की एकतरफा घोषणा की. कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा विरोध दलितों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल बनाने का किया क्योंकि यह हिंदू समाज को आपस में बांटने वाला था. महात्मा गांधी ने, जो लंदन से आते ही गिरफ्तार करके पूना के यरवडा जेल भेज दिए गए थे, इसके विरोध में अनशन किया.

आम धारणा,  विशेष रूप से दलित विचारकों की,  यही है कि गांधी जी ने आमरण अनशन करके आम्बेडकर को ब्लैकमेल किया. उनकी जान बचाने के लिए आम्बेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल की मांग छोड़ दी और आरक्षित सीटों की व्यवस्था स्वीकार कर ली. इसे ही पूना पैक्ट या समझौता कहा जाता है, जिसके लिए दलित समाज आज तक गांधी जी और कांग्रेस की कड़ी निंदा करते हैं.

डॉ कसबे इस धारणा को उलट देते हैं. वे कहते हैं- सच कहूं तो गांधी और आम्बेडकर के बीच जिस तरह के रिश्ते थे, उसको और इस गुत्थी (पूना पैक्ट) को सुलझाने में उनके चरित्रकार असफल रहे हैं. पश्चिमी चरित्रकार भी इसमें धोखा खा गए हैं. इसमें एक हद तक कोई सफल रहा है तो पश्चिमी चरित्रकार लुई फिशर. इसकी वजह यह है कि वे एक साथ ही बाबा साहब से भी बात करते थे और गांधी जी से भी.... यह जो कहानी है पूना समझौता की, यह कहानी तो सभी कहानियों से अनूठी है. इस कहानी का जो स्क्रिप्ट है और जो डायलॉग्ज हैं, वे तो इंग्लैण्ड में ही लिखे गए थे, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के समय में. और, यह सब वहीं पर तय हो चुका था, क्या-क्या होने वाला है. पर इसे ना बाबा साहब ने बताया ना ही गांधी ने. सभी चरित्रकार धोखा खा गए.”

इस धोखा खाने की वजह डॉ कसबे बताते हैं- “उस समय बाबा साहब जो पत्रिका चलाते थे- 'जनता', 'द पीपल', उसमें उस समय की डे-टूडे रिपोर्ट छपती थी. बाबा साहब ने इंगलैण्ड से जनता के नाम कुछ पत्र लिखे थे. उन्हें वहीं पर छापा गया था. यह पूरा ब्यौरा मराठी भाषा में होने की वजह से भारतीय गांधी-चरित्रकारों को , मराठी न आने की वजह से- और ब्रिटिश पत्रकारों का तो सवाल ही नहीं था- हुआ यह कि इसमें निहित जो बारीकियां थीं, उसे ये चरित्रकार पकड़ नहीं पाए.”

वे बताते हैं कि दूसरी राउण्ड टेबल कांफ्रेंस के दौरान गांधी जी और बाबा साहब के बीच तीन स्वतंत्र बैठकें हुई थीं.  इनमें से एक बैठक का आयोजन मैसूर के दीवान के प्रयासों से हुआ था. दूसरी बैठक गांधी जी के पुत्र देवदास की बदौलत हुई. तीसरी बैठक हुई थी कवयित्री सरोजिनी नायडू के यहां जो गांधी के साथ तब लंदन में थीं.  इस बैठक में बाबा साहब ने गांधी जी को बताया कि उनकी स्पष्ट धारणा है, और यह उन्होंने साइमन को भारत आने पर दी गई अपनी रिपोर्ट में भी साफ कहा था, कि इस देश में किसी मायनॉरिटी को अलग निर्वाचन क्षेत्र न दिया जाए क्योंकि यह लोकतंत्र के साथ ही मायनॉरिटी के लिए भी खतरा है. बाबा साहब ने इसके छह कारण गिनाए थे. आगे आम्बेडकर ने गांधी जी से कहा कि मेरी सीधे-सीधे तीन मांगें हैं- वयस्क मताधिकार, प्रांतीय निर्वाचन क्षेत्र और अस्पृश्यों के लिए आरक्षित सीटें. अगर आपने यह मान्य नहीं किया...

डॉ कसबे के अनुसार आम्बेडकर ने यहां पर गांधी जी को बताया था कि ये मांगें उन्होंने साइमन के सामने भी रखी थीं तो उसने पूछा था कि अगर कांग्रेस इन मांगों को नहीं मानती है तो आप क्या करेंगे? इसका उन्होंने यह ज़वाब दिया था कि तब मुझे भी मुस्लिम-सिखों की राह पर स्वतंत्र निर्वाचक मण्डल की मांग करनी पड़ेगी.तब गांधी जी ने अवरुद्ध कण्ठ से आम्बेडकर से कहा था कि आप जो चाहते हैं वह होगा.

इस तरह डॉ कसबे यह स्थापित करते हैं कि अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल की मांग आम्बेडकर की 
थी ही नहीं. वे तो मुसलमानों के लिए भी ऐसा किए जाने के विरोधी थे. सिर्फ उसी हालत में वेअस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग करने वाले थे, जब मुस्लिमों के लिए ऐसी मांग का उनका विरोध माना नहीं जाए.
डॉ कसबे बताते हैं कि जब पूना समझौता हो गया तो आम्बेडकर ने वरली में अस्पृश्यों की एक सभा बुलाई. आम्बेडकर ऐसे नेता थे जो अपने लिए निर्णयों को तुरंत जनता से साझा करते थे. उस सभा में उन्होंने बताया कि इस तरह से यह पूना समझौती हुआ है और हमारी दृष्टि में  ये बेहद अहम है. इसके तहत हमें कई अवसर प्रदान किए गए हैं. अत: इसका लाभ उठाते हुए आप आगे बढ़िए.यही नहीं, पूना समझौते का स्मृति-दिवस मनाने के लिए एक समिति गठित की गई थी. “1933 और 1934 इन दो वर्षों में एक तरफ आम्बेडकर की तस्वीर, दूसरी तरफ गांधी की तस्वीर, इस तरह से जुलूस निकाला गया. उस दिन का स्मृति-दिवस मनाया गया और गांधी की जय’, ‘आम्बेडकर की जयऐसे नारे लगाए गए थे.”

ऐसा था तो फिर गांधी जी ने आमरण अनशन क्यों किया? डॉ कसबे कहते हैं कि अगर गांधी ने इंगलैण्ड में ही बता दिया होता तो यह सब खिच-पिच होती ही नहीं. इसका ज़वाब भी वे देते है –“आज जब इस सवाल पर मैं गहराई से सोचता हूं कि क्यों गांधी जी ने यह बात लंदन में ही नहीं मानी? पर आप ध्यान दीजिए कि गांधी जी बेहतरीन इवेण्ट मैनेजर थे. उन्होंने अनशन को हथियार बनाया. वह मूलत: आम्बेडकर के विरोध में या स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के विरोध में था ही नहीं. वह तो उनको एक बहाना मिल गया था. उन्होंने अनशन सवर्ण हिंदुओं के विरोध में किया था. उन्हें अस्पृश्यता की समस्या को राष्ट्रीय धरातल पर ले जाकर सवर्णों के मन में एक सायकॉलॉजिकल क्रांति करनी थी. इसलिए आप उनकी यरवडा जेल से निकली पत्रिकाओं को देखिए. उनमें से एक में लिखा हुआ है कि जब तक इस देश में अस्पृश्यता है, तब तक भारतीय लोग स्वराज्य प्राप्ति के लायक नहीं हैं.”

इसके बाद डॉ कसबे बताते हैं कि गांधी के उस अनशन का सवर्णों पर कितना गहरा असर पड़ा, कैसे उन्हें मंदिर प्रवेश कराए गए, कैसे सहभोज हुए, आदि-आदि.

डॉ कसबे के अनुसार गांधी ने लंदन में ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर अस्पृश्यों को स्वतंत्र या अलग निर्वाचक मण्डल बहाल क्या जाता है तो मैं अनशन पर बैठ जाऊंगा. इसलिए बाबा साहब जानते थे कि वे अनशन पर जरूर बैठेंगे. गांधी जी जानते थे कि स्वतंत्र निर्वाचन मण्डल के अलावा आम्बेडकर संयुक्त निर्वाचकमण्डल और आरक्षित सीटें, ये मुद्दे मान जाएंगे. यह सब तफसील से जनतामें प्रकाशित हुआ है.

बहरहाल, डॉ कसबे जो स्थापित करते हैं, वह आम्बेडकरवादियों की समझ के विपरीत है. उनके हिसाब से गांधी कभी उनके थे ही नहीं. इस बारे में डॉ कसबे कहते हैं –“आम्बेडकर को लेकर सबसे अधिक अज्ञान तो जो स्वयं को आम्बेडकरवादी कहते हैं, उन्हीं से है.”   

यह बताते हुए कि गांधी को दलित अपना शत्रु क्यों मानते हैं, वे कहते हैं- “किसी भी जाति का एक संगठन खड़ा करते समय उन्हें एक दुश्मन को खड़ा करना पड़ता है. दिखलाना पड़ता है. जैसे हिंदू महासभा को खड़ा करते समय सावरकर ने मुस्लिमों को दुश्मन माना. दूसरी ओर गांधी को भी विरोधी माना.... वही बात बाद में अस्पृश्यों ने भी दोहराई. बाद के कालखण्ड में कांशीराम जैसे नेता भी उसके शिकार हुए.”

इस बारे में और विस्तार से डॉ कसबे की आने वाली किताब रोशनी डालेगी. यह तय है कि उनकी नई स्थापना आम्बेडकरवादियों और दलित चिंतकों में बड़ा विवाद खड़ा करेगी.
  

http://epaper.navjivanindia.com//imageview_661_163121965_4_71_29-09-2019_i_1_sf.html