Thursday, October 30, 2025

ऐसे ही लड़े और जीते जाएंगे समर

समकालीन जनमत के पोर्टल पर 2020-21 में मीना राय की जीवन-संघर्ष कथा- 'समर न जीते कोय'- के कई हिस्से पढ़ते हुए उनके लेखन की सादगी, निर्लिप्तता, जीवन-दृष्टि और अत्यंत सरल लेकिन प्रभावशाली गद्य ने ध्यान खींचा था। इस वर्ष इसे 'नवारुण प्रकाशन' ने इसी शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। एक शिक्षक व बाद में प्राचार्य के रूप में उनके अनुभवों की कुछ किस्तें भी इसमें शामिल हैं। नवम्बर 2023 में उनके देहांत के कारण दोनों ही गहन जीवनानुभवों का सिलसिला अधूरा रह गया। तो भी वह जितना लिखा जा सका, उसमें वाम विचार को समर्पित, आम जन के सुख-दुख में भागीदार, बिना शिकायती, बेहतर जीवन के सपनों से सजी एक ईमानदार आपबीती है। इसीलिए वह बार-बार पढ़ने पर भी ताज़ी लगती है और पाठक के भीतर श्रद्धा व गर्व भरती है।  

यह किसी चर्चित महिला या लेखक की जीवनी नहीं है। मीना राय कोई लेखिका नहीं थीं। एक सामान्य स्त्री थीं जिन्होंने अपने जीवन में बड़े मानी भर दिए थे। उन्होंने एक कम्युनिस्ट होल टाइमर, रामजी राय से ब्याह करके गरीबी और वंचनाओं का जीवन खुशी-खुशी अपनाया, जिसमें किराए के एक कमरे, दो जून की सूखी रोटी, दवा और बच्चों की जरूरतों के लिए भी खूब संघर्ष शामिल रहा। यह जीवन रोते-बिसूरते नहीं काटा गया, बल्कि पार्टी के कामों के  लिए रामजी राय को पूरा समर्थन व सहयोग देते हुए, एक स्त्री की भीतरी जीवनी शक्ति से तमाम अभावों में भी आलोकित किया गया। उसमें बहुत सारे और परिवारों के सुख-दुख-संघर्ष भी शामिल हैं, जो इस यात्रा पथ के साझीदार बने-बनाए गए।

इस प्रकार का दुष्कर जीवन जीते हुए, संघर्ष में सपनों को जीवित रखते हुए, दूसरों के जीवन में मकसद भरते हुए जो समाज, गांव, कस्बे, पर्व-त्योहार,जातिगत भेदभाव, महिलाओं का दमन, दुर्व्यवहार, स्वार्थी व आत्मलिप्त लोग, वगैरह-वगैरह से सामना हुआ, वह अत्यंत सहज-सरल गद्य में लिखा गया है। यहां कोई लेखन का अतिरिक्त साहित्यिक प्रयास नहीं है। वह इतना सहज है जैसे कि सामने जिया जा रहा, लड़ा जा रहा जीवन देखा जा रहा हो। वह पाठक को इसमें अपने आप शामिल कर लेता है। वह मात्र आपबीती नहीं रह जाता। आम ग्रामीण-कस्बाई जीवन का साझा बन जाता है। भोजपुरी लटक के साथ होना अलग ही भाषा-सौंदर्य रचता है।

मीना राय ने जूझते हुए केवल अपने पारिवारिक दायित्व ही नहीं निभाए, उन्होंने पार्टी व संगठन के लिए भी बहुत कुछ किया। किताब की भूमिका में प्रणय कृष्ण ने लिखा है- "मीना भाभी एक साथ कितने परिवारों की सदस्यता निभाती थीं-- एक वो संयुक्त परिवार जहां से ब्याह कर वे आई थीं, एक वह परिवार जिसमें वे ब्याह कर गईं, एक वह जो उन्होंने अपने पति व बच्चों का खुद बनाया, एक प्रगतिशील छात्र संगठन का परिवार, एक पार्टी (सीपीआई-एमएल) परिवार, एक उस स्कूल की शिक्षिकाओं और विद्यार्थियों से मिल्कर बना परिवार जहां व पढ़ाने गईं, एक अपने मोहल्ले और पड़ोसियों का परिवार, एक 'समकालीन जनमत' का परिवार-- ये परिवार कई-कई अंशों में मीना राय के व्यक्तित्व के सूत्र से एक दूसरे में घुलते-से जाते थे।"

इस आपबीती की एक बड़ी खूबी इसकी निस्संगता-निर्लिप्तता है, जो चौंकाती भी है। एक स्त्री, जिसने कितना कुछ झेला और लड़ा, लिखते समय जैसे अपने से बाहर जाकर कहीं दूर खड़ी होकर देखती हो। यह विरल है।

'नवारुण' प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) ने 'समर न जीते कोय' का प्रकाशन जिस लगाव, नए डिजायन-आकार और कलात्मकता के साथ किया है, वह उल्लेखनीय है और इस पुस्तक को मानीखेज बनाने में सहायक हुआ है।   

-न जो, 31 अक्टूबर 2025  

        

Wednesday, October 08, 2025

कर्बला दर कर्बला - ताकि अंतत: मुहब्बत लिखी जाए

गौरीनाथ का उपन्यास 'कर्बला दर कर्बला' (अंतिका प्रकाशन, 2022) पूरा करते-करते पाठक गहरे सदमे और आक्रोश से भर उठता है। कबूतर के बच्चों को बिल्ली ने मुंह में नहीं दबोचा, पाठक की गर्दन ही नफरतियों ने चबा डाली! 

वह नरसंहार का साक्षी बनकर जड़-सा रह जाता है। यह लेखक की कल्पना नहीं है। यहां भागलपुर दंगों के काले इतिहास को कथा में पिरोया हुआ है। 1980 के दशक के सच्चे किस्से। 1989 का नरसंहार।    

उपन्यास की कथा 1980 के दशक के बिहार से शुरू होती है। भागलपुर इसके केंद्र में है। 1980 का कुख्यात अंखफोड़वा कांड हो चुका है। पुलिस किस सीमा तक बर्बर हो सकती है, देश जान चुका है। फिर शुरू होती हैं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की साजिशें। उसका चारा बनाई जाती भोली-भाली जनता। इसी बीच अयोध्या से उठा 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का नारा। नगर-नगर राम शिला पूजन से उठता हुआ नफरती गुबार। पुलिस का साम्प्रदायीकरण। 

1989 में भागलपुर के भीषण साम्प्रदायिक दंगे इसी बिसात पर कराए गए। कांग्रेस का राज था। दक्षिणपंथी ताकतें सिर उठाने लगी थीं। पर्दे के पीछे दोनों की मिलीभगत भी रही। इस षडयंत्र को पूरी तरह खोलकर रख देने के लिए लेखक ने बहुत सारे तथ्यों, जांच रिपोर्टों, प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों एवं अन्य दस्तावेजों का सहारा लिया है। उस सबको कुशलता से कथा में गूंथा है। भागलपुरी सिल्क और बुनकरों की व्यथा-कथा सुनाना भी वह नहीं भूला है।  

इस उपन्यास को पढ़ना एक कथानक के सुख-दुख से गुजरना ही नहीं है। भागलपुर दंगों के कई गोपनीय रखे गए दस्तावेजों से गुजरने की मर्मांतक पीड़ा से भी दो-चार होना है।  इन दस्तावेजों को हासिल करने के लिए बहुत श्रम और शोध किया गया दिखाई देता है। हिंदी उपन्यासों में ऐसा कम ही दिखता है।

कहानी 1978 में बिहार के एक गांव से शुरू होती है। तब तक 'ताजिए को देखने के लिए अलग-अलग रंग के चश्मे नहीं आए थे'। गांव के प्रभावशाली एक परिवार का युवक मुदित जब नजरुल बुढ़वा की नातिन को ब्याह लाता है तो  नज़र बदलने का खेला शुरू हो जाता है। उसी रात नव-दम्पति की कोठरी को घेरकर आग के हवाले कर दिया जाता है। 

उस जोड़ी का क्या हुआ कोई नहीं जानता (पाठक आगे जान जाएगा)  मगर इसी किस्से से  उपन्यास के नायक शिव की गढ़न शुरू होती है। वह मेधावी होने के बावजूद सबकी तरह इंजीनियर बनने की राह नहीं पकड़ता। खूब पढ़-लिखकर, समाज व इतिहास दृष्टि से सम्पन्न होना चाहता है। प्रोफेसरी की कठिन राह चुनकर उच्च शिक्षा के लिए भागलपुर पहुंचता है। 

भागलपुर में एक नई और बड़ी दुनिया है। वहां कॉलेज है। सतवीर, रितेश, मधु, प्रीति, सरफराज, सुशील, जरीना, जैसे कई दोस्त हैं। एक समृद्ध पुस्तकालय है। प्रो कर्ण और प्रो मित्रा जैसे शिक्षक हैं। पठन-पाठन से विकसित होती हुई इनसानी समझ है। नफरत से लड़ने का विवेक जाग्रत होता है। 

उसी के समानांतर भागलपुर का काला इतिहास और विद्रूप वर्तमान शिव और साथियों के सामने आता है। दिन दहाड़े हत्या, भरी अदालत में हत्या, लड़कियों का अपहरण, वगैरह-वगैरह। राजनैतिक शरण में पनप रहे बाहुबली। अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को पटकनी देने के लिए रचे जाते षड्यंत्र। 

अपराधियों के राज और बढ़ती साम्प्रदायिक नफरत  के बीच मुहब्बतों के अंकुर भी फूटते हैं। शिव की जरीना से और सतवीर की मधु से मुहब्बत इस नफरत को सीधे चुनौती है। वह युवाओं की ताकत  है। इस मुहब्बत को वे समाज में फैलाना चाहते हैं। जूझते हैं, पिटते हैं लेकिन हार नहीं मानते। उनका जीतना अभी होना बाकी है। 

धीरे-धीरे भागलपुर नफरत और हिंसा की आग में झोंका जाता है। एक के बाद एक भयावह कांड। कांड नहीं, नरसंहार। पुलिस के संरक्षण में। घरों में लाशें पड़ी हैं। गलियों में लाशें पड़ी हैं। लड़कियों के चीत्कार उठ रहे हैं। आग की लपटें हैं। खेतों में लाशें दफनाकर बोई गोभियां हैं। हालात से लाभ उठाते नेता और प्रोन्नतियां पाते दोषी पुलिस अफसर हैं। कल्पना नहीं, यथार्थ से सदमे में जाता पाठक है। 

गौरीनाथ ने बहुत विचलित होकर यह उपन्यास लिखा होगा पर भाषा में उनका संयम और संतुलन दिखाई देता है। अंतिम अध्याय 'नरसंहार- खेल या कारोबार' को छोड़कर बाकी जगह वे तथ्यों को अखबारी विवरण बना देने से बचे रह सके हैं। 

ये तथ्य अत्यंत विचलित करने वाले हैं लेकिन गौरीनाथ का उद्देश्य पाठक को दहशत से नहीं, मुहब्बत से भर देने का है। उन्होंने कहा भी है- "यह अफसाना उस भीषण नरसंहार की वीभत्सता के ऊपर मुहब्बत लिखने की छोटी सी कोशिश है।" 

यह मुहब्बत का लिखा जाना जारी रहना चाहिए। कामयाब होना चाहिए। 2014 के बाद का समय 1980 के दशक की तुलना में और भी भयानक है। नफरत का गुबार कहीं ज़्यादा जोरों से उठाया जा रहा है। 'कर्बला दर कर्बला' का सिलसिला रुकना चाहिए। मगर कैसे? 

इसी बेचैनी में इस उपन्यास की सार्थकता है। 

- न जो, 09 अक्टूबर 2025