Wednesday, November 25, 2009

वह सिंघाड़े और यह जीवन

वह सिंघाड़े और यह जीवन

0नवीन जोशी

बरेली से वापस लखनऊ लौट रहा था, सड़क से। रोजा (शाहजहाँपुर) की रेलवे क्रासिंग बंद थी। जैसे ही हमारी गाड़ी बन्द फाटक पर रुकी, दो लड़के दोनों तरफ की खिड़कियों से पॉलीथिन में भरे सिंघाड़े दिखा-दिखाकर खरीद लेने की मनुहार करने लगे। ताजा तोड़े गए सिंघाड़े देखकर मुंह में पानी भर आया। तुरन्त एक लड़के से पॉलीथिन पकड़ लिया। इससे पहले कि दाम चुकाता, एक झटके से सिंघाड़े वाला पॉलीथिन उसे वापस पकड़ा दिया-‘नहीं चाहिए, बिल्कुल नहीं।’

लड़का भौंचक कि क्या हो गया-‘साहब ले लो, बिल्कुल ताजा हैं, खाकर देखो साहब।’
-‘नहीं लेना बच्चा, जाओ’। हमने तुरन्त खिड़की का शीशा चढ़ा लिया।

सिंघाड़े का स्वाद अब भी जीभ पर आ रहा था। बचपन से ही सिंघाड़े मुझे बहुत पसंद हैं। किलो भर सिंघाड़े मिनटों में चट कर जाते थे। छीलते-छीलते नाखून दर्द करने लगते मगर सिंघाड़ों से मन नहीं भरता था। सड़क किनारे उबले सिंघाड़े बिकते जहाँ कहीं देखता, झटपट खरीद लेता। साथ में तीखी हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी रद्दी अखबार के एक टुकड़े पर मिलती थी। इस चटनी के साथ उबले सिंघाड़े गजब का स्वाद देते। जीभ चटखारे लेती। उबले सिंघाड़े सड़क के किनारे अब भी बिकते हैं और साथ में चटपटी हरी चटनी भी, लेकिन मैं मुंह मोड़ लेता हूं। क्या हो गया है अब ? सिंघाड़े वही हैं-वैसे ही स्वाद भरे-कच्चे/उबले, हरी चटनी भी वैसी ही जायकेदार, मगर मैं बदल गया हूं।

उस दिन रेल के बन्द फाटक के पास ताजा सिंघाड़े चाहकर भी इसीलिए नहीं खरीद पाया कि उन्हें धोने के लिए ‘पोटाश’ कहां रखा था! हाँ, अब सिंघाड़े खरीद कर घर लाए जाते हैं, घण्टों पोटाश (पोटेशियम परमैगनेट) में भिगोए जाते हैं और तब चाकू से छीलकर खाए जाते हैं। वह दिन गए जब सड़क किनारे खरीदकर दांतों से छीलकर मजे से खाए जाते थे। तालाब के गंदे पानी की काई सिंघाड़ों में चिपकी रहती थी पर कोई चिन्ता नहीं होती थी, उन दिनों को हमने क्यों जाने दिया? यह नफासत कहाँ से और क्यों चली आई ?

याद करता हूं उन मस्त दिनों को जब ‘गंदगी’ या ‘इन्फेक्शन’ की कोई चिन्ता नहीं होती थी। मिट्टी-कीचड़ खेल और आनन्द का हिस्सा थे। स्कूल आते-जाते प्यास लगी तो म्युनिसपलिटी के नल, बम्बा कहते थे हम उन्हें, बड़ा सहारा होते थे। नल खोला, चुल्लू लगाया और गटागट पानी पी गए। पार्क में खेलते-खेलते प्यास लगी तो घास सींचने के लिए लगा पाइप उठाकर सीधे मुंह में धार गिराते थे। सब ऐसा ही करते थे और कोई किसी को नहीं टोकता था। ‘पानी की बोतल’ से कोई परिचित नहीं था। आज पानी की बोतल के बिना न बच्चे स्कूल जाते हैं, न हम दफ्तर या यात्रा पर।

तब यात्रा के दौरान प्यास लगी तो प्लेटफार्म का नल जिन्दाबाद। ट्रेन रुकी, प्लेटफार्म पर दौड़ लगाई, नल से चुल्लू लगाकर पानी पिया, किसी सहयात्री दादी का गिलास भी भरकर थमाया और दौड़कर ट्रेन पर चढ़ लिए।

आज हम जगह-जगह ‘बिसलेरी’ यानि बोतल बंद पानी खरीदते हैं या घर से पाँच लीटर का कंटेनर लेकर यात्रा पर जाते हैं। पानी की बोतल हर वक्त का जरूरी सामान हो गई है और हर बार उसकी सील पर सन्देह करना भी अनिवार्य हो गया है। बच्चे के भारी स्कूल बस्ते के साथ पानी की बोतल का वजन भी बढ़ गया है। बच्चा स्कूल के नल से पानी पी ले तो उसे डाँट पड़ती है और डॉक्टर के पास ले जाया जाता है।

मैंने बड़ी इच्छा के बावजूद उस दिन सिंघाड़े इसलिए नहीं खाए कि बिना पोटाश से धोए इन्फेक्शन हो जाने का डर बड़ा हो गया था। अब हर चीज में शंका होती है-फल में, सब्जी में, पानी में, दवा में भी।

तमाम शंकाओं से घिरे हम कितने सतर्क हो गए हैं! पानी भी हमें डराता है और मासूम-सा सिंघाड़ा भी। अब हम सड़क किनारे खीरा या ककड़ी कटवाकर नमक के साथ खाने का स्वाद सिर्फ याद करते हैं, बरफ के टुकड़े पर रखे ‘ठण्डे-ठण्डे-लालो-लाल’ तरबूज के कटे टुकड़े से दूर भागते हैं और गन्ने के ताजा रस को पीलिया का पर्याय मानते हैं।
यह कैसा हो गया है हमारा जीवन और किसने इसे ऐसा बना दिया है?

1 comment:

Pratibha Katiyar said...

are wah..maza aa gaya padhkar...