गौरैया को बचाने की एक पहल शुरू हुई है। 20 मार्च 2010 को पहली बार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया। अच्छा है कि इस धरती पर और हमारे जीवन में गौरैया चहकती रहे। दरअसल गौरैया हमारी घरेलू चिड़िया है। हमारे घरों में और आस-पास ही रहती है, खिड़की और दरवाजे पर बैठकर चहकती है, आंगन में फुदकती है और चावल का दाना बीनने बड़े अधिकार से रसोई में चली आती है। वह हमारे देखते-देखते रोशनदान या आले या चौखट के कोटर में घोंसला बना लेती है और उसकी चहचहाहट हमारी दैनंदिन बातचीत में तानपूरे-सी शामिल रहती है।
लेकिन मैं ‘है’ क्यों कह रहा हूं? गौरैया भी अब लुप्तप्राय है। विरले ही दिखती है। मैं पिछले बाइस वर्षों से जिस तरह के मकानों में रह रहा हूं, उसमें गौरैया के लिए कोई जगह नहीं है । गौरैया बड़े पेड़ों पर नहीं रहती, जंगलों में भी नहीं। वह हमारे आस-पास रहना चाहती है और हमारे मकानों से धन्नियां, भीत, आले, छज्जे, कोटर, रोशनदान सब गायब हो गए। वह कहां घोंसला बनाए और कहां से हमारे जीवन में झांके!
बीती 29 जनवरी, 2010 को हमने ‘हिन्दुस्तान’ के इलाहाबाद संस्करण की वर्षगांठ मनाई थी। अगली सुबह थोड़ा समय मिलने पर मैं मशहूर कथाकार शेखर जोशी से मिलने चला गया। वे इलाहाबाद के लूकरगंज में टण्डन जी के हाते में रहते हैं- वर्षों से। उस दिन वहां कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे भी मिल गए। हम लोग बातें कर ही रहे थे कि सहसा मुझे लगा, हमारी चर्चा में एक प्यारी चहचहाहट भी शामिल है। नजरें घुमाई तो बैठक और भीतर के कमरे के बीच वाले दरवाजे की चौखट में बन गए एक छोटे कोटर से गौरैया झांक रही थी। ‘अरे, गौरैया!’ मैं साहित्य चर्चा भूलकर पुलकित हो उठा। सच कहता हूं, मैंने उस दिन कई साल बाद गौरैया देखी। उसका पूरा परिवार वहां था- कोई दरवाजे पर, कोई खिड़की पर। तब मैंने मकान पर गौर किया। वह धन्नियों, आलों, रोशनदानों और आंगन वाला पुराना मकान है। पूरे हाते में बड़े-बड़े पेड़ हैं। गौरैया इतमीनान से उड़कर बाहर जाती है, अहाते में निश्चिन्त उड़ती है और जब मन किया खुले दरवाजों-खिड़कियों-रोशन दानों से भीतर चली आती है। मैं गौरैया देख पाने से बहुत उत्साहित हो गया था और शेखर जी मुझे बताने लगे कि यहां तो खूब चमगादड़ भी हैं जिन्हें घर के भीतर से बाहर भगाने के लिए हमने बैडमिण्टन का रैकेट रखा हुआ है। इलाहाबाद का वह ‘टण्डन जी का हाता’ अभी तो सरल हृदय मनुष्यों के साथ-साथ वृक्षों, वनस्पतियों, गौरैयों, चमगादड़ों और अन्य पक्षियों से गुलजार है। ‘विकास’ की अन्धी दौड़ में कभी वहां भी अपार्टमेण्ट जरूर बनेंगे और तब कैसे बचेगी और कहां चहकेगी गौरैया?
लखनऊ की जिस कैनाल-कालोनी में मैंने बचपन और जवानी के दो-ढाई दशक बिताए वह भी एक बड़ा हाता था। कमरे में खिड़की थी, रोशनदान भी और आंगन भी। चारों तरफ पेड़ थे। नीम, अमरूद और छोटी झाड़ियां भी। गौरैया निस्संकोच वहां आती-जाती-रहती थीं। हम पढ़ते या सोते होते तो वह धीरे से रोशनदान से चहकती-जैसे कुछ कह रही हो। वह हमारी रसोई में चावल का बिखरा दाना उठाने ऐसे आती जैसे उस पर उसी का नाम लिखा हो। बचपन में हमने खिड़की-दरवाजे-रोशनदान बन्द करके तौलिये से गौरैया पकड़ी हैं और स्याही या स्कूल के कलर-बॉक्स से उनके पंख रंगे हैं। मुहल्ले भर के बच्चे मिलकर यह खेल-खेलते थे। हर बच्चा अपनी गौरैया अलग रंग से रंगता और फिर उन्हें छोड़ दिया जाता। उनके पंखों का रंग कई दिन तक मेरी-तेरी-उसकी गौरैया की पहचान बनकर हमारे आस-पास मंडराता रहता। कुछ बच्चे गौरैया के पैर में पतंग का धागा बांधकर उड़ाते मगर वे बड़ों से खूब डांट खाते। यह खेल क्रूर माना जाता था।
घरों के भीतर गौरैया की स्वच्छन्द उड़ान पर पहला हमला बिजली के पंखों ने किया। कैनाल कालोनी वाले हमारे क्वार्टर में 1973 तक बिजली नहीं थी, लेकिन जब हम बिजली वाले मकान में रहने गए तो तेज रफ्तार पंखे से टकराकर गौरैया घायल होने लगीं। ‘थच्च’ की आवाज आती और तड़पती गौरैया कमरे के फर्श पर पड़ी होती। सारा घर विचलित हो जाता। कमरे में उड़ती गौरैया देखकर घर के सभी लोग पंखा बन्द करने दौड़ते। अक्सर, हवा के झौंके के साथ रोशनदान से गौरैया का पूरा घोंसला नीचे आ गिरता। कभी अण्डे फूट जाते और कभी मासूम-लिजलिजे-पंखविहीन बच्चे को नीचे गिरा देखकर गौरैया चीं-चीं-चीं कर पूरा घर सिर पर उठा लेती। कभी झाड़ू लगाने में चीटियों की कतार गौरैया के मरे बच्चे का पता बताती। गौरैया के दुख में घर-भर शामिल होता।
प्रकृति से, प्रकृति की सुन्दर रचनाओं से, जीव-जन्तुओं से मनुष्य का यह साझा अब नहीं रहा।
हाते पट गए, पेड़ कट गए, पुराने घर-आंगन तोड़कर अपार्टमेण्ट बन गए। एसी, वगैरह ने रोशनदानों की जरूरत खत्म कर दी और खिड़की-दरवाजे सदा बन्द रखने की अनेक मजबूरियां निकल आईं। कीटनाशकों-उर्वरकों ने कीट-पतंगों और पक्षियों पर रासायनिक हमला बोल दिया। प्रकृति से दूर होते जाते हमारे जीवन से बहुत कुछ बाहर चला गया। गौरैया भी।
अब यह सब सिर्फ यादों में है। मेरे बच्चे गौरैया को नहीं पहचानते। उनके बचपन में गौरैया का खेल और चहचहाना शामिल नहीं रहा। नीची छतों और आंगन विहीन घरों में गौरैया नहीं आती। बहुमंजिला अपार्टमेण्ट्स के आधुनिक फ्लैटों में गौरैया की जगह नहीं और इन फ्लैटों के बिना हमारा ‘विकास’ नहीं।
गौरैया को बचाने की, घरों में उसे लौटा लाने की नेक और मासूम पहल का साधुवाद। लेकिन गौरैया की चीं-चीं-चीं किस खिड़की, किस रोशनदान, किस आंगन और किसी धन्नी से हमारे घर में लौटेगी?
3 comments:
विश्व गौरेया दिवस की शुभकामनाएँ.
सर गोरैया पर आपका लेख अच्छा लगा।
गौरैया के लिए आप का वक़्त फिर चाहिए
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