नवीन जोशी
‘नैनीताल समाचार’ की फाइलें पलट रहा था। पीले और भुरभुरे हो चुके पन्नों से गिर्दा महकने लगे। ‘अच्छा ऐसा ऽऽऽ!’ कहकर गिर्दा किसी पन्ने के बीच से चहकने लगते, ‘हड़ि ’ कहकर जैसे पूरी व्यवस्था को दुत्कारने लगे। ‘शिबौ-शिब’ उच्चार कर सत्ताधारियों की खिल्ली उड़ाने लगते। किसी शीर्षक से उनका रौद्र रूप प्रकट होता तो होली के बोलों पर आधारित कोई हेडिंग हिया में कुरकुताली लगाने लगती। नंदप्रयाग में गोली चलती तो गिर्दा की गजल-गोली ‘समाचार’ के पन्नों से जवाबी फायर करने लगती- ‘गोलियाँ कोई निशाना बाँधकर दागी थीं क्या/खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें।’ कहीं फैज, कहीं साहिर, कहीं कबीर, कहीं नजीर, कहीं गौर्दा, कहीं सीधे लोक से बनाए गए प्रयोग-‘जब से दशरथ ललन एम पी हो गए, हुए कृष्ण एमएलए तो मैं क्या करूं…।’ अभिव्यक्ति को सटीक और मारक बनाने के लिए कहाँ-कहाँ उड़ जाता था गिर्दा और क्या-क्या चुन लाता था….। ट्रेडिल प्रेस पर छपने वाले अखबार में पीतल के रूल को मोड़-मरोड़ कर देश का नक्शा छापने की जिद वही सफल करा सकता था।
पर यह तो बहुत बाद की बातें हैं।
मैंने पहले-पहल गिरीश तिवाड़ी को 1971 में आकाशवाणी, लखनऊ के स्टूडियो में देखा था। कुमाउंनी-गढ़वाली बोली का ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम, स्वतंत्रता दिवस, वसंत पंचमी आदि मौकों पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक कवि गोष्ठी आयोजित किया करता था। वह ऐसी ही एक कवि गोष्ठी थी, जिसके बारे में मुझे चन्द्रशेखर पाठक नामक उस लम्बे-पतले युवक ने बताया था जो पीडब्ल्यूडी में दिहाड़ी पर क्लर्की करते हुए संयोग से हमारी कैनाल कालोनी में सनवाल जी के कमरे में रहने आ गए थे और जो कुछ समय बाद दफ्तर में किसी बात से आहत होकर, अस्थाई नौकरी को लात मार कर वापस अल्मोड़ा लौट गए थे और कालान्तर में इतिहासविद प्रो. शेखर पाठक के नाम से विख्यात हुए।
खैर, तो ‘उत्तरायण’ की कवि गोष्ठी में उस शाम बृजेन्द्र लाल साह, पार्वती उप्रेती, चारु चन्द्र पाण्डे, लीलाधर जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल, गोपाल दत्त भट्ट आदि के बीच एक गिरीश तिवाड़ी नाम्ना सुदर्शन कवि भी थे, जिन पर तब तक ध्यान नहीं गया था जब तक कि कविता सुनाने की उनकी बारी नहीं आ गई। उन्होंने उस दिन अपनी ‘वसंत’ कविता सुनाई, बल्कि गाई- ‘रात उज्याली, घाम निमैलो, डान-कानन केसिया फुलो। हुलरी ऐगे वसंत की परी, फोकीगो जाँ-ताँ रंग पिंहलो ऽऽऽ…।’ उनके मीठे गले ने, गीत ने, शब्दों को उच्चारने, हाथों को नचाने और चेहरे पर वसंत का उल्लास उतार लाने के अंदाज ने उस दिन आकाशवाणी, लखनऊ के पुराने स्टूडियो के कक्ष नंबर एक में बीस-पच्चीसेक श्रोताओं के बीच वह समा बाँध दिया था जिसे कहते हैं-महफिल लूट लेना!
मुझे याद है, उस दिन आमंत्रित कवियों को दो दौर में अपनी कविताएँ पढ़नी थीं। रिकॉर्डिंग का समय निर्धारित था। वंशीधर पाठक जिज्ञासु और जीत जरधारी की जोड़ी बारी-बारी से संचालन कर रही थी। 40-45 मिनट की निर्धारित अवधि में रिकार्डिंग पूरी कर गोष्ठी का औपचारिक समापन कर दिया गया था, लेकिन अपनी बोलियों के काव्य-रस से सराबोर प्रवासी श्रोता और भी सुनना चाहते थे। सो, रिकार्डिंग बन्द करने के बाद देर तक गोष्ठी चलती रही। चारु चन्द्र पाण्डे, जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल और गोपाल दत्त भट्ट की उस दिन सुनी कुमाउंनी-गढ़वाली कविताओं की मुझे आज थोड़ी-थोड़ी याद है। लेकिन गिरीश तिवाड़ी की कविताएँ ही नहीं, उनका उस दिन का पूरा गेट-अप भी स्मृति में जस का जस टँगा हुआ है। इसका एक कारण यह भी जरूर होगा कि कालान्तर में उनसे संबंध प्रगाढ़ होने पर वे कविताएँ कई बार सुनीं लेकिन उस दिन काली टोपी, गोरे मुखड़े पर करीने से बनी घनी काली दाढ़ी और काली शेरवानी में सबसे अलग और खूब फब रहे गिरीश तिवाड़ी की वह छवि मन से कभी उतरी ही नहीं। तब भी नहीं जबकि बाद में वे बिल्कुल अराजक, बल्कि अघोरी जैसा जीवन जीने लगे थे और हम सबके आत्मीय हो चुके फक्कड़ गिर्दा का उस सुदर्शन कवि गिरीश तिवाड़ी से रिश्ता जोड़ना अकल्पनीय जैसा लगने लगा था। हाँ, अपने फक्कड़पन के शुरूआती दिनों में भी गिर्दा को अपनी दाढ़ी से कुछ-कुछ लगाव रह गया था और तल्लीताल डाँठ के नुक्कड़ वाली नाई की दुकान में कभी-कभार वे लखनउवा खत बनवा लिया करते थे। नाई की दुकान के ठीक बगल में कबाब की दुकान भी हुआ करती थी, जहाँ से गाहे-ब-गाहे कबाब खाना-खिलाना भी उन्हें पसंद था।
तो, 1971 की उसी कवि गोष्ठी में गिर्दा ने अपनी ‘चिट्ठी’ कविता भी सुनाई थी, जिसने पहाड़ की नराई में व्याकुल रहने वाले मुझ किशोर को भीतर तक छू लिया था। अपने घर-गाँव और इजा-दीदी की नराई फेरने के लिए मैं तब अपने कमरे के एकान्त में कागज काला किया करता था। कविता, कहानी, उपन्यास से मेरा कोई वास्ता पड़ा न था। उस दिन जब गिर्दा ने सुनाया-‘पै के करूँ, पापी पेटैल् छोड़ै दे म्योर मुलुक मैथैं/नन्तर क्वे काटि लै दिनो मैं कैं ताँ नि छोड़न्यू मैं’ तो मेरी नराई को जैसे किसी ने वाणी दे दी हो। वहाँ उतने लोग न होते तो मैं शायद रो ही पड़ता।
कवि गोष्ठी के बाद सब लोग कवियों को बधाई दे रहे थे, बात कर रहे थे। परम संकोची मैं एक कोने में खड़ा गिरीश तिवाड़ी को देखे जा रहा था और उनसे बात करना चाहता था। चन्द्रशेखर पाठक शायद उस शाम वहाँ पहुँच नहीं पाए थे। किसी तरह हिम्मत करके गिरीश तिवाड़ी के पास गया और ‘चिट्ठी’ कविता की बाबत पूछने लगा। वे बहुत स्नेह से मिले थे, जैसा कि उनका स्वभाव अन्त तक सबके लिए बना रहा। प्यार से बोले थे-‘‘भुला, एक किताब छपी छु-शिखरों के स्वर। वी में छु ये चिट्ठी। तु जिज्ञासु ज्यु थैं माँगि ल्हिये। उनार पास छन किताब।’’
जिज्ञासु जी से भी इतना परिचय कहाँ था। उस कवि गोष्ठी की मीठी स्मृतियाँ और ‘चिट्ठी’ कविता की कसक मन में भरे लौट गया था। उस दिन से मैं भी उसी तरह की कविताएँ-गीत लिखने की कोशिश करने लगा था, हालाँकि एक भी पंक्ति कायदे की नहीं बनती थी। लेकिन तब तो यही लगता था कि बस, अब बन ही गया कवि…..।
कुछ समय बाद जिज्ञासु जी से परिचय भी चन्द्रशेखर पाठक ने ही करवाया, जो तब तक मेरा शेखर दा या ददा बन चुका था। शेखर दा तब दफ्तर से बचे समय में कहानी-कविता लिखता, दिनमान पढ़ता और नाक की डण्डी में उग आए एक दाने को अंगुली से लगातार घिसता हुआ अरविन्दो या चे ग्वेवारा की, मेरे लिए अबूझ-सी किताबों, में डूबा रहता था। बीच-बीच में मैं उसे अपने रचे ‘महान साहित्य’ से तंग किया करता था। शेखर दा का साल भर या शायद आठ-दस महीने ही लखनऊ के हमारे मुहल्ले में रहना मेरे लिए दिशा-निर्देशक बन गया।
जब शेखरदा पहाड़ लौट गया और अल्मोड़ा महाविद्यालय से इतिहास में एम.ए. करने लगा तब भी ‘लक्ष्मेश्वर, अल्मोड़ा’ से उसके पोस्टकार्ड बराबर आते रहते। जब भी वह लखनऊ आता मुझसे मिलने कैनाल-कालोनी जरूर आता। एक बार उसके साथ युवकों की पूरी टोली ही थी। अपने ही अंदाज में शेखरदा ने परिचय कराया-‘ये शमशेर सिंह बिष्ट, अध्यक्ष हैं अल्मोड़ा डिग्री कालेज छात्र संघ के। ये विनोद जोशी-महामंत्री, ये हरीश जोशी…।’ पहाड़ के उन ऊर्जावान युवकों से मिलना रोमांचक अनुभव था। वे पहाड़ के किसी विधायक के यहाँ रॉयल होटल में रुकते थे, जो आकाशवाणी भवन के पड़ोस में ही था। मैं अधिक से अधिक समय उन युवकों के साथ बिताता.
एक बार ऐसा संयोग हुआ कि गिरीश तिवाड़ी आकाशवाणी के कवि सम्मेलन में आए और अल्मोड़ा से शमशेर, आदि भी विधायक निवास में ठहरे थे। उस पहली कवि गोष्ठी को दो-तीन बरस हो गए थे। ‘चिट्ठी’ कविता मन में गूँजती रहती थी और जिज्ञासु जी से ‘शिखरों के स्वर’ माँगने की हिम्मत पड़ी न थी। उस बार मैंने अपने प्रिय कवि से ही कहा-‘गिर्दा, शिखरों के स्वर मुझे मिली नहीं।’ उन्होंने क्या कहा मुझे याद नहीं। कवि सम्मेलन के तुरन्त बाद मैं शमशेर के साथ कहीं चला गया। गिर्दा बाद में शमशेर से मिलने गए होंगे मगर कमरे में कोई नहीं मिला। गिर्दा को उसी रात वापस लौटना था। दो चार दिन बाद जब मेरी जिज्ञासु जी से भैंट हुई तो वे मुझे अपने घर ले गए और एक किताब मुझे दी। किताब का नाम था-‘शिखरों के स्वर।’ मैं बहुत खुश हो गया। किताब खोली तो उसके भीतर एक छोटा सा पत्र रखा था-
‘प्रिय नवीन! शम्भू कैं चाँण हूँ वीक कमार में गैयाँ, उ नि मिल। उ थैं कै दियै गिरदा न्है गो कै। त्वील ‘शिखरों के स्वर’ जिज्ञासु दाज्यू थैं मांङी न्हैं। मांङि ल्हियै। बाँकि फिर भैंट हुण पर। पहाड़ आलै तो भैंट करियै।’
पत्र के नीचे हस्ताक्षर थे जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे लेकिन समझना भी मुश्किल नहीं था कि किसके हैं। ‘ग’ में खूब लहरदार होकर काफी ऊपर तक चली गई छोटी ‘इ’ की मात्रा से शुरू हुए वे हस्ताक्षर बाद में हमारे बहुत अजीज दस्तखत बने। वह चिट्ठी ‘शिखरों के स्वर’ की उस प्रति में आज तक मेरे पास सुरक्षित है। उसमें तारीख नहीं पड़ी है लेकिन यह शायद 1975 की बात है।
आज वह चिट्ठी देखता हूँ तो पाता हूँ कि अंत तक गिर्दा का हस्तलेख और हस्ताक्षर वैसे के वैसे बने रहे। सिर्फ ‘गिरीश’ हस्ताक्षर में भी बदल कर ‘गिर्दा’ हो गया, बस। लम्बी चिट्ठियाँ तो उसने शायद ही कभी लिखी हों, लेकिन छोटी-छोटी चिट वह खूब लिखता था। बिल्कुल जुदा अंदाज में ‘अ’ लिखना और मात्राएँ खींचना। लिखता बहुत तबीयत से था वह और हाँ, कलम भी बहुत प्रिय थे उसे। कलम की भेंट वह बहुत लाड़ से स्वीकार करता था और नए कलम से कागज में इधर-उधर अपने हस्ताक्षर करके खुश हो जाता था। उसकी जेब में कलम न लगा हो, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो।
इतने वर्षों में उसके लिखे चिटों में सिर्फ एक फर्क आया था-‘प्रिय नवीन’ का संबोधन ‘नबुवा’ या ‘नब्बू’ में बदल गया था। ज्यादा लाड़ में हो तो ‘स्साले नबुवा!’ काफी दिनों बाद मिलने पर कस कर गले लगाते हुए ‘तुमर नष्ट है जौ, तुमर’ तो उसने कहना ही ठैरा! यह उसके लाड़ जताने का तरीका था। यह अद्भुत बात है कि रचनाकार गिर्दा का मूल स्वर प्रखर प्रतिरोधी और बेमुरव्वत था लेकिन इन्सान गिर्दा के भीतर बेपनाह मुहब्बत का दरिया बहता था और कोई एक या कुछेक ही उसके दावेदार न थे। वह सबको हासिल था। और इश्क ? हाँ, उसे इश्क भी हुआ था और उसकी चोट उसमें बहुत गहरे टीसती रहती थी लेकिन इसका जिक्र करना तो दूर, वह अपने बारे में ही कहाँ कुछ बताता था। यह बात फिर कभी।
बाद के वर्षों की तो बेशुमार यादें हैं, एक-दूसरे में गुँथी और झंझावात की तरह दिमाग में बवण्डर मचाती हुईं। इस बवण्डर के शांत होने में काफी समय लगेगा।
अभी तो एक रील सी है। एक कोलाज, एक मोन्ताज सा। नैनीताल में पहले प्रमोद साह के साथ का कमरा, फिर नैनीताल क्लब के नीचे वाली वह ऐतिहासिक कोठरी और उसमें भी राजा की रसोई और रात गए तक गिर्दा का हारमोनियम, हारमोनियम तक पहुँचने से पहले की बेहिसाब बहसें और मयनोशी। ‘नैनीताल समाचार’ की उत्तेजक और झगड़ा-मचाऊ बैठकें, तर्क-वितर्क, ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन के दौर की यात्राएँ, अल्मोड़ा में शमशेर की कोठरी का रात्रिवास, नाटक की वे रिहर्सलें और अभिनव प्रयोग। नाटक या कविता या लोकगीतों की किताबें छापने की ऐसी योजनाएँ जो उनके गीत-संगीत का कैसेट बनाकर आखिरी जिल्द की जेब में रखने की कल्पना तक जाती थी, हालाँकि तब तक ऐसे प्रयोग हमारे देखने में नहीं आए थे। हर प्रस्तुति को उसके सभी पक्षों में सम्पूर्णता तक ले जाने की उसकी जद्दोजहद। कभी अचानक, गीत-नाटक प्रभाग के दौरों के बीच से उसका आधी-आधी रात को लखनऊ आना, बदहवासी में थोड़े-बहुत पैसे का जुगाड़ और उसी तरह लौट जाना।
कभी फुर्सत से लखनऊ आना तो सारी-सारी रात बैठे-लेटे-पसरे भीतर के रचनात्मक बाँध का फूटते जाना। ‘उठो, अब चलो,’ कहने पर वह शायराना अंदाज ‘…..जरा खुद को बटोर लूँ तो चलूँ…। जाने कहाँ-कहाँ बिखरा पड़ा हूँ …..लेकिन समेटू कैसे, नबू’। पहाड़ी होलियों की एक विशद मंचीय प्रस्तुति लखनऊ में करने की वह तमन्ना, जिसमें मंच तीन स्तरीय होना था। एक स्तर बैठी होली का, दूसरा खड़ी होली का और तीसरा महिला-होली का और तीनों की प्रस्तुतियों का सिंक्रोनाइजेशन…..। रचनात्मकता की ऐसी उड़ानें जो कभी बहुत अव्यावहारिक लगतीं तो कभी दुस्साध्य और कभी खिझाने वाली भी। मगर साथ में यह टेर भी-‘गो कि हमारी बात मानना कतई जरूरी नहीं, हाँ!……रिजेक्ट करो स्साले को अगर बात में दम नहीं है तो…।’ अपने समय से बहुत आगे का उसका चिंतन!
इन बिन्दास बैठकों-बातों में वह जितना डूबता जाता, उतना ही उसका कलाकार, उसका विचारक, उसके भीतर बैठा आलोचक प्रखर होता जाता वह बोलता-बजाता-गाता जाता और हम जैसे लहरों पर तैरते रहते। नशा गिर्दा को डबल गिर्दा बना देता था। दरअसल वह सिर्फ नशा करना नहीं होता था। शराब उसकी रचनात्मकता को भड़का देती थी हालाँकि अति तक भी जाती थी। तब उसको रोकना-टोकना बेकार ही जाता। हम अक्सर सोचते, इस समय टेप रिकार्डर होना चाहिए था। लेकिन हर बार हम चूक जाते। गिर्दा इतना करीब था कि कभी उसका ठीक-ठाक इण्टरव्यू भी करने की हमने नहीं सोची। उसके पास इतना खजाना था कि उसे सँजोने की अच्छी से अच्छी योजनाएँ ही बनती रह गईं। हमेशा लगता था, गिर्दा तो यहीं है। जा कहाँ रहा है!
वह लखनऊ में ही था, दस साल पहले जब उसे दिल का दौरा पड़ा था। सुबह 10 बजे उसे दिखाने पीजीआई ले जाना तय था। नौ बजे प्रेस क्लब से फोन आया कि गिर्दा जी के सीने में बहुत दर्द है, आप फौरन आइए। वह प्रेस क्लब में ही ठहरना पसन्द करता था। घरबारी हो जाने के बावजूद घरों के लिहाज और बंदिशें उसे पसन्द न थे। प्रेस क्लब में भी पत्रकारों से कहीं ज्यादा वहाँ के कर्मचारियों से उसका याराना रहता था। सो, उस सुबह रंगलाल ही उसे रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले गया था, हमारे पहुँचने से पहले।
दिल अच्छा-खासा घायल हो चुका था और शरीर कुछ शिथिल पर गिर्दा का दिमाग और भी तेज चलने लगा था। ‘रयूमेटाइड आर्थ्राइटिस’ ने उसे बहुत तंग किया, पंगु बना देने की हद तक। दवाओं के दुष्प्रभावों ने उसे जितना हो सकता था, सताया परन्तु वह शरीर की गुलामी मानने वाला जीव था ही नहीं। वह विचारों की स्वच्छन्द और रचनात्मक उड़ान वाला परिन्दा था, हमेशा चैतन्य और रचनारत। इसीलिए हम सबको लगता था कि वह कमजोर तो है पर ठीक है। हीरा भाभी की सेवा-टहल ने उसे जिस तरह सँभाला था, उससे भी हमारी आश्वस्ति बढ़ती ही थी।
पेट में अल्सर फटने से वह बेहद तकलीफ में रहा होगा लेकिन एम्बुलेंस में नैनीताल से हल्द्वानी ले जाए जाते समय भी फोन पर मुझसे कह रहा था-‘ठीक हूँ….चिंता मत करना…दास बाबू ( लखनऊ मेडिकल कालेज के डा. सिद्धार्थ दास जो उसकी गठिया का इलाज कर रहे थे) को बता देना…..।’
हम सबकी तरह खुद उसे भी अस्पताल से ठीक-ठाक लौट आने का पक्का भरोसा रहा होगा। वह यूँ चला जाने वाला जीव था ही नहीं। लेकिन देखो, एकदम सटक गया। पिछले कुछ समय से फोन पर बात खत्म करते हुए वह कहा करता था-‘घर में सबको मलास देना, पलास देना। मेरे हाथों से अपने गाल मलास लेना। नबुआ, मैं ठीक हूँ। मेरी चिंता मत करना। फिर बात होगी। ओक्के। ’
ओक्के, गिर्दा। ओक्के।
अब क्या कहें, सृष्टि के नियम से परे तो तुम भी नहीं थे न!
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गिर्दा पर इतना सटीक ब्लॉग! मैं तो एक सांस में पढ़ गया. कंही मिला तो नहीं था उनसे पर ब्लॉग पढ़ कर ऐसा लगा कि कहीं आस-पास ही हैं. समय की बात है नवीन जी कि अभि तुम्हारे पास नए सृजन का समय नहीं है, पर मैं जनता हूँ मौका मिलते ही बहुत कुछ लिखोगे. समस्त शुभकामनायें.
सर, गिर्दा जी के बारे में आपके नैनीताल जाने के दूसरे दिन हिंदुस्तान में ही पढ़ा था. लेकिन आपके ब्लॉग से उनके जीवन और कार्यशैली की जानकारी हो सकी. धन्य थे गिर्दा जी जो हमेशा दूसरों को खुश देखना चाहते थे. आप को भी बधाई कि आपने काफी कम शब्दों में उनके बारे में बहुत कुछ लिख दिया.
सच बताउँँ, गिर्दा से मेरा परिचय आपके उन पर लिखे लेखों द्वारा ही हुआ है। आपने इतना सजीव वर्णन किया है गिर्दा और उनके कार्यकलापों का कि यदि वे अचानक मेरे समक्ष आ जायें, जो कि सम्भव नहीं है, तो मैं उन्हें पहिचान लूँ और निस्संकोच उनसे ढेरों बातें भी कर लूँ। उन पर आपका एक अन्य लेख भी मैने पढ़ा था। वह भी बहुत अच्छा था। गिर्दा मु झे पहाड़ के भूपेन हजारिका या उनसे कुछ ज्यादा से लगते हैं क्योंकि गिर्दा जन आन्दोलनों से भी जुड़ते हैं और जनमानस से जबकि भूपेन हजारिका का कार्य शैली उन्हें व्यवसायिक सा भी बनाती है।
सुन्दर लेख !
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