पिछले दिनों मथुरा काण्ड के बाद भी इस सवाल ने सिर उठाया कि
आईएएस-आईपीएस अधिकारी नेताओं की जन विरोधी कुटिल चालों और स्वार्थी अभियानों में
सहयोगी बनने की बजाय उन्हें ‘न’ क्यों नहीं कहते.
अगर ये अनैतिक, गलत आदेशों को मानने से इनकार कर दें तो बहुत
सारी गड़बड़ियां रोकी जा सकती हैं. हमारे प्रशासनिक तंत्र की असली कुंजी इन
अधिकारियों के हाथ में है. वे चाहें तो नियम विरोधी आदेश को भी रोका और दुरुस्त
किया जा सकता है. अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब वरिष्ठ अधिकारियों ने मुख्यमंत्री
तक के नियम विरोधी आदेश को मानने से इनकार किया. आजादी के तत्काल बाद ऐसे मंत्री
हुए जो अधिकारियों की ‘न’ का सम्मान
करते थे. बाद में ऐसे नेताओं की पीढ़ी आ गई जो एक अधिकारी की ‘न’ सुनकर दूसरे अधिकारी की मार्फत गलत काम करा ले
जाती रही. इस तरह इनकार करने वाले अधिकारी का सम्मान बना रहता था. फिर ऐसे नेता आ
गए जो ‘न’ सुनने ही को तैयार नहीं. वे
ऐसे अफसरों का तबादला करके ‘आज्ञाकारी’ अफसरों की तैनाती करने-कराने लगे. इस दौरान ‘न’
कहने वाले अफसरों की संख्या लगातार कम होती रही जबकि ‘आज्ञाकारी’ अधिकारियों की संख्या तेजी से बढ़ती गई.
उन्होंने नियम-कानूनों की परवाह न कर धारा में शामिल हो जाना सीख लिया.
नेताओं-मंत्रियों के नियम-कानून विरोधी आदेशों के पालन से
इनकार करने वाले अफसरों का सरकार क्या बिगाड़ सकती है? इसका उत्तर हम आईपीएस अधिकारी,
फिलहाल आईजी अमिताभ ठाकुर के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते हैं.
यहां स्पष्ट कर दूं कि अमिताभ ठाकुर के बहुत सारे कदमों से हमारी असहमति है लेकिन
वे इस बात के सबसे अच्छे उदाहरण हैं कि नेताओं की कुटिल चालों का सार्वजनिक रूप से
और अदालतों तक जाकर विरोध करने वाले अधिकारियों का भी सरकार कुछ नहीं बिगाड़ सकती,
कम से कम उनकी नौकरी को कोई खतरा नहीं होता. उन्हें बहुत दिन तक
निलम्बित भी नहीं रखा जा सकता. ज्यादा से ज्यादा उन्हें सबसे शुष्क और बेकार मानी
जाने वाली तैनातैयां दी जा सकती हैं लेकिन बेहतर काम करने की गुंजाइश उनके लिए
वहां भी बनी ही रहती है. बस, उनकी अतिरिक्त कमाइयां, रुतबा और सत्ता से करीबी नहीं रह जाते. सत्ता की यह करीबी और ‘तरल’ तैनातियां ही वह बड़ा कारण हैं जो अफसरों को
नेताओं का पिछलग्गू बना देती हैं. यह तथ्य
अब चौंकाता नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में
कई अफसरों ने नेताओं को पीछे छोड़ दिया है.
पूर्व मुख्य सचिव टी एस आर सुब्रमणियन ने अपनी पुस्तक में
1990 का आंखें खोल देने वाला प्रसंग दर्ज किया है. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम
सिंह यादव आईएस सेवा सप्ताह के मुख्य अतिथि थे. अपने भाषण में आईएएस अधिकारियों से
वे यह भी कह गए कि ’... आपके पास श्रेष्ठ दिमाग और शिक्षा है.
आप जिस तरफ ध्यान लगा देंगे वहीं सफल हो जाएंगे. समाज आपका आदर करता है. फिर आप
मेरे पास आकर मेरे पैर क्यों छूते हैं? आप मेरे जूते क्यों
चाटते हैं? अपने व्यक्तिगत हित के लिए मेरे पास क्यों आते
हैं? यदि आप ऐसा करोगे तो मैं आपकी इच्छानुसार कार्य कर
दूंगा और फिर आपसे अपनी कीमत वसूल करूंगा.’
तंत्र से बगावत करने वाले अफसर अपने गुस्से में ही जल-भुन
कर रह जाते हैं. दूसरे छोर पर जूते चाटने वाले हैं जो पूरे प्रशासन को घिनौना बना
देते हैं. इन दोनों का एक मध्यमान होता होगा जिसमें विचलनों के बावजूद लोकतंत्र और जनता के शासन की
महक भी शामिल रहती होगी. वह रास्ता चुनने से भी हमारे ज्यादातर बेहतरीन दिमाग
कतराते क्यों हैं? (नभाटा, जून 24, 2016)
1 comment:
सच्चाई को वर्णित करता एक बहुत सुन्दर लेख। मुश्किल यह है कि अधिकांश अधिकारी मलाईदार तैनाती या फिर अपनी पसन्द की रुतबेदार तैनाती चाहते हैं। ऐसे में वे किसी भी सीमा तक समझौते कर लेते है। दूसरी ओर ऐसे अधिकारी भी हैं जो कहते हैं उनका बोरिया बिस्तर बंधा है.जहाँ चाहे पोस्ट कर दो, कोई फर्क नही पड़ता, परन्तु ग़लत काम वे नही करेंगे। ऐसे अधिकारी कम हैं, पर हैं। देखो शायद कभी परिवर्तन आये।
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