हम सब इस
विश्वास एवं आशा के साथ जीते और लड़ते हैं कि यह दुनिया तथा मानव जीवन एक दिन बहुत
खूबसूरत होंगे. फिलहाल तो साल-दर साल बीतते जा रहे हैं. हमारा जीवन ज्यादा संकट
भरा होता जा रहा है. दुनिया खतरों से घिरती जा रही है. इसे सुंदर बनाने की लड़ाई
कठिनतर हो रही है. कभी तो शंका होती है कि मनुष्य का संघर्ष कहीं पहुँच भी रहा है? जीवन भर बेहतरी के लिए लड़ने वाले लोग थकते और निराश होते दिखते हैं. अच्छी
बात यही है कि नयी पीढ़ी इस मोर्चे पर कमर कसे खड़ी होती दिखाई देती है. मोर्चा
मुश्किल होता जा रहा है लेकिन लड़ने वाले लोग आते जा रहे हैं. अपने जीवन के अंतिम
प्रहर में पहुँच रहे लोग निराशा के बावजूद गिर्दा का यह गीत गा सकते हैं – जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में!
तो, साल 2018 भी अनेक निराशाओं और मुश्किलों
के बीच विदा हो गया है लेकिन 2019 के साथ उम्मीद की किरणें भी जगमग कर रही हैं. इसलिए अपने थके
कदमों से हमारी पीढ़ी नौजवानों की उमंगों के साथ कदमताल की कोशिश में नव वर्ष का
स्वागत करने को प्रस्तुत है.
‘नया साल
मुबारक हो’ कहते हुए वे चुनौतियाँ और खतरे भूले-भुलाए
नहीं जा सकते जो बीता साल हमारे सामने छोड़ गया है. नये साल में वे और भी जोर की
टक्कर देने वाले हैं. दशकों पहले अज़ीम शायर फैज़ ने उम्मीद की थी कि ‘जब सफ सीधा हो जाएगा और सब झगड़े मिट जाएंगे, तब हर एक देश के झण्डे में एक लाल सितारा माँगेंगे.’ इस बीच लाल सितारे वाले तो जाने कहाँ गुम-से हो गये हैं और कट्टर
दक्षिणपंथी लहर अमेरिका, यूरोप और
एशिया उप-महाद्वीप के कई देशों में उफान पर है. धार्मिक-जातीय गोलबंदियाँ और
नस्लीय घृणा व हिंसा बढ़ रही है. साल 2018 ने झगड़े बढ़ाए ही हैं.
दूर क्या
जाएँ, अपने मुल्क में हमने क्या-क्या नहीं देखा. गोरक्षा के बहाने मुसलमानों पर हमले बढ़े, मॉब लिंचिंग मीडिया की सुर्खियाँ बनती रही और उसे पेश
करने का नजरिया भी ज्यादातर उतना ही संकीर्ण रहा. बुलंदशहर में दंगा भड़काने की
साजिश पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या से कामयाब नहीं हुई लेकिन यह साफ हो गया कि समाज
की सतरंगी चादर को तार-तार करने की तिकड़में कितनी गहरी हो रही हैं. जब प्रदेश का
मुख्यमंत्री यह कहे कि इंसपेक्टर की मौत एक दुर्घटना थी,
पहले गोहत्या की जांच होगी तो समझा जा सकता है इस सब के पीछे कौन सी ताकते हैं.
गाय की हत्या एक पुलिस अधिकारी की
हत्या से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बना दी गयी. आप इस दुर्भाग्य पर अफसोस जताते हैं और
चिंता करते हैं तो आपको देशद्रोही बता कर सीधे पाकिस्तान जाने का फतवा सुनाया जाता
है. रंगमंच और फिल्म जगत के बड़े अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने कहा कि उन्हें यह सब
देख कर अपने बच्चों के बारे में फिक्र होती है क्योंकि हमने उन्हें मजहबी तालीम दी
ही नहीं. कल को अगर उन्हें भीड़ ने घेर लिया कि तुम
हिन्दू हो या मुसलमान? तो उनके पास तो कोई
जवाब ही नहीं होगा.
यह एक सम्वेदनशील कलाकार की सही और जरूरी चिंता है लेकिन देखिए
कि नसीरुद्दीन को देशद्रोही बताकर गालियाँ दी जा रही है और पाकिस्तान जाने को कहा
जा रहा है. जो लोग नसीर की चिन्ता में शामिल हैं वे भी गद्दार ठहराए जा रहे हैं.
ऐसे कई उदाहरण हैं, असहमति सुनना भी
गवारा नहीं रहा. ऐसी असहिष्णुता इस देश ने अब तक नहीं देखी थी. और, जैसा नसीर ने कहा हालात जल्दी सुधरने वाले नहीं. नया
साल इन चुनौतियों को कुछ कम कर पाएगा? इनके खिलाफ जरूरी लड़ाई
लड़ी जा सकेगी?
गौरी लंकेश के हत्यारे छुट्टा घूम रहे हैं और गौतम नवलखा, वरवर राव, सुधा भारद्वाज जैसे बेहतरी के लिए लड़ने
वाले जेल में हैं. ‘सेकुलर’ शब्द कबके
गाली बना दिया गया था. अब ‘अर्बन नक्सल’ नया ठप्पा है. यह हमारे समय की कठिन चुनौतियों के उदाहरण हैं.
हिमालय और नदियाँ बल्कि पूरा पर्यावरण भारी खतरे में है.
प्रकृति बार-बार चेतवनी दे रही है किंतु गंगा को बचाने के लिए आमरण अनशन करते
स्वामी सानन्द उर्फ प्रो जी डी अग्रवाल को मर जाने दिया गया. प्रधानमंत्री को लिखी
उनकी चिट्ठियाँ जवाब देने लायक भी नहीं समझी गईं. यह वही प्रधानमंत्री हैं जो अपने
को ‘गंगा का बेटा’ कहते नहीं
थकते. गंगा का असली बेटा कौन है, जनता कब यह समझेगी?
‘अच्छे दिनों’ के भुलावे
में और विकास के नाम पर विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा बनवाने का ताज सिर पर पहना जा
रहा है और अयोध्या में राम की भव्य विशाल प्रतिमा खड़ी करने की घोषणा हो रही है. देश
को बनाने-सँवारने में जी-जान लगा देने वाले नेहरू और पटेल के भूत को लड़ाया जा रहा
है लेकिन मेघालय की एक कोयला खान में फँसे मजदूरों को बचाने के लिए जरूरी उपकरण
पंद्रह दिन तक भी दुर्घटना स्थल तक नहीं पहँचाये जा सके जबकि छोटे से देश थाइलैण्ड
ने एक सुरंग में पानी भर जाने से फँसे फुटबॉल खिलाड़ियों को सकुशल निकाल लिया था.
उत्तराखण्ड में ऐसी ‘चार धाम ऑल वेदर रोड’ बनवाई जा रही है जो पहले से
उजड़ रहे पहाड़ को और भी उजाड़ देने वाली है. कमजोर पहाड़ों पर ऐसी चौड़ी सड़क की क्या
जरूरत है, क्या दुनिया के किसी पहाड़ में ऐसी विनाशकारी
परियोजना चलाई गयी, यह सोचना जरूरी नहीं समझा गया. विरोध के
स्वर सुनना तो मंजूर ही नहीं है.
जनता की वाजिब चिंताएँ और प्रतिरोध के स्वर सुने जाते तो
पंचेश्वर बांध योजना पर पुनर्विचार किया जाता. विशाल भू-भाग, उपजाऊ घाटी और आबाद गांवों को उजाड़ देने वाले बड़े बांध की बजाय छोटे-छोटे
बांध बनाये जाते. जन-सुनवाई के नाम पर नाटक हुआ, विरोध करने
वालों को बोलने नहीं दिया गया और फर्जी तरीके से गाँव वालों की सहमति हासिल की
गयी. कहीं कोई चिन्ता नहीं कि आने वाले कल के लिए कितने भयावह खतरे जमा किये जा
रहे हैं.
गाँव और किसान निरंतर उपेक्षित हैं और स्मार्ट शहर बसाने के
हवाई किले बांधे जा रहे हैं. किसानों की आत्महत्याएँ कोई हलचल नहीं मचाती. समर्थन
मूल्य में ‘रिकॉर्ड वृद्धि’ के दावों
के बावजूद किसान को फसलों का लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा. पुणे के एक किसान को डेढ़
टन प्याज का मूल्य सिर्फ चार रु मिला जो उसने चंद रोज पहले केंद्रीय कृषि मंत्री
को मनी ऑर्डर करके भेजा है. लेकिन कहीं कोई पत्ता नहीं हिल रहा. सभाओं में कहा जा
रहा है कि किसानों के लिए जितना हमने कर दिया है उतना सत्तर साल में मिलाकर भी
नहीं हुआ.
आश्चर्य नहीं कि देश भर में किसान साल भर सड़कों पर रहे. वोट की
राजनीति ऐसे मुकाम पर ला दी गयी है कि जाट, पाटीदार और मराठा जैसे अपेक्षाकृत सम्पन्न समूह आरक्षण के लिए आंदोलन करते
रहे. असंगठित मजदूरों, भूमिहीन किसानों और गरीब-गुरबों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं.
संसद में शोर मचा रहा तीन तलाक विधेयक पर, दलित एक्ट पर,
सीबीआई के झग़ड़े पर और तालियाँ बजीं सर्जिकल स्ट्राइक के दावों पर.
साल 2018 के ‘मी-टू’ अभियान ने बड़े-बड़े नायकों की महिला-उत्पीड़क शक्ल उजागर की लेकिन चंद महिलाओं का यह प्रतीकात्मक साहस आम भारतीय
स्त्री को यौन हिंसा और उत्पीड़न से कतई राहत नहीं पहुँचा सका. साल बीतते-बीतते
पौड़ी और आगरा में जिस तरह दो लड़कियों को जिंदा जला दिया गया वह सबूत है कि पुरुष
और बर्बर हुआ है. महिलाओं की बराबरी और स्वतंत्रता की राह बहुत कठिन बनी हुई है.
कामना है कि 2019 का साल उन्हें मुखर होने और लड़ने की और ताकत दे.
साल 2018 ने केरल में बाढ़ की तबाही का इतिहास लिखा और पीने के
पानी के संकट को सबसे बड़ी समस्याओं में शामिल किया. हाल के विधान सभा चुनाव नतीजों
ने भाजपाई-संघी जकड़न से कुछ राहत पहुँचाई लेकिन कांग्रेस का ‘उदार हिंदुत्त्व’ की राह पकड़ना दूसरी तरह के खतरों
का संकेत दे गया. नेहरू की कांग्रेस का यह पतन भले रणनीतिक चातुर्य हो, राजनीति में धर्म के घालमेल और जनता के जरूरी मुद्दों की उपेक्षा का ही
उदाहरण है.
देश की प्रतिष्ठित संवैधानिक संस्थाओं पर सरकारी शिकंजा कसा और
उनकी स्वायत्तता पर हमले जारी रहे. धर्मशास्त्रों की आड़ में वैज्ञानिक तथ्यों की
खिल्ली उड़ाई गयी. अपने समय के आवश्यक मुद्दे उठाने में मीडिया का बड़ा हिस्सा दुम
दबाये पालतू जानवर-सा व्यवहार करता रहा. 56-इंची सीने वाले अपने पीएम बहादुर इस
साल भी मीडिया के सामने नहीं आए. जिस किसी ने प्रकारांतर से सवाल पूछने या पोल
खोलने की कोशिश की वह प्रताड़ित हुआ. सत्य का मुँह स्वर्ण पात्र से ढका रहा.
ऐसे में अपने उत्तराखण्ड के हाल शेष देश से बेहतर कैसे हो सकते
हैं. सपनों या राज्य आंदोलन की अपेक्षाओं
वाला प्रदेश हकीकत में दूर होता जा रहा है. गांवों के खाली होने के बीच ‘रिवर्स पलायन’ का ढिंढोरा पीटने वाली राज्य सरकार ने
सुदूर गांवों तक की जमीन की खुली लूट का रास्ता तैयार कर दिया है. पहले जो थोड़ी
बंदिश थी भी उसे हटाकर नये कानून से उत्तराखण्ड की जमीन ग्रामीणों से छीनने की छूट
हर किसी को दे दी गयी है. ऐसा किसी दूसरे पहाड़ी राज्य में नहीं है.
भारी बहुमत से चुनी गयी सरकार का मुखिया जनता दरबार में एक
अकेली असहाय अध्यापिका को इसलिए गिरफ्तार करवा देता है कि उसने वर्षों कठिन पहाड़ी
क्षेत्र में तैनाती के बाद शहरी क्षेत्र में तबादले की गुहार लगाई थी, जबकि खुद उस मुखिया के अध्यापक पत्नी वर्षों से नियम विरुद्ध देहरादून में
तैनात है. इससे पता चलता है कि सरकार के एजेण्डे में आम जन हैं ही नहीं. उसका
एकमात्र ध्येय आरएसएस का एजेण्डा लागू करना है. वर्ना क्यों उत्तराखण्ड की विधान
सभा गाय को ‘राष्ट्र माता’ घोषित करके
ऐसा करने वाली पहली सरकार होने का श्रेय लूटती. गाय के राष्ट्र माता घोषित करने से
क्या आम पहाड़ी माता के दुखों में कुछ कमी होगी?
निर्बुद्धि राजैक काथै-काथ.
कहाँ तक कहिए.
उत्तराखण्ड के आंदोलनकारियों की लड़ाई यहाँ-वहाँ कमोबेश जारी है.
नशा नहीं रोजगार दो और गैरसैण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग के लिए बीते साल फिर
जोश उमड़ा. पदयात्रा निकली तो गैरसैण में महापंचायत जैसी भी हुई. यह बहस अलग है कि
गैरसैण राजधानी बन भी गयी तो उत्तराखण्ड का क्या भला हो जाने वाला है. पंचेश्वर
बांध विरोधी आवाजें भी खूब उछलीं तो महिला आंदोलनकारियों ने जमीनी मुद्दों पर
चर्चाएँ छेड़ीं. जमीनों की खुली लूट वाला ताजा कानून कितना विरोध खड़ा कर पाता है, यह साल 2019 में देखना है.
यह उम्मीद 2018 में
नहीं बन सकी कि उत्तराखण्ड के बिखरे आंदोलनकारी एकजुट हों. क्या 2019 में ऐसी कोई
सूरत बनेगी? शमशेर सिंह बिष्ट के रूप में उत्तराखण्ड और देश
के जन आंदोलनकारियों ने एक विश्वसनीय और सम्मानित आवाज खो दी. उनकी स्मृति के
बहाने ही सही एकता और संयुक्त लड़ाई की पहल की आशा बनी रहेगी.
जिनको हमने खो दिया उनकी सूची लम्बी है. कबूतरी देवी, नईमा उप्रेती, के डी रूबाली, हिमांशु
जोशी, ललित कोठियाल, कमला उप्रेती,
भगवती प्रसाद नौटियाल जैसे कुछ नाम अभी याद आ रहे हैं. कुलदीप नैयर,
केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, विष्णु खरे, सतीश चंद्र, समीर
अमीन, गिरिजा देवी जैसी कई आवाजें भी मौन हो गईं. स्टीफन
हॉकिंग जैसे जीवट वाले अद्भुत प्रतिभाशाली विज्ञानी का जाना भी स्मृति में दर्ज
है.
आना-जाना सृष्टि का अटूट नियम है और वक्त का पल-प्रतिपल बीतना
भी. विपरीत स्थितियाँ मन को निराशा से घेरती हैं लेकिन लेकिन यह स्थाई भाव नहीं.
जीवन का निरंतर आगे बढ़ना और हर अँधेरी रात के बाद सूर्योदय बड़ा सत्य है. इसी से
उम्मीदें जागती हैं. मनुष्य का इतिहास कभी हार नहीं मानने का प्रमाण है.
तो, जैसा वीरेन डंगवाल
अपनी कविता में कहते हैं, ‘आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे’,
तमाम उम्मीदों के साथ साल 2019 का स्वागत.
(samachar.org.in)
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