‘कर्नाटक-विजय’ पर भाजपा में जश्न मनाया जा
रहा है. एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने को आतुर येदियुरप्पा कह रहे हैं- “यह
लोकतंत्र की जीत है. कुमारस्वामी सरकार से जनता ऊब चुकी थी. मैं कर्नाटक की जनता
को भरोसा दिलाता हूँ कि विकास का नया युग शुरू हो रहा है.” कर्नाटक विधान
सभा में कुमारस्वामी सरकार का विश्वास मत गिर जाने के वे बहुत उत्साहित हैं. मुख्यमंत्री
की कुर्सी उनके बिल्कुल करीब है. वे इस दिन के लिए कब से बहुत परिश्रम कर रहे थे. दिन
का चैन और रातों की नींद इसके पीछे लगा रखी थी. इसलिए उनके लिए लोकतंत्र की विजय हो गई है.
निवर्तमान मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के लिए ‘धनबल के आगे
लोकतंत्र हार गया है.’ उनके विधायकों का ‘अपहरण’ हो गया. उनकी सरकार के
खिलाफ बड़ी ‘साजिश’ कामयाब हो गई.. कांग्रेस के लिए भी ‘लोकतंत्र की
हत्या’ हो गई है. उसने प्रकट रूप में सड़क से संसद तक इस ‘हत्या’
की
इस साजिश के खिलाफ खूब शोर मचाया. अप्रकट रूप में अपने भगौड़े विधायकों को वापस
लाने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे. ‘अपने’ विधान सभाध्यक्ष के बावज़ूद वह सफल नहीं हुई. इसलिए कांग्रेसी
कह रहे हैं कि लोकतंत्र के साथ छल हुआ है.
लेकिन वास्तव में छल किसके साथ हुआ है? कर्नाटक में
पिछले बीस दिन में जो हुआ उससे हमारा संविधान ही शर्मशार हुआ है. पराजय तो वास्तव
में संविधान निर्माताओं की मंशा की हुई
है. अपने राजनैतिक अभियान में सफल-विफल दोनों पक्षों ने तो लोकतंत्र का मखौल उड़ाया
है.
हमारे राजनैतिक दलों के नेताओं को लम्बा अरसा हुआ लोकतंत्र, संविधान और जनता
के निर्णय का उपहास करते हुए. तुर्रा यह
कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. याद करिए 1967 का वह दौर जब
हरियाणा के एक विधायक ने एक दिन में तीन बार दल-बदल करके भारतीय राजनीति को ‘आया राम-गया राम’
का
नया मुहावरा दिया था. उसी हरियाणा में पूरी की पूरी सरकार ने दल-बदल करके जनता के
निर्णय को पलटने का अद्भुत करिश्मा कर दिखाया था. तब से लेकर आज तक कितने ही
राज्यों में कितनी ही तरह से लोकतंत्र और संविधान का मज़ाक बनाया जाता रहा है.
हरियाणा में जब ‘आयाराम-गया राम’ का तमाशा चलता था
तब भारतीय संसद ने दल-बदल विरोधी कानून नहीं बनाया था. आज इस कानून को बने करीब
पैंतीस वर्ष हो गए लेकिन ‘विवेक’ के चोर दरवाजों से दल-बदल का खुला खेल जारी है.
विधायकों की मण्डी पहले भी सजती थी और आज भी ऊंची बोलियों से खरीद-फरोख्त जारी है.
राजनैतिक दलों द्वारा अपने विधायकों को अपने पाले में बनाए रखने और ‘अपहरण’ से बचाने के लिए
उन्हें सुदूर राज्यों के होटलों-फार्म हाउसों में ऐशो-आराम की कैद में रखने का चलन
कितना हास्यास्पद किंतु त्रासद है. और, देखिए कि वे इसे लोकतंत्र की
रक्षा कहते हैं!
संवैधानिक व्यवस्था है कि किसी
सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का निर्णय सिर्फ और सिर्फ सदन में होना चाहिए.
इस बार कर्नाटक में हमने इस पवित्र व्यवस्था का नया और सबसे लम्बा और ‘सतर्क पालन’ देखा. राज्यपाल
और विधान सभा अध्यक्ष की तो इसमें निश्चित भूमिका होती ही है. कर्नाटक के ताज़ा
मामले में सुप्रीम कोर्ट को भी कतिपय निर्देश जारी करने पड़े और इन निर्देशों को भी
जवाबी संवैधानिक चुनौती मिली.
आश्चर्य और चिंता की बात यह है कि यह पूरा सियासी नाटक लोकतंत्र और संविधान
की रक्षा के नाम ही पर खेला गया. संवैधानिक प्रावधानों की दुहाई दी गई. जिन ‘अपहृत’
विधायकों
के इस्तीफे विधान सभा अध्यक्ष को मिले उनकी इतनी बारीक तकनीकी पड़ताल शायद ही पहले
कहीं हुई हो. वे निर्धारित प्रारूप में हैं या नहीं और ‘जैनुइन’
हैं
कि नहीं, इस बारे में स्पीकर ने बहुत माथा-पच्ची की. इतना वक्त
लगा कि एक तरफ राज्यपाल ने पत्र दो-दो पत्र लिख कर स्पीकर से कहा कि वे इस्तीफों
पर यथाशीघ्र फैसला करें. दूसरी तरफ विधायकों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले
स्पीकर के फैसले के लिए समय-सीमा तय की और
फिर यह कहा कि इस्तीफा देने वाले विधायकों को सदन में आने के लिए बाध्य नहीं किया
जा सकता.
राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट दोनों के निर्देशों को स्पीकर की ओर से चुनौती
दी गई. सवाल उठाए गए कि क्या राज्यपाल सदन के मामलों में स्पीकर को निर्देश दे
सकता है? और, क्या सुप्रीम कोर्ट इस्तीफा देने वाले विधायकों को
ह्विप जारी करने से रोक सकता है? अच्छा हुआ कि इन सवालों को लेकर टकराव नहीं हुआ. विश्वास
मत में हार जाने से कुमारस्वामी सरकार गिर गई. विधायकों के इस्तीफों पर फैसला अब
तक नहीं हुआ है. अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि यह अधिकार सिर्फ स्पीकर का है.
इस प्रकरण का पटाक्षेप अभी होना है.
संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्याएँ और उन पर बहस संविधान की मूल भावना को
और स्पष्ट करने तथा उसके माध्यम से संवैधानिक संस्थाओं, उनके अधिकारों
एवं स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए स्वागत योग्य मानी जाती हैं. ऐसी बहसों
से ही नई व्यवस्थाओं और संविधान संशोधनों की आवश्यकता उजागर होती है. लेकिन जब
संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या और उन पर अमल राजनैतिक मंतव्यों से होता लगता है
तो अंतत: चोट संविधान पर ही पड़ती है. जैसे-जैसे राज्यपाल और स्पीकर के पदों का
राजनीतीकरण होता गया, वैसे-वैसे संवैधानिक व्यवस्थाओं की व्याख्या राजनैतिक
लाभ-हानि की दृष्टि से होती दिखने लगी.
संविधान निर्माताओं ने उसके कई प्रावधानों की व्याख्या और उन पर अमल
संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के विवेक पर छोड़ा है. उनके इसी भरोसे ने हमारे
संविधान को पर्याप्त लचीला और विशिष्ट बना रखा है. किसी विधायक का इस्तीफा तत्काल
स्वीकार करना है या उसके परीक्षण में लम्बा वक्त लगाना है, विधान सभा
अध्यक्ष को इसकी पूरी आज़ादी है. उनके इस विवेक पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने भी यह बात मानी है.
ऐसा ही विवेकाधिकार राज्यपाल को है. उदाहरण के लिए,
त्रिशंकु
विधान सभा की स्थिति में कोई आवश्यक नहीं कि राज्यपाल सबसे बड़े दल को ही पहले
सरकार बनाने के लिए बुलाएँ, यद्यपि ऐसी परिपाटी रही है. संविधान उन्हें यह सुनिश्चित
करने का विवेक और दायित्व देता है कि बहुमत साबित करके स्थिर सरकार दे सकने वाले
दल को वे पहले अवसर दें.
अब यह संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों पर निर्भर है कि वे अपने विवेक का
उपयोग कैसे करते हैं. क्या वे अपने मूल राजनैतिक दल से इतना निरपेक्ष और तटस्थ
होते हैं कि उसके राजनैतिक लाभ-हानि का गणित उनके विवेक को प्रभावित न कर सके?
कहीं
संविधान के प्रावधानों की आड़ में राजनैतिक हित तो नहीं सध रहे?
क्या
संविधान के विशिष्ट लचीलेपन से उसकी मूल
भावना पर ही चोट नहीं की जा रही?
संविधान निर्माताओं ने ऐसे समय और ऐसे नेताओं की कल्पना की होगी?
(www.nainitalsamachar.com)
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