सन् 1977 में पत्रकारिता का पेशा अपना लेने के बाद नैनीताल जाने पर माल रोड के तनिक ऊपर ‘दैनिक पर्वतीय’ का बोर्ड स्वाभाविक ही ध्यान खींचता था। वहीं कहीं ‘पत्रकार हॉस्टल’ भी लिखा दिखाई देता था। तभी विष्णुदत्त उनियाल जी के बारे में सुना। दो-एक बार उनसे संक्षिप्त मुलाकातें भी हुई थीं। यह जानना सुखद था कि 1953 से वे ‘पर्वतीय’ को साप्ताहिक रूप से निकाल रहे थे और 1972 से उसे दैनिक बना दिया था। 1964 में वे ‘सीमांचल’ नाम से दैनिक समाचार पत्र कुछ समय के लिए निकाल चुके थे, जिसे उत्तराखण्ड का पहला दैनिक होने का श्रेय मिला। इससे भी अच्छी और सराहनीय बात यह थी कि वे किसी सांस्थानिक पृष्ठभूमि, पूंजी और बड़ी टीम के बिना यह सब कर रहे थे। और, सबसे बड़ी बात यह थी और जिसने हमें उनियाल जी के प्रति प्रशंसा भाव से भर दिया था, कि वे अपने दम पर अखबार निकालते हुए शासन-प्रशासन से टकराते रहते थे, स्वतंत्र चेता पत्रकार-सम्पादक थे, निडरता से अपनी राय रखते थे, कभी समझौता नहीं करते थे और पर्वतीय क्षेत्रों यानी उत्तराखण्ड की उपेक्षा और पिछड़ेपन पर बराबर आक्रामक कलम चलाते थे।
सन 1988 में उनके निधन के साथ स्वतंत्र एवं साहसिक
पत्रकारिता का यह एकल अभियान थम गया। हम भी धीरे-धीरे उनियाल जी और ‘पर्वतीय’
को भूलते गए। साल-डेढ़ साल पहले ‘प्रेरणा अंशु’
ने उत्तराखण्ड की पत्रकारिता पर लिखने को कहा तो उनकी याद आई थी।
उनियाल जी की जन्म शताब्दी (1921) पर प्रकाशित दो वृहद ग्रंथ पिछले दिनों मिले तो
सुखद आश्चर्य की तरह ‘पर्वतीय’ और
उनियाल जी की पूरी संघर्ष गाथा सामने खुल पड़ी। उनियाल जी की पुत्री सीमा उनियाल
मिश्रा की देखरेख में ‘बी डी उनियाल (पर्वतीय) चैरिटेबल ट्रस्ट’ ने यह बड़ा काम किया है। इसके माध्यम से उनियाल जी और ‘पर्वतीय’ की ही नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड की संघर्षशील
पत्रकारिता का भी चेहरा हमारे सामने आता है। एक ग्रंथ ‘पर्वतीय-
स्मृतियों के प्रांगण से- एक संकलन’ नाम से है जिसमें उनियाल
जी के बारे में स्मृति लेख, ‘पर्वतीय’ में
प्रकाशित चुनींदा लेख-सम्पादकीय, आदि के अलावा उनियाल जी की
संक्षिप्त आत्मकथा और उनके साथ काम कर चुके लोगों की उस दौर की यादें संकलित हैं।
प्रो शेखर पाठक का लेख ‘हलवाहे ब्राह्मण से प्रखर
सम्पादक तक की कामयाब यात्रा’ अनूठी शैली में उनियाल जी के
जीवन, संघर्ष, वैचारिक यात्रा और उनकी
पत्रकारिता पर चौतरफा रोशनी डालता है। गंगा प्रसाद विमल का भी एक छोटा-सा संस्मरण
है। इस ग्रंथ का बड़ा हिस्सा ‘पर्वतीय’ के
आलेखों-सम्पादकीयों के चयन का है जो विभिन्न मुद्दों पर उनियाल जी की लेखनी और
दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। उत्तर प्रदेश के अंतर्गत पर्वतीय जिलों की उपेक्षा पर
उनकी खूब कलम चली। इसे लेकर सरकार की कटु आलोचना वे करते रहे और विविध रास्ते भी
सुझाते रहे थे। यह उनकी दूरदृष्टि ही थी कि 1960 के दशक में ‘पर्वतीय’ ने ‘विकास विशेषांक’
और लेखमालाओं के रूप में ‘उत्तराखण्ड राज्य विशेषांक’ प्रकाशित किए थे। पुस्तक के अंत में उनियाल जी की कलम से निकली उनकी अपनी
कहानी है, जो वास्तव में उनकी पुस्तक ‘सर्ववादी’
की भूमिका है। वे अपने को ‘सर्ववादी’ कहते थे। अपने बारे में उन्होंने खुलकर लिखा है और अपने प्रेम प्रसंगों को
भी खोला है। ‘पर्वतीय’ परिवार का सदस्य
रहे लोगों की यादें भी यहां दर्ज की गई हैं, जिनमें देवेंद्र
मेवाड़ी, बटरोही, विनोद तिवारी, कैलाश शाह, देवेंद्र सनवाल समेत और भी कई नाम शामिल
हैं। प्रेस के कुछ सहयोगियों की स्मृतियां भी शामिल की गई हैं। ‘पर्वतीय’ के कई लेखकों ने भी अपनी यादें लिखी
हैं।
इस क्रम में दूसरा ग्रंथ वास्तव में डॉ नीरज शाह का पीएच-डी
का शोध ग्रंथ तनिक सम्पादित रूप में है। ‘पर्वतीय’ की पत्रकारीय
सोच, उनियाल जी समेत उसके अन्य सम्पादकों के योगदान और
उत्तराखण्ड की स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता इसके केंद्र में हैं। इससे गुजरना ‘पर्वतीय’ और उनियाल जी को और विस्तार से जानना-समझना
है। उत्तराखण्ड की उपेक्षा और पृथक राज्य की आवश्यकता पर तो वे निरंतर लिखते ही थे,
शराब विरोधी आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन
और चिपको आंदोलन जैसे ज्वलंत मुद्दों पर भी उनकी कलम चली। वे जनता के पक्ष में खड़े
रहते थे। सरकार की कटु आलोचना के कारण एक समय उनको सरकारी विज्ञापन देना बंद कर
दिया गया था। साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों के लिए भी ‘पर्वतीय’
में काफी जगह होती थी। उस
समय के स्थापित और उदीयमान साहित्यकारों की कहानियां, कविताएं,
वगैरह भी ‘पर्वतीय’ में
बराबर प्रकाशित होते थे।
यहां उनियाल जी की जीवन
यात्रा पर एक नज़र डालना सर्वथा उचित होगा। नई पीढ़ी को, विशेष रूप से पत्रकारों को उनके बारे में अवश्य जानना चाहिए, हालांकि
ऐसी प्रवृत्ति अब कम दिखाई देती है। बारह साल के थे जब गांव
में उन पर हल चलाने की जिम्मेदारी आ गई थी क्योंकि पिता का देहांत हो गया था। आम
बड़ा पहाड़ी परिवार था और गरीबी स्वाभाविक ही उसके हिस्से में थी। बालक विष्णु स्कूल
से लौटकर हल चलाता। एक दिन हल का फाल घनी दूब वाली गीली जमीन में गहरा धंस गया
जिसे विष्णु बाहर खींच न सका। वह बैलों को संटी मारता रहा कि वे ताकत लगाकर आगे
बढ़ें लेकिन वे भी हल को खींच न सके। थक-हारकर बालक रोता रहा और रोते-रोते खेत पर
सो गया। बाद में मां उसका पसंदीदा दूध-भात लेकर आई तो उसने समझाया-पुचकारा कि रोता
क्यों है, मैं तो हूं न! हल का
फाल जमीन में धंसने से भी बड़ी दुश्वारियां बाद में उसके जीवन में आईं लेकिन वह फिर
न रोया।
30 मई 1921 को गढ़वाल की उदयापुर पट्टी के आवई गांव में भोलादत्त
और भागीरथी के घर जन्मे विष्णु ने मिडिल पहली श्रेणी में पास किया। आगे की पढ़ाई के
लिए देहरादून भेजने लायक हैसियत मां की थी नहीं। वह परिवार का घराट चलाता, खेती-बाड़ी
में मां-बहनों का हाथ बंटाता, एक घोड़ा था, उसे चराता और नदी में मछली मारता। घराट में अक्सर आने वाली एक कन्या से मुहब्बत
भी इस बीच अंकुरा रही थी। इश्क में मुब्तिला वह एक दिन मछली मारता रह गया और घोड़े
को बाघ खा गया। मां नाराज हुई। वह उसे जिम्मेदार बनाने के लिए उसकी शादी कर देना
चाहती थी लेकिन विष्णु बचता रहा। अगले दिन खिन्न विष्णु किसी काम से लैंस डाउन आया
और वहीं से आगे निकलता गया। जेब के मात्र पांच रुपयों में कुछ टिकट, कुछ बिना टिकट यात्रा करके भूखा पेट लिए वह लाहौर पहुंचा।
लाहौर में एक घर में चौका-बर्तन और झाड़ू-पोछे का काम किया।
पढ़ने की ललक मन में बनी हुई थी। सो, खाली समय में कॉपी-किताब साथ रहती। घर के
वृद्ध दम्पति ने विष्णु में पढ़ने की ललक देखी तो उसकी मदद की। वहीं उसने अच्छे
नम्बरों से मैट्रिक पास किया। फिर एक डॉक्टर के यहां नौकरी करते हुए पंजाब
यूनिवर्सिटी से ‘प्रभाकर’ एवं इण्टर
किया और टाइप-शॉर्टहैण्ड भी सीखी। उसके बाद एक बेकरी में मैनेजर बना। यह सब विष्णु
की मेहनत, लगन और ईमानदारी का परिणाम था। जब लाहौर में उसके
पैर जमने लगे थे और अच्छे कुछ रिश्ते भी बन गए थे, तभी वह
लाहौर छोड़कर देहरादून पहुंच गया। कुछ दिन ऑर्डिनेंस फैक्ट्री और फिर मिलिट्री
एकाउंट्स में नौकरी की। दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो रहा था। मिलिट्री सेवाओं में
छंटनी का शिकार विष्णु भी हो गया लेकिन एक शुभचिंतक के माध्यम से अल्मोड़ा के
वोकेशनल ट्रेनिंग सेण्टर में स्टेनोग्राफी इंस्ट्रक्टर हो गया। यहां उसे पता चला
कि उस पर दुर्दम्य टीबी रोग का बड़ा हमला हो चुका है। उसका अगला ठिकाना भवाली
सेनेटोरियम बना।
जीवन के संघर्षों और अल्मोड़ा में वाम विचार के प्रभाव ने
युवक विष्णु को जुझारू बना दिया था। भवाली सेनेटोरियम में वह क्षय रोगियों के लिए
बेहतर सुविधाओं के वास्ते आवाज उठाने लगा। इस कारण उसे वहां से बाहर कर दिया गया।
इस अन्याय से क्षुब्ध और आक्रोशित विष्णु सीधा लखनऊ पहुंचा और विधान सभा के सामने
धरने पर बैठ गया। यह 1950-51 की बात है।
तब ऐसे प्रतिरोधों की तत्काल सुनवाई होती थी। स्वास्थ्य मंत्री चंद्रभानु गुप्त के
निर्देश पर उसे दोबारा भवाली सेनेटोरियम में भर्ती किया गया। सेनेटोरियम में रहते
हुए उसने स्वास्थ्य लाभ तो किया ही, ‘साहित्यरत्न’ और बीए
की परीक्षाएं भी पास कीं। वहीं उसने कहानी एवं लेख लिखे और पत्रकारिता करने का
संकल्प भी ठाना। सेनेटोरियम से बाहर आकर कुछ समय अल्मोड़ा में रामजे इण्टर कॉलेज
में नौकरी की और वहीं आगे से नौकरी न करने की कसम खाई। पत्रकारिता का जुनून बम्बई
ले गया, जहां कुछ बात न बनी। वहीं अपने दो परिचितों से क्रमश:
चार सौ और ढाई सौ यानी कुल साढ़े छह सौ रुपए उधार लेकर अलमोड़ा वापसी की। इस तरह 1953
में ‘साप्ताहिक पर्वतीय’ की शुरुआत
हुई।
यह एक लम्बे संघर्ष और जुनूनी पत्रकारिता की शुरुआत थी।
जीवन की ठोकरों और ठोस यथार्थ ने भीतर ताकत, भरोसा और जूझने की क्षमता भर दी थी। इसलिए ‘पर्वतीय’ की धार पैनी रही और वह चल निकला। स्वयं
उनियाल जी के शब्दों में – “जहां अल्मोड़ा का ‘शक्ति’ और हलद्वानी का ‘जाग्रत जनता’ कांग्रेसी
पिट्ठू अखबार माने जाते थे और ‘कुमाऊं राजपूत’ एक जाति विशेष का अखबार जाना जाता था, वहां ‘पर्वतीय’ आम जनता का निष्पक्ष और निडर अखबार कहा
जाता था।” इस निष्पक्षता और निडरता ने पाठकों का स्नेह कमाया, राजनैतिक शुभचिंतक बने तो शत्रु भी बनने ही थे। बहरहाल, यात्रा जारी रही। कुछ समय बाद छपाई के लिए अपनी प्रेस ही नहीं जुटी,
1955 से नैनीताल में एक ठिकाना भी मिल गया। यह ठिकाना पत्रकारों,
विधायकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का अड्डा भी
बनता गया। कालांतर में यहीं ‘पत्रकार हॉस्टल’ खोला गया। ‘पर्वतीय’ क्रमश: स्थापित
होता गया। चालीस पार होने पर शादी की लेकिन उनियाल जी की बेचैनी जारी रही जिसने ‘पर्वतीय’ के नए-नए संस्करण खुलवाए और अपने लिए संकट
आमंत्रित किए। 1964 में ‘सीमांचल’ दैनिक
अखबार शुरू किया जिसे एक साल तक चलाया भी। फिर 1972 में ‘पर्वतीय’
को ही दैनिक रूप में शुरू किया। साप्ताहिक भी स्वतंत्र रूप में
निकलता रहा।
अपनी लम्बी यात्रा में ‘पर्वतीय’ ने जुझारू पत्रकारिता की, अनेक पत्रकारों-लेखकों को
मंच दिया और तराशा भी, शासन-प्रशासन से जनता के मुद्दों पर
मोर्चे लिए, उत्तराखण्ड की बेहतरी के सपने देखे और उस तरफ
चलने-चलाने की पहल की। 1985 तक ‘पर्वतीय’ पहाड़ के ज्वलंत मुद्दों और जनता के आंदोलनों को उठाता रहा। गंगा प्रसाद
विमल ने उनकी पत्रकारिता को याद करते हुए लिखा है कि “... पर्वतीय अखबार का ढांचा
तो पर्वत से ही आता है लेकिन... पर्वतों का देश के प्रति क्या रुख होना चाहिए और
देश का पर्वतों के प्रति का रुख होना चाहिए, और जब भी वह
लिखते थे, अपनी आवाज पूरे देश तक पहुंचाना चाहते थे, क्षेत्र तक सीमित नहीं रखना चाहते थे।”
टीबी जैसे तब के कठिन रोग को पराजित करके उन्होंने 38 वर्ष
खूब सक्रिय जीवन जिया और उसमें से 33 साल पत्रकारिता
को दिए। फिर रोग अपनी कीमत वसूलने लगा। दिल का रोग भी लगा तो डॉक्टरों ने नैनीताल
जैसी ठंडी जगह में नहीं रहने की सलाह दी। नैनीताल का ‘पत्रकार
हॉस्टल’ बेचकर वे कोटद्वार चले गए। उस पैसे से वहां पहाड़ के
गरीब विद्यार्थियों की सहायतार्थ ‘हिमालय अध्ययन कुंज’
की स्थापना की। ‘पर्वतीय चैरिटेबल ट्रस्ट’
वे पहले ही बना चुके थे। 1988 में कोटद्वार में ही उनका निधन हो
गया।
शताब्दी वर्ष में अपने पिता को ही नहीं, बल्कि
एक समर्पित और जुझारू पत्रकार-सम्पादक को सम्मान से याद करने के लिए सीमा उनियाल
मिश्रा ने जिस मेहनत, लगन तथा व्यापक दृष्टि के साथ इन
ग्रंथों का खूबसूरत प्रकाशन और जिम्मेदार सम्पादन किया है, वह
प्रशंसनीय है। शेखर पाठक के लेख से पता चलता है कि सीमा जी ने देवेंद्र मेवाड़ी के
सहयोग से ‘द जर्नी ऑफ बिष्णुदत्त उनियाल’ नामक फिल्म भी बनाई है और जैसा कि पाठक जी ने लिखा है “इससे कम में उन्हें
शताब्दी पर सलाम किया भी नहीं जा सकता था।”
हम अपने पुरखों के योगदान को बराबर याद करके ही आगे की राह, रोशनी
और ताकत पाते हैं। 30 मई उनियाल जी का जन्म दिन होता है और हिंदी पत्रकारिता दिवस
भी। अपने इस पत्रकार-पुरखे को बड़ा-सा सलाम।
- नवीन जोशी, 30 मई, 2022
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