‘यार पुष्कर, तू तो दूर देश का प्राणी जैसा हो गया,’ एक दिन गिर्दा का फोन आया - ‘आ जा, कोसी का घटवार के इलाके में चलेंगे, माठू-माठ।’
पुष्कर ‘नदी बचाओ आंदोलन’ में
शामिल होने उत्साह से गया। सूखती कोसी नदी के किनारे-किनारे नदियों, झीलों और हिमालय को बचाने की अपील करती, जन जागरण
करती, गीत गाती यात्रियों की टोली में शामिल होकर वह तरोताज़ा
हो गया। गिर्दा का साथ उसे वैसे भी ऊर्जा से भर देता था। काफी समय से उनकी सेहत ठीक
नहीं चल रही थी। फिर भी यात्रा में आए और सदा की तरह एक गीत के साथ- ‘मेरि कोसि हरै गे कोसि’ यानी 'मेरी कोसी खो गई है, कोसी!' यात्रा के दौरान गिर्दा से उसकी खूब
बातें हुईं। उत्तराखण्ड के हालात से गिर्दा कम व्यथित नहीं थे लेकिन निराशा उनके पास फटक
नहीं सकती थी।
आंदोलनकारी संगठनों के बिखराव, टूटन,
अधकचरी राजनैतिक तैयारी, जन-विरोधी ताकतों के
निरंतर मजबूत होने और जल-जंगल-जमीन की बढ़ती लूट पर पुष्कर की उदासी के संदर्भ में गिर्दा
ने कहा- ‘हां भुला, संगठनों में भटकाव
है, ठहराव है। बहुत सी धाराएं-उपधाराएं पैदा हो गई हैं। सही
धारा को समझना-पकड़ना मुश्किल हो रहा है... लेकिन, एक बात बताऊं पुष्कर तुझे,
एक और आंदोलन इस समय उत्तराखंड के गर्भ में पल रहा है। जो हालात हैं,
पक्का है कि अगला आंदोलन अधिक परिपक्व साबित होगा। जनता एक कदम और
आगे बढ़ेगी। अभी बड़े धैर्य की आवश्यकता है।’
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