Friday, January 26, 2024

नदीष्ट - नदी से इश्क और जीवन से संवाद

नदीष्टउपन्यास के बारे में मैंने फेसबुक पर किसी की चंद पंक्तियों की पोस्ट देखी थी। नदीष्टमराठी शब्द है जिसका अर्थ है नदी से लगाव। यह हाल-हाल में मराठी का चर्चित उपन्यास है, मनोज बोरगावकर का लिखा, जिसे गोरख थोरात ने हिंदी में अनुवाद किया है। प्रकाशित किया है सेतु प्रकाशन (2022) ने इसी नाम से क्योंकि अनुवादक के अनुसार इसका कोई सटीक हिंदी शब्द उन्हें नहीं मिला।

नदी से लगाव के बारे में उपन्यास! मैं सुखद आश्चर्य से भर गया था और उसी समय ऑनलाइन मंगा लिया। नदियों के बारे में कई यात्रा संस्मरण हैं। नर्मदा पर अमृतलाल वेगड़ जी की एक से अधिक पुस्तकें हैं, जिनमें नर्मदा से उनकी बेपनाह मुहब्बत बोलती है। राहुल सांकृत्यायन और कृष्णनाथ जी के यात्रा संस्मरणों में हिमालयी नदियों के बारे में अद्भुत प्रसंग आते हैं। हाल के वर्षों में भी कुछ यात्रा संस्मरण आए हैं, जिनमें नदी एक जीवंत पात्र की तरह है। कविताएं भी खूब हैं नदियों के बारे में। नदी के बारे में नरेश सक्सेना जी की एक कविता का लम्बा शीर्षक ही बहुत कुछ कह जाता है- “पहाड़ों के माथे पर बर्फ बनकर जमा हुआ यह कौन से समुद्र का जल है जो पत्थर बनकर पहाड़ों के साथ रहना चाहता है!” केदारनाथ अग्रवाल का केन से लगाव उनकी कविताओं में मुखर होता है- “नदी किनारे/ पालथी मारे/ पत्थर पानी चाट रहा है!” लेकिन नदी से लगाव के बारे में पूरा एक उपन्यास?

नदीष्टका नायक अपने शहर से दूर पालियों वाली नौकरी करता है। ट्रेन से आता-जाता है और जब भी मौका मिले गोदावरी के पास चला आता है- सुबह मुंह अंधेरे, भरी दोपहर, शाम को या अंधेरा हो चुकने के बाद भी। वह नदी को देखता रहता है, तट पर बैठा उससे बातें करता है, उसमें खड़ा होकर पैदल चलता है और एक-दो बार आर-पार तैर आता है। नदी के पास आए बिना उसे चैन नहीं मिलता। गर्मियों में सूखी, क्षीण धार बनी, बदबू मारती नदी हो या बरसात में उफनाकर तटों का अतिक्रमण करती हो, नायक को उसके पास आना ही आना है और जब तक सम्भव हो तैरना है। वह उसमें गोते लगता है, सबसे गहरी जगह पर, कई बार प्रयत्न करके उस गहरे तल से अंजुरी में रेत भर लाता है। नदी होती है और वह होता है। उसे नदी के साथ एकान्त पसंद है, इसलिए वह बिल्कुल अलग, दूर के तट पर जाता है। नदी के परिवेश से भी उसे मुहब्बत हो जाती है- रेत, कंकड़-पत्थर, इमली का पेड़, उस पर ऊधम काटने वाले बंदर, मोरों का झुण्ड और झाड़-झंखाड़- “ये झाड़-झंखाड़ अब इतने परिचित हो गए हैं कि उन्हें देखते ही किसी आत्मीय से मुलाकात हो जाने का अनुभव होता है। सहारा भी महसूस होता है।” नदी से रागात्मक सम्बंध रखने वाले कुछ मानव चरित्र भी हैं, जो समाज के हाशिए पर हैं, जिनसे नदी के कारण नायक का अपनापा होता जाता है। भिखारिन सकिनाबी है, एक भयानक पारिवारिक प्रसंग के बाद नौकरी छोड़कर भिखारी का जीवन जी रहा भिकाजी है, अति-संवेदनशील हिजड़ा सगुना है, मछेरा बामनवाड़ है, नदी तट पर भैंस चराने वाला कालूभैया है और नायक को कभी तैराकी के गुर सिखाने वाले उसके गुरु दादाराव हैं। इन सबके अंतर्सम्बंधों में गोदावरी अनिवार्य रूप से उपस्थित है और विभिन्न भूमिकाओं में। नदी इन सबको जोड़ती है, अलग-अलग भी रखती है और नदी के बहाने ही उनकी अपनी त्रासद कथाएं खुलती हैं। नायक अकारण ही नहीं सोचता- “अगर ये लोग नदी के अलावा कहीं और मिले होते तो क्या उनके आंतरिक जीवन की परतें मेरे सामने खुल पातीं?” बाहर से कठोर लेकिन भीतर से अति संवेदनशील सगुना की कथा पाठक को झकझोर जाती है। भिकाजी की कथा भी कम त्रासद नहीं। उधर, कालूभैया, उनकी भैंसें और प्रेयसी की उपस्थिति अनेक दुखांत कथाओं के बीच एक उल्लास की तरह है।

नदी का बहना जैसे जीवन का बहना है। अपने उद्गम से निकली धारा फिर कभी वापस नहीं लौट सकती। वैसे ही जीवन है। जो बीत गया, वह लौटता नहीं, समय हो, मनुष्य या रिश्ते। नदी की अपनी गति है, वैभव है, विपन्नता है, खुशी और दर्द हैं। जीवन के भी। भिन्न पृष्ठभूमि और भिन्न स्थितियों वाले मनुष्यों के बीच भी दर्द और सहकार के रिश्तों की नदी बहती है। कभी वह हरर-हरर बहती है, कभी सूखती है और कभी किनारे तोड़कर कहर ढाती है। हर हाल में वह संवाद करती है- “कितनी सहजता और कितनी कुशलता से नदी तट अपनी प्रकृति का एक-एक रहस्य हमारे सामने खोलता जाता है। ठीक वैसे, जैसे दादी अपने पोते के सामने अपने बटुवे की चीजें खोलकर रख देती है.... इसके लिए एकमात्र शर्त है, आपके कान सुनने के लिए बेताब होने चाहिए। इससे भी आगे बढ़कर, आपकी पूरी देह इसे सुनने के लिए बेताब होनी चाहिए। तभी वे स्वर किंचित ही सही, आपकी झोली में आ गिरते हैं।”

“तुझी को नदी से इतना लगाव क्यों है?” दोस्तों ने एक बार नायक से पूछा। वह ठीक जवाब नहीं दे पाया लेकिन सोचता रहा- “एक दर्शन है मेरा अपना। जन्म से पहले हम सभी मां के गर्भ में पानी में ही रहते हैं। मां के गर्भ में यानी एक कुंड में ही तैर रहे होते हैं। न समय-असमय की फिक्र, न किसी बात का डर। एक ही सतह पर तैरते रहते हैं। इधर से उधर, इस तट से उस तट पर, बिल्कुल नदी की तरह। कुछ-कुछ निचली सतह का ठौर न मिलना, सब कुछ अपना महसूस होना। सांस से जुड़ा। तरबतर करता!” मां के गर्भ से बाहर आना ही होता है और बाहर बहुत कुछ बदलता-नष्ट होता मालूम देता है- “बामनवाड़, तुम कहते हो कि अब पानी साफ नहीं रहा, लेकिन लोग भी कहां साफ रह गए हैं अब पहले जैसे? पानी खराब होने की वजह से लोग खराब हो गए हैं या लोग खराब होने की वजह से पानी खराब हो गया है?”

उपन्यास पढ़्ते हुए नदी पाठक के साथ बहती है। उसके भीतर गूंजती है। “नदी में सालों से पड़े पत्थरों में भी नदी के कुछ गुण समा जाते हैं। इतने सालों से मैं नदी में तैर रहा हूं, मुझमें भी तो कुछ गुण उतरे होंगे नदी के?” जैसे, पाठक में भी नदी के कुछ गुण समाने लगते हैं।

इतने सुंदर उपन्यास के लिए बधाई देने के वास्ते मैंने किताब में छपे नम्बर पर फोन मिला दिया। फोन मनोज बोरगावकर जी ने ही उठाया। फिर देर तक बातें हुईं। उन्होंने बताया कि नदीष्टमेरी आठ सालों की मेहनत है जो गोदावरी के सानिध्य-स्नेह का ही परिणाम है। वे नांदेड़ में गोदावरी के पास रहते हैं और बरसों से उसके इश्क में हैं। इस इश्क के बिना यह उपन्यास सम्भव नहीं होता। मनोज जी मूलत: कवि हैं। नदीष्टउपन्यास को एकाधिक पुरस्कार भी मराठी में मिल चुके हैं।

-    न जो, 26 जनवरी, 2024                      

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