Saturday, March 16, 2024

बंगलुरु का जैसा जल संकट हर शहर पर मंडरा रहा है

बंगलुरु शहर का पेयजल संकट सुर्खियों में है। दक्षिण भारत के इस बड़े शहर को रोजाना जितने पानी की जरूरत है, उसका आधा भी बड़ी मुश्किल से मिल पा रहा है। बंगलुरु दूर है, यह मानकर निश्चिंत बैठे मत रहिए। जल संकट हम सबकी देहरी पर है। हम ज़ल्दी भूल जाते हैं। क्या आपको 2019 में चेन्नै में हुए भीषण जल संकट की याद है? तब चेन्नै शहर को ऐलान करना पड़ा था कि उसके लिए 'जीरो वाटर डे' की नौबत आ गई है यानी उसके सभी जलाशय सूख चुके हैं। यह समाचार पूरे विश्व में चर्चा व चिंता का विषय बना था। उसके बाद हमने इसे भुला दिया। अब बंगलुरु का संकट सामने है। आने वाले दिनों में हमारे किसी भी शहर में पानी का भीषण संकट खड़ा हो सकता है। हम और हमारी सरकारें और उनकी विकास नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। 

बंगलुरु की एक करोड़ 40 लाख जनता को पानी उपलब्ध कराने वाले करीब तेरह हजार नलकूप सूख गए हैं। स्कूल, अस्पताल, उद्योग और शहर के प्रसिद्ध आई टी केंद्र जल संकट से परेशान हैं। बंगलुरु के अधिकारियों ने पेयजल का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त कदम उठा रखे हैं। निजी टेंकरों से पेयजल आपूर्ति करने वालों पर निगरानी की जा रही है और आवासीय इलाकों में पानी पहुंचाने वाले टेंकरों पर टैक्स लगा दिया गया है। शहर के निजी नलकूप प्रशासन ने अपने नियंत्रण में ले लिए हैं। कर्नाटक दुग्ध संघ के दूध ढोने वाले टैंकरों को पानी लाने और पहुंचाने के काम में लगा दिया गया है। 

अभी गर्मी की शुरुआत हुई ही है। आने वाले दिनों में हालात और खराब होने की आशंका है। कर्नाटक शहर किसी नदी के किनारे नहीं बसा है। इसलिए संकट बहुत बड़ा है, हालांकि जो शहर नदी के किनारे हैं, उन्होंने अपनी नदियों का क्या हाल कर रखा है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। दिल्ली की यमुना और लखनऊ की गोमती को ही देख लीजिए। इन नदियों के आस-पास से गुजरते हुए बदबू का भभका आता है। ये नदियां नहीं, सीवर बन गए हैं। 

बंगलुरु के जल संकट का कारण समझना आसान है। तीस साल पहले तक बंगलुरु का अधिकांश पानी शहर और आसपास बनाई गई झीलों से आता था। ये मानव निर्मित झीलें थीं। जैसे-जैसे शहर का विस्तार होता गया, विशेष रूप से आई टी उद्योग का बड़ा केंद्र बनता गया, बेहिसाब निर्माणों ने झीलें पाट दीं। बिल्डरों ने झीलों के आसपास की हरियाली नष्ट कर दी, उनके जल-ग्रहण क्षेत्र को कंक्रीट से पाट दिया और चुपके से, बल्कि प्रशासनिक मिलीभगत से झीलों पर भी कब्जा कर लिया। मिट्टी कंक्रीट के मलबे से पाट दी। 

मिट्टी कंक्रीट से पटती गई तो बारिश का पानी धरती के भीतर जाना कम होता गया। इस दौरान आने-जाने वाली सरकारों ने इस तरफ आंख मूंदे रखीं। 2017 में शहर के पर्यावरण प्रबंधन और नीति अनुसंधान संस्थान ने एक शोध अध्ययन में पाया था कि बंगलुरु की बची-खुची झीलें बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। यही नहीं, शहरी विकास की तेज गति के मुकाबले पानी का प्रबंध करने की चिंता नहीं की गई। 

चेन्नै के बाद बंगलुरु का यह जल संकट बड़ी गम्भीर चेतावनी दे रहा है। सत्ता पाने के लिए धर्म की राजनीति में आकंठ डूबे राजनैतिक दलों ने इस ओर देखना ही बंद कर दिया है और भक्त इसी से गदगद होकर पानी बर्बाद करने में जुटे हैं। भव्य मंदिर बन रहे हैं, मूर्तियां खड़ी की जा रही हैं, जैसे कि पानी का संरक्षण और प्रबंधन करने के लिए देवता और हमारे पुरखे आएंगे!

नीति आयोग ने 2018 में आगाह किया था कि बंगलुरु समेत देश के 21 शहरों का भूमिगत जल 2030 तक समाप्त हो जाएगा और इसका सीधा असर सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ेगा जिसके छह प्रतिशत तक कम हो जाने की आशंका है। कई विशेषज्ञ भी लगातार चेताते रहे हैं कि देश में भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है जबकि उसके रीचार्ज होने की गति बहुत ही धीमी है। 

वर्षा जल के संरक्षण और उससे भूमिगत जल को रीचार्ज करने की सरकारी योजनाएं केवल कागज पर हैं। सरकारी भवनों में रीचार्ज व्यवस्था की गई, उस पर काफी धन खर्च किया गया लेकिन वह काम करता है या नहीं, यह कोई नहीं देखता। लखनऊ में ही बड़े सरकारी भवनों में वर्षा जल रीचार्ज व्यवस्था काम नहीं करती। 

जिस तेजी और समर्पण से मंदिर बनाए जा रहे हैं, क्या उसी निष्ठा और तेजी से पानी के रखरखाव का काम नहीं किया जा सकता? उससे वोटों की फसल नहीं मिलेगी लेकिन मनुष्य के जीवित रहने के साधन बने रहेंगे। 

- न जो, 17 मार्च, 2024, लखनऊ


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