मेवाड़ी जी, हमारे देवेन (देवेन्द्र) मेवाड़ी, के अंदाज़े बयां के क्या कहने! युवावस्था में कथा लेखन से शुरू करके वे विज्ञान लेखक बने और जटिल से जटिल विज्ञान की गुत्थियां किस्से-कहानियों में इस तरह समझाने लगे कि बड़ों से लेकर बच्चों तक की कल्पनाओं के पंख उड़ान भरने लगे। आज वे हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय विज्ञान लेखक हैं, खूब घूमते हैं और अपनी रोचक संवाद शैली में बच्चों-बड़ों को अंतरिक्ष की सैर करा लाते हैं। वे जैसा सुंदर लिखते हैं, वैसा ही आकर्षक बोलते हैं। उन्हें पढ़ना और सुनना बांध लेता है।
उनकी याददाश्त भी खूब है और स्मृतियों का जैसा लेखा-जोखा वे लिखते या सुनाते हैं, उसमें व्यक्ति और व्यक्तित्व-कृतित्व ही नहीं, उसका पूरा पर्यावरण अपनी ध्वनियों समेत गूंजने लगता है। ‘मेरी यादों का पहाड़’, ‘छूटा पीछे पहाड़’, ‘जीवन जैसे पहाड़’ और ‘कथा कहो यायावर’ के बाद उनकी यादों की नई किताब ‘यायावर की यादें’ भी उतनी ही रोचक और बांधकर रखने वाली है, जिसमें मनीषी साहित्यकारों, मित्र रचनाकारों, अग्रज एवं साथी विज्ञान लेखकों के स्मृति-चित्र हैं। 1980 के दशक में हमने लखनऊ में मेवाड़ी जी से भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी, हेम चंद्र जोशी, नारायण दत्त, रमेश दत्त शर्मा, कैलाश साह, सईद शेख, आदि के संग-साथ के कई किस्से सुन रखे थे। इस पुस्तक में इन सबका और कई अन्य रचनाकारों (कुल 19) के बारे में पढ़ना जैसे उनके ही साथ समय बिताना है। इनके अलावा पुस्तक में डॉ अब्दुल कलाम, गुणाकर मुले, खड्ग सिंह वल्दिया, प्रो यशपाल, चंद्र शेखर लोहुमी, प्रेमानंद चंदोला, दिलीप सालवी, शुकदेव प्रसाद, अरुण कौल, गिर्दा और वीरेन डंगवाल की बोलती-बतियाती स्मृतियां दर्ज़ हैं।
भीष्म साहनी जैसा स्थापित साहित्यकार एक अनजान युवक के साथ कितना सहज और आत्मीय हो सकता था और किस प्रकार उसे लेखन की दिशा दे सकता था, मनोहर श्याम जोशी जैसे बहुआयामी लेखक-पत्रकार के भीतर किस प्रकार एक विज्ञान लेखक-प्रेरक हुआ करता था, वर्षों तक ‘नवनीत’ जैसी पत्रिका के सम्पादक रहे नारायण दत्त जी कैसे युवा लेखकों के लेख सम्पादित करके छापने से पहले उन्हें देखने-समझने के लिए लेखक के पास भेज दिया करते थे, रमेश दत्त शर्मा, गुणाकर मुले, प्रेमानंद चंदोला, कैलाश साह, दिलीप सालवी और शुकदेव प्रसाद का सहज-सरल विज्ञान लेखन में कितना बड़ा योगदान है और चंद्र शेखर लोहुमी नामक के सामान्य ग्रामीण अध्यापक ने किस तरह बिना किसी संसाधन के मात्र अपनी जिज्ञासा और शोध-प्रवृत्ति से ‘लेण्टाना बग’ की खोज की, यह सब पढ़ते हुए हम इस अपराध बोध से भी भर उठते हैं कि हिंदी का लेखक-पाठक संसार कितना नाशुक्रा है कि अपनी ऐसी विभूतियों को भुला बैठा है। शैलेश मटियानी को आज कितने लेखक-संगठन या पाठक याद करते हैं, जिनके संघर्ष और जीवट की मिसाल नहीं मिलती और जिन्होंने एक-दो नहीं, कम से कम एक दर्जन कालजयी कहानियां हिंदी को दीं? भाषा विज्ञान पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का काम करने वाले डॉ हेम चंद्र जोशी, जिन्होंने एक दौर में ‘धर्मयुग’ समेत कई पत्रों का सम्पादन भी किया था, का नाम भी किसी को स्मरण नहीं होगा। गिर्दा, वीरेन डंगवाल और सईद शेख, तीनों अपनी-अपनी तरह के अद्भुत रचनाकार और इनसान, तो हाल-हाल में दिवंगत हुए हैं। मेवाड़ी जी इन सबके साथ बिताया अपना समय, रोचक किस्से, आदि तो बताते ही हैं, उनके काम का महत्त्व भी दर्ज़ करते चलते हैं। इसी कारण यह किताब मात्र स्मृतियों का लेखा-जोखा नहीं रह जाती।
पुस्तक का अंतिम अध्याय ‘जीवन यात्रा में साथ चलती हुई चीजें’ मेवाड़ी जी ही लिख सकते हैं जो मेरे जैसे भावुक प्राणी को भीतर तक भिगो देता है। एक बड़ी, गोल, सितारों वाली नथ है, जो साठ साल पहने मेवाड़ी जी की मां पहना करती थी, दसवीं कक्षा की रूलदार कॉपी के पन्नों को सिलकर बनाई गई ‘आत्मकथा डायरी’ है, 1965 से साथ रही नीली डायरी है, कभी हैदराबाद में खरीदा गया सिरेमिक का जग है, 1968 से अधूरी पड़ी एक कहानी के पीले-भुरभुरे हो चुके पन्ने हैं, 1968 में इलाहाबाद में वीरेन डंगवाल का बीयर पीने के लिए दिया हुआ एक गिलास है, 1967 में खरीदी गई एचएमटी की घड़ी है, 1969 में शादी के साल खरीदा गया फिलिप्स का कमाण्डर ट्रांजिस्टर है, नौकरी लगने पर खरीदा गया बत्ती वाला केरोसीन का स्टोव है, इक्यावन वर्ष पहले तुन की लकड़ी से बनवाई गई टीवी ट्रॉली और छुटकी रैक है, जनम भर साथ निभाने को गलबहियां डाले दो जड़ें हैं, 47 साल पहले नैनीताल में शेखर पाठक की दी हुई जैकेट है और किताबों की अल्मारी में पड़ी कुछ सूखी पत्तियां हैं, पहाड़ के बांज, बुरांश, काफल, आदि की। यह अत्यंत संवेदनशील एक रचनाकार का अद्भुत और कीमती खजाना है। हरेक के साथ यादों के अंतहीन सिलसिले हैं जो उन्हें अपनी मिट्टी, रिश्तों, दोस्तियों, मुहब्बतों, और भावनाओं से जोड़े रखते हैं। ‘यूज एण्ड थ्रो’ के इस चरम उपभोक्तावादी दौरकी पीढ़ी इस दीवानेपन पर हंस सकती है लेकिन वो क्या जाने कि शब्दों में प्राण कैसे भरे जाते हैं!
मेवाड़ी जी की इस शानदार किताब को उनकी छोटी बेटी मानसी मेवाड़ी ने अपने जीवंत रेखाचित्रों से सजाया और सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
- नवीन जोशी, 08 मई 2025
1 comment:
मेरी यादों के बियाबान में
वरिष्ठ संपादक,पत्रकार और उपन्यासकार नवीन जोशी मेरी यादों के बियाबान की सैर कर आए, इससे बड़ी खुशी मेरे लिए भला क्या हो सकती है। बहुत आसान नहीं होता 262 पृष्ठों में फैली किसी की यादों के बियाबान की सैर कर आना जहां किसी और की ज़िंदगी के मोड़ों पर मिले लोगों से क़रीबी मुलाकात होती है। किसी की यादों में जाकर उन लोगों से उसकी बातों-मुलाकातों को देखना-सुनना एक नया और अलग अनुभव भी होता है।
नवीन जी ने मेरी यादों के बियाबान की सैर में क्या अनुभव किया, उन्होंने वह सब अपने ब्लॉग 'अपने मोर्चे पर' में बयां कर दिया है। पढ़िएगा, देखें आपको कैसा लगता है उनकी इस सैर का अनुभव।
- देवेंद्र मेवाड़ी
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