हिंदी के अत्यत संवेदनशील कवि हरीश चंद्र पाडे की "उत्तरा" में छपी यह कविता पढ कर हम पति-पत्नी कल से बहुत द्रवित और उद्वेलित हैं और बार बार इसे पढ रहे है. आप भी ज़रूर पढें--
इस घर से वधू को लेने गई है बारात
इस घर में रतजगा है आज
इस समय जब वहां बाराती थिरक-थिरक कर साक्ष्य बन रहे होंगे
जीवन के एक मोड का
यहां औरतें गा कर नाच कर स्वांग रच -रच कर
लंबी रात के अंतराल को पाट रही हैं
वहां जब पढे जा रहे हैं झंझावातों में भी साथ रहने के मंत्र
और सात जन्मों के साथ की आकांक्षा की जा रही है
यहां जीवन भर साथ चलते-चलते थकी औरतें
मर्दों का स्वांग रच रही हैं
इनके पास विषय ही विषय हैं
स्वांग ही स्वांग
प्रताडनाएं, जिन्होंने उनका जीना हराम कर रखा था
अभी प्रहसनों में ढल रही हैं
डंडे कोमल-कोमल प्रतीकों में बदल रहे हैं
वर्जनाएं अधिकारों में ढल रही हैं
ये मर्द बन कर प्रेम कर रही हैं बुरी तरह
अपनी औरत को बुरी तरह फटकार रही हैं
जूतों की नोकों को चमका रही हैं बार-बार
मूछों में ताव दे रही हैं
जो आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिये सुरक्षित है
उस लोक में विचर रही हैं
पिंजरे से निकल कर कितना ऊंचा उडा जा सकता है
परों को फैला कर देख रही हैं
वह टुकडा
जो द्वीप है उनके लिये
उसे महाद्वीप बना रही हैं
अपने वास्तविक संसार में लौटने के पहले
कल सुबह एक और औरत के आने के पहले
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