भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा ह्ज़ारे और सिविल सोसायटी के अनशन के पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा-पढा जा चुका है.नैनीताल समाचार के संपादक और अपने मित्र राजीव लोचन साह का यह लेख पूरे मामले को समर्थन या विरोध की नज़र से देखने की बज़ाय व्यापक संदर्भों में विश्लेषित करता है और कुछ बहुत ज़रूरी सवाल भी उठाता है. यहां कटघरे में मीडिया भी है. इन सवालों पर ज़्यादा से ज़्यादा विचार-बहस हो, इसीलिये यहां साभार प्रस्तुत करता हूं- नवीन जोशी
भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का पहला चरण जीत लिया गया है…. जन लोकपाल विधेयक लाने के बारे में केन्द्र सरकार अण्णा हजारे की सारी माँगें मान चुकी है….. अब अगली लड़ाई जाने कब और कैसी होगी!
हम जनान्दोलनों से जले लोग हैं। अब जनता के उत्साह को भी फूँक-फूँक कर देखते हैं। 1994 में हमने बड़ी उम्मीद के बीच जनता के एक जबर्दस्त उभार के साथ दर्जनों लोगों के प्राणों का बलिदान दिया, मुजफ्फरनगर का अपमान झेला और एक राज्य प्राप्त किया। फिर जनता सो गई और उत्तराखंड देश के तमाम अन्य प्रदेशों जैसा ही भ्रष्ट, कुशासित और लूट-खसोट वाला राज्य बन गया।
5 अप्रेल को जब अण्णा हजारे ने अनशन शुरू किया, मैं देहरादून में था। मीडिया में अण्णा साहब के प्रस्तावित उपवास की चर्चा काफी पहले से ही शुरू हो गई थी। उस शाम देहरादून के गांधी पार्क में भी अण्णा के समर्थन में एक सभा का आयोजन था। मुझे चूँकि उसी वक्त वापस लौटना था, अतः उस सभा में शिरकत करना मेरे लिये सम्भव नहीं था। उस सभा की सूचना देने वाला जो बैनर दिखाई दिया, वह किसी ‘ओबेराय मोटर्स’ द्वारा प्रायोजित था। हमने देहरादून को सलाम किया, जहाँ सामान्यतः जनान्दोलनों से नाक भौं सिकोड़ने वाले और सामाजिक कर्म के नाम पर अपने आप को कथा-प्रवचनों तक सीमित रखने वाले व्यापारी भी भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ‘सिविल सोसाइटी’ के साथ कंधे से कंधा मिला कर डट गये थे।
अब तक टी.वी. चैनल अण्णा हजारे के बारे में लगातार खबरें देने लगे थे। जहाँ-जहाँ टी.वी. स्क्रीन पर नजर पड़ी, अण्णा साहब की ही झलक दिखाई दी। महज एक दिन पहले जो इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ‘वल्र्ड कप क्रिकेट’ में इंडिया की जीत का जयजयकार कर रहा था, वह एकाएक अण्णा पर कैसे फोकस हो गया, यह अपनी समझ में नहीं आया। हमने अण्णा हजारे के बारे में ‘नैनीताल समाचार’ के 15 से 30 सितम्बर 1998 के अंक के मुखपन्ने पर ‘अण्णा हजारे की जगह जेल में ही है’ शीर्षक से एक टिप्पणी प्रकाशित की थी। तब महाराष्ट्र में भी अण्णा के बारे में गिने-चुने लोग ही जानते थे। अण्णा द्वारा भ्रष्टाचार का आरोप लगाये जाने पर महाराष्ट्र के समाज कल्याण मंत्री बबनराव घोलप ने उन पर मानहानि का मुकदमा कर दिया था। मजिस्ट्रेट एच. के. होलंगे पाटिल ने अण्णा साहब को पाँच हजार रु. का मुचलका भरने या तीन माह के लिये जेल जाने का विकल्प दिया था। अण्णा साहब पैसा न होने की मजबूरी जताते हुए जेल चले गये थे। तब अत्यन्त क्षोभ में हमने वह टिप्पणी लिखी थी। तब से आज तक अण्णा साहब सात-आठ बार उपवास कर चुके हैं। अब तक तो मीडिया ने अण्णा को घास नहीं डाली। अब एकाएक क्या हो गया है ? क्या हाल के महीनों में एक के बाद एक सामने आये घोटालों से जनता में बढ़ते असंतोष और ट्यूनीशिया तथा मिश्र में हुए सफल जन विद्रोह के बाद मीडिया ने इस घटना में टी.आर.पी. बढ़ने की पूरी सम्भावनायें टटोलीं और फिर ‘हाईप’ बना देने का फैसला किया ?
नैनीताल वापस पहुँचने पर एक के बाद एक अनेक फोन आये। सारे देश में, सब जगह कुछ न कुछ हो रहा है। सिर्फ नैनीताल में ही हम पिछड़ रहे हैं। क्या आप इस मामले में कुछ करने जा रहे हैं….. कोई कार्यक्रम इत्यादि ? …… मगर मैं स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। इस ख्याल से कि सोचने के लिये कुछ वक्त मिल जायेगा और हो सकता है तब तक मामला सुलझ ही जाये, हमने रविवार की तिथि घोषित कर दी। हालाँकि इस बीच कुछ उत्साही युवक तल्लीताल डाँठ पर अण्णा के समर्थन में धरने पर बैठे भी। सचमुच शुक्रवार की शाम तक सुलह हो ही गई।
…..अब जबकि अण्णा हजारे जंतर मंतर से वापस अपने गाँव रालेगन सिद्धि पहुँच गये हैं, क्या यह चार-पाँच दिन का घटनाक्रम एक मीडिया प्रायोजित नाटक, जिसमें शहरी मध्य वर्ग की भावनाओं को अत्यन्त चतुरता से भुनाया गया, नहीं लग रहा है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक उत्सव, एक पिकनिक की तरह हो सकती है ? इस तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ में कितने लोगों को देश में चल रहे जमीनी संघर्ष, सरकार के दमन और जनता की अदम्य जिजीविषा के बारे में जानकारी है ?
यह स्थापित सत्य है कि मीडिया आज बहुत बड़ी ताकत है। जब सारे चैनल और अधिकांश अखबार एक सुर में कोई बात कहने लगते हैं तो सामान्य व्यक्ति में यह विवेक ही नहीं बचा रह पाता कि वह खुले दिमाग से सोच सके। सच तो यह है कि सामान्य व्यक्ति के पास जानकारियाँ ही नहीं होतीं। सूचना क्रांति के दौर में सूचनाओं का जबर्दस्त अकाल है। टी.वी. चैनलों पर निर्भर या दो-चार अखबार पढ़ कर देश-दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने वाला व्यक्ति कैसे जाने कि मणिपुर में ईरोम शर्मिला चानू नामक एक औरत पिछले दस साल से लगातार ‘विशेष पुलिस अधिकार कानून’ के खिलाफ गांधीवादी तरीके से तरह से उपवास कर रही है? उसे क्या मालूम कि देश में माओवाद इसलिये पनप रहा है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद छोटी-बड़ी, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिये सरकार किसानों की जमीनें छीन रही है और अपनी जमीनें बचाने के लिये लड़ रहे लोगों के बीच माओवादियों को जड़ें जमाने का मौका मिलता है। फिर अपने ही नागरिकों का जनसंहार करने के लिये सरकार ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ शुरू कर सेना या अर्द्धसैनिक बल भेजती है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों में कॉरपोरेट सेक्टर द्वारा सरकारों के साथ मिल कर प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट-खसोट बहुत ज्यादा है। हमारे उत्तराखंड में 500 से अधिक जल विद्युत परियोजनायें बन रही हैं, जिनमें से अधिकांश के विरोध में स्थानीय ग्रामीण लड़ रहे हैं। इनके बारे में मीडिया नहीं बताता या बताता भी है तो बेहद चलताऊ ढंग से। मंदाकिनी नदी पर बन रही परियोजना का विरोध करने वाले दो आन्दोलनकारी, सुशीला भंडारी और जगमोहन झिंक्वाण, अण्णा हजारे के उपवास शुरू करने से महज दो दिन पहले 60 दिन की कैद काट कर जेल से रिहा हुए थे। लेकिन यहाँ कुमाऊँ में अखबार पढ़ कर जानकारी हासिल करने वाले किसी पाठक को कानोंकान खबर भी नहीं हुई। खबर होती तो क्या पता कुछ उत्साही नौजवान उनके समर्थन में भी मोमबत्तियाँ जला कर हल्द्वानी की सड़कों पर निकल आते! जापान के फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए विस्फोट के आलोक में देखें तो महाराष्ट्र, जहाँ के अण्णा हजारे रहने वाले हैं, के रत्नागिरि जिले के जैतापुर में बन रहे दुनिया के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दबाने के लिये सरकार ने अघोषित आपातकाल लगा दिया है। वहाँ किसानों ने अपनी जमीन के मुआवजे के चैक लेने से इन्कार कर दिया तो उन्हें जेलों में डालना शुरू कर दिया गया। प्रेस काउंसिल के निवर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी.वी. सावंत वहाँ जन सुनवाई के लिये जाने लगे तो जिला प्रशासन ने उन्हें तत्काल जिले से बाहर खदेड़ दिया।
क्या आपने अपने अखबार में यह खबर पढ़ी ?
ऐसी घटनाओं की मीडिया लाईव तो क्या बासी कवरेज भी नहीं करता। फिर सामान्य व्यक्ति, टी.वी. चैनल का दर्शक या अखबार का पाठक, क्या जाने कि किस तरह बारूद के ढेर पर बैठा है यह देश, इसका लोकतंत्र ? वह तो अण्णा हजारे के उपवास को ही सामाजिक क्रांति मान लेगा!
दरअसल मीडिया कमाता है विज्ञापनों से और विज्ञापन मिलते हैं कॉरपोरेट घरानों से। बहुत से अखबार तो क़ॉरपोरेट घरानों द्वारा ही निकाले जाते हैं। फिर वह कॉरपोरेट षड़यंत्रों का भंडाफोड़ कर अपनी जड़ों में मठ्ठा क्यों डाले ? खुद इस मीडिया का अपना भ्रष्टाचार क्या कम है ? दो साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ‘पेड न्यूज’ के मामले में मीडिया की इतनी थू-थू हुई कि प्रेस काउंसिल को उसकी जाँच करवानी पड़ी। साल भर से उस प्रकरण की जाँच रिपोर्ट बन कर तैयार है, लेकिन सार्वजनिक नहीं हो रही है। प्रेस काउंसिल में शामिल कॉरपोरेट अखबारों के प्रतिनिधि उसे सार्वजनिक होने ही नहीं दे रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में हुआ भ्रष्टाचार किसी अच्छी नीयत से उजागर नहीं हुआ। इसलिये उजागर हुआ कि सुरेश कलमाडी ने ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ की पेशकश को ठुकरा कर ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’ को मीडिया पार्टनर बना दिया। बौखलाये टाईम्स ने कलमाडी की बखिया उखेड़ कर रख दी। उत्तराखंड में पिछली बरसात में तबाही हुई और केन्द्र से एक भारी भरकम राहत राशि प्रदेश सरकार को मिली तो यहाँ के बड़े दैनिकों में पैकेज झपटने की होड़ लग गई। कफनफरोश! नीरा राडिया प्रकरण में इस मीडिया और इसके कॉरपोरेट घरानों से अन्तर्सम्बन्ध बहुत साफ ढंग से सामने आये हैं। यही मीडिया ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ में लोगों की अगुआई करता दिखाई दे रहा है। उसी की उछलकूद से अण्णा हजारे फरिश्ते जैसे दिखाई दे रहे हैं। अन्यथा इस देश में ऐसे लोग क्या कम हैं, जो सत्तर-अस्सी साल की उम्र में भी नौजवानों जैसे उत्साह से कॉरपोरेट गुलामी के खिलाफ लड़ रहे हैं….. रात-दिन देश के कोने-कोने में लोगों से बातचीत कर रहे हैं। उनके लिये इन अखबारों में सिंगल कॉलम की खबर छापने की जगह नहीं है। अण्णा साहब की नीयत चाहे जितनी साफ हो, संकल्प चाहे जितना बड़ा हो राजनैतिक समझ की इतनी कमी है कि नरेन्द्र मोदी के विकास के मॉडल को आदर्श बता दे रहे हैं।
भ्रष्टाचार भारतीय जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। जैसे बुग्यालों की स्वच्छ हवा में रहने के बाद किसी महानगर के प्रदूषित वातावरण में रहने पर महसूस होता है, वैसा ही किसी ईमानदार देश के नागरिक को भारत में आने पर लगता होगा। किसी चीज के लिये लाईन तोड़ने से लेकर छोटी-मोटी रिश्वत देना हमारे लिये सामान्य बात है। कई बार तो वह जरूरी भी हो जाता है। नौकरी पाने के लिये तो कितनी-कितनी घूस देनी पड़ती हैं। अब तो हम ईमानदारी पचा भी नहीं पाते। कभी कानून को सख्ती से लागू करवाने वाला कोई ईमानदार अधिकारी आ जाये तो उसका बोरिया-बिस्तर बँधवाने के लिये जरा भी देर नहीं करते। सब लोग एकजुट हो जाते हैं। हमारे लोकतंत्र की यह खामी दिनोंदिन बढ़ती रही है। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद तो इसने सारी सीमायें तोड़ दी हैं। अब तो कहीं भी देखो इतने ‘हजार करोड़’ से कम की बात ही नहीं होती। कॉरपोरेटों ने सरकारें, सांसद, विधायक सब खरीद लिये हैं। खुल कर भ्रष्टाचार फैलाने वाले ये कॉरपोरेट घराने तो लोकपाल बिल के दायरे में आ ही नहीं सकते। हम बिकने के लिये तैयार मंत्रियों और नौकरशाहों पर नकेल डालने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वालों का क्या किया जायेगा ?
फिर भी लोकपाल बिल बनना चाहिये। उसका बनना बेहद जरूरी है। लेकिन कानून बनने मात्र से क्या होता है ? हजारों तो हमारे यहाँ कानून हैं, जो या तो लागू नहीं हो रहे हैं या उनका दुरुपयोग हो रहा है। कानून को सख्ती और ईमानदारी से लागू करने के लिये जिस इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, उसका हमारे लोकतंत्र में पूरी तरह अभाव है। अभी डेढ़ महीने पहले पाउच में गुटखा बिकना प्रतिबंधित किया गया था, क्या वह सचमुच लागू हो गया? क्या सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान रुक गया है? घरेलू हिंसा बन्द हो गई? हरिजन एक्ट या दहेज कानून क्या अपराधियों को दंडित करता है या फिर निर्दोषों को परेशान करता है? 2007 में आये वनाधिकार कानून से लाखों वनवासियों का जीवन बदल सकता था, लेकिन सरकारों ने उसे लागू करने में रुचि ही नहीं दिखाई। उससे पहले 73वें तथा 74वें संशोधन कानूनों में विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू कर क्रांतिकारी परिवर्तन की तमाम संभावनायें थीं। उत्तराखंड में राज्य बनने के दस वर्ष बीत जाने पर भी पंचायती राज कानून अस्तित्व में ही नहीं आया है। वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार कानून लागू होने वक्त ‘सिविल सोसाइटी’ में अत्यन्त उत्साह था। अण्णा हजारे उस कानून को लागू करवाने में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं। लेकिन छः साल बाद उस कानून को लागू करने में अब ढीलापन आने लगा है। इस कानून को लेकर काम करने वाले सक्रिय कार्यकर्ताओं की हत्यायें शुरू हो गई हैं सो अलग। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग आदि तमाम आयोग अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। तब इस बात की क्या गारण्टी है कि लोकपाल अपना काम यहाँ मुस्तैदी से करता रहेगा? लोकपाल भी तो एक प्रक्रिया के अन्तर्गत नियुक्त किया जायेगा। वह सत्ता से अपनी नजदीकियों के आधार पर ही नियुक्त होगा। जिस देश में एक ईमानदार न्यायाधीश दुर्लभ हो गया हो, वहाँ एक सुयोग्य लोकपाल ढूँढना असम्भव नहीं होगा क्या? अपराधियों की गिरफ्तारी के लिये पुलिस को मजबूर करने के लिये जनता को जिस तरह चक्काजाम कर दबाव बनाना पड़ता है, क्या उसी तरह हर बार जनता को सड़कों पर उतरना पड़ेगा कि लोकपाल फलाँ भ्रष्ट मंत्री या नौकरशाह के खिलाफ कार्रवाही करे।
इन तमाम जटिलताओं के मद्देनजर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक पिकनिक जैसी कैसे हो सकती है? 1998 में जब बबनराव घोलप की मानहानि के सिलसिले में अण्णा साहब हजारे जेल जा रहे थे, तब घोलप के समर्थक अदालत के बाहर नारे लगा रहे थे, ‘घोलप तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ ऐसे चेहरे उस रोज जंतर-मंतर में भी दहाड़ रहे थे, ‘अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ जब वह छोटी सी बच्ची अण्णा साहब को जूस पिला रही थी। यहाँ नैनीताल-अल्मोड़ा में तो वे थे ही। जनता के हित में अराजक ढंग से लड़ी जा रही किसी लड़ाई में ऐसे लोगों को अलग-थलग करना असम्भव सा होता है। कैमरों के आगे चेहरा दिखाने में वे सबसे आगे होते हैं।
मीडिया तो अपने पैसे बटोरने के लिये अब आई.पी.एल. की राह पर चल पड़ा है, लेकिन जो लोग अण्णा हजारे के अभियान के बहाने ईमानदारी से इस देश के हालात के बारे में सोचने लगे हैं, उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी और अपने लड़ने की ताकत भी। अपने आसपास चल रहे जमीनी संघर्षों की पहचान करनी होगी और उनसे जुड़ना पड़ेगा। कोई भी ताकत जनता की ताकत से बड़ी नहीं होती। अण्णा हजारे प्रकरण में भी हमने यही देखा।
-राजीव लोचन साह,संपादक, नैनीताल समाचार.
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