-‘बच्चे का रिजल्ट कैसा रहा?’ हमने एक साथी से फोन पर पूछा।
-‘अरे, यार..। ’ उनकी आवाज में अफसोस था- ‘89%..। थोड़ा और मेहनत करता तो..। 89 परसेण्ट पर भी एक पिता का यह निराशा भरा स्वर हमें भीतर तक हिला गया। हमने उन्हें घर जाकर बधाई दी। बच्चे को एक किताब उपहार में दी। लेकिन उस परिवार के चेहरों से मलाल नहीं गया।
तब से हम लगातार सोच रहे हैं, जो बच्चे 90 परसेण्ट से नीचे रह जाते हैं, क्या वे कमतर हैं? वे योग्य और प्रतिभाशाली नहीं हैं? 100 में 88 या 85 या 80 नंबर भी क्या कम होते हैं? नहीं, 80 नंबर भी बहुत होते हैं लेकिन हमारे चारों तरफ हो क्या रहा है?
सीआईसीएसई की 10वीं व 12वीं और सीबीएसई की 12वीं का रिजल्ट आ चुका है। यूपी बोर्ड का जल्दी ही आने वाला है। रिजल्ट आते ही स्कूल, कोचिंग और पूरा मीडिया टॉपर बच्चों को ढूंढने लगते हैं। 98%..97%..96% वालों के उल्लासित चेहरे अखबारों और टीवी स्क्रीन पर छाए रहते हैं। स्कूलों से लेकर घरों तक कैमरे और पत्रकार दौड़ते हैं। माता-पिता, भाई-बहन और टीचर तक के इण्टरव्यू छप रहे हैं- ‘वह 10-12 घण्टे पढ़ता था..हमने टीवी ही हटा दिया था..’ वगैरह। अखबारों में टॉपर बच्चों के फोटो छापने की होड़ मचती है। रिजल्ट के पहले दिन तो 94% वालों को भी अखबार में जगह नहीं मिल पाती। 90% वालों को फोटो छपवाने के लिए कई दिन इंतजार करना पड़ता है..।
ऐसे में 89 परसेण्ट नंबर लाने वाले बच्चे के माता-पिता का चेहरा लटकेगा ही। स्कूलों में और माता-पिताओं में यह कैसी अंधी दौड़ मची है? बच्चों पर इसका क्या असर पड़ रहा है? स्कूल बच्चों को पढ़ा रहे हैं या उनका दिमाग नंबरों के सांचे में ढाल रहे हैं?
सीआईसीएसई बोर्ड अपने टॉपर घोषित नहीं करता लेकिन हम मीडिया वाले उसे भी खोज लाए। सीबीएसई ने परसेण्टेज का सिस्टम ही खत्म करके ग्रेडिंग व्यवस्था शुरू कर दी। फिर भी टॉपर बच्चों की ढुँढाई मचती है। यूपी बोर्ड ने मेरिट लिस्ट जारी करना बन्द कर दिया। मगर स्कूल हैं, कोचिंग संस्थान हैं और मीडिया है कि टॉपर बच्चों की अपनी-अपनी लिस्ट जारी करते रहते हैं। 90% ऐसी सीमा रेखा बना दी गई है कि उसके पार वाले ही प्रतिभाशाली है। उनकी सफलता का सौदा करने के लिए स्कूल और कोचिंग संस्थान दुकानें खोले खड़े हैं। इसलिए 90% से नीचे मायूसी विचरती है। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।
सच यह है कि 10वीं और 12वीं कक्षाओं के नंबर जीवन की सफलता-विफलता तय नहीं करते। 95-98 परसेण्ट नंबर लाने वाले ही आगे चलकर कॅरिअर के शिखर पर नहीं चढ़ते। सच तो इसके उलट है। जीवन में बड़ी सफलताएं आम तौर पर वे ही अर्जित करते हैं जो स्कूल में 90% से नीचे नंबर पाए होते हैं। अपने चारों तरफ शीर्ष पर विराजमान लोगों को देख लीजिए, उनकी आत्मकथाएं पढ़ लीजिए। नारायणमूर्ति से अजीम प्रेमजी तक, अमिताभ बच्चन से लेकर रतन टाटा तक, वारेन बूफे से लेकर मार्क जुकरबर्ग तक, डॉ. एपीजे कलाम से लेकर खुशवंत सिंह तक..। बहुत लंबी सूची मिलेगी जो औसत विद्यार्थी रहे या कम से कम अपने समय के स्कूल टॉपर नहीं रहे, लेकिन लगन और मेहनत से सफलता ने उनके कदम चूमे।
अपवाद जरूर होंगे, लेकिन आम तौर पर पाया गया है कि 95-98% नंबर पाने वालों में ‘रट्टू’ ज्यादा होते हैं। पढ़ाई के तनाव, कोर्स ही की किताबों और ट्यूशनों में उनका बचपन और कैशोर्य बंधुआ बनकर रह जाता है। वे हमेशा परसेण्टेज मेण्टेन करने के दवाब में रहते हैं। उनके व्यक्तित्व का सहज विकास नहीं हो पाता और अक्सर वे 10वीं-12वीं के बाद जबरन बनाए गए शिखर से लुढ़कते चले जाते हैं। आईआईटी-आईआईएम से लेकर विविध शिक्षा संस्थानों के छात्रों में आत्महत्या और अवसाद के बढ़ते जा रहे किस्से खुद गवाह हैं। इसके विपरीत 75 या 80-85 प्रतिशत नंबर लाने वाले बच्चों स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ जीवन के विविध अध्याय भी पढ़ रहे होते हैं। वे अपेक्षाकृ त व्वाहारिक होते हैं ।
अपने स्कूली दौर में हम 34 फीसदी नंबर में पास हो जाते थे। 60 फीसदी में फर्स्ट डिवीजन और 75 परसेण्ट में डिस्टिंक्शन मिलते थे जो बहुत कम बच्चों के हिस्से आते थे। 50-55 फीसदी के आस-पास नंबर पाने पर खूब खुशी होती थी। तब पढ़ाई इतना बड़ा धन्धा नहीं बनी थी। उसमें सुख, संतोष और व्यावहारिक ज्ञान थे।
हमारा आशय टॉपर बच्चों की उपलब्धियों को नकारना नहीं है। उन्हें बहुत-बहुत बधाई। लेकिन 80-85 परसेण्ट अंक लाकर भी प्रतिभाशाली नहीं माने जा रहे बच्चों और उनके अभिभावकों को हताशा और दवाब में आने की कतई जरूरत नहीं। उनके लिए सभी सुन्दर राहें खुली पड़ी हैं।
-नवीन जोशी
3 comments:
The pursuit to be a topper is such a rat race that children, after spending most part of the day in the school, end their evenings in tution classes. It is ironical but not very long ago, tutions were for the weak, not for toppers!
A wonderful piece Naveen Sir!
मुझे लगता है कि सच बात तो ये है कि हम अपने बच्चों से वो कराना चाहते हैं, जो हम नहीं कर सके.
डा. जयंत नार्लीकर ने कहीं लिखा है कि केवल कक्षा में बहुत अंक आ जाने या अव्वल आ जाने से ही कुछ नहीं होता। दुनिया में ऐसे बहुत लोग हैं जिनकी पढ़ाई में बहुत अंक नहीं आए लेकिन वे दुनिया में नाम कर गए। उन्होंने कई क्षेत्रों में अनोखा काम किया। जेम्स क्लार्क मैक्सवेल को विश्वास था कि परीक्षा में प्रथम स्थान तो उसी को मिलना है। परीक्षाफल निकला तो उसने नौकर से कहा कि जाकर देखो, दूसरे स्थान पर कौन आया है? नौकर लौट कर आया। मैक्सवेल ने पूछा, “कौन आया दूसरे स्थान पर?” नौकर ने कहा, “आप श्रीमान।” मैक्सवेल विश्व के महान वैज्ञानिक बने।
वे दो छात्रों का किस्सा बताते हैं। एक छात्र था थामसन और दूसरा पार्किंसन। वे दोनों कैंबिज की परीक्षा में एक-दूसर से आगे रहने की कोशिश कर रहे थे। परीक्षाफल आया तो सूची के टाप पर पार्किंसन का नाम था। परीक्षक ने दोनों की कापियां देखीं तो यह देख कर हैरान रह गया कि दोनों का उत्तर लगभग एक समान था। उन्होंने डपट कर पहले पार्किंसन से पूछा, “तुमने इस सवाल का जवाब कैसे लिखा?” पार्किंसन ने बताया कि उसने इस विषय पर एक शोधपत्र पढ़ा था। परीक्षक ने खुश होकर उसे शाबासी दी। फिर थामसन से पूछा, “और, तुमने उत्तर कैसे लिखा?” अब तुम भी यह मत कह देना कि तुमने भी वह शोधपत्र पढ़ा था।” थामसन ने धीरे से जवाब दिया, “वह शोधपत्र मैंने लिखा था सर!” थामसन आगे चल कर प्रसिद्ध वैज्ञानिक लार्ड केल्विन बना।
कहने का मतलब यह है कि केवल परीक्षा में बहुत अधिक अंक लाने और अव्वल आने से कुछ नहीं होता, जीवन की परीक्षा में सफल होने के लिए तो कड़ी मेहनत, लगन और काम के प्रति समर्पण की जरूरत होती है। इसलिए कम अंक पाने वाले विद्यार्थी निराश न हों। वे जीवन में बहुत कुछ कर सकते हैं, सफलता की मंजिले तय करके बड़ा नाम कमा सकते हैं।
- देवेंद्र मेवाड़ी
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