सन 2003 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘एम एफ हुसेन की कहानी, अपनी जुबानी’ को रिलीज करने एम एफ हुसेन पटना भी आए थे। मैं उन दिनों पटना ही था और हुसेन के साथ एक कप कॉफी पीने का मौका 'हिन्दुस्तान' के स्थानीय संपादक की हैसियत से मुझे भी मिला। हुसेन प्रशंसकों से घिरे थे, अलग से कुछ बातें करने का अवसर नहीं था। फिर भी हुसेन से मिलना रोमांचक अनुभव था। उन्होंने मुझे भी अपनी आत्म कथा की एक प्रति दी और हमारे एक साथी के आग्रह पर हिन्दुस्तान के पाठकों के लिए प्यार लिख कर अपने हस्ताक्षर कर दिए थे जिसे हमने अखबार के अगले अंक में छापा भी था।
उस रात घर पहुंच कर जब ‘एम एफ हुसेन की कहानी, अपनी जुबानी’ के पन्ने पलटना शुरू किया तो फिर उसे पूरी पढ़े बिना रख देना हो ही नहीं पाया। किताब की प्रस्तुति और कहन का अंदाज तो जुदा होना ही था, क्योंकि वह मकबूल फिदा हुसेन नाम के आला दर्जे के कलाकार की आत्म कथा है, लेकिन मेरे लिए वह किताब उस आला इनसान को थोड़ा समझ सकने का बायस बनी। उनका बचपन, गरीबी और संघर्ष, वगैरह तो उसमें हैं ही, हुसेन ने उसमें अपने कलाकार के अंकुर फूटने और कला संवेदना के स्रोतों को भी बड़े तटस्थ भाव से लेकिन खूब बारीकी से शब्द-चित्रित किया है। हुसेन की पेटिंग्स में क्यों बार-बार एक साइकिल या उसका एक पहिया या हैण्डिल आते रहते हैं, या क्यों एक चेहरा विहीन स्त्री बार-बार आती दिखाई देती है जो कभी मदर टेरेसा का आभास देती है और कभी किसी सामान्य स्त्री का। क्यों एक खाली घड़ा, एक पुराना पर्दा, जैसी बहुत आम चीजें उनके चित्रों में अपनी उपस्थिति बार-बार दर्ज कराती हैं?
दरअसल, यह साइकिल हुसेन की बचपन की साइकिल है और इसके साथ किशोर मकबूल की बड़ी प्यारी यादें जुड़ी हैं। देखिए हुसेन क्या लिखते हैं- 'साइकिल की सीट इनसानी मुखड़ा, हैण्डिल दो बाहें, पैडल दो पैर, लड़का (हुसेन खुद) पीछे कैरियर पर सवार साइक्लिंग किया करता, जैसे पूरी साइकिल उसकी गोद में हो या लड़का साइकिल की गोद में। यह नहीं कह सकते कौन किसे गोद में लिए प्यार कर रहा है।'... वह बेचेहरा स्त्री हुसेन की मॉं है, बेचेहरा इसलिए क्योंकि हुसेन को अपनी मॉं का चेहरा याद नहीं। कोई डेढ़ साल के थे कि मॉं चल बसी और कलाकार हुसेन अपनी मॉं का चेहरा ढूंढता फिरता है, मदर टेरेसा में भी और माधुरी दीक्षित में भी। जी हां, माधुरी दीक्षित में भी। हुसेन के माधुरी-प्यार को लेकर खूब चर्चाएं-अफवाहें उड़ीं, लेकिन हुसेन माधुरी को 'मां-अधूरी' मानते थे।
एक लड़की थी जो एक निश्चित समय पर घड़ा लेकर पानी भरने आती थी और कैसे एक जालिम ने उसे अपनी रखैल बनाकर हुसेन के मासूम सपनों का कत्ल किया..किसी एक कोठरी में एक पर्दा था जिसके हिलने के ढंग में अलग-अलग इशारे छुपे होते थे..। हुसेन के मन में बचपन और कैशौर्य की अनेक यादें इस कदर जमी रहीं कि लगभग हर अभिव्यक्ति में, पेण्टिंग हो या कविता, उनका स्पर्श सायास-अनायास आ ही जाता रहा और खुद हुसेन ने भी उन छवियों को कभी अलग नहीं होने दिया। वास्तव में वे स्मृतियां उनकी कूची की ताकत बनीं।
आज हुसेन को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी आत्म कथा के आखिरी अध्याय का यह अंश पेश करते हुए मैं बहुत भावुक भी हूं क्योंकि अपने वतन से बहुत प्यार करने वाले इस अति संवेदनशील इनसान को कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं के सिरफिरेपन के कारण आत्म-निर्वासन झेलना पड़ा और जलावतनी में ही उनकी मृत्यु हुई-- नवीन जोशी.
"यह पंढरपुर का लड़का इन्दौर जाकर मकबूल पेन्टर बना। बम्बई ने उसे एमएफ हुसेन आर्टिस्ट का खिताब दिया। दिल्ली ने पद्मभूषण से विभूषण की शाल पहनाई, मैसूर और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ने डी. लिट की डिग्री चिपका दी। जब बर्लिन अपनी फिल्म लेकर गया तो उसके पीछे गोल्डन (बियर) भालू लगा दिया।
मकबूल बचपन ही से अपने खयाली घोड़े दौड़ाने का शौकीन। उसे बम्बई का रेसकोर्स तो नहीं मिला मगर आलीशान दीवानखानों की दीवारें बहुत मिली। बस, एम एफ हुसेन ने अपने घोड़े उन दीवारों पर बेतहाशा दौड़ा दिये। यह रेस कोई चूहों कि रेस नहीं कि बिल्ली के डर से दुम दबाकर भाग जाये। यह दौड़ शह सवारों की दौड़ है। डर किस का? गिरने का? नहीं!
‘‘गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में।
वह तिफ्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले।’’ बेशक बम्बई की पहली दौड़ में एम एफ ऐसे मुंह के बल गिरे कि अठ्ठारा साल तक अपने घोड़े पर चढ़ नहीं पाये। हार नहीं मानी। 1947 में मौका मिलते ही मकबूल छलांग मारकर घोड़े पर चढ़ बैठा और ऐसी एक एड़ लगाई कि घोड़ा कहीं रुका ही नहीं।
‘‘ने हाथ में लगाम ने पा रकाब में ’’। ठीक है हाथ में लगाम नहीं लेकिन पैरों की एड़ से घोड़े का रुख बदला जा सकता है, भले रोका न जा सके। पिछले पचास सालों में दुनिया छान मारी। लोगों की छानबीन में लगे रहे। हजारों से मिले लेकिन कुछ अच्छे इनसानों का साथ नहीं छोड़ा चाहे वह दुनिया के किसी कोने में हों।
एम एफ से किसी ने पूछा वह कौन और कहाँ-कहाँ?
जवाब दिया-अगर मैं उन शख्सीयतों के नाम गिनाना शुरू करूं तो ऐसा लगेगा कि मैं नेम ड्रापिंग या अपनी बड़ाई जता रहा हूं। आपबीती लिखने में यही एक बड़ी कमी है। अपने मुंह अपनी बातें नहीं कर सकते जो थोड़ी बहोत अच्छी हों जैसे मोहब्बत की बात—-‘‘इक लफ्जे मोहब्बत का इतना सा फसाना है। सिमटे तो दिले आशिक फैले तो जमाना है’’
एम एफ का अभी जमाना खत्म नहीं हुआ और हो यह रहा है कि वह एक साथ तीन-तीन जमानों में घिरा हुआ है। पहला हुस्न और इश्क, दूसरा आर्ट और फिल्म, तीसरा गमे रोजगार। तीनों जमानों के अलग अलग कोड हैं। यह एम एफ हुसेन की कहानी नहीं एक वक्त की जुबानी है। यहां समय बोल रहा है और इस छोटे से वक्फे के दौरान कुछ लोग मिले कुछ बातें हुईं। कोई तो हो जो लोगों से मिले। कोई तो हो जो उनकी बातें सुने। मिलने का शौक और सुनने की आदत, वह मकबूल में कूट कूट कर भरी है।
मिलने का मुआमला इतना आसान नहीं। कैसे कैसे लोग हैं। खुद अपने घरवाले, दिल वाले। पास पड़ोसी, महल्ले वाले, जानने वाले। शहर और मुल्क वाले, दूर से दखने वाले। फिर दुनिया जहान वाले। मकबूल की आवारगी ने दुनिया जहान घुमाया। शौक और बढ़ता ही गया। आज अठ्ठास्सी बरस के करीब मिलने की हवस वही बाकी।
क्या मां की गोद बचपन से छिन जाने पर पालना भी न रहा जिसे कोई यशोदा माई झुलाये।
मां की गुनगुनाती नींद को बुलाती लोरी कहां।
मकबूल के कानों में तो सिर्फ एक ही आवाज गूंजती रही ‘‘जागते रहो—जागते रहो’’।
यह जागरण जारी है। यह मैराथन मीलों का सफर जारी। केनवास पर रंगों की भरमार। आर्ट गैलरी का गरम बाजार। इंटरनेशनल आक्शन हाउस का सुपर स्टार, बॉलीवुड की अप्सराओं का परस्तार लेकिन एलोरा-अजंता की देवियों के चरन छूने के बाद।
सारी उम्र काटी हुस्न के बाजार में। वह हुस्न का सौदा करने नहीं गया, हुस्न बांटने गया। इस हुस्न के बाजार में हुसेन की आवभगत से कई नासमझ लोग हसद की आग में जलने लगे। ताने तिशने, यहां तक तीर कमान खिंच गये।
यह जलन क्यूं? आज के एम एफ हुसेन को देखकर?
मुड़ के कल के मकबूल को देखा है? जो प्ले हाउस के हुसेनी खिचड़ी वाले ढाबे में पांच पैसे की खिचड़ी पर दाल या कढ़ी मुफ्त डलवाने खड़ा रहता था। दो आने की सिनेमा टिकट के लिये दो घंटे लाइन में। कई महीनों बीस-बीस फीट लंबे फिल्मी हीरोइनों के होर्डिंग सीढ़ियों पर चढ़ के पेन्ट करना। ग्रान्ट रोड की उसी गली की एक चाल में रहती बूढ़ी बेवा की बेटी फजीला से बियाह पर पांच दस रास्ता चलते बाराती। उसी रात कल्लु मियां विक्टोरिया चलाने का गराज खाली किया और एक पोस्टमैन दोस्त ने सुहाग रात मनाने मकबूल को अपने दो कमरों में से एक कमरा भेंट में दे दिया—–यह फिल्मी स्क्रिप्ट नहीं, यह असली सीन हैं। मकबूल की जिंदगी का एक हिस्सा, जिसे लोग नहीं जानते। वह तो आज के एमएफ हुसेन को जानते हैं जिस पर भड़की लाईम लाईट है।"
3 comments:
दिल से याद किया आपने सर हुसैन साहब को. जावेद साहब की लाइन याद आ रही है.
'अपनी महबूबा में अपनी माँ ढूंढें
बिन माँ के बच्चों की फितरत होती है...'
दो गज जमीन भी न मिली ... हुसेन पर आपकी यह पोस्ट वाकई जानदार है। हुसेन की इसी आत्मकथा को इप्टा की पटना इकाई ने मंच पर पेश किया है। इसकी एक प्रस्तुति लखनऊ में हुई थी और उसमें हुसेन भी मौजूद थे।
वाकई सर, काफी कुछ समझ में आए हुसैन आपकी नजर से
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