बेलाकूची, 1970
पुरानी फाइलों के पन्ने
पलट रहा है पुष्कर और ‘समाचार’ के लिए लिख रहा है हिमालय की बगावत की कहानी।
तो, हिमालय अचानक बगावत पर नहीं उतरा। वह काफी पहले से मानव जाति को चेतावनी दे-दे
कर आगाह करता रहा है! मनुष्य की अतियों के खिलाफ बेलाकूची शायद बीसवीं सदी में हिमालय
की पहली बड़ी बगावत थी। चेतावनी वह पहले भी देता रहा था मगर 1970 की बरसात में उसने ऐलानिया तौर पर बता दिया था कि उसके साथ अनियंत्रित छेड़-छाड़
बन्द नहीं हुई तो वह विनाश का कितना बड़ा कारण बन सकती है।
लेकिन मनुष्य ने उसकी
चेतावनी के शिला लेख नहीं पढ़े। क्या अब भी वह विध्वंस की निशानियों पर दर्ज प्रकृति
की चेतावनी देख व समझ पा रहा है?
बहुत वेदना के साथ
लिख रहा है पुष्कर और कागजों में गंगनाणी के साथ-साथ बेलाकूची की त्रासदी भी जिंदा
हो रही है।
- ‘एइ, देखो ना कितनी सुन्दर
कण्डी है, ये वाली!’
- ‘अरे, छोड़ो डियर। तुम पहले कचौड़ी खाकर देखो। वाह! एक और
देना भाई।’
माला ने राजेन्द्र
की ओर प्यार से देखा। वह बिल्कुल बच्चों की तरह चटखारे लेकर गर्मागर्म कचौड़ी का स्वाद
ले रहा था। जबसे बेलाकूची में बस रुकी है, राजेन्द्र का उत्साह
देखते ही बनता है। बदरीनाथ से सुबह चले थे तो मौसम सुहावना था। बारिश कभी तेज हो जाती
कभी हलकी। रुई जैसे बादलों के झुण्ड के झुण्ड पहाड़ी घाटियों से उठते और सड़क पर आकर बस की खिड़कियों से भीतर चले आते। कभी दो पहाडिय़ों
के बीच सफेद बादलों का पुल तन जाता और कभी गहरी घाटी में बादल ऐसे ठहर जाते गोया फाहे जैसे सफेद पानी का तालाब सो रहा हो। राजेन्द्र
कैमरा क्लिक करते न थकता। बार बार कहता- 'काश, कुछ देर को यहां बस
रुक जाती!'
दोपहर में जोशीमठ से
नीचे बेलाकूची कस्बे में बस रुकी तो फिर रुकी ही रही। पहले से कई बसें, ट्रक व कारें लाइन से खड़े थे। पता चला आगे रास्ता बन्द है। बाकी यात्रियों में
बेचैनी छा गई मगर राजेन्द्र के मन की मुराद पूरी हो गई। वह माला का हाथ पकड़ कर नीचे
उतर गया। तब से कई घण्टे गुजर गए थे। कभी वह चाय के साथ पकौड़ी खाता और
फिर फोटो खींचने चला जाता। लौटकर कचौड़ी की दुकान में खड़ा हो जाता। माला की नजर बार-बार
कण्डियों की दुकानों पर अटक जाती। चार कण्डियां वह खरीद चुकी थी और पांचवीं पर फिर
मन आ गया था। हाथ की बुनी विविध आकार वाली
रिंगाल की खूबसूरत टोकरियां!
- ‘ये वाली भी ले लूं? एई, देखो ना।’ उसने फिर पुकारा।
राजेन्द्र कचौड़ी
वाले दुकानदार के चेहरे की गाढ़ी झुर्रियों पर कैमरा फोकस कर रहा था। उसने हलके से
इशारा भर कर दिया।
बीस जुलाई 1970 की उस शाम बेलाकूची के बाजार में खूब चहल-पहल थी। पर्यटकों-तीर्थयात्रियों का सीजन
जोरों पर था। छोटा-सा बाजार अपनी पूरी रौनक में था। बदरीनाथ से सुबह के ‘गेट’ से पहुंची गाडिय़ां आज यहीं फंसी हैं। दोपहर के ‘गेट’ का काफिला पहुंचने वाला था। चूल्हों पर नए सिरे से चाय की केतलियां और कढ़ाहियां
चढ़ाई जा रही थीं। सीजन की कमाई पर दुकानदारों की नजर रहती है और आज अच्छी बिक्री
हो रही थी।
बेलाकूची बाजार से थोड़ा-सा नीचे की तरफ एक विशाल चट्टान
ऊपर से गिरकर बीच सड़क में अड़ गई थी। उसे खिसका पाना मजदूरों की पूरी गैंग के बस की
भी बात न थी। इसलिए उसे विस्फोट से उड़ाने का फैसला करना पड़ा था। इसी में बहुत वक्त
लग रहा था। चमोली से इंजीनियर बुलाए गए थे। यात्रियों से भरी जो सात बसें बदरीनाथ से
दोपहर को यहां पहुंची थीं वे बेलाकूची बाजार में खड़ी थीं। अब जो वाहन ऊपर से आ रहे
थे उन्हें अलकनंदा पर बने पुल के उस पार ही रोका जा रहा था। चमोली से ऊपर बदरीनाथ
को जाने वाली गाडिय़ां सड़क पर गिरी चटट्टान से काफी दूर उधर ही रोक दी गई थीं। ज्यादा
वक्त लगता देखकर इन गाडिय़ों के यात्री बाजार और सड़क में चहलकदमी कर रहे थे। कुछ पेरशान
थे कि कहां बीच रास्ते में फंस गए। कुछ बसों में बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। कुछ चट्टान
की खबर लेने के लिए बार-बार ऊपर-नीचे आ-जा रहे थे और कुछ थे जो राजेन्द्र व माला की
तरह मौसम और पहाड़ का लुत्फ उठा रहे थे। हलकी बूंदाबादी में शाम और भी खुशनुमा हो गई
थी।
सड़क से कोई सौ फुट नीचे अलकनंदा रोज की तरह अपने रास्ते
बही जा रही थी। उसकी ओर कम ही लोगों का ध्यान था। बरसात का मौसम था और कुछ दिनों से
अच्छी वर्षा हो रही थी। सो, अलकनंदा का पानी मटमैला
और चढ़ा हुआ था। उसकी लहरों का उछाल सामान्य दिनों से काफी तेज था और आवाज भी डरावनी।
मगर यह तो बेलाफूची के रोजमर्रा जीवन का हिस्सा था। लोग अलकनंदा के मिजाज से अच्छी
तरह परिचित थे। बरसातों में जब चढ़ती है तो खतरनाक हो ही जाती है। इसीलिए बेलाकूची
के लोगों के पुश्तैनी घर अलकनंदा की धारा से काफी ऊपर बने थे- सड़क से और
भी सौ फुट ऊपर। अलकनंदा कितनी ही चढ़ जाए, बेलाफूची उसकी उफनती
लहरों से बहुत ऊपर और सुरक्षित थी।
कचौड़ियां तलते बूढ़े
हाथ अचानक ठहर गए। उनके कानों ने कुछ विचित्र और डरावनी आवाजें सुनीं, जैसी पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं। बेलाकूची का पूरा बाजार अजीब सनसनी से भर गया।
-‘नीचे देख तो रे, पानी बहुत चढ़ गया
क्या ?’ उन्होंने अपने बेटे
से कहा, जो दुकान में उनका हाथ बंटाता था।
एक वही नहीं, बेलाफूची के सारे निवासी, दुकानों और घरों से उठकर नीचे अलकनंदा की तरफ झांकने लगे थे।
- ‘बाबा हो!’
- ‘इतना पानी कहां से
आ गया आज!’
अलकनंदा का पानी एकाएक
बहुत ही बढ़ गया था। उसकी लहरें सत्तर-अस्सी फुट तक उछाल मार रहीं थीं और भयानक शोर
उठ रहा था।
- ‘और उधर बिरही की तरफ
तो देखो!’
नजर घुमाते ही लोगों की सांसें अटक गईं। बेलाकूची के पुल के पास ही बिरही अलकनंदा में
मिलती है। वह और भी रौद्र रूप में दिखी। बड़ी-बड़ी चट्टानों, पेड़ों और मिट्टी-बजरी को उछालती-गिराती उसकी लहरों को देख लोग आतंकित हो गए। पानी
था कि बढ़ता आ रहा था।
- ‘भागो-भागो। बचो।’
- ‘ऊपर चढ़ो, ऊपर।’
बाजार में चीख पुकार
मच गई। जो जिस हाल में था, वैसे ही ऊपर पहाड़ी
की ओर भागा। चाय की केतलियां, कचौड़ी-पकौड़ी की उबलती
कढ़ाइयां सब वैसी ही पड़ी रहीं। स्थानीय लोगों में मची भगदड़ देखकर तीर्थयात्री और
भी आतंकित होकर सड़क पर ही इधर-उधर भागने लगे। भागते ड्राइवरों-कण्डक्टरों ने चीखकर
उन्हें ऊपर चढऩे को कहा। उन्होंने उफनाई पहाड़ी नदियों की विकरालता देखी न थी और
आज तो स्थानीय लोग भी डरकर भाग रहे थे। रोते-चिल्लाते, अपने-अपनों को संभालते, गिरते-पड़ते वे ऊपर चढऩे लगे।
बाजार से कोई सौ फुट
ऊपर बेलाकूची गांव के लोग अपने आंगनों में खड़े होकर यह कोहराम देख रहे थे। बिरही और
अलकनंदा की विकराल होती लहरों ने उन्हें भी डरा दिया था मगर वे उस ऊंचाई पर खुद को
सुरक्षित महसूस करते हुए, नीचे से ऊपर चढ़ रहे
लोगों को जल्दी करने के लिए पुकार रहे थे।
दुकानदार और तीर्थयात्री
जब तक हांफते-कांपते ऊपर गांव तक पहुंच पाते, अलकनंदा की पागल, बौखलाई लहरें लोहे के विशाल पुल को छूने लगीं। पलक झपकते पानी पुल के ऊपर आ गया।
पानी का एक और रेला आया और पुल के एक सिरे में खड़ी यात्री बस कागज की नाव की तरह ऊपर
उछली और फिर लपलपाती लहरों ने उसे निगल लिया।
लोगों के मुंह से चीख
निकल गई!
तभी अलकनंदा की चढ़ती-उछलती
लहरें लोहे का भारी पुल समूचा ही उठाए चल पड़ीं। पानी की वेगवती लहरों पर सवार लोहे
का विशाल पुल! और देखते-देखते वह पुल भी ताश के पत्तों जैसा बिखर कर पानी के पेट में समा गया।
लोग चीखना भी भूल गए।
आतंक से फटी आंखें और अचम्भे से खुले मुंह लिए बेलाकूची के लोगों और डर से संज्ञाशून्य हो गए तीर्थयात्रियों ने बेलाकूची बाजार की तरफ गरदन घुमाई तो रगों में बहता लहू जैसे जम गया।
बाजार की एकमंजिला-दोमंजिला
दुकानें पूरी की पूरी ढह कर पानी में समाती जा रही थीं। जैसे धरती के नीचे खड़ा कोई
भयानक राक्षस इमारतों को समूचा उखाड़कर फेंक रहा हो। पानी की विकराल लहरें उन्हें
पलक झपकते लील जातीं। सड़क कट-कट कर मिट्टी की मेड़ की तरह पानी में गलती जा रही थी।
सड़क पर खड़ी बसों, ट्रकों, कारों को पानी फूल की तरह बहा ले गया। देखते-देखते बेलाकूची बाजार टुकड़े-टुकड़े
होकर प्रलयंकारी लहरों में गायब हो गया।
और पानी भयानक गर्जना
करते हुए, दोनों तरफ के पहाड़ों पर प्रहार करते हुए अब भी तेजी
से चढ़ा आ रहा था।
ऊपर गांव में बेआवाज
खड़े लोगों को अचानक लगा कि बाजार, सड़क, पुल और गाडिय़ों को लील चुका पानी का विकराल दानव अब उनकी ओर बढ़ा आ रहा है। बेलाकूची
गांव भी सुरक्षित नहीं!
- ‘भागो..! बचो!’
- ‘ऊपर भागो...। जितना
ऊपर चढ़ सको, चढ़ते जाओ।’
गांव में कोहराम मच
गया। बूढ़े, जवान, औरतें, बच्चे चीखते-रोते ऊपर की तरफ भागे। शाम बीत रही थी और चारों तरफ से अंधेरा घिरने लगा था।
जिसमें जितनी ताकत
थी, जो जितना ऊपर जा सकता था, चढ़ गया। कुछ लोग पहाड़
की चोटी पर बसे गांव टंगनी तक सुरक्षित पहुंच गए। बाकी पहाड़ी ढलान में, गुफाओं या चट्टानों के ऊपर निढाल पड़ गए।
तभी भयानक गडग़ड़ाहट
हुई, जैसे आकाश टूट रहा हो या धरती फट रही हो। पूरा पहाड़
कांपने लगा।
राजेन्द्र माला के
साथ एक बड़ी चट्टान पर बैठ गया। वे दोनों बुरी तरह हांफ रहे थे। अब और ऊपर चढऩा उनके
बस की बात नहीं रह गई थी। कई तीर्थयात्री, खासकर बूढ़े और औरतें
तो उनसे भी नीचे पस्त होकर गिर पड़े थे।
- ‘कहां... कहां जा रही
हो?’ राजेन्द्र को एकाएक
लगा जैसे माला चट्टान पर आगे को खिसक रही है। उसने माला का हाथ पकड़ना चाहा मगर तब तक
वह दूर खिसक चुकी थी।
- ‘राजेन्द्र...!’ माला चीखी और चीख समेत गहरी खाई में समा गई। राजेन्द्र
ने उसे बचाने को आगे बढऩा चाहा मगर खड़े होते ही उसके पैर ठिठक गए। ठीक उसके पैरों
के पास से वह विशाल चट्टान दो भागों में टूट चुकी थी। अगला हिस्सा माला को लिए-लिए
गहरी खाई में खो चुका था। चट्टान ही नहीं, पहाड़ी का एक बड़ा
हिस्सा टूटकर अलकनंदा की गोद में बिला गया था।
- ‘माला... मा-ला ऽ ऽ!,’ राजेन्द्र कई बार चीखा। फिर उसे होश नहीं रहा।
सुबह धीरे-धीरे फूटती
रोशनी में पहाड़ की चोटी पर जहां-तहां जिन्दा बच रहे लोगों ने नीचे देखा तो वे अवाक्
रह गए।
पूरी बेलाकूची गायब
थी। गांव, खेत, बाजार, सड़क, पुल, कुछ भी नहीं। कोई निशानी
नहीं जिसे देखकर कह सकें कि यहां कभी बेलाकूची थी। उसकी जगह विशाल खाई बन गई थी।
उस तबाही और मुर्दनी
के बीच एक युवक लगातार इधर-उधर चक्कर लगा रहा था। वह एक ही रट लगाए जा रहा था- ‘माला कण्डी खरीदेगी, कचौड़ी खाएगी। कण्डी
खरीदेगी, कचौड़ी खाएगी...।’
उस पागल के गले में
कैमरा लटक रहा था।
और बहुत नीचे अलकनंदा
शांत होकर ऐसे बह रही थी जैसे उसने कुछ किया ही न हो! (जारी)
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