Tuesday, August 14, 2012

देवियों और देवताओं में ठन गई है--4


     लेकिन क्‍या यह सब अलकनंदा ने किया था?
          अलकनंदा - पहाड़ों की देवी जैसी बेटी, सबकी लाड़ली, भला ऐसा विनाश कैसे मचा सकती है!
          तो फिर?
          इस सवाल के जवाब में पुष्‍कर को सामने खुली फाइलों में एक और किस्सा मिलता है। हां, किस्सा ही तो!
          चमोली-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर, जिसके बीच बेलाकूची पड़ता था, करीब 22 किमी. दूर बाईं तरफ साढ़े छह हजार फुट की ऊंचाई पर था गौना ताल - एक मील चौड़ी, पांच मील लंबी और तीन सौ फुट गहरी झील।
          ताल के एक छोर पर था गौना गांव और दूसरे छोर पर दुरमी। आस-पास ग्यारह और गांवों की बसासत। सन्‍साठ के आस-पास, हरिद्वार-बदरीनाथ मोटरमार्ग बना तो ताल सड़क से 22 किमी. दूर रह गया। पर्यटक बढऩे लगे। अंग्रेजों के जमाने से जो नावें चलती थीं उनके बीच मोटर बोट की संख्या बढ़ती गई। इतनी ऊंचाई पर पहाड़ों की गोद में बसा विशाल गौना ताल बहुत खूबसूरत लगता था। पर्यटक खिंचे आते थे मगर उसके लिए पहाड़ों की कष्टदायी पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। सो, बदरीनाथ मार्ग से ताल तक सड़क बनने लगी ताकि सिर्फ साहसी ही नहीं, बल्कि आरामतलब पर्यटक भी वहां पहुंच सकें।
          भयानक विस्‍फोटों से चट्टानों को तोड़-तोड़ कर जल्दी-जल्दी गौना ताल तक सड़क बनाने की कोशिश के बावजूद जुलाई 1970 में सड़क काम अधूरा था। 20 जुलाई 1970 के बाद इस सड़क को पूरा करने की जरूरत ही नही रह गई। सड़क पर्यटकों के लिए बन रही थी, ताल के आस-पास रहने  वाले निरीह-गरीब पहाड़ियों के लिए नहीं।
          -‘महाराज, तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था।दुरमी गांव के बुजुर्ग प्रधान रामेश्वर, जो गौना ताल को अपने गांव के नाम पर दुरमी ताल कहते थे, यह किस्सा कई बार कई-कई लोगों को सुना चुके हैं- अब बरसात में पानी तो बरसने ही वाला हुआ मगर उस दिन की हवा ही कुछ ऐसी-वैसी थी। अब आप जानो कि ताल को भरने वाली एक तो बड़ी बिरही नदी हुई। तीन और हुई छोटी नदियां। तो महाराज, उस बरस छोटी नदियां भी बड़ी नदियों से ज्‍यादा विकराल हो गई ठहरीं। जब तीन दिन से पानी नहीं थमा तो हमने देखा महाराज कि चारों नदियों में पानी के साथ बड़े-बड़े पेड़ भी बहकर आ रहे ठहरे...। हां, ये बड़े-बड़े पेड़...।प्रधान जी को पेड़ की ऊंचाई बताने के लिए पूरा हाथ उठाने के बावजूद खड़े होकर ऊपर की ओर देखना पड़ा-ये जंगी पेड़।
          -‘तो महाराज, ठीक-ठीक याद है मेरे को। जुलाई की बीस तारीख थी। शाम के बखत हमने क्‍या  देखा कि दुरमी ताल खूब ही भर गया ठहरा। बड़े-बड़े पेड़ उसमें तिनकों की तरह नाचने वाले हुए। ऊपर से नदियां और भी पेड़, पत्‍थर और मिट्टी लाकर ताल में डालते जाने वाली हुईं। बहुत ही भर गया वो ताल पेड़, पत्‍थर, मिट्टी और पानी से...। फटने को हो गया ताल का पेट। डर गए ठहरे हम महाराज, बहुत डर गए। खबर भी करते तो किसको, कैसे! कोई हुआ ही नहीं आस-पास।
          -‘रक्षा करना हो बदरीनाथ... कहते-पुकारते हम लोग रों में जा छुपे। और क्‍या करते महाराज। शाम हो गई ठहरी। थोड़ा-थोड़ा अंधेरा भी। खाना-पानी भूलकर जै बदरी विशाल-जै बदरी विशाल करते रहे...। मगर क्‍या  होना था हमारी पुकार से...। पता नहीं महाराज क्‍या टैम हुआ होगा। ड़ी कहां हुई हमारे पास। दिन में तो ाम से टैम का पता चल जाने वाला हुआ...। तो महाराज, क्‍या  हुआ कि...अब कैसे बताऊं...।रामेश्वर जी थोड़ी देर को चुप हो जाते हैं जैसे उस ड़ी के आतंक को दबा कर ठीक-ठीक वर्णन कर सकें।
          -‘तो गजब की गडग़ड़ाहट हुई महाराज, बिल्कुल एकाएक। हमने कभी नहीं सुनी ऐसी गडग़ड़ाहट। सुननी भी न पड़े कभी! जैसे तीनों लोक ही फट पड़े हों उस रात...बाबा हो...। कांपने लगे हम। बच्‍चों का टिटाट पड़ गया। जानवर रोने लगे। पंछी भी विलाप करने लगे...। और फिर एकाएक सब शांत पड़ गया महाराज, बिल्कुल शांत।
          -‘सबेरे देखा हमने। अनहोनी का तो डर था ही मगर ऐसा नहीं सोचा था। क्‍या देखा महाराज, कि हमारा दुरमी ताल साफ, बिल्कुल ही गायब! सिर्फ टूटे-उखड़े पेड़ों और चट्ïटानों का रौखड़ ठहरा वहां...। कौन कहे कि ताल होगा कभी यहां...। ताल की जगह पर पत्‍थरों के बीच से चुपचाप बिरही बह रही ठहरी, बस!प्रधान जी इतना बताकर शांत हो जाते हैं। एकदम चुप।
          तो 20 जुलाई की रात बेलाकूची का नामोनिशान मिटा देने वाली अलकनंदा की वह विनाश लीला वास्तव में गौना ताल के टूटने से मची थी! गौना ताल को भरने के बाद उसका अतिरिक्त पानी लेकर बिरही नदी अठारह किमी. आगे जाकर अलकनंदा में मिल जाती थी। तीन सौ फुट गहरे गौना ताल का पानी एकाएक फूट कर अलकनंदा को इतना विकराल बना गया कि 300 किमी नीचे हरिद्वार तक भारी तबाही मची थी। पुरानी रिपोर्ट बता रही हैं पुष्‍कर को कि कुल बारह किमी मोटर सड़क, तीस बसें, ट्रक व कारें, इक्कीस छोटे-बड़े पुल और अलकनंदा के किनारे बसे गांव उस प्रलय की भेंट चढ़ गए।
          और मनुष्य?
          -‘अरे छोड़ो महाराज, मनखियों के मरने-जीने का भी कोई हिसाब होता है!दुरमी के प्रधान रामेश्वर जी से पूछ पाता पुष्‍कर तो उनका यही जवाब होता।


         
गौना ताल का भी क्‍या दोष!
          वह बोल पाता तो कहता- भई, मैं तो जैसे बना था, वैसे ही टूट पड़ा। विनाश के इस भयानक खेल में मैं कहीं नहीं। बिरही नदी से पूछ कर देखो।
          हां, बिरही को सब कुछ पता है। वह आदमी की भाषा में बोल नहीं पाती तो क्‍या । कुंआरी पर्वत से निकलने वाली इस नदी ने देखे हैं ने जंगलों से समृद्ध ाटियों में निश्चिंत बहने के सुख भरे दिन। उसने वे दिन भी देखे हैं जब जंगल धीरे-धीरे गायब होने शुरू हुए तो उसके अपने अस्तित्व पर ही जैसे खतरा मंडराने लगा। फिर एक दिन वह अपने ही नाम की विशाल ाटी में कैद हो गई। उसका रूप बदल गया और फिर सतहत्‍तर वर्ष बाद एक शाम अचानक वह पुराने रूप में वापस आ गई! नहीं, पुराने रूप में नहीं। पहले जैसे कहां कुछ लौटता है!
          पुष्‍कर पढ़ रहा है बिरही नदी की बिरह-कथा। सन् 1893 का जमाना था। अंग्रेजों का राज। अंग्रेजों की व्यापारिक नजर तराई के जंगलों को चाटते हुए सुदूर व दुर्गम जंगलों तक पहुंच चुकी थी। कहां-कहां नहीं पहुंचा अंग्रेज!
          तो, साढ़े छह हजार फुट की ऊंचाई पर तीन तरफ ऊंचे पहाड़ों से घिरी इस विशाल ाटी को लोग बिरही ाटी के नाम से ही जानते रहे हैं। कुंआरी पर्वत से निकल कर, बीच-बीच में कुछ और गाड़-गधेरों (नदी-नालों) का पानी समेटते हुए बिरही नदी इस लम्बी-चौड़ी ाटी में पहुंचती है और बीचों बीच बहते हुए एक संकरे मुंह से नीचे चली जाती है। सन् 1893 में एक दिन अगल-बगल के किसी पहाड़ से एक विशाल चट्टान गिरी और ाटी के मुंह पर जा अटकी, जहां से बिरही का पानी नीचे बहता था। बिरही का बहना थम गया!
          बिरही और उसकी सहायक नदियां ऊपर से पानी लाती रहीं और ाटी को भरती रहीं। धीरे-धीरे ाटी के बीच एक झील उभरने लगी। कहते हैं कि पूरे एक साल तक नदियां इस तालाब को भरती रहीं। जितनी लम्बी-चौड़ी ाटी थी उतना बड़ा ताल बनता गया।
          सन् 1893 की जगह 1894 आ गया था। तब होशियार अंग्रेज ने जाने कैसे नापा पर उसने कागज पर दर्ज किया कि बिरही ाटी में एक मील चौड़ी, पांच मील लंबी और चार सौ फुट गहरी झील बन गई है। झील के ऊपरी तरफ गौना गांव था। नीचे की तरफ दुरमी। गौना वालों ने कहा गौना ताल। दुरमी गांव वालों ने कहा यह दुरमी ताल है।
          मगर अंग्रेज ने कहा कि ताल का नाम जो भी हो, खतरा बहुत बड़ा है। झील कभी भी फट सकती है। समझदार अंग्रेज ने ताल के पास के एक गांव में तार र बनवा दिया ताकि झील फटे तो नीचे खबर दी जाए। ताल पर नजर रखी जाने लगी।
          एक दिन तार र के बटन जल्दी-जल्दी टप-टप-टप करने लगे। बिरही और अलकनंदा ाटी में खतरे की ंटी बजती चली गई। बिरही ने उस दिन बंधन मुक्त होने के लिए पूरा जोर लगाया। ताल टूट पड़ा मगर बिरही पूरी तरह आजाद नहीं हो पाई। पानी हरहरा कर नीचे बहा मगर सिर्फ एक सौ फुट। चार सौ फुट गहरी झील तीन सौ फुट की रह गई। ताल बना रहा और बिरही को भी रास्ता मिल गया।
          अंग्रेज ने फिर बुद्धि लगाई। उसने कहा अब तो यह पक्का ताल बन गया है। उसने उसमें नौका विहार का आनन्द लिया और उत्साहित होकर कहा-ओह, गौना लेक, वण्डरफुल!
          सचमुच, वह ताल वण्डरफुल था और अंग्रेजों के जाने के बाद भी बना रहा- 20 जुलाई 1970 की देर शाम तक।
          अंग्रेज बहुत अक्लमंद थे मगर देसी अंग्रेजों के सामने बेवकूफ साबित हुए। वे यह कतई नहीं जान पाए कि 1947 के बाद उनके देसी उत्‍तराधिकारी बिरही व अलकनंदा के जलागम क्षेत्रों का वह हाल कर देंगे कि तीन सौ फुट गहरा वंडरफुलगौना ताल पहाड़ों से गिरते पेड़, पत्‍थर और मलबे से पूरा पट कर एक रोज हरहरा कर टूट पड़ेगा और तब हरिद्वार तक मचने वाली भयानक विनाश लीला की चेतावनी देने के लिए न तार र होगा न घण्टी बजाने का इंतजाम!

         

          देवियों और देवताओं में ठन गई थी!
          पहाड़ों में हर नदी देवी है और हर पर्वत शिखर देवता। यहां हर नदी पवित्र है। हर पहाड़ी चोटी आशिष देती है।
          पहाड़ी चोटियां भरभरा कर ढहने लगीं थीं। हर बरसात में भूस्खलन होने लगे थे। पेड़, पत्‍थर और मिट्टी लिए पहाड़ टूट कर नदियों में गिरने लगे। नदियां उफन-उफन कर पहाड़ की छाती पर हमला कर उन्‍हें तोडऩे-बहाने लगी। नदियों के किनारे बने शिव मंदिर भी बाढ़ में बहने लगे।
          लोगों ने कहा- देवियों और देवताओं में संग्राम छिड़ गया है। आक्रण और प्रत्याक्रमण हो रहे हैं। लोग डर गए। पता नहीं क्‍या  होने वाला है। देवभूमि देवियों-देवताओं का अखाड़ा बन गई है!
          लेकिन धीरे-धीरे इस अगोचर युद्ध में बहुत कुछ गोचर होने लगा। कुछ लोग दिखाई देने लगे जो कम से कम देवी-देवताओं में नहीं थे। वे जीते-जागते मनुष्य थे जो गैंग बनाकर ने जंगलों में डेरा डाले थे। जो आरे-कुल्हाड़े लेकर पेड़ों का सफाया कर रहे थे। पहाड़ के सीधे-सादे लोग वर्षों से देख रहे थे कि उनके जंगल धीरे-धीरे साफ हो रहे हैं। पेड़ों को ढहा कर कुन्‍दों में बदला जा रहा है। कुन्दे चीरकर स्लीपर बनाए जा रहे हैं और ये बड़े-बड़े स्लीपर कभी तेज बहाव वाली नदियों में बहाकर, कभी गरारी के सहारे ूमते मजबूत तारों में लटका कर और फिर ट्रकों में लादकर कहीं दूर ले जाए जा रहे थे। धीरे-धीरे लोगों ने देखा खल्वाट पहाड़ों पर मिट्टी कटती-बहती जा रही है। पत्‍थर और चट्टानें मिट्टी से आजाद होकर लुढ़क रहे हैं।  मिट्टी और पत्‍थरों को अपनी जगह बांधे रखने वाली पेड़ों की जड़ें मुर्दा हो गई हैं। नदियां और ताल ढहते पहाड़ों के मलबे से पटते जा रहे हैं और चढ़ता पानी साल-दर-साल तबाही मचा रहा है।
          लोगों की आंखें खुलने लगीं। नहीं, यह देवियों-देवताओं का युद्ध नहीं है। यह आदमी की करामात है। आदमी की हवश ने वर्षों से पहाड़ों को बेतरह लूटा है और अब पहाड़ों और नदियों ने अपने इस शोषण के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है।
          गौना ताल टूटा, बेलाकूची बही और हरिद्वार तक विनाश लीला मची। होश आने पर लोगों ने देखा कुंवारी पर्वत, हेलंग, बिरही, पाताल गंगा और गरुड़ गंगा के जंगल सफाचट थे। थराली में पहाड़ टूटा, तबाही मची। लोगों ने पाया कि थराली का हरा-भरा जंगल लापता है। गेंवला व मातली में भारी भूस्खलन हुआ। तबाह लागों ने लाचारी में ऊपर निगाहें डालीं। पहाड़ नंगे थे। पिलखी, नंद गांव, अगस्त्य मुनि व पोखरी में जंगल सफाचट होने के बाद मूसलाधार बारिश विनाश लेकर आई। रांईआगर में मलबे से दबे रों के लोगों ने गौर किया कि धारमन्या का उनका लहलहाता बांज वन लुट चुका था और यह त्रासद सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता था।
          दिमाग के कपाट खुल रहे थे। लोग जो देख रहे थे और जो भोग रहे थे अब उसका रिश्ता भी जोडऩे लगे थे।
          1977 में तवाघाट में भारी तबाही हुई। 1978 में भागीरथी ने उत्‍तरकाशी जिले में प्रलय ढाया। 1979 में तवाघाट के कमजोर पहाड़ों ने पहले से तबाह गांवों पर फिर कहर बरपाया। 1980 में ज्ञानसू में भारी भूस्खलन से बहुत विनाश हुआ। ये बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं थीं और हर बरसात में दोहराई जा रही थीं, जिनमें अकूत नुकसान और बेहिसाब मौतें हुईं। लगभग साल भर होते रहने वाले वाले छोटे भूस्खलनों और जान-माल के नुकसान की कोई गिनती नहीं थी।
          दिमाग के कपाट पूरी तरह खुल चुके थे। देवियों-देवताओं के युद्ध की बात अब कोई नहीं करता था। लोग अच्‍छी तरह जान गए थे कि पहाड़ों से जंगलों का सफाया किया जा रहा है और चट्टानों में सुरंग बनाकर भयानक विस्‍फोट किए जा रहे हैं। कमजोर पहाड़ वनों के अवैज्ञानिक, अंधाधुंध व्यापारिक दोहन और विस्‍फोटकों के धमाकों को अब और सह पाने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। सदियों से पहाड़ों पर प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर रहते आए पहाडिय़ों के अस्तित्व पर ही खतरा मँडराने लगा था। हिमालय की यह पूरी पट्टी कई बार चेतावनी दे चुकने के बाद अब पूरी तरह विद्रोह पर उतारू हो गई थी।

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