Wednesday, June 18, 2014

शहरों में यूं ही नहीं बने ‘युद्ध’ के हालात


-नवीन जोशी

शुरुआती किस्सा लखनऊ का है लेकिन अपने देश के किसी भी शहर के लिए बराबर मौज़ूं है.

लखनऊ विकास प्राधिकरण ने पड़ोसी ज़िले बाराबंकी के 210 गांवों को लखनऊ की सीमा में शामिल करने का फैसला किया है. हर कुछ साल के अंतराल पर पड़ोसी ज़िलों के गांवों को राजधानी के दायरे में मिला लिया जाता है. कभी का छोटा सा लखनऊ आज विशाल महानगर बन गया है और लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसे अब और विस्तार के लिए ज़मीन मिल जाएगी और बाराबंकी के उन गांवों के निवासी खुशफहमी पाल सकते हैं कि वे भी राजधानी का हिस्सा बनकर कुछ ऐसी सुविधाओं के हकदार बन जाएंगे जो अब तक उनके हिस्से में नहीं थीं.

जितना बड़ा लखनऊ आज है, उसी में सामान्य मगर ज़रूरी नागरिक सुविधाओं का क्या हाल है? इस भीषण गर्मी में जबकि तापमान 47 डिग्री तक पहुंच जा रहा है, राजधानी के ज़्यादातर इलाकों में बिजली-पानी के लिए हा-हाकार मचा हुआ है. कई-कई मुहल्लों को 14 से 18 घंटे तक बिजली नहीं मिल रही. इनमें पॉश कही जाने वाली और वीआईपी कॉलोनियां भी शामिल हैं. त्रस्त जनता बिजली-पानी के लिए सड़कों पर उतरी हुई है. धरना-प्रदर्शन से लेकर बिजली उपकेन्द्रों में तोड़-फोड़ और अधिकारियों के घेराव किए जा रहे हैं. और यह सिर्फ इस बरस का किस्सा नहीं है.

मानसून आने वाला है. बारिश होगी तो बहुत से इलाके तालाब बन जाएंगे, सीवर उफन उठेंगे और घरों में गंदा पानी भर जाएगा. सड़कों से लेकर गलियों तक कचरा बजबजाएगा. तब दूसरी तरह की जटिल समस्याएं सिर उठाएंगी. हैज़ा, मलेरिया, वायरल बुखार और डेंगू जैसी जानलेवा बीमारियां फैलेंगी. सरकारी अस्पतालों में आम मरीज़ों के लिए जगह कम पड़ जाएगी. जो महंगे नर्सिग होम में इलाज नहीं करा सकेंगे वे भगवान भरोसे रहेंगे.
आखिर हमारे शहरों की ऐसी दुर्गति क्यों हो गई है? यह सवाल हम दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों के लिए भी पूछ सकते हैं.

सामान्य सा एक उदाहरण लेते हैं. राजधानी के एक मुहल्ले में साढ़े तीन-चार हज़ार वर्ग फुट में एक शांत कोठी थी. उसकी जगह अब 40 फ्लैटों वाली दस मंज़िला इमारत खड़ी है. पहले उस कोठी में एक संयुक्त परिवार रहता था. अब वहां 40 एकल परिवार बस गए हैं. पहले सीमित लोड वाला बिजली का एक कनेक्शन था, आज 40 कनेक्शन हैं और हर फ्लैट में एक या दो ए सी के कारण लोड कई गुना बढ‌‌ गया, जबकि सम्बद्ध उपकेंद्र की क्षमता लगभग वही है. उत्पादन बढ़ा नहीं लेकिन खपत कई गुना बढ़ गई. उपलब्ध बिजली का भी बड़ा हिस्सा जर्जर हो चुकी लाइनों से वितरण में छीझ जाता है. पुरानी कोठी में जिस पाइप लाइन से पानी आता था वह दस मंजिला इमारत में पानी नहीं पहुंचा सकती थी, सो बिल्डर महाशय ने ट्यूबवेल खुदवा दिया, जिसने तेज़ी से भूजल का स्तर गिराना शुरू कर दिया (कुछ वर्ष बाद और भी गहरा ट्यूबवेल खोदना पड़ेगा.) उस कोठी के सामने की सड़क पहले शांत रहती थी, अब कारों-मोटर साइकिलों की चिल्लप्पों मची रहती है. सड़क चौड़ी करने के लिए फुटपाथ खत्म कर दिए गए जिसके लिए वहां लगे छायादार पेड़ों की बलि ले ली गई. अब चूंकि सड़क और ज़्यादा चौड़ी नहीं हो सकती, इसलिए जाम लगाना लाजिमी है. वाहनों का शोर, प्रदूषण और दुर्घटनाएं बढ़ते जा रहे हैं.

यह एक मुहल्ले की एक कोठी का किस्सा था. इसे पूरे शहर पर लागू कर दीजिए. आवास विकास परिषद, विकास प्राधिकरण और कॉलोनाइजरों द्वारा शहर के मध्य और इर्द-गिर्द बनाई गई कॉलोनियों व अपार्टमेंट को भी इसमें जोड़ दीजिए. तालाबों, मैदानों और निजी जमीनों पर अवैध रूप से बनती जा रही इमारतों को भी इसमें शामिल कर लीजिए. रिहाइशी मकानों के बढ़ते व्यापारिक इस्तेमाल को इसी का हिस्सा मानना पड़ेगा और झुग्गी बस्तियों को इससे अलग कैसे रखा जा सकता है. विकास का ढांचा ही ऐसा बना दिया गया है कि प्रगति के लिए हर व्यक्ति गांवों से शहरों की तरफ भागने को मज़बूर है और शहरों का हर कोना बहुमंजिला इमारतों और झोपड़ पट्टियों से पटा जा रहा है.

अब अंदाज़ा लगाइए कि हमारे शहरों की, जो 25-30 वर्ष पहले तक सुकून भरे नगर थे, नागरिक सुविधाओं का क्या हाल नहीं हुआ होगा! इन नगरों की बिजली-पानी, जल निकासी, सफाई, सड़क, आदि की सीमित क्षमताएं थीं. अंधाधुंध निर्माण और विस्तार ने उन पर इतना भारी-भरकम बोझ डाल दिया कि वे चरमरा गईं. अब बिजली-पानी के लिए युद्ध जैसी स्थितियां क्यों नहीं होंगी? जरा सी बरसात में बाढ़ जैसे हालात क्यों नहीं बनेंगे? टनों कचरा सड़कों के किनारे कैसे नहीं सड़ता रहेगा? और बेशुमार वाहनों से सड़कें-गलियां कैसे नहीं पटी रहेंगी?

स्वाभाविक ही आप पूछेंगे कि शहरों के मास्टर प्लान का क्या हुआ? जी, मास्टर प्लान बने और बन रहे हैं. कागजों में वे हमारे शहरों को खूबसूरत बनाते दिखते हैं लेकिन शायद ही महानगर बनते किसी शहर में मास्टर प्लान का आंशिक पालन भी हुआ हो. किसी भी शहर के अगले 20-25 वर्षों के सुनियोजित विकास के लिए मास्टर प्लान अत्यंत ज़रूरी दस्तावेज़ होता है. इसीलिए यह नगर नियोजन का अनिवार्य हिस्सा है. मास्टर प्लान में शहर के चौतरफा विकास की योजनाएं यह ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं कि अगले दो-ढाई दशक में उसकी आबादी कितनी हो जाएगी, उसके लिए मूलभूत सुविधाओं की कितनी-कैसी ज़रूरतें होगी और वे कैसे पूरी की जाएंगी. इसमें मकानों की ज़रूरत से लेकर बिजली, पानी, सड़क, सीवर, यहां तक कि पर्यावरण तक को ध्यान में रखा जाता है. खेद है कि नगर नियोजन विभागों, विकास प्राधिकरणों और नगर निगमों ने अपने ही बनाए खूबसूरत मास्टर प्लान की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. नतीजा यह है कि जहां तालाब और पार्क होने चाहिए थे वहां बहुमंजिला इमारतें हैं, जहां सिर्फ आवासीय भवन होने थे वहां बेहिसाब निर्माण हो गए. सड़कों, मैदानों, पार्कों, बाज़ारों में अवैध कब्ज़े हो गए, नदियां नाला बन गईं और वे भी अतिक्रमण से पट गए तथा हमारे शहर अराजक एवं बेतरतीब विकास का नमूना बन कर रह गए.

इस सबके बावज़ूद शहरों को बड़ा, और बड़ा बनाया जा रहा है. नई दिल्ली, एन सी आर बन कर फैल रही है, मुम्बई में अब किसी नए व्यक्ति के लिए जगह नहीं बची और लखनऊ, बाराबंकी व उन्नाव में घुसा जा रहा है. कहां से आएंगी इनके लिए सुविधाएं? बेहतर मास्टर प्लान नए नगरों या शहर से दूर उप नगरों के विकास की वकालत करते हैं. बाराबंकी को लखनऊ में मिलाते जाने की बजाय बाराबंकी को ही लखनऊ से बेहतर क्यों नहीं बनाया जाता? केंद्र में सत्तारूढ़ हुई नई मोदी सरकार ने अपने एजेण्डे में एक सौ नए नगर बनाना भी शामिल किया है. चरमराते महानगरों से आबादी का बोझ कम करने के लिए यह बेहद ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है कि मास्टर प्लान का कड़ाई से पालन सुनिश्चित कराया जाए.

दुनिया भर में जिन खूबसूरत आधुनिक शहरों की चर्चा होती है वे अपने सुंदर मास्टर प्लान और उसके सुनिश्चित पालन के लिए जाने जाते हैं. इसके लिए पक्षपात रहित एवं दृढ़ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व, भावी पीढ़ी की ज़रूरतों के प्रति जागरूकता और प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान करने की दृष्टि चाहिए.
दुर्भाग्य से यही हमारे यहां लुप्तप्राय श्रेणी में आते हैं.  
  
 



2 comments:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
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सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सही लिखा है आपने - दृढ़ इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव है l मास्टर प्लान जैसा शब्द, मुझे लगता है, हमारे बीच से गायब हो चुका है l बढ़ती आबादी के दृष्टिगत भविष्य की क्या व्यवस्थाएं होनी चाहिये, इस पर अब कोई क्या सोचेगा, अब तो तात्कालिक समाधान भी मिलने मुश्किल हो गये हैं l आपका लेख बहुत खूबसूरत है और नगरों की समस्याओं और उसके कारणो की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है l