इस बार भी जामुन खूब फला है, मेरे घर के ठीक सामने पार्क में लगे पेड़ में. दिन भर पके जामुन टप-टप टपकते रहते हैं. कई तो जामुनी रंग बिखेरते हुए सड़क, फुटपाथ,पार्क की दीवार या छांह में खड़ी किसी कार की छत में फूट पड़ते हैं और जो साबुत रह जाते हैं उन्हें आते-जाते लोग बीन ले जाते हैं. बच्चे दिन भर ढेले मार कर कच्चे-पके फल गुच्छों समेत तोड़ने की फिराक़ में रहते हैं जिन्हें कभी-कभी भगाना भी पड़ता है. किसी दिन सुबह-सुबह कुछ लोग पेड़ पर चढ़े नज़र आते हैं पॉलीथिन की थैलियों में जामुन तोड़ते हुए. एक दिन तो चौराहे पर फल बेचने वाले पेड़ पर चढ़े दिखे. सौ-डेढ़ सौ रु किलो के भाव जो बिक रहा है.कभी-कभी लगता है कि इस पेड़ पर हमारा हक़ है. फिर ख्याल आता है कि कैसा हक़! बचपन में पहाड़ में सुनते थे कि पेड़ में पके फल पर सबका हक़ होता है. खैर,हमारे घर के सामने करीब एक महीना यह हलचल-हंगामा चलता रहेगा, जब तक जामुन पकते रहेंगे. फिर साल भर कोई इसकी ओर नहीं देखेगा. हां, इसकी छांह में बहुत सारे लोग बैठते हैं, ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों से लेकर घर-घर सामान बेचने वाली महिलाओं के जत्थे तक.
यह पेड़ बाबू का लगाया या कहिए
कि बचाया हुआ है. इसे देख कर उनकी याद आती है.
हम मई 1988 में पत्रकारपुरम
के इस मकान में रहने आये थे. एक सौ मकानों की कॉलोनी में हम पहले थे जो यहां रहने
आए. कई मकान अभी बन ही रहे थे जिनमें विलासपुरी मज़दूर परिवार समेत अपना ठिकाना भी
बनाए हुए थे. उसके अलावा ठेकेदार का चौकीदार कैलाश था जिसकी गालियों और झग़ड़ों से अक्सर
कॉलोनी गूंज जाती थी. बस! सांय-भांय करती तेज़ हवा चलती और पूरा घर बालू से भर जाया
करता था. आज कॉमर्सियल हो चुकी इस कॉलोनी की भीड़, शोर और
अट्टालिकाओं को देख कर कल्पना करना मुश्किल है कि शुरू में यह कितनी शांत और सुकून
भरी रिहायश थी. कितनी तेज़ी से शहरीकरण हुआ है और इस प्रक्रिया में लखनऊ के मास्टर
प्लान की निर्मम हत्या करने वाले खुद लखनऊ विकास प्राधिकरण और नगर निगम ही हैं.
बहरहाल, हमारे घर के
सामने का पार्क तब ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ था. इसे विकसित करने के नाम पर एलडीए ने
कांटेदार तार से इसे घिरवा कर चारों कोनों पर एक-एक पौधा लगवा दिया था. कांटेदार
तार कई जगहों से झूल गया था और आस-पास के गांवों की बकरियां और गाय-भैंसें अक्सर
पार्क में घुस आतीं. बाबू ने उन्हें भगाना अपनी ज़िम्मेदारी बना ली. वे सुबह-शाम
अपने नन्हे पोते को गोद में लिए कुर्सी पर बाहर बैठे रहते या टहलते और दिन में भी
खिड़की से देखते रहते. ज़रूरत होने पर हांका मारते. पार्क के दूसरे कोनों में लगे
पौधे पता नहीं कब नष्ट हो गये, उन्हें जानवर चर गए या कुचल गए या वे सूख गए. हमारे घर के
सामने वाला पौधा बचा रहा. जानवरों के खुरों से कुचला तो वह भी गया, कभी किसी ने
उस पर मुंह भी मारा ही होगा लेकिन बाबू की चौकसी से उसके प्राण बचे रहे. वे उसमें
पानी डालते, कभी गुड़ाई करते. वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा. जामुन के पौधे
के रूप में उसकी पहचान होने लगी.
कोई दो-तीन फुट का हुआ होगा
कि एक सुबह वह पूरी तरह जमीन पर बिछा दिखा. शायद बच्चों की फुटबॉल से वह औंधा हो
गया था. बाबू ने देखा तो चिंतित हो उठे. गनीमत थी कि नाज़ुक तना पूरी तरह अलग नहीं
हुआ था. बाबू ने उसकी मरहम-पट्टी की, मतलब उसे हौले से खड़ा किया, उसकी जड़ के
पास एक लकड़ी गाड़ी और डोरी के सहारे पौधे को उस लकड़ी से बांध कर खड़ा कर दिया. पौधा
जी गया. एक बार और उस पौधे को ज़रूरी सहारा देना पड़ा. तब उसकी ऊंचाई ठीक-ठाक हो गई
थी लेकिन आंधी से वह दोहरा हो गया था. तब बाबू ने उसे उठा कर एक रस्सी से कांटेदार
तार के साथ बांध दिया.
पौधा बचा रहा और क्रमश: पेड़
बनता गया. आज हमारे सामने वह खूब बड़ा, घना छायादार और फलदार पेड़ है. बाबू को दुनिया छोड़े बीस बरस
हो गए. उन्होंने इस पेड़ के जामुन नहीं चखे लेकिन उनकी वज़ह से कितने सारे लोग
साल-दर-साल इसके फल खा रहे हैं. सच ही तो कहा है कि पेड़ लगाता कोई है और फल आने
वाली पीढ़ियां खाती हैं. मुझे अच्छी तरह याद है, इसी कॉलोनी
में रहने वाले हमारे मित्र राकेश शुक्ला बाबू से कहा करते थे कि आप इस पौधे को बचा
तो रहे हैं लेकिन जब यह फल देने लगेगा तो आपके घर पर ही सबसे ज़्यादा पत्थर
बरसेंगे. राकेश का इशारा पत्थर मार कर फल तोड़ने वालों से था. बाबू बस मुस्करा
देते. वे बोलते बहुत कम थे मगर अपनी मुस्कराहट से बहुत कुछ कह देते थे. इन दिनों
कभी-कभी हम पत्थर मार कर जामुन तोड़ने वाले लड़कों से परेशान होते हैं लेकिन बाबू की
वह मुस्कराहट याद आ जाती है और गुस्सा काफूर हो जाता है. वह हंसी जैसे कहती है- पके
फलों पर तो सबका हक़ है न!और भला, बच्चों को पत्थर उछालने से कौन रोक सका है!
बाबू की याद दिलाता एक नीम का
पेड़ भी है. इसी पार्क में और जामुन के बगल में ही. उसका किस्सा भी मुझे भावुक बना
देता है.
बाबू जब नौकरी में थे तो
उन्हें कैनाल कॉलोनी (कैण्ट रोड पर सिंचाई भवन के पीछे) में एक क्वार्टर मिला हुआ
था. कई क्वार्टरों वाला वह बड़ा अहाता था और अहाते के बीच में नीम का बड़ा पेड था.
इसी क्वार्टर और अहाते में मैं छह से 27 साल की उम्र तक रहा. बाबू ने तो करीब 40
वर्ष वहां बिताए. बाद में किराए के मकानों से होते हुए हम गोमती नगर के
पत्रकारपुरम में आ गए. बाबू अक्सर पुराने साथियों से मिलने कैनाल कॉलोनी जाया करते
थे. मेरा बड़ा बेटा जब तीन-चार साल का था तो एक बार बाबू उसे भी ‘बब्बा का
बचपन का घर’दिखाने कैनाल कॉलोनी ले गए. गर्मियों के दिन थे और अहाते का
नीम खूब फला हुआ था. निमकौरियों से अहाता पट जाया करता था. जब वे लौटे तो मेरे
बच्चे की मुट्ठी निमकौरियों से भरी हुई थी. उसने बाल सुलभ उत्साह के साथ हमें
बताया कि इनको बोने से नीम का पेड़ निकलेगा. पुष्टि के लिए उसने बाबू की ओर देखा- ‘है ना बाबू?’बाबू के
चेहरे पर हमारी बहुत परिचित हंसी खेल रही थी और उनकी गरदन ‘हां’में हौले-हौले हिल रही
थी.
वे निमकौरियां बोई गईं. ज़ल्दी
ही उनसे नन्हे-नन्हे पौधे निकल आए. बेटा बाबू के साथ उनको सींचता और बड़ा होते
देखता रहता. बाद में उनमें से एक पौधा पार्क में जामुन की बगल में. पड़ोसी
प्रमोद जी की बिटिया के नाम पर बाबू ने उसे रिंकी नीम कहा. एक पौधा घर की पश्चिमी
चहारदीवारी के बाहर लगाया गया. उसे बेटे का नाम मिला, कंचन नीम. इन
पौधों को बचाने में भी बाबू की बड़ी भूमिका रही क्योंकि दातून करने के शौकीन नन्हे
नीम का सिर ही कलम करने पर उतारू रहते. चहारदीवारी के बाहर लगा नीम काफी बड़ा होने
पर आंधी में ढह गया और उसे दुखी हो कर कटवाना पड़ा.पार्क का रिंकी नीम खूब
आबाद है. हां, नीम का एक पौधा बाबू ने साथी महेश पाण्डे को भी दिया था. वह
भी आज उनके इंदिरा नगर वाले घर के सामने लहलहा रहा है. हम जब भी उस नीम के नीचे
खड़े होते हैं तो महेश याद करना नहीं भूलते कि यह नीम बाबू का दिया हुआ है.
कैनाल कॉलोनी का वह अहाता अब
काफी बदल गया है लेकिन वह बूढ़ा नीम अब भी वहां खड़ा है. वह नीम मेरी बचपन की
स्मृतियों का अभिन्न हिस्सा है. उसी का एक वंशज़ हमारे पत्रकारपुरम वाले जीवन का
साक्षी बना खड़ा है. क्या बाबू ने सोच-समझ कर ही अपने पोते को कैनाल कॉलोनी से
निमकौरियां लाने की प्रेरणा दी होगी?
इन दिनों हमारे घर के सामने
टपकते जामुन अपना चटक रंग बिखेर रहे हैं. ज़ल्दी ही पकी हुई पीली-पीलीनिमकौरियों से
यह सड़क पट जाएगी.
-नवीन जोशी
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