बप्पा श्री नारायण वोकेशनल
इण्टर कॉलेज, लखनऊ में कक्षा नौ और दस के अपने अध्यापक श्री राम मिश्र उर्फ छंगा मास्साब
को मैं हमेशा ही याद करता हूँ. उनका उदाहरण भी दिया करता हूँ. शिक्षक दिवस पर ही
उन्हें याद करने का मतलब नहीं है. सोचता था कि उनके बारे मैं लिख कर आज के
शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों को बताऊं कि ऐसे भी शिक्षक होते थे. आज फेसबुक पर वह
घड़ी आई. आप भी इसे पूरा पढ़ें तो अपने परिचित शिक्षकों को फॉरवर्ड करें.
मैं पहाड़ के ‘भुस्स’ गांव से पढ़ने के लिए
लखनऊ लाया गया था. गांव में स्कूल बहुत दूर था. रिश्ते में भिनज्यू (फूफा जी) नन्दाबल्लभ
तिवाड़ी मुझे घर पर ही पढ़ाते थे. बहुत सख्त लेकिन गणित और हिंदी के बहुत बढ़िया
मास्टर. कान उमेठते तो प्राण तक सिहर जाते लेकिन उनका ऋणी हूँ. मेरी खूबसूरत
हैण्डराइटिंग भी उन ही की देन है. उन ही की रखी मज़बूत नींव का नतीज़ा था कि मैं
लखनऊ के बप्पा श्री नारायण बेसिक एवं नर्सरी इंस्टीट्यूट में सीधे कक्षा तीन में
भर्ती कर लिया गया हालांकि अंग्रेज़ी का ‘ए’ भी आता नहीं था.
लखनऊ लाने की ज़िद चूंकि भाई साहब (पूरन दाज्यू) ने की थी
इसलिए मुझे पढ़ाने का ज़िम्मा भी उनका था. वे दफ्तर जाने से पहले सुबह और आने के बाद
शाम को मेरी खूब रगड़ाई करते. कंचे-पिन्नी और पतंगबाजी में ज़ल्दी ही उस्ताद हो चुके
इस पहाड़ी बालक को उन्होंने अंग्रेज़ी भी सिखाने में कोई कसर नहीं रखी. बाकी विषयों
में सर्वाधिक और अंग्रेजी में अनुग्रहांक (ग्रेस मार्क्स) पाकर कुछ कक्षाएं पार हुईं.
छठी-सातवीं तक अंग्रेजी में पास-मार्क्स भी आने लगे तो कक्षा में पहला-दूसरा स्थान
भी मिलने लगा.
नौवीं कक्षा में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले क्लास टीचर श्री राम
मिश्र ने क्लास के ‘होशियार’ लड़के से पहला पाठ पढ़कर पूरी
क्लास को सुनाने को कहा. ‘वोरल्ड’ और ‘क्नोलेडगे’ जैसे उच्चारण सुन कर उनका दिमाग चकराया.
मैं हिंदी की तर्ज़ पर ही अक्षर-अक्षर जोड़ कर अंग्रेजी शब्द पढ़ता था. इन शब्दों से
पहले पाला पढ़ा न था. क्लास में खूब हंसी हुई और मास्साब ने जोर-जोर से डांटा ही
नहीं आठवीं के रिजल्ट पर शंका भी जाहिर कर दी. रोने के अलावा और क्या किया जा सकता
था!
इण्टरवल में सारा फ्रस्टेशन गेंदताड़ी में उतारा. सींकिया
हाथों से पूरा जोर लगाकर साथियों को ऐसी गेंद चिपकाई कि उनके बदन में लाल-लाल निशान
पड़ने लगे. खेल चल ही रहा था कि ‘जोशी-जोशी’ की पुकार
हुई. मैदान के कोने से मास्साब पुकार रहे थे. वही, अंग्रेजी
वाले मास्साब. वे एक खाली क्लास में ले गए. सभी विषयों में अव्वल नम्बर लाने वाला लड़का
अंग्रेजी में फिसड्डी क्यों है, यह जान चुकने के बाद उनका
निर्देश मिला कि रोज स्कूल की छुट्टी के बाद फौरन घर नहीं जाना है, क्लास ही में बैठे रहना है.
फिर शुरू हुई अंग्रेजी की अतिरिक्त पढ़ाई. हर रोज़ स्कूल की
छुट्टी के बाद. मास्साब उस समय जिस भी क्लास में होते, चॉक
से सफेद हाथ लिए मेरी क्लास में चले आते. सामने बैठा कर एक घण्टा मेरी क्लास चलती.
ग्रामर, वर्ड-मीनिंग, ऑपोजिट, एक्टिव वॉइस-पैसिव वॉइस, डायरेक्ट-इनडाइरेक्ट नरेशन, वगैरह-वगैरह. कभी-कभी इण्टरवल में भी बुला लेते.
छुट्टी होते ही लड़के चिल्लाते- ‘अबे
जोशी, ज़ल्दी भाग, छंगा आ जाएगा.’ कई दफा मैं भागा भी. मास्साब को पता था कि हम कहां कबड्डी खेल रहे होंगे
या कहां आइस-पाइस चल रही होगी. वे मुझे वहीं से पकड़ ले आते और पढ़ाते. मैं मन ही मन
चिढ़ता, उन्हें कोसता, कि कहां छंगा के
चक्कर में फंस गया.
हां, मास्साब को सब लड़के छंगा कहते थे. उनके एक
हाथ के अंगूठे में एक और अंगुली-सी निकली थी, इसलिए. छंगा
मास्साब का पूरा शरीर हलके-हलके कांपता था और आवाज लड़खड़ाती थी. बोलते तो उनके मुंह
से थूक के छीटे निकलते. जोश में पढ़ाते समय तो और भी ज़्यादा. मैदान से छुपन-छुपाई
की चीखें उठतीं और मेरा किशोर मन उधर ही भागने लगता. मास्साब मेरे मन को भी पकड़
लाने की कला जानते थे. कांपते हाथों के इशारों, लड़खड़ाती
जुबान और थूक के छीटों के बीच मेरी एक्स्ट्रा क्लास, छुट्टियों
को छोड़कर, पूरे दो साल चली. धीरे-धीरे मेरा भी मन लगने लगा
और उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी.
यू पी बोर्ड का 1971 का हाई स्कूल का रिजल्ट आया तो हमारे
कॉलेज में दो लड़कों को फर्स्ट डिवीजन मिली. पहले स्थान पर हरि शंकर शुक्ल और दूसरे
स्थान पर नवीन चंद्र जोशी. हम दोनों के नाम स्कूल के बोर्ड पर लिखे गए.
मैं गर्मियों की छुट्टी से पहाड़ से लौटा तो मार्क्स शीट लेने
के लिए कॉलेज गया. छंगा मास्साब जैसे मेरी ही राह देख रहे थे. बिना कुछ बोले वे
मेरा हाथ थाम कर स्कूल बोर्ड के पास ले गए. अपने कांपते हाथ की अंगुली उन्होंने
मेरे नाम की तरफ उठाई. उनका चेहरा अद्भुत रूप से दमक रहा था और आंखों में कुछ तरल
सा भी तैर रहा था.
तभी किसी साथी ने मुझे पुकारा और मैं मास्साब से हाथ छुड़ा
कर उसकी तरफ दौड़ गया. फिर मास्साब से मेरी कभी भेंट नहीं हुई. इण्टर करने के लिए
मैं पड़ोस के केकेसी चला गया था.
आज सोचता हूँ कि मैं कितना नाशुक्रा निकला. उन्हें एक टुकड़ा
मिठाई खिलाना तो दूर, उनके पैर भी नहीं छुए. तब इतना भी ख्याल नहीं आया था कि उनको
थैंक-यू ही कह दूं. थैंक-यू कहना आपने क्यों नहीं सिखाया था,
मास्साब! लेकिन क्या उन्हें थैंक-यू की ज़रूरत थी?
तब कम से कम मैंने ट्यूशन और कोचिंग के नाम भी नहीं सुन रखे
थे. यह तो वर्षों बाद समझा कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया.
पता नहीं उस दिन वे कितनी देर स्कूल बोर्ड के सामने खड़े
फर्स्ट डिवीजन के नीचे लिखे मेरे नाम को देखते रहे होंगे. मेरी थैंक-यू या मिठाई
क्या उन्हें शिक्षक होने का वह सुख-संतोष दे सकते थे जो मैंने उस दिन उनके चहरे की
दमक में देखे थे?
तो भी थैंक-यू, सर. थैंक-यू अ लॉट. आप थे तो इस अंग्रेजीदां
दुनिया में अपनी भी ठीक-ठाक कट गई.
1 comment:
वाह! नमन है ऐसे गुरु जी को 🙏🙏।
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