Thursday, August 27, 2015

हमारे अस्पताल, डॉक्टर और बेचारे मरीज


चंद रोज़ पहले लखनऊ मेडिकल कॉलेज के ट्रॉमा सेण्टर की लिफ्ट में फंस कर एक मरीज की मौत हो गई और दो डॉक्टर बेहोश हो गए. उस महिला मरीज को अस्पताल ही के एक वार्ड से ट्रॉमा सेंटर इसलिए ले जाया जा रहा था कि उसे ज़्यादा सघन चिकित्सा की ज़रूरत थी. वह तो उसे नहीं मिली लेकिन ट्रॉमा सेण्टर की लिफ्ट में कई घण्टे फंसे रहने पर मौत ज़रूर हासिल हो गई. उससे दो रोज़ पहले आगरा मेडिकल कॉलेज में वेंटीलेटर पर रखे गए दो शिशुओं की मृत्यु इस कारण हो गई कि बिजली चली गई थी और वेण्टीलेटर को बिजली आपूर्ति का वैकल्पिक इंतज़ाम नहीं हो सका. लोहिया अस्पताल, लखनऊ का एक डॉक्टर इन दिनों इसलिए जेल में है क्योंकि उसने 24 साल के एक युवक का एक निजी अस्पताल में ले जाकर इतनी लापरवाही से ऑपरेशन किया कि उसकी मुख्य धमनी कट गई और एक प्रतिभाशाली युवक का दुखद अंत हो गया. यह खबर भी बिल्कुल ताज़ा है कि मेडिकल कॉलेज के पास की एक पैथॉलॉजी और ब्लड बैंक नाबालिगों का खून पांच-पांच सौ रुपए में खरीद कर बेचता था और प्रशासन के छापे में पता चला कि उसके पास रक्त की आवश्यक जांचें (जिनमें हेपेटाइटिस बी, सी और एचआईवी जैसे घातक संक्रमण शामिल हैं) करने के उपकरण तक नहीं थे.
सरकारी अस्पतालों की बदहाली, बेरुखी, अमानवीय व्यवहार और चिकित्सा को धन्धा बना रहे डॉक्टरों के कारनामे अक्सर सामने आते रहते हैं. नर्सिंग होम के नाम पर चल रही चिकित्सा-दुकानों के दहला देने वाले किस्से भी पढ़ने-सुनने को मिलते हैं. अब यह बहुत आम हो गया है कि सरकारी अस्पताल हो या निजी नर्सिंग होम, मरीज की मौत पर तीमारदार खूब हंगामा करते हैं. उनका आरोप होता है कि गम्भीर मरीज को लम्बे समय तक देखने डॉक्टर नहीं आए या डॉक्टर ने लाहरवाही की या मरीज की मौत हो जाने के बाद भी रुपए वसूलने के लिए उसे आईसीयू में रखे रहे. अस्पताल में तोड़-फोड़ और डॉक्टरों से दुर्व्यवहार और मारपीट की खबरें भी अक्सर ही आती हैं. इसी कारण कई बार डॉक्टर हड़ताल करते हैं जिसका नतीज़ा भी मरीज और तीमारदार ही भुगतते हैं. डॉक्टर और तीमारदारों का टकराव बढ़ता जा रहा है. यह पवित्र पेशा सामान्य बनती जा रही इस धारणा से बदनाम हो रहा है कि यह ज़्यादा से ज़्यादा धन कमाने का व्यवसाय बन गया है.
अस्पतालों की बदहाली और डॉक्टरों की लापरवाहियों के ढेरों किस्सों के बावज़ूद सच यह है कि अस्पतालों-डॉक्टरों के बिना जनता का काम नहीं चलता. इलाज़ के लिए उन्हें उन्हीं के पास जाना होता है. शोषण और लापरवाहियों के मामलों की तुलना में हज़ारों गुना किस्से ऐसे होते हैं जब डॉक्टरों ने मरीज़ों की जान बचाई, कई बार चमत्कारिक ढंग से और अनेक बार सम्पूर्ण समर्पण से. ऐसे डॉक्टर भी कम संख्या में नहीं हैं जो मरीज़ों के प्रति पूरी तरह ईमानदार रहते हैं लेकिन जनता और मीडिया में इनकी चर्चा कम ही होती है. एक गड़बड़ मामला तमाम अच्छाइयों को दबा देता है.
इस दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई की जड़ें हमारी चिकित्सा व्यवस्था में ही हैं. सरकारों ने कभी जन स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता में नहीं रखा. स्वास्थ्य नीति के तहत साल-दर-साल नए-नए अस्पताल बनाए जाते हैं, डॉक्टरों और पैरा-मेडिकल स्टाफ की तैनाती की जाती है, मुफ्त में कुछ जांचें और दवाइयां देने के ऐलान होते रहते हैं लेकिन यह कभी सुनिश्चित नहीं किया जाता कि यह पूरा तंत्र सेवा और समर्पण भाव से काम करे. इसके लायक स्थितियां भी बनाने की चिंता नहीं की जाती.
पहली गड़बड़ यह है कि चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार दूर-दराज इलाकों तक नहीं किया गया. बड़े अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, सुपर स्पेसिलिटी संस्थानों का केंद्र राजधानियां और बड़े शहर ही रहे. आज भी ग्रामीण इलाकों में जो प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं वे सामान्य मरीजों की ज़रूरतें भी पूरी नहीं करते. अक्सर वहां डॉक्टर, स्टाफ और दवाएं तक उपलब्ध नहीं रहते. यह विडम्बना ही है कि इन स्वास्थ्य केंद्रों की तुलना में आम ग्रामीण झोला छाप डॉक्टरों के पास ज़्यादा जाता है जो उसे और ज़्यादा बीमार ही बनाते हैं. नतीज़ा यह कि शहरों के अस्पताल दूर-दराज तक के मरीजों से भरे रहते हैं. वहां हमेशा डॉक्टरों, स्टाफ, जांच सुविधाओं से लेकर बिस्तर तक की कमी पड़ जाती है. दिल्ली का एम्स देख लीजिए या लखनऊ-चंडीगढ़ के पीजीआई, वहां रेलवे स्टेशनों की तरह भीड़ आखिर क्या साबित करती है? डॉक्टर चाह कर भी हर मरीज पर उतना ध्यान नहीं दे सकते जितनी जरूरत होती है. अनुपलब्ध डॉक्टरों, बरामदों तक में बेहाल पड़े मरीजों, खराब मशीनों, टूटे स्ट्रेचर-बेड, चिड़चिड़े स्टाफ जैसी ज़्यादातर शिकायतें मरीजों के इसी बढ़ते बोझ का नतीजा नहीं हैं क्या?
सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों की इस चरमराती व्यवस्था ने दूसरी बड़ी बीमारी पैदा की. हर शहर और कस्बे कुकुरमुत्तों की तरह नर्सिंग होम खुल गए. सरकारी अस्पतालों से आज़िज़ मरीजों से ये नर्सिंग होम भरने लगे जहां आम तौर पर डॉक्टर जरूरत के अनुसार ठेके पर बुलाए जाते हैं और बाकी समय पैरा मेडिकल स्टाफ के नाम पर अप्रशिक्षित कर्मचारी मरीजों की जान से खेलते हैं. उन्हें सामान्य मेडिकल हाईज़ीन का भी ज्ञान नहीं होता. इन नर्सिंग होमों में जटिल ऑपरेशन तक बिना अत्यावश्यक प्रॉटोकॉल अपनाए (जैसे बेहोश करने से पहले की आवश्यक सघन जांच-पड़ताल) कर दिए जाते हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण पोस्ट-ऑपरेटिव केयर के लिए दक्ष मेडिकल स्टाफ मौजूद नहीं होता. अनेक बार इसी कारण मरीज की जान चली जाती है. तीमारदार नहीं समझते कि ऑपरेशन के बाद किस तरह संक्रमण हो जाते हैं और वे कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं. वे स्वाभाविक ही सारा दोष डॉक्टर के सिर मढ़ते हैं. यहीं यह प्रश्न भी उठता है कि निरंतर खुल रहे निजी मेडिकल कॉलेजों से कैसे डॉक्टर तथा पैरा-मेडिकल स्टाफ पास होकर निकल रहे हैं?
डॉक्टरी के पवित्र पेशे को धन कमाऊ धंधा बना देने वाले और मरीजों की जान से खेलने वाले डॉक्टर संख्या में नगण्य होंगे. मीडिया में इन ही की करतूतें उछलती हैं और समस्त डॉक्टर समुदाय बदनाम हो रहा है. एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने चंद रोज पहले मुझसे कहा कि अब तो मरीज को छूने में डर लगने लगा है. ऐसा नहीं है कि सेवा भाव और समर्पण से काम करने वाले डॉक्टर धन नहीं कमा पाते लेकिन लिप्सा का कोई अंत नहीं होता. यह बात जितनी नेताओं-अफसरों के लिए सही है उतनी ही डॉक्टरों के लिए भी.
स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की असली कवायद चिकित्सा सुविधाओं को दूर-दराज के इलाकों की जनता तक पहुंचाने से ही हो सकती है. बड़े शहरों में सुपर स्पेसिलिटी चिकित्सालयों की भी ज़रूरत है लेकिन सामान्य इलाज़ की मुकम्मल व्यवस्था सुदूर गांवों-कस्बों तक पहुंचाए बिना बड़े अस्पताल अराजकता और अव्यव्स्था के अड्डे बने रहेंगे, निजी नर्सिंग होमों का धंधा चमकता रहेगा और डॉक्टर-तीमारदार विवाद भी बढ़ते जाएंगे. हर प्रदेश में दो-दो, चार-चार एम्स खोल दीजिए तो भी हालात नहीं सुधरने वाले क्योंकि हमारी बहुत बड़ी आबादी में मरीज बेशुमार हैं. उन्हें जरूरी और संतोषजनक इलाज अपने निकटतम क्षेत्र में मिलना चाहिए. विशेषज्ञ चिकित्सा और सलाह के लिए ही वे बड़े अस्पताल आएं.
फिलहाल यह दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि हमारी सरकारें इस दिशा में सोच ही नहीं रहीं. जन स्वास्थ्य और सस्ती एवं सुलभ चिकित्सा उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं. लेकिन क्या उनसे इतनी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि किसी मेडिकल कॉलेज के ट्रॉमा सेण्टर की लिफ्ट में फंस कर मरीज की मौत न हो, नवजात शिशुओं की जान बचा रहे वेण्टीलेटरों को निर्बाध बिजली मिलती रहे, बिजली जाने के कारण जरूरी ऑपरेशन टालने न पड़ें, आईसीयू में ऑक्सीजन का पर्याप्त भण्डार मौज़ूद हो और मरीज की जान बचाने के लिए चढ़ाया जा रहा खून उसे जानलेवा बीमारी न दे दे? क्या यह इतना मुश्किल है? क्या नर्सिंग होम के लिए बने नियमों का पालन करवाना सरकार व प्रशासन के लिए असम्भव है?
और, डॉक्टर खुद सोचें कि जब शॉपिंग मॉलनुमा विशाल अस्पताल नहीं थे और चिकित्सा विज्ञान भी इतना उन्नत नहीं था तब डाक्दर बाबू को जनता भगवान की तरह क्यों पूजती थी. आज चिकित्सा विज्ञान की चमत्कारिक प्रगति के बावज़ूद वे अपना सम्मान क्यों नहीं बचा पा रहे.
(तनिक सम्पादित होकर 'नव भारत टाइम्स' में 26 अगस्त 2015 को प्रकाशित)

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