लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध व्यक्त करने के बहुत से तरीके प्रचलित हैं-
धरना-प्रदर्शन, आंदोलन, भूख हड़ताल, वगैरह-वगैरह. हमारे यहां
कभी-कभार कुछ अन्य तरीके भी देखे जाते रहे
हैं, जैसे- सड़कों पर झाड़ू लगाना, जूते पॉलिश करना. कभी डॉक्टर तो कभी इंजीनीयर, कभी अन्य सम्वर्ग के कर्मचारी-अधिकारी अपनी मांगों की ओर
ध्यान आकृष्ट करने के लिए झाड़ू लगाते या जूता पॉलिश करते दिखाई देते हैं. इसे बड़ा
शालीन, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीका
माना जाता है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?
पिछले दिनों कुछ रंगकर्मियों ने राजधानी में प्रेक्षागृहों की खराब हालत और
उनकी मांगों पर संस्कृति विभाग के ध्यान न देने के विरोध में प्रेक्षागृहों और
चौराहों पर झाड़ू लगाई थी. अब कलाकार ऐसोसियेशन ने ऐलान किया है कि रंगकर्मी इसी
शनिवार को कतिपय प्रेक्षागृहों और चौराहों पर लोगों के जूते पॉलिश करेंगे. इससे जो
पैसा जमा होगा उसे संस्कृति विभाग को देंगे जो हमेशा बजट का रोना रोया करता है.
झाड़ू लगाना और दूसरों के जूते पॉलिश करना विरोध के तरीके क्यों बनाये गये? इसीलिए न कि ये दोनों काम बहुत निकृष्ट माने गये हैं, इन्हें करने वाले बहुत उपेक्षित और शोषित जन हैं? जब डॉक्टर या इंजीनीयर या अब कलाकार अपने आंदोलन के तहत सड़क
पर जूते पॉलिश करने उतरते हैं तो यही दिखाना चाहते हैं न कि देखिए, हमारी इतनी उपेक्षा हो रही है कि हमें इतने निकृष्ट काम तक
करने पड़ रहे हैं? हमारे समाज में यही
सबसे छोटा और निकृष्ट काम है.
क्या विरोध का यह तरीका उन लोगों का अपमान नहीं है जो सदियों से ऐसे काम करने
के लिए अभिशप्त हैं? यह बात अक्सर हमारे
दिमाग में आती रहती थी लेकिन जब रंगकर्मियों ने भी विरोध का यही तरीका अपनाया तो
परेशानी बढ़ी. कलाकार, रंगकर्मी बहुत
सम्वेदनशील व्यक्ति होते हैं. वे क्या यह नहीं समझ
पा रहे कि उनके इस विरोध प्रदर्शन से संस्कृति विभाग के जिम्मेदारों पर असर हो-न
हो, जूता पॉलिश और सफाई के पेशे से
जुड़े लोगों का अपमान जरूर होता है?
सड़क किनारे किसी कोने में बैठे, जूते-चप्पलों की
मरम्मत करते, पॉलिश रगड़ते उस
दीन-हीन व्यक्ति को देखिए जो पूरी निष्ठा से अपने काम में जुटा रहता है ताकि शाम
तक परिवार की रोटी का जुगाड़ हो जाए. उसे हमारी वर्ण-व्यवस्था ने किसी और काम के
लायक नहीं होने दिया. उस मोची की भूमिका जब कोई कलाकार मंच पर निभाता है तो अपने
अभिनय को ऊंचाइयों पर ले जा रहा होता है. सड़क पर आप उसे अपने विरोध का हथियार कैसे
बना सकते हैं?
चौराहे पर मंत्रोच्चार और वेद-पाठ विरोध का तरीका क्यों नहीं बना? झाड़ू और पॉलिश ही क्यों? कम
से कम सम्वेदनशील रंगकर्मियों को क्या इस पर विचार नहीं करना चाहिए? विरोध प्रदर्शन के और भी बहुत तरीके हो सकते हैं.
प्रेक्षागृहों की दयनीय हालत पर नुक्कड़ नाटक तमाम चौराहों, संस्कृति विभाग,अधिकारियों
व मंत्रियों के दरवाजे पर किये जा सकते हैं. जूता पॉलिश से कमाया पैसा जमा कर
संस्कृति विभाग को शर्मिंदा करना है तो उसके भी बहुत से तरीके निकाले जा सकते हैं.
संस्कृति-कर्मियों के पास नये-नये विचारों की कमी है क्या?
वैसे, जबसे प्रधानमंत्री
और उनकी देखा-देखी मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों-अफसरों ने झाड़ू पकड़ी है, तबसे यह सम्मानजनक प्रदर्शन बन गया है. मूल कर्म भले
निकृष्ट हो, उसका सार्वजनिक प्रदर्शन
राष्ट्रीय-कर्म बन चुका. अब आंदोलनकारी विरोध स्वरूप सड़कों पर झाड़ू लगाएंगे तो उसे
स्वच्छता अभियान का अंग समझ कर उनकी सराहना ही की जाएगी. विरोध का यह तरीका तो
फुस्स हो गया. बचा जूता पॉलिश. वह भी कभी सम्मान पाएगा?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 4 नवम्बर, 2017)
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