Friday, April 20, 2018

हमारे समाज का पानी मर गया है


मुहल्ले में सड़क किनारे सुबह-शाम पानी का फव्वारा-सा फूटता देख कर हमने अपने एक पड़ोसी से कहा- शायद यह आपका कनेक्शन लीक कर रहा है. तपाक से उनका जवाब आया- हमने तो बोरिंग करवा रखी है. पब्लिक कनेक्शन जुड़वाया ही नहीं. वे इस तरह हंसे जैसे कि हम पर दया कर रहे हों- जल संस्थान के कनेक्शन पर निर्भर बेचारा! खैर, हमने जल संस्थान में शिकायत दर्ज कराई और पानी का वह रिसाव बंद करा दिया गया.

कॉलोनी के ज्यादातर घरों में डीप बोरिंग है. राजधानी में बिजली की बहुत समस्या नहीं होती. चौबीस घण्टे पानी की बहार. जब चाहिए बटन दबाइए, गाड़ी धोइए और सड़क तर कीजिए, लेकिन कब तक? जिनकी बोरिंग कुछ साल पुरानी है वे शिकायत करते हैं कि पहले जैसा पानी नहीं आता या बोरिंग बेकार हो चुकी, रि-बोर कराना पड़ेगा.

पिछले दिनों नगर निगम के अधिकारियों के हवाले से एक रिपोर्ट पढ़ी थी कि लखनऊ के हर दूसरे-तीसरे घर में सब-मर्सिबल पम्प लगे हैं. जल संस्थान के नलकूप अलग हैं, जिन्हें हर कुछ वर्ष में और गहरा करना पड़ता है. नगर निगम ने खुद भी सभासदों या किसी बड़े की सिफारिश पर कई जगह सब-मर्सिबल पम्प लगाये हैं.
पानी का व्यापार करने वालों ने भी जघ-जगह बोरिंग करा रखी हैं. जमीन से पानी का निरंतर दोहन करके वे पानी बेचते हैं. पानी की मांग साल भर बनी रहती है. गर्मियों में बहुत बढ़ जाती है. पानी के बड़े-बड़े जरकिन लेकर सप्लाई पर निकली गाड़ियां शहर में कहीं भी देखी जा सकती हैं. शहर के कई मुहल्ले पानी को तरसते हैं. वे चार-पांच सौ रु महीने पर इन्हीं से पानी खरीदते हैं. बाजारों-मुहल्लों में वैध-अवैध दुकानों में पानी के यही व्यापारी जरकिन सप्लाई करते हैं.

साल में करीब दो हजार रु जल-कर चुकाने वाले हमारे जैसे लोग जल संस्थान की दो टाइम की सप्लाई के भरोसे बैठे पानी का यह अंधाधुंध दोहन आउर अनियंत्रित व्यापार देखते रहते हैं. सब-मर्सिबल वालों को कोई कर नहीं चुकाना पड़ता. किसी सरकारी एजेंसी के पास यह रिकॉर्ड नहीं है कि राजधानी में कितने निजी सब-मर्सिबल लगे हैं और वे जमीन से मुफ्त में कितना पानी खींच रहे हैं. आपके पास पैसे की कमी नहीं है तो बोरिंग करवा लीजिए. कोई पूछने वाला नहीं. न किसी से इजाजत लेनी है, न कोई कर चुकाना है और जब जितना चाहे पानी उड़ाइए.

यह हमारी नगरीय व्यवस्था का सच है. हर साल पानी का संकट बढ़ता जा रहा है. जमीन में पानी का स्तर निरंतर घट रहा है और बारिश का पानी भूमि में जाने के रास्ते लगभग बंद हो चुके हैं. हम बड़े पानी संकट के मुहाने पर खड़े हैं. पैसे वाले सोचते हैं कि वे पैसे के बल पर सब कुछ खरीद सकते हैं. अभी तो खरीद ही रहे हैं. बाद की, अपनी ही अगली पीढ़ियों की किसे चिंता है.

इस बीच खबर आयी कि लोक भवन (मुख्यमंत्री के नये दफ्तर) के पीछे खुदाई में एक पुराना कुआं निकला. कुआं गहरा था तो सुरंग होने की अफवाह उड़ी. सब-मर्सिबल के जमाने में कुओं को सुरंग ही समझा जाएगा! अधिकारियों ने उसे बंद करवा दिया. यह हमारी व्यवस्था की समझ का हाल है. कुएं और तालाब पाट दो और वाटर हार्वेस्टिंग के लिए नालियां खोदो. लखनऊ के तालाब और कुएं ही बचा लिए होते तो न पानी की इतनी किल्लत होती न वाटर हार्वेस्टिंग का ड्रामा करना पड़ता.

अपनी नदियों, तालाबों, कुओं को कंक्रीट से पाट देने वाले समाज का पानी मर ही जाता है.   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 अप्रैल, 2018)


No comments: